लेखकों की पत्नियों की शृंखला में इस बार पेश है साहित्य अकेडमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक गिरिराज किशोर की पत्नी मीरा जी की कहानी। कानपुर की युवा लेखिका अनीता मिश्र ने मीरा जी के घर पर जाकर उनसे यह बातचीत की है। तो प्रस्तुत है यह कहानी-
“अब तो सिर्फ यादें हैं…. मीरा किशोर”
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– अनीता मिश्र
कानपुर सूटर गंज स्थित गिरिराज किशोर जी के घर बहुत बार आयी हूँ लेकिन हर दफ़ा वजह गिरिराज किशोर जी होते थे। कभी ऐसा नही हुआ कि मीरा आँटी ने बिना कुछ खिलाये -पिलाये जाने दिया हो। अब गिरिराज जी नही हैं तो यदा-कदा खास तौर पर मीरा आँटी से मिलने आती हूँ। उन्हें ज्यादा करीब से जानने का मौका मिला है। एक ठहरा हुआ व्यक्तित्व जो सदा आने वाले पर वात्सल्य लुटाता रहता है। व्यवस्थित घर, खुद बहुत सलीके से रहना, हमेशा बहुत स्वादिष्ट खाना ये सब बातें उनके व्यक्तित्व का परिचय अपने आप देते हैं। मीरा किशोर हमेशा किसी साये की तरह गिरिराज जी के साथ रही। ये उनका समर्पण ही था कि घर, बच्चों की तमाम जिम्मेदारियों से बरी रहकर गिरिराज किशोर जी लगातार लिखते रहे। गाँधी पर ‘पहला गिरमिटिया’ जैसा शानदार उपन्यास लिखने वाले गिरिराज किशोर जी ने जहाँ खुद में गाँधी की सादगी का वरण किया हुआ था वहीं मीरा किशोर जी भी जैसे कस्तूरबा की शख्सियत में ढल गई हों। वो गिरिराज जी के वजूद का वो हिस्सा रही हैं जिसको भले उन्होंने किसी किस्से में न ढाला हो लेकिन उनके सारे अफ़साने बिना मीरा किशोर के मुकम्मल नही हैं। मीरा किशोर जी से हाल में स्त्री दर्पण के लिए तफ़सील से बातचीत हुई।
* सबसे पहले बताइए कि आप किस शहर को बिलोंग करती हैं ? अपने घर -परिवार के बारे में बताइए।
– मैं दिल्ली से बिलोंग करती हूँ। वैसे मैं डिबाइ में ( बुलंदशहर के पास ) 15 /4 1938 को पैदा हुई । फिर परिवार दिल्ली शिफ्ट हुआ यहीं सारी पढ़ाई-लिखाई हुई। प्राथमिक शिक्षा दिल्ली में ही एन डी एम सी के स्कूल में हुई । मेरे पिता पहले दिल्ली मिल्क स्कीम में चैयरमैन रहे। उसके बाद डिफेंस में अंडर सचिव के पद पर रहे। हम पांच भाई बहन थे। अब सिर्फ मैं और एक भाई बचे हैं। हमारे यहां बहुत ही लिबरल किस्म का माहौल था । हम सब भाई बहन आपस में एक दूसरे के साथ बहुत फ्री थे और खूब मस्ती किया करते थे।
* कितनी पढ़ाई की है आपने ?
– मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से हिंदी में ऑनर्स और पीजी किया इसके बाद आगरा से बीएड किया। बाद में बतौर टीचर जॉब भी किया । फिर शादी हो गई उसके बाद जॉब छोड़ दिया।
* यानि आपको नौकरी छोडनी पड़ गई ? क्या ऐसा आप चाहती थी ?
– नहीं …मेरी तमन्ना थी नौकरी करने करने की। मैंने एक साल डिग्री कॉलेज में शादी के बाद जॉब किया फिर कन्सीव कर लिया तो जॉब छोड़ना पड़ा। जब तीनों बच्चें ( दो बेटियां एक बेटा ) हो गए तब जिम्मेदारी बहुत ज्यादा बढ़ गई। फिर मुश्किल हो रहा था दोनों जिम्मेदारी एक साथ संभालना। मैं नौकरी चाहती थी लेकिन बच्चों को भी नौकरों के सहारे नहीं छोड़ना चाहती थी इसलिए जॉब छोड़ना बेहतर लगा ।
* क्या गिरिराज जी की तरफ से कोई प्रेशर था ?
– नहीं, कोई नहीं था लेकिन ये मेरी चॉइस थी कि मैं घर, बच्चों की देखभाल करूँ । बीच-बीच मैंने जॉब जॉइन भी किया लेकिन कुछ ऐसे हालत होते गए कि जारी नहीं रख सकी । जब शादी के बाद दुबारा जॉइन किया गिरिराज जी की तबीयत खराब हो गई। इन्हें एंजियोग्राफी करवानी पड़ी । एक तरफ ये हॉस्पिटल में, दूसरी तरफ़ घर , बच्चे, कॉपी करेक्शन का तनाव यहाँ तक कि मै हॉस्पिटल कॉपियाँ लेकर जाती थी । बस उसके बाद ही तय किया कि अब नौकरी नहीं करनी है । वो एमरजेंसी का दौर था तनाव भी था ….
* मैं बात काटते हुए पूछती हूँ, आपको एमरजेंसी का क्या तनाव था ?
– नहीं नहीं, मुझे अपना नहीं …गिरिराज जी के लिए था। उस समय आई आई टी कानपुर में रजिस्ट्रार थे तो बहुत ज्यादा मीटिंग वगैरह होती रहती थी। एक तनाव का माहौल था तो लगता था घर पर रहना ही ठीक है । ये लगातार बाहर ही रहते थे।
* यानि घर –परिवार की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से आपकी रही ?
– हाँ ………..ये समय देते तो थे लेकिन आम लोगो की तरह नहीं समय दे पाते थे । बच्चों की पढ़ाई–लिखाई देखने का जिम्मा एक तरह से मेरा ही था । कभी–कभी मायूसी होती थी कि समय कम मिल पा रहा है लेकिन इनकी मजबूरी भी समझती थी ।
* एक लेखक से शादी हो रही इसको लेकर मन में क्या भाव था ?
– बहुत डर लगता था। लेखक की इमेज जो मन में थी उसको लेकर यानि कि बहुत सिगरेट /शराब पीते हैं बहुत और कई–कई अफेयर हो जाते हैं । दरअसल मेरी एक दोस्त जो मन्नू भंडारी जी पर रिसर्च कर रही थी वो मन्नू जी की बताई हुई कुछ ऐसी बातें शेयर करती जिससे मुझे थोड़ा डर लगता था कि पता नहीं कैसे होंगे ये ?
* फिर क्या अनुभव रहा ?
– ऊपर वाले का शुक्र है कि इनमें कोई ऐसी आदत नहीं थी न सिगरेट न शराब ।
* लेखक में मूड स्विंग की समस्या भी होती है ? क्या गिरिराज जी के साथ थी ? आप कैसे हैंडल करती थीं ?
– इनका इतना शांत स्वभाव था कि ऐसी कोई दिक्कत कभी नहीं आई । बस एक निश्चित टाइम टेबल था उसी के हिसाब से चलते थे । मेरी नन्द कहा करती थी कि मीरा बहुत बोर हो रही कहीं घुमाने ले जाओ । इन्हें ज्यादा कहीं आने–जाने का शौक भी नहीं था इनकी सारी शॉपिंग मैं ही करती थी । इनके शिमला रहने के दौरान काफी घूमना–फिरना हुआ । हम पाँच भाई–बहन थे। आपस में खूब मटरगश्ती करते थे। लेकिन इन्हें अपने परिवार में ऐसा माहौल नहीं मिला । माँ की बचपन में डेथ हो गई थी। घर में सामंती टाइप नियम कायदे थे। जनानखाना अलग, मर्दों की बैठकी अलग और मैं दिल्ली में एकदम मुक्त परिवेश में पली बढ़ी थी ।
* आप शादी हो कर वहाँ गईं तो कैसे एडजस्ट किया ?
– मुजफ्फरनगर में शादी के बाद रहना पड़ा था। तब शुरू में डर लगता था कि घूँघट में सीढ़ियों से पैर ना फिसल जाए। मेरे लिए सबका व्यवहार बहुत अच्छा था इसलिए वक़्त कट गया फिर कानपुर आ गए ।
* गिरिराज जी लेखक थे, बड़ा सर्किल था। बहुत लोगों का आना–जाना लगा रहता होगा क्योंकि घर –परिवार की भी ज़िम्मेदारी आप पर थी। तो कैसे मैनेज करती थी ?
– हाँ, उसमें कभी–कभी दिक्कत हो जाया करती थी । पहले मैं अंदर ही रहती थी। नाश्ता-खाना भिजवा दिया करती थी । राजेंद्र यादव, उद्भ्रांत, ऋषिकेश, राजेन्द्र राव ये लोग और भी तमाम लेखक आया करते थे । कभी–कभी ऐसा होता नाश्ता-खाना हो गया तब भी बैठे हैं। तब मुझे कभी–कभी बोरियत होने लगती थी । धीरे –धीरे आदत पड़ गई। बाद में मैं खुद भी आकर बैठने लगी। थोड़ी बहुत बातचीत भी करती थी । लेकिन मुझे हैरत होती थी कि ये इतनी देर तक कैसे बिना एक नंबर या दो नंबर जाए बिना बैठे रहते हैं । ( यह बात कहकर बहुत प्यारा ठहाका लगाती हैं )
* इतने लोग आते थे किसी लेखक से जुड़ा कोई अनुभव ?
– एक बार मैं, गिरिराज जी, राजेन्द्र यादव और हरी नारायण त्यागी साथ में श्री नगर गए थे। बहुत एंजॉय किया था । वहाँ हुआ ये कि राजेंद्र यादव और हरी नारायण त्यागी ड्रिंक्स लेते थे तो वो लोग पीने लगे। राजेंद्र यादव ने कहा “मीरा जी जरा खाने–वाने का पता करिए ।” इनको इस बात पर गुस्सा आ गया, जबकि ये नाराज कम ही होते हैं । इन्होंने कहा “पीकर बैठे हो और मीरा को बोल रहे पता करने जाए वो कहाँ जाएगी पता करने ।” थोड़ा माहौल भारी हो गया। लेकिन राजेंद्र यादव का हँसी मज़ाक वाला नेचर था। ये बेड पर बैठे थे, वो धीरे–धीरे खिसक कर इनके पास गए और गुदगुदी करने लगे । बोले, “क्या हुआ ? क्यों भन्ना रहा और सारा गुस्सा इनका खत्म हो गया ।”
* आपको कभी ये नहीं लगा कि लेखक के बजाय किसी और से शादी हुई होती ?
– नहीं, –कभी नहीं जब हो गई तो हो गई । मेरे मन में शादी से पहले और बाद में बस यही डर था लेखक शराब बहुत पीते हैं । अगर इन्होंने शुरू कर दिया तो जिंदगी तबाह हो जाएगी । मन्नू भंडारी ने कितनी परेशानियाँ झेली, ये अपनी दोस्त की वजह से मालुम था । लेकिन मेरी चाची ने मुझे बताया था कि मुन्ना ( इनका घर का नाम ) बहुत सीधा है इसमें ऐसी कोई आदत नहीं है । तो मुझे थोड़ी आश्वस्ति मिली थी ।
* आप शादी से पहले मिली थी ?
– हाँ, हालांकि अरेंज मैरेज थी लेकिन भाई ने वेंगर्स में ड्रॉप कर दिया था कि एक बार मिल लो। ये मेरी नन्द के साथ आए थे । मैं बहुत घबराई हुई थी । कोई ज्यादा बातचीत नहीं हुई।
* गिरिराज जी कि कोई आदत जो आपको अखरती रही हो ?
– हाँ, घूमने- फिरने का मुझे बहुत शौक था और इन्हें ज्यादा नहीं बस यही बात अखरती थी।
* आजकल लेखकों की रॉयल्टी को लेकर विवाद चल रहा है क्या आपको गिरिराज जी के न रहने पर आसानी से रॉयल्टी मिल रही है ?
– इस साल मैंने इनके चारों प्रकाशकों ( राजपाल , राजकमल , नियोगी , अमन ) को फ़ोन किया तो, भेज तो सबने दिया । लेकिन पहले से काफी कम आयी। अब हिसाब-किताब का कुछ पता नही। शायद किताबें कम पढ़ी जा रही हों ? लेकिन आ गई बेशक कम आयी।
* आपको फोन करके कहना पड़ा ?
– हां …….।
* अच्छा, अब आपके मन में गिरिराज जी की किस तरह की स्मृति है ? क्या बात बहुत याद आती है?
– मुझे अंतिम दिन याद आता है जब इन्होंने कहा “पास आओ” और मेरी हथेली कसकर पकड़ ली। और बस कुछ ही देर में यात्रा से बचने वाला व्यक्ति एक अनंत यात्रा पर जा चुका था। वो स्पर्श, गर्म हथेली का ठंडा पड़ते जाना किसी घनीभूत पीड़ा की तरह स्मृति में है। अब तो सब कुछ स्मृतियों में ही है। किसी का शेर है….
“तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
ख़ुश हूँ कि कुछ न कुछ तो मिरे पास रह गया “।