– प्रज्ञा रोहिणी
जीवन का रंगमंच बेमिसाल है। यहां विविध घटनाएं हैं तो उन घटनाओं को सामने लाने वाले किरदार हैं। किरदार हैं तो भावों का संसार है लेकिन मंच के पीछे एक नेपथ्य भी है जहां से मंच को यथार्थ बनाने की कार्यवाहियां सक्रिय रहती है। इस पूरी प्रक्रिया के बाद ही कलाकार की कला, मंच पर घटित होकर लार्जर-दैन-लाइफ बनती है। बात यदि वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय की जीवनसाथी सुधा उपाध्याय की होगी तो न सिर्फ वह मंच सामने आएगा जहां रमेश उपाध्याय की सुधा जी ने साझा भूमिका निभाई बल्कि वह नेपथ्य भी उजागर होगा जो रमेश उपाध्याय की सृजनात्मकता का सबसे मजबूत सम्बल रहा।
सुधा जी का जन्म 19 अक्टूबर सन 1941 में हुआ । आगरा, उत्तर प्रदेश में श्री जगदीश प्रसाद शर्मा और श्रीमती प्रेमलता शर्मा की दूसरी बेटी सुधा रानी शर्मा अपने पिता की लाडली बेटी रहीं । पिता उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत थे। अपनी सातों बेटियों और एक बेटे को उन्होंने उच्च शिक्षा दिलवाई । सुधाजी आरम्भ से ही कुशाग्र बुद्धि की रहीं। आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने इतिहास और बाद में राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया । अलीगढ़ से बी.एड. किया और बाद में दिल्ली के राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में वे इतिहास की शिक्षिका रहीं फिर प्रधानाचार्य के रूप में काम करते हुए सेवानिवृत्त हुईं । शिक्षण और प्रशासन सम्बन्धी दोनों दायित्व उन्होंने बखूबी निभाये।
वरिष्ठ कथाकार, नाटककार, संपादक, कथा-आलोचक,चिंतक रमेश उपाध्याय से सुधा रानी शर्मा की मुलाकात करवाई थी सुधाजी की बड़ी बहन के पति श्री रमेशदत्त शर्मा ने। बड़ी बहन आशालता शर्मा से सुधाजी का अटूट और सुमधुर रिश्ता था। उनके पति विज्ञान लेखक थे। रमेशजी से सुधाजी की यह पहली मुलाकात कोई साहित्यिक मुलाकात नहीं थी बल्कि यह मुलाकात थी भविष्य में बनने वाले एक जोड़े की। दो लोगों के भावी जीवनसाथी बनने की संभावना वाली मुलाकात। उस समय सुधाजी इतिहास शिक्षिका की स्थायी नौकरी से जुड़ी थीं और रमेशजी कथाकार थे। साथ ही साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्र में उप सम्पादक पद पर काम कर रहे थे। वो पहली मुलाकात सुधाजी की बड़ी बहन आशालता शर्मा के घर हुई जिसका किस्सा बताते हुए मां-पिताजी खूब हंसा करते। लड़की को देखने आया लड़का बेहद निराश रहा क्योंकि लड़की बड़ी शर्मीली निकली। वो बोली भी नहीं और लड़के को अपना चेहरा भी देखने नहीं दिया। लड़की पीठ किए बैठी रही और कुछ देर में बिना बोले कमरे से चली गई। सुधाजी साप्ताहिक और धर्मयुग पत्रिका की पाठिका थीं। रमेशजी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के विज्ञान वार्ता स्तंभ के लिए रमेशदत्त शर्मा से साक्षात्कार लिया और शर्मा जी को यह नौजवान सुधाजी के लिए भा गया। सुधाजी से पहली मुलाकात के बाद बात दोनों की शादी तक नहीं पहुंच सकी। कारण रहा कि रमेश जी ने तीन वर्ष का समय खुद को नई स्थिति के लिए तैयार करने के लिए सुधाजी से माँगा। उसके बाद वे मुंबई चले आये और धर्मयुग पत्रिका में फ्रीलांस काम करने लगे। धर्मयुग ने उनके उपन्यास दंडद्वीप को धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया। उपन्यास के साथ रमेश जी की तस्वीर भी छपी। तब सुधाजी के पर्स में धर्मयुग के पृष्ठ से काटी गयी रमेश उपाध्याय की तस्वीर हमेशा रहती थी। जिसे उनकी साथी अध्यापिकाएं फरमाईश कर-करके देखती थीं। सुधाजी अपने निर्णयों में आरम्भ से ही दृढ़ थीं। उन्होंने अपने पिता से यह भी कह दिया कि वे रमेश जी को साफ़ लिख दें कि एम.ए. करने और अच्छी नौकरी मिलने तक मैं अपनी नौकरी से गृहस्थी चला लूंगी। दोनों को इंतज़ार का मीठा फल मिला। बाद में सन् 1969, दिसंबर महीने की छह तारीख को दोनों शादी के रिश्ते में बंध गए। इतिहास और राजनीति शास्त्र में एम.ए. करने वाली सुधाजी के लायक बनने के लिए रमेशजी ने शादी से पहले अजमेर से एम.ए. में प्रवेश लिया और शादी के कुछ माह बाद फाइनल की परीक्षा पास की। शादी के बाद सुधाजी ने अपनी नौकरी की और रमेश जी ने पहले शंकर्स वीकली में काम किया फिर नवनीत हिंदी डाइजेस्ट, मुंबई में सहायक सम्पादक के रूप में कार्यरत रहे। अपनी बड़ी बेटी प्रज्ञा के जन्म पर वह मुंबई छोड़कर दिल्ली आये। रमेश जी के अजमेर और मुंबई रहने के बाद अब जाकर दोनों को पहली बार एक-दूसरे का लम्बा साथ मिला। रमेश जी छोटी बेटी संज्ञा के जन्म के साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। अंकित के जन्म के समय दोनों का जीवन आर्थिक दृष्टि से स्थिर हो चला था।
सुधाजी कम बोलने वाले बेहद शालीन इंसानों में हैं पर सुधाजी की शालीनता में एक दृढ़ता का बोध हमेशा रहा है। विरोध की धार भी ऐसी कि उनके साफ बात कहने पर भी कोई उनका विरोधी नहीं बना। किसी के मन में कोई दुभार्वना उनके प्रति नहीं रही। इस मायने में मैं उन्हें अजातशत्रु कह सकती हूं। परिवार में, कार्यक्षेत्र में और जहां-जहां भी उनकी सामाजिक भूमिका रही वे अपनी शालीनता और संजीदगी से काम करने की आदत के चलते ख्याति अर्जित करती रहीं। रमेशजी से उनके कई मुद्दों पर मतभेद रहे पर मनभेद कभी न रहा। उन्होंने रमेशजी के कामों में हरसंभव सहयोग किया। गृहस्थ जीवन के आरंभ में वह परिवार की आर्थिक संरचना की मजबूत कड़ी रहीं पर जल्द ही रमेश जी भी कॉलेज में प्राध्यापक हुए। दोनों ने बेहद शानदार बावन साल साथ गुजारे। अनेक जीवनसंघर्षों में सुधाजी उनकी प्ररेणा और अक्षय ऊर्जा बनी रहीं। कितनी बार हम तीन बच्चों को संभालते हुए पिताजी को भी जीवनसाथी के साथ-साथ एक बच्चे के रूप में वे देखती-समझती रहीं। ऐसे बच्चे के रूप में जिसके पिता की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी और अभावों में जीता वह बच्चा मां-भाई-बहन से दूर परिवार के पालन के लिए अनेक जगहों पर नौकरी करता रहा। अपने जीवनसाथी में उस बच्चे की पीड़ा और उस नौजवान के संघर्ष को देखने वाली सुधाजी ने हमेशा बच्चों के सामने उनके पिता के श्रम के सम्मान को जिलाए रखा। उन्हें वह माहौल, समय और सुविधा दी जिसने रमेश उपाध्याय के लेखकीय व्यक्तित्व को उंचाई दी। जीवन भर उनसे विशेष रूप से प्रभावित और उनके प्रति द्रवित रहीं।
सुधाजी बोलती भले ही कम हैं पर मन के भावों को सही समझने की गहन अंतर्दृष्टि उनके पास है। दोनों की आय बहुत नहीं थी पर तीन बच्चों की परवरिश के साथ पहले ‘युगपरिबोध’ और बाद में ‘कथन’ पत्रिका निकालने की रमेशजी की पहल का उन्होंने स्वागत किया। उसमें भरपूर समय और सहयोग दिया। वे रमेशजी के साथ बैठतीं। लेख-कहानियों आदि रचनाएं लेकर पढ़तीं और रमेशजी उन्हें टाईप करते जाते। सुबह चार बजे से सुधाजी की दिनचर्या शुरु होती। वे खाना बनातीं, घर की व्यवस्था करतीं और स्कूल चली जातीं। बच्चों को तैयार करने,स्कूल छोड़ने और घर के शेष काम रमेशजी करते और फिर कॉलेज निकलते। कथन के अनेक कामों के साथ दिल्ली और बाहर से आने वाले रमेशजी के मित्रों के स्वागत में उन्होंने कभी कोई कमी नहीं छोड़ी। साहित्यिक गोष्ठियों और आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करने वाले रमेशजी की गैरहाज़री में उन्होंने घर और नौकरी की जिम्मेदारी अकेले उठाई। उनके हाथों का हुनर उनकी लिखाई ही नहीं उनके किए हर काम में भरपूर उतरकर सार्थक हुआ है। उनके जैसा बेहतर खाना बनाने वाला रमेशजी को कोई आजीवन नहीं मिला। रमेशजी स्वयं कई व्यंजन बनाने में पारंगत थे फिर भी ‘सुधाजी के हाथों में जादू है’-यह शब्द उनकी ज़बान पर रहते थे। उनके दामाद राकेश कुमार का कहना है कि-‘मम्मी अगर पत्थर भी छौंक देंगी तो वह भी स्वादिष्ट होगा।’ रमेशजी झूठी प्रशंसा के तहत सुधाजी के लिए ऐसा नहीं कहते थे। किसी भी काम को अपने आलोचनात्मक विवेक से परखकर ही वह अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचते । अपने बच्चों के हर काम की बेवजह तारीफ़ करने वाले पिता भी वह नहीं थे।
सुधाजी-रमेशजी के घर में बहुत-से लोग आते थे। ये घर रमेशजी के लेखक मित्रों का अड्डा था। इस घर की दीवारें तमाम राजनीतिक-सामाजिक बहसों को सुनने की आदी थीं। यहां खूब गंभीर चर्चाएं रहतीं और खूब ठहाके लगते। नयी-नयी योजनायें बनतीं। इस घर में रमेशजी के वृहद् रचनात्मक परिवार के साथ-साथ मां का एक बड़ा कुनबा भी शामिल था। किराए के घर के सभी हिस्सों में रहने वाले और गली-मोहल्ले के लोगों से सुधाजी का आत्मीय नाता था। इसीलिए उनके बच्चों के अनेक मामा-मौसियों, नाना-नानियों का एक पूरा संयुक्त परिवार सुधाजी ने अपने दम पर खड़ा कर लिया था। होली-दिवाली हो, तीज-त्यौहार उस दिन तो घर में चहल-पहल न रूकती। सुधाजी सुबह से ही व्यंजन बनाने में जुट जातीं और दोपहर तक पास-पड़ोस से लेकर रमेशजी की मंडली सभी सुधा दीदी या भाभीजी के बनाए व्यंजनों से पुलकित होकर उनके घर को अपने गुल-गपाड़ों संग गुंजा देते। उनके घर ने प्रगतिशील मूल्यों की एक मिसाल कायम की जहां उनकी बहन के अंतर्धामिक विवाह को भी सम्मान मिला और मेरे अंतर्जातीय विवाह को भी सहर्ष स्वीकृति मिली। बच्चों को अपने मुताबिक जीवन जीने का आकाश दोनों ने मिलकर उपलब्ध करवाया।
सुधाजी इतिहास की अध्यापिका रहीं। बेहद ईमानदारी और लगाव के साथ अपनी नौकरी की। अपने अनेक विद्यार्थियों की पढ़ने आदि में विशेष सहायता भी की। इतिहास, साहित्य और विज्ञान में उनकी बेहद रूचि रही है। पढ़ने का हमेशा से शौक रहा। घर में आने वाली पत्रिकाएं, किताबें खासकर कथा-साहित्य वे शौक से पढ़ती रहीं। लिखने का सिलसिला भी अनियमित तौर से चलता रहा। बाद में उनकी लिखी आत्मकथा-‘साथ उस कारवां के हम भी हैं’ प्रकाशित और चर्चित हुई।
रमेशजी ने सुधाजी को कभी नाम लेकर नहीं पुकारा। उनकी सुधाजी अपने नाम सरीखी अमृत तत्व से भरपूर रहीं जो जिंदगी के कड़वे विष को भी अपने संयम से अमृत में बदलने का हुनर जानती हैं। जीवन में स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों को झेलती हुई सुधाजी भीतर से बेहद मजबूत स्त्री हैं। नएपन के लिए उनके मन में कोई दुराग्रह नहीं है। जीवन की अनेक प्रतिकूलताओं में रमेशजी की सच्ची साथी रहीं। दोनों ने मिलकर न सिर्फ अपने परिवार बल्कि अपने आस-पास के समाज को हमेशा जनतांत्रिक बनाने की हरसंभव कोशिश की। अक्सर साहित्यकारों को यह शिकायत रहती है कि उनके साहित्य को घर में मान नहीं मिलता। परंतु कथाकार रमेश उपाध्याय को कभी यह शिकायत नहीं रही क्योंकि उनकी रचनाओं की पहली श्रोता, पाठक और आलोचक सुधा जी ही हुआ करती थीं। यह सिलसिला मुसलसल चलता रहा। जिसमें उनके बच्चे भी बाद में पारिवारिक गोष्ठियों में शामिल रहे। दरअसल सृजनात्मकता और लेखन को सुधा जी ने हमेशा ही एक जिम्मेदारी भरा काम माना है इसीलिए रमेश जी और सुधा जी का बनाया परिवार एक सृजनात्मक परिवार बना।
सुधाजी जीवन में अपने पिताजी जगदीशप्रसाद शर्मा की बेटी और बेटे की तरह रहीं। बीटा इसलिए कि पुराने विचारों की हमारी नानी का मानना यही था कि बेटे घर चलाने में मदद देते हैं बेटियां पराई हो जाती हैं। सुधाजी शादी से पहले और बाद में भी अकेले कमाने वाले अपने पिता का आर्थिक-भावात्मक सम्बल बनी रहीं। रमेश जी शायद किराए के मकान में ही बने रहते यदि सुधाजी का अपने मकान में रहने का सपना और आग्रह न होता। अपनी दूरदर्शिता से वह परिवार में सबकी आदरणीय रहीं। अपने भाई-बहनों में ही नहीं उनके बच्चों और अगली पीढ़ी में भी सुधाजी का आदर आज भी सबसे अधिक है।
सुधाजी और रमेशजी की जिंदगी ने जीवन के अनेक बसंत और पतझड़ संग देखे। अपने बच्चों प्रज्ञा,संज्ञा और अंकित और बाद में प्रज्ञा के साथी राकेश कुमार और अपनी नातिन तान्या की प्रगति के दोनों साक्षी रहे। संतोष सुधाजी की गृहस्थी की भूमि रहा और अनथक श्रम उसमें सिंचित बीज। दोनों जब सेवानिवृत्त हुए तो उनके जीवन ने नई करवट ली। शायद पहली बार दोनों के हिस्से इत्मीनान आया। इस इत्मीनान को उन्होंने अपनी मनचाहे कामों से भरा।
सुधाजी की अभिरूचियों में पठन-पाठन के अतिरिक्त गायन भी है। उन्हें फ्री स्टाइल गाना पसंद है। गीत सुनना पसंद है। यहां तक कि दोहे , कवित्त, छंद, शेर-ओ-शायरी, अंग्रेजी-हिंदी की अनगिनत कविताओं , कहावतों-लोकोक्तियों का वह जीवित शब्दकोश हैं। टी.वी. शौक से देखती हैं। रमेशजी और उनकी पसंदीदा फिल्मों को दोनों ने टी.वी. पर ही नहीं सिनेमा हॉल में भी पूरे शौक से देखा है। प्राइम टाइम सुधाजी कभी मिस नहीं करतीं। रमेशजी यह बात जानते थे और हमेशा कुछ काम करती सुधाजी को याद दिलाते थे कि कहीं रवीश कुमार का यह कार्यक्रम भूल न जाएं। सुधाजी ने रमेशजी के साथ अनेक यात्राएं कीं पर दोनों के जीवन की सहयात्रा और अंतर्यात्रा बेहद दिलचस्प है जिसे यह लेख कभी पूरा नहीं कर पाएगा। रमेशजी ने सुधाजी के लेखक को आकार दिया और सुधाजी ने रमेशजी के लेखन-जीवन में अपना भरपूर सहयोग दिया। एक-दूसरे की गतिशीलता को रचते-संवारते दोनों ने एक शानदार और सार्थक जीवन जिया।
तेरह अप्रैल दो हजार इक्कीस की शाम रमेश जी और सुधाजी के पूरे परिवार की अंतिम सुंदर शाम रही। परिवार के सातों लोग एक साथ थे। तब कहां पता था अब शामें होंगी पर सुधाजी के रमेश जी साथ न होंगे। शामें होंगी और रमेशजी-सुधाजी, उनके बच्चों की ताश की बाज़ी न हो सकेगी। सबने साथ चाय पी। गप्पें मारीं। घर ख़ुशी से गूँज रहा था। रमेश जी सेटी पर अपनी पसंदीदा जगह पर और सुधाजी भी उसी सेटी के कोने पर बैठी थीं। सुधाजी कितनी सुंदर लग रही थीं और रमेश जी हमेशा की तरह साफ-सुथरे अच्छे कपड़ों में गरिमावान और आकर्षक। घर में खूब शोर था ,उत्साह था मानो हर क्षण और हर चीज चहक रही थी। सबके चेहरे खिले थे हालांकि संज्ञा कुछ दर्द की शिकायत कर रही थी पर ठीक थी। कुछ दिन बाद उनकी बड़ी बेटी प्रज्ञा का पचासवां और नातिन तान्या का इक्कीसवां जन्मदिन आने वाला था। सब बहुत उत्साहित थे। बड़ी बेटी, दामाद और नातिन को प्रेम से विदा किया। हमेशा की तरह रमेश जी दरवाजे पर खड़े हाथ हिलाकर बाय कर रहे थे। उस दिन नहीं पता था ये अंतिम विदा होगी।
रमेश जी ने जीवन भर स्वास्थ्य को सर्वोपरि रखा। न सिर्फ अपने स्वास्थ्य को बल्कि सुधाजी और बच्चों के स्वास्थ्य को भी। बीमार पड़ने पर तुरंत उपचार उनकी प्राथमिकता रहती। संस्कृत के विद्वान पिता अक्सर अनेक श्लोकों को सुनाते हुए हम बच्चों से यह भी कहा करते थे-‘शरीरमाद्यंखलु धर्मसाधनम्’। वे समझाते शरीर को स्वस्थ बनाए रखना और काया को निरोगी रखना सबसे बड़ी जरूरत है। शरीर ठीक रहेगा तो ही सब काम कर पाओगे। उनकी व्यस्त दिनचर्या में शारीरिक मेहनत काफी रहती। जीवनपर्यंत अपने कपड़े उन्होंने खुद धोए। सारे घर के लोगों के कपड़ों में कोई भी उनके धोए कपड़ों को उनकी चमक और सफाई से अलग पहचान सकता था। यही नहीं रसोई में सुधाजी की यथासंभव मदद की। उन्हें सुधाजी की तरह न ब्लड प्रेशर की समस्या थी न डायबिटीज़ की दिक्कत। जमकर काम करते और मीठा खूब खाते। मिठाई न भी हो तो दही-बूरे से काम चला लेते। स्वाद और पौष्टिक खाना बनाने वाली सुधाजी आग्रह करके उन्हें खीर-पूड़ी आदि खिलातीं तो नाश्ते के बाद कहते-‘‘ इतना खा लिया है सुधाजी ! कि अब सारे दिन कुछ नहीं खाऊंगा।’’ पर दोपहर होते ही भूख लगने पर खुद पर ही व्यंग्य करते हुए शौक से खाना खाते और कहते -‘‘वाह! मजा आ गया सुधाजी।’’
ऐसे निरोगी और जिंदादिल जीवनसाथी का करोना की चपेट में आना और असमय जीवन से चले जाना सुधाजी और परिवार के साथ उनके रचनात्मक परिवार को भी जीवन भर आहत करता रहेगा। जीवन भर बेहतर दुनिया का सपना देखने वाला एक रचनाकार भयानक क्रूरता का शिकार हुआ। वास्तविक जनतंत्र की राह में आने वाली जिन बाधाओं को वह अपने रचनात्मक कर्म, फेसबुक डायरी आदि से लगातार दिखाता-समझाता रहा अंततः उन्हीं बाधाओं का वह आसान शिकार बना। बुखार आने और एक दिन बाद ठीक होने पर सुधाजी, संज्ञा और अंकित की तीमारदारी करते हुए बड़ी बेटी से उन्होंने कहा — अब तू खाना नहीं भेजना मैं बना लूँगा। अचानक रमेश जी फिर बीमार पड़े। इस बार भी उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी पर जन की उपेक्षा करने वाले तंत्र की समय पर न की गई जरूरी तैयारियों, नृशंसता की हद तक बरती गई लापरवाहियों ने रमेश जी सहित कितने लोगों को असमय संसार से रुखसत कर दिया। इक्कीस अप्रैल को बड़ी मुश्किल से रमेश जी को घर से बहुत दूर एक अस्पताल में भर्ती करवाया गया। संज्ञा जो खुद बीमार थी उनके साथ रही। तेईस अप्रैल की उस कठिन रात रमेश जी दिल्ली के एक अस्पताल में संघर्ष करते हुए, चिकित्सा के अभाव में संसार को अलविदा कह गए। घर में सुधाजी की हालात भी ठीक नहीं थी। अंकित बीमारी में उनकी तीमारदारी कर रहा था। नातिन तान्या भी कोविड की चपेट में थी। सुधाजी लगातार ऑक्सीजन की कमी से वे जूझ रही थीं। खराब स्वास्थ्य के चलते बच्चों की प्राथमिकता में पहले माँ रहीं। उन्होंने माँ के जीवन साथी के चले जाने की खबर बहुत बाद में उन्हें बड़ी मुश्किल से तब दी जब उनकी हालत में सुधार हुआ। उस दिन रमेश जी दूसरी बार परिवार को छोड़कर चले गए। तब तक सुधाजी के लिए वे जीवित थे। सुधाजी के जीवन से उनके पिता, उनकी बड़ी बहन के जाने के बाद सबसे बड़ा और आत्मीय साथ रमेश जी का था। उनके दुःख की बर्फ अभी तक पिघली नहीं है। आजीवन पिघल भी नहीं सकती। इस समय अपना सारा ध्यान वे स्वाध्याय में लगा रही हैं। बाहर कम निकलती हैं। रमेश जी पर जो भी लिखा जा रहा है सुधाजी उसे ध्यान और पूरे मन से पढ़ती हैं। रमेश जी की कई किताबों को फिर से पढ़ती हुईं जैसे उनसे संवाद करती हैं। उनकी बातों और रास्ते को आज भी वह सच्चा और सही मानती हैं। अपने बच्चों को आज भी रमेश जी के शब्द याद दिलाती सचेत करती हैं – ‘‘बच्चों! अच्छे की उम्मीद कभी न छोड़ो और बुरे के लिए हमेशा तैयार रहो।’