Saturday, December 21, 2024
Homeविरासत“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

स्त्री दर्पण मंच पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर एक शृंखला की शुरुआत की गई। इस ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की जा रही हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला के तहत चर्चित नाम जया जादवानी की कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष हिंदी साहित्य में मशहूर नाम रमणिका गुप्ता जी की कविताएं हैं तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।

कवयित्री सविता सिंह
————————-

स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री और प्रकृति शृंखला की उन्नीसवीं कवि रमणिका गुप्ता हैं जिन्होंने आदिवासी जीवन को बहुत नजदीक से देखा है और प्रकृति के साथ जीते हुए उसकी हकीकत को दूसरे ही ढंग से समझा है। इस श्रृंखला की उनकी पहली ही कविता पितृसत्ता द्वारा गढ़ी गई दुनिया का उल्लंघन करती है। यहां प्रकृति स्त्री के रूप में पेड़ों को अपने गर्भ में धारण भी करती है और उसकी बाहों में अपना सर्वस्व भी सौंपती है। एक रात की बात वह कुछ यूं कहती हैं युकलिप्टस के बारे में: अपनी टहनियों से/ अपनी उंगलियों के पत्तों से वह/ रात भर मुझे सहलाता रहा/ उसकी सफेदी ने मुझे चूमा/ उसकी जड़ें मेरी कोख में उग आई/ और मैं भी एक पेड़ बन गई….पृथ्वी का पुत्र और पति वह दोनो रहा/ पृथ्वी-जाया और पृथ्वी जई/ दोनो बना।
प्रकृति के पास कितनी ही प्रविधियां और सिद्धांत हैं जीवन जीने के। इसी से पता चलता है वह कितनी संपन्न है अपने होने में। उसे कोई चाह कर भी नष्ट नहीं कर सकता। उसके पास जो तरह तरह की हवाएं हैं जो जीवन की किताब के पन्ने पलट कर कवि को बता रहीं हैं कि वह कैसे एक स्त्री के रूप में अपनी स्वायतता पा सकती है; दिकू लोगों की सामाजिक व्यवस्था कैसे एक स्वच्छंद ढंग से जी रहे लोगों को नरक की तरफ ले गई। एक स्त्री इस नरक को खूब पहचानती है। स्वतंत्र होने का अहसास प्रकृति और स्त्री को, यानी आदिवासी जीवन को, हवा और धूप का स्वागत करने को सहज ही प्रेरित करता है: अब आज़ाद हैं सभी/ मेरा शयनकक्ष भी/ जो एक बंदी गृह बन गया था…सहमे सहमे हवा के झोंके / बंद खिड़कियों से टकरा कर लौट जाते थे/ अब सब दबे पांव कमरे के अंदर ताकझांक कर रहे हैं/ हां डरो मत! आओ ना!/ भीतर चले आए तुम/ अब तुम पर खिड़कियां बंद करने वाला कोई नहीं है…
रमणिका गुप्ता की प्रकृति के रहस्यों को उजागर करतीं इन महत्वपूर्ण कविताओं को आप भी पढ़ें और देखें प्रकृति स्त्री को कितने सहज ढंग से अपनी बातें बता देती है जब वह हवा बन उससे होकर गुजरती है।
रमणिका गुप्ता का परिचय
———————-
मूल नाम : रमणिका गुप्त। जन्म :22 अप्रैल 1930 | सुनाम, पंजाब। निधन :26 मार्च 2019 | नई दिल्ली, दिल्ली।
रमणिका गुप्ता एक भारतीय लेखिका, कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञ थीं। वह रमणिका फाउंडेशन की संस्थापक और अध्यक्ष थीं, सीपीआई (एम) की सदस्य , एक आदिवासी अधिकार चैंपियन, पूर्व ट्रेड यूनियन नेता, राजनेता, लेखक और संपादक थीं। उन्होंने स्त्री विमर्श पर बेहतरीन काम किया और वह सामाजिक सरोकारों की पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक भी थीं। उन्होंने झारखंड के हज़ारीबाग के कोयलांचल से मजदूर आंदोलनों को साहित्य के ज़रिये राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने का काम किया। उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘भीड़ सतर में चलने लगी है’, ‘तुम कौन’, ‘तिल-तिल नूतन’, ‘मैं आजाद हुई हूं’, ‘अब मूरख नहीं बनेंगे हम’, ‘भला मैं कैसे मरती’, ‘आदम से आदमी तक’, ‘विज्ञापन बनते कवि’, ‘कैसे करोगे बँटवारा इतिहास का’, ‘दलित हस्तक्षेप’, ‘निज घरे परदेसी’, ‘सांप्रदायिकता के बदलते चेहरे’, ‘कलम और कुदाल के बहाने’, ‘दलित हस्तक्षेप’, ‘दक्षिण- वाम के कठघरे’ और ‘दलित साहित्य’, ‘असम नरसंहार-एक रपट’, ‘राष्ट्रीय एकता’, ‘विघटन के बीज’ शामिल हैं। विमर्श : आदिवासी अस्मिता का संकट, दलित-चेतना साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दलित हस्तक्षेप। उपन्यास : सीता मौसी। आत्मकथा : आपहुदरी, हादसे (2005)। संपादन : युद्धरत आम आदमी- रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित यह त्रैमासिक पत्रिका है।
रमणिका जी की प्रकृति संबंधी कविताएँ
—————————
1
रात एक युकलिप्टस
आदमी और पशु से पहले
पेड़ होते थे
शायद उसी युग का पेड़
एक युकलिप्ट्स
रात मुझसे मिलने आया
अपनी बांहों की टहनियों से
अपनी उंगलियों के पत्तों से
वह
रात भर मुझे सहलाता रहा
उसकी
सफेदी ने मुझे चूमा
और उसकी जड़ें
मेरी कोख में उग आईं
और मैं भी एक पेड़ बन गई
धरती के नीचे नीचे
अपने ही अंदर-अंदर
रात मैं एक घाटी बन गयी
जिसमें युकलिप्ट्स की सफेदी
कतार-बद्ध खड़ी थी
अपनी हरियाली से ढंके
अपनी जड़ों से मुझे थामे
झूम रही थी
और पृथ्वी और पेड़ों के
संभोग की कहानी सुना कर
मुझे सृष्टि के रहस्य
बता रही थी
बता रही थी
पृथ्वी ने आकाश को नकार कर
पेड़ों को कैसे और क्यों वरा
बता रही थी
गगन-बिहारी और पृथ्वी-चारी का भेद
क्यों पृथ्वी ने कोख़ का सारा खजाना
लुटा दिया पेड़ों को?
बनस्पतियों को क्यों दिया
सारा सान्निध्य और
कोमलता
रंग
ठण्डक
हरियाली…?
आकाश को दी केवल दूरिां
मृगतृष्णा
चमक?
चहक लेकिन पेड़ों को ही दी…?
बता दी उसने पेड़ के समर्पण की गाथा
जो टूट गया
सूख गया
जल गया
पृथ्वी की धूल में मिल गया
पत्थर-कोयला-हीरा
बन गया
पर उसकी कोख़ से हटा नहीं
उसी में रहा
हवा में उड़ा नहीं
पृथ्वी का पुत्र और पति
दोनों रहा
पृथ्वी-जाया और पृथ्वी जयी
दोनों बना!
2
यादें
यादों की किनारी
दिन के चूल पर
रोशनी का जाल बिन देती है
ढंक जाती है रात की कालिख
3
मेरी खोज
मैं बादलों में आकार खोजती हूँ
खण्डहरों में आगार खोजती हूँ
पत्थरों में प्यार खोजती हूँ
लकीरों में भाग्य, सितारों में मंजिल
अंधेरों में राह खोजती हूँ
मैं पत्थरों में प्यार खोजती हूँ
किनारों में धार, लहरों में पार
बालू में चाह खोजती हूँ
पत्थरों में प्यार खोजती हूँ।
4
‘जरा कलम देना’
मैंने समय से कहा-
‘मैं हवा को लिखना चाहती हूं’
कि धीरे से मेरी तरफ
एक सरकंडा सरक आया
मैंने भागती हवा से कहा –
पकड़ो यह सरकंडा और लिखो
हवा- जो रेगिस्तान के टीले को उठाकर
एक जगह से रख देती है दूसरी जगह
ने लिखा –
‘ऊजड़ने का अर्थ’
5
‘तनि किताब देना,
मैंने समय से कहा-
‘ मैं हवा को पढ़ना चाहती हूं’
कि धीरे से मेरी तरफ
एक बंजर मरुस्थल खिसक आया
मैंने घिरनी सी चक्कर खाती हवा से कहा
‘लो यह किताब और पढ़ो’
हवा ने जो उलटने पलटने में माहिर
सरसरा कर पलट दिए किताब के बरक
और सनसनाती आवाज में पढ़ दिया
‘ बंजर होने का अर्थ’-
और उड़ा ले गई बालू का टीला
अपने संग
6
‘तनि दिशा देना’
मैंने समय से कहा –
‘मैं हवा का रुख मोड़ ना चाहती हूं’
कि धीरे से उसने मेरी तरफ
झुका झुका क्षितिज घुमा दिया
और बोला –
‘लो मोड़ो’!
हवा
जो मुड़ने की अभ्यस्त
घूम गई बवंडर सी
और आँधी बनकर जा घुसी
आकाश की आंख में
धुंधला गई दिशाएं
और मैं रास्ता भूल गई !
7
मैंने उड़ती हुई हवा से कहा –
तनि रुको और सुनो
अपने प्राणों में बंधी घंटियों की ध्वनि
जो पैदा करती हैं हर झोंके के साथ
एक नया गीत जिंदगी का
रुकोकि अभी शेष है जिंदगी की
जिजीविषा प्राण और सांस
शेष है धरती आकाश और क्षितिज
और हवा लौट आई
श्वास बनकर
और धड़कने लगी
मेरे दिल में
8
मैंने इधर
पढ़ ली है हवा की फितरत
बहना और बहाना
उड़ना बस उड़ना
कहीं ना टिकना
है उसकी आदत
और मैं भी बहने लगी
उड़ने लगी
9
मैंने सरकंडे की कलम बनाई
मरुथल की किताब का बरक खोला
क्षितिज का रुख अपनी तरफ मोड़ा
और चल दी सूरज के रास्ते
समय मेरे संग चल रहा था !
10
मैं आजाद हुई हूं…
खिड़कियां खोल दो
शीशे के रंग भी मिटा दो
परदे हटा दो
हवा आने दो
धूप भर जाने दो
दरवाजा खुल जाने दो
मैं आजाद हुई हूं
सूरज गया है मेरे कमरे में
अंधेरा मेरे पलंग के नीचे छिपते-छिपते
पकड़ा गया है
धक्के लगाकर बाहर कर दिया गया है उसे
धूप से तार-तार हो गया है वह
मेरे बिस्तर की चादर बहुत मुचक गई है
बदल दो इसे
मेरी मुक्ति के स्वागत में
अकेलेपन के अभिनन्दन में
मैं आजाद हुई हूं
गुलाब की लताएं
जो डर से बाहर-बाहर लटकी थीं
खिड़की के छज्जे के ऊपर
उचक-उचक कर खिड़की के भीतर
देखने की कोशिश में हैं
कुछ बदल-सा गया है
सहमे-सहमे हवा के झोंके
बन्द खिड़कियों से टकरा कर लौट जाते थे
अब दबे पांव
कमरे के अन्दर ताक-झांक कर रहे हैं
हां ! डरो मत! आओ न!
भीतर चले आओ तुम
अब तुम पर कोई खिड़कियां
बन्द करने वाला नहीं है
अब मैं अपने वश में हूं
किसी और के नहीं
इसलिए रुको मत
मैं आजाद हुई हूं
कई दिनों से घर के बाहर
बच्चों ने आना बन्द कर दिया था
मुझे भी उनकी चिल्लाहट सुने
लगता था युग बीत गया
आज अचानक खिड़कियां खुलीं देख
दरवाजे़ खुले देख
शीशों पर मिटे रंग और परदे हटे देख
वे भौंचक-से फुसफसा रहे हैं
कमरे की दीवार से सटे-सटे
ज़ोर से बोलो न
चिल्लाओ न जी भर कर
नहीं
मैं कोई परदेश से नहीं लौटी हूं
नई नहीं हूं इस घर में
बरसों से रहती हूं
खो गई थी किसी में
आज अपने आपको मिल गई हूं
अपनी आवाज और अपनी बोली भी भूल गई थी
सुनना भी भूल गई थी
सुनाना भी
अब सनने लगी हूं
इसलिए खूब बोलो
दीवारों से सटकर नहीं
खिड़कियों से झांक कर हंसकर चिल्लाओ
कोई तुम्हें रोकने वाला नहीं है
मैं आजाद हुई हूं
अब आजाद हैं सभी
मेरा शयनकक्ष भी
जो एक बन्दी-गृह बन गया था
बन्द हो गया था तहख़ाने की तरह
तिलस्म के जादू के ताले पड़ गए थे जिस पर
आज खुल गया है
मैं आजाद हुईं हूँ।
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!