जीवन शतक को अगले वर्ष पूरा करनेवाले रामदरश मिश्र को कौन नहीं जानता। वह सात दशकों से साहित्य की दुनिया में सक्रिय है। उन्होंने साहित्य की हर विधा में लिखा है। सरस्वती सम्मान और साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त मिश्र जी की पत्नी को कौन जानता है। 74 साल का वैवाहिक जीवन कम नहीँ होता। उनकी पत्नी अपने पति की प्रथम श्रोता भी रहीं हैं। हिंदी के इस सर्वाधिक बुजुर्ग लेखक को तो सब जानते हैं लेकिन उनकी सहचरी को कम लोग जानते हैं।
सुपरिचित कथाकार मीना झा ने लेखकों की पत्नियां शृंखला में रामदरश मिश्र की पत्नी के लिए सविस्तार लिखा है।
“90 साल की सहचरी 74 साल से हमसफर”
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– मीना झा
“किसी को गिराया न खुद को उछाला
कटा जिन्दगी का सफ़र धीरे धीरे जहाँ आप पहुँचे छलांगे लगाकर वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे !” ये पंक्तियाँ मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र ने यूँ ही नहीं लिखी होंगी| जिंदगी के इस सफ़र में कोई तो ऐसा हमसफ़र था, जिसने उन्हें ये हौसले दिये|मूल्यों के भयानक विघटन के इस पतनकाल में क्या कोई मानव सहजता से मूल्यों के उत्कर्ष सहेज सकता है?प्रश्न यह है कि जहाँ बुद्धिजीवियों पर छद्म बुद्धिजीविता सवार है, उत्कृष्ट सृजन पर औसत लेखन सवार है, सार्थक महत्वपूर्ण साहित्य पर लाभ-लोभ के आंकड़े नृत्य कर रहे हैं ,साहित्य की नैतिकता विज्ञापनों से खेल रही है;वहाँ एक विद्वान आपने आदर्शों को कैसे जीवित रख पाया? जाहिर है अगर कोई निष्ठावान साथी कंधे से कंधा मिला कर दुश्वार राहों पर चलने को तैयार हो,तो क्यों नही !रामदरश मिश्र की पत्नी ,सरस्वती मिश्र एक ऐसी ही सरल ,सहज और स्नेहिल महिला हैं|
27 जून ,2022 साहित्य एकेडमी सभागार |साहित्य मनीषी डॉ. मिश्र को, उनके काव्य संग्रह ‘मैं तो यहाँ हूँ’ के लिए के.के. बिरला फाउंडेशन की तरफ से दिये जाने वाले सरस्वती सम्मान अर्पण समारोह का आयोजन चल रहा था|यह सम्मान प्रशस्तिपत्र एवं पंद्रह लाख नगद राशि के रूप में दिया जाता है|कार्यक्रम आरम्भ होने से पूर्व डॉ.मिश्र के साथ अत्यंत मंद स्मित के साथ जिस तन्वी काया को सभागार में प्रवेश करते देखा ,वह कितनी सरल-सहज थी|मैं उन्हें पहचानती नहीं थी,कभी मिली भी नहीं ,किन्तु दिल ने कहा निश्चय यही हैं वह|एक माधुर्यपूर्ण तेज से ओतप्रोत यह महिला ही सरस्वती मिश्र थीं,डॉ.रामदरश मिश्र की जीवन संगिनी|
डॉ.रामदरश मिश्र,डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण,कविवर ओम निश्चल ,डॉ.विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इत्यादि विद्वान मंचासीन थे|सभी ने रामदरश मिश्रजी की रचना यात्रा पर अपने –अपने वक्तव्य दिये|उम्र को धता बताते डॉ.मिश्र की बुलंद आवाज,सतर खड़ा शरीर और चश्मे के नीचे बेधती सरल दृष्टि से पूरा सभागार अभिभूत था|अंत में लाल मखमली पोटली और डॉ.ऋतुपर्ण ने घोषणा की -हम डॉ. मिश्र को पंद्रह लाख की राशि का सरस्वती सम्मान देते स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं…और भी बहुत कुछ कहा उन्होंने|फिर शरारती मुस्कान के साथ कहा-यह सरस्वती तो सरस्वतीजी के पास ही जाएगी|सम्पूर्ण सभागार हँस पड़ा|डॉ. मिश्र ने बेहद सरल मुस्कान के साथ डॉ.ऋतुपर्ण से सहमति जताते हुए पत्नी की तरफ देखा |परस्पर स्नेह , सौहार्द , सामंजस्य का नाम ही तो है दाम्पत्य | उस एक क्षण में ही मुझे मिश्र दम्पती के सफल दीर्घ दाम्पत्य का रहस्य समझ आ गया |
डॉ. मिश्र ने लगभग साहित्य की सभी विधाओं में लिखा है| कई उपन्यास,कथा संग्रह , काव्य संग्रह , यात्रावृत्त आदि के लेखक ने 2017 में एक उपन्यास लिखा है-‘एक बचपन यह भी’ | उपन्यास का समर्पण भी सरस्वतीजी के नाम है|इस लघु उपन्यास का मूल चरित्र ‘चेतना’ के रूप में एक लड़की के बाल्यावस्था से युवावस्था तक की संवेदनशील कहानी है| नायिका चेतना चंचल,बुद्धिमती , सुसंस्कृत एवं उर्जा से भरपूर है|चेतना अपने नाम को सार्थक करती एक मूल्यदृष्टि संपन्न युवती है|उसका बचपन सामान्य होते हुए भी विशिष्ट है, क्योंकि उसके पिता पुत्री की परवरिश के प्रति विशिष्ट रूप से चैतन्य हैं | यह चेतना कोई अन्य नहीं, स्वयं लेखक की पत्नी सरस्वतीजी हैं| इस दृष्टिकोण से यह एक आत्मकथात्मक उपन्यास है ,जिसकी झलक पूर्वकथन में इस प्रकार व्यक्त की गयी है-‘चेतनाजी इन दिनों बाँह से परेशान चल रही हैं…लेकिन पांच बजे सुबह उठ जाती हैं | बाँह का दर्द सहती हुई भी धुलाई मशीन में कपड़े दाल देती है …किचेन भी संभाल लेती है | बहू को सुबह स्कूल जाना होता है …चेतनाजी उनके लिए नाश्ता बना देती हैं और दोपहर का भोजन भी …अब वह चौरासी वर्ष की हो गयी हैं,किन्तु घर बाहर के कामों के साथ उसी तरह चल रही हैं,जैसे पहले चलती थीं|’ एक कर्मठ और सफल गृहणी सरस्वतीजी को समझने के लिए इतना ही काफी है|
सरस्वती मिश्र का जन्म 8 अगस्त,1932 को गोरखपुर में हुआ था और विवाह सन् 1948 में रामदरशजी के साथ हुआ| सरस्वतीजी का विवाह जल्द हुआ ,इसलिए उन्होंने मायके में रहकर ही मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की| इसके बाद वह पति के साथ बनारस चली आयीं ,जहाँ मिश्रजी पीएच-डी कर रहे थे| लेकिन मिश्रजी ने उन्हें आगे पढने का मौका दिया और उन्होंने इंटर में दाखिला ले लिया | आगे हिंदी साहित्य में एम.ए किया | साहित्यिक रूचि की सरस्वतीजी ने मिश्रजी की रचनाओं के बहुचर्चित संकलन ‘सरकंडे की कलम’ का संपादन किया है|सचेतक पत्रिका में इनके अनेकों संस्मरण प्रकाशित हुए हैं|
आरम्भ से ही प्रगतिशील सोच के रामदरशजी ने उन्हें किसी पाबन्दी में नहीं रखा|पति के मित्रों का खुले दिल से स्वागत करतीं और बातचीत में शामिल होतीं| लगभग सन् 50-55 से अब तक यह सिलसिला चल रहा है| बनारस में ही गोष्ठियों में आना –जाना आरंभ हुआ|वहीँ सरस्वतीजी हजारीप्रसाद द्विवेदी की पत्नी के संपर्क में आयीं|उनके परिवार में घुल मिल गयीं,जहाँ उन्हें और गहरा साहित्यिक , सांस्कृतिक माहौल मिला|
सामान्य तौर पर मध्यवित्त गृहस्थ की आरंभिक यात्रा अत्यंत कठिन होती है| बनारस में पीएच-डी करते वक्त उन्हें एक सौ रुपए की स्कालरशिप मिलती थी|वह भी समय पर नहीं|सरस्वतीजी ने पूरी गृहस्थी इसी सौ रुपए के बल पर चलायी|आरम्भ में लेखक पति की जीविका डगमग रही|आजीविका, पारिवारिक जिम्मेदारी और साहित्य के उनके संघर्ष में सरस्वतीजी का भरपूर सहयोग मिला |सहधर्मिणी के रूप में उन्होंने रामदरशजी को जीवन के दैनिक संघर्षों से बचाए रखा|साहित्य में गहन रूचि के कारण , घर बाहर सँभालते हुए उनकी रचनाओं को पढ़तीं , सराह्तीं| अब भी पति की रचनाओं की प्रथम पाठिका वही होती हैं|रामदरशजी रचनाओं के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं को सम्मान देते हैं| बनारस से गुजरात और गुजरात से दिल्ली तक की उनकी यात्रा में सरस्वतीजी ने पग-पग उनका सहयोग किया|चौहतर वर्षों का उनका साथ महज पति-पत्नी नहीं ,साहित्य के सहचरों का भी साथ है|सरस्वतीजी के शब्दों में –‘इनके(रामदरशजी ) साहित्यकार व्यक्तित्व की मूलधर्मिता सहज ही मेरे मन की मूलधर्मिता से जुड़ गयी और हमें परस्पर प्रीतिकर सहचर बनाए रखा|’
अपने संस्मरण में सरस्वतीजी ने रामदरशजी के सरल व्यक्तित्व एवं इस वजह से उत्पन्न हुई कठिनाइयों को बखूबी याद किया है|वह लिखती हैं –‘इन्होंने कभी यह नहीं पूछा कि तुमने पैसे कहाँ और कैसे खर्च किये|…कौन सी चीज कहाँ मिलती है और क्या भाव है यह नहीं जानते|’कभी सामान लेने जाते भी हैं , तो सारे दुकानदार माताजी की खोज करते हैं और रामदरशजी झल्लाते हैं –जैसे मैं सामान खरीद ही नहीं सकता|आगे वह मजे लेकर बताती हैं कि कैसे पूरा घर बन जाने के बाद ही वह पहली बार घर देखने गये|फिर घर बनाने में कितनी परेशानियाँ हुईं और मामला कोर्ट में गया, तो रामदरश मिश्र कितना घबराए| लेकिन कोर्ट में सरस्वतीजी ने बेधड़क मजिस्ट्रेट के सवालों का जवाब दिया और गृहिणी ने अपनी हिम्मत से अपना घर बचा लिया|इसी तरह सूझबूझ से भरी सरस्वतीजी अपनी गृहस्थी अकेली चलाती आयीं हैं| वह दुनियादारी से अनभिज्ञ या अनासक्त पति का दाहिना हाथ रही हैं या उनके शब्दों में ‘एक दूसरे के पूरक भी’|
अपनी कविताओं में रामदरशजी ने बार-बार इस गृहिणी से प्रेरित कई पंक्तियाँ लिखीं हैं,किस तरह वह पत्नी की गृहस्थी में रचे-बसे हैं –
‘उठो सुहागिन चार बज गये …
यह गृहिणी जब उठेगी तो
जाग उठेंगे अरतन बरतन …’
प्रेम में एकात्म होना भी इसी प्रेयसी ने सिखाया-‘छूटती गयी
तुम्हारे हाथों की मेहँदी की शोख लाली …
मुझे लगा कि
मेरे लिए तुम्हारा प्यार कम होता जा रहा है …
जब तुमसे टकराना चाहा
तो देखा तुम ‘तुम’ थीं कहाँ?
तुम तो मेरा सुख और दुःख बन गयी थीं|
संतुलन, अधिकार और अधिकारी के संबंधों की समरसता , स्नेह , सद्भावों से पगी पति की ये कविताएँ कवि पत्नी होने का गौरव हैं और पति-पत्नी के संबंधों की गरिमा भी | आधुनिक समय में शतरंज की कई चालें चलने के बाद भी दम्पती सहअस्तित्व की यह सीमा प्राप्त नहीं कर सकते | भावभूमि की सरलता ही वह रेशमी डोर है, जो दाम्पत्य को अटूट बंधन में बांधने की क्षमता रखता है-‘झगड़े भी हुए अनबोले भी-
पर सदा दर्द की चादर से चुपके से कोई
एक दूसरे का नंगापन ढांक गया |’ एक दूसरे को सम्मान देते बड़ा लम्बा एवं सफल रास्ता तय किया है रामदरशजी और सरस्वतीजी ने| अगले वर्ष रामदरश मिश्रजी की जन्मशताब्दी है | ईश्वर उन्हें सपत्नीक स्वस्थ और प्रसन्न रखें एवं उनकी लेखनी सतत गतिशील बनी रहे |