गाज़ियाबाद में जन्मी डॉ निधि अग्रवाल, पेशे से चिकित्सक हैं।वे झाँसी में निजी रूप से कार्यरत्त हैं। प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं हंस, किस्सा, परिकथा, पाखी,लमही, दोआबा आदि में उनकी रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन होता रहा है।। आकाशवाणी के भोपाल और छतरपुर (मध्य प्रदेश) केंद्र तथा स्थानीय ऍफ़ एम गोल्ड के कार्यक्रमों में रचनाओं का पाठ हुआ है।
कहानी संग्रह: ‘अपेक्षाओं के बियाबान’
उपन्यासिका: ‘अप्रवीणा’ प्रकाशनाधीन
काव्य संग्रह: ‘अनुरणन’ प्रकाशनाधीन
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार 2021
श्रीमती सुमित्रा देवी अवस्थी युवा रचनाकार सम्मान 2021
निर्मला स्मृति हिंदी साहित्य गौरव सम्मान 2021
राष्ट्रीय संत नामदेव कहानी साहित्य पुरस्कार 2021
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कहानियां
पाँचवें पुरुष की तलाश में
लेडी विथ सनफ्लॉवर्स
ऑफिस में अधिक काम कब था? मन ही थका था उस उच्चवर्गीय सोसायटी की बारहवीं फ्लोर पर लिफ़्ट रुकी और बाहर निकलते ही फ़्लैट के मुख्य द्वार से सटा कर रखी पेंटिंग को देख ताप्ती चौंक गई थी। हाँ, पेंटिंग ही थी। इतना तो वह उसके आकार से पहचान सकती थी। एक झीने गुलाबी कपड़े से बाकायदा लपेटी गई। कोई विस्फोटक सामग्री तो नहीं? वह सहम गई। इन दिनों हर मोहक वस्तु एक छलावा जो है! पर महीन कपड़े से झलकते रंगों के जादू ने मोह लिया। अतीत कैसे और क्यों, और अधिक लुभावना हो, बार-बार हमारे सामने आ खड़ा होता है! काँपते हाथों से आवरण हटाया और पूरा शरीर काँप गया। माथे पर पसीना छलक आया। त्वरित गति से कपड़ा वापस ढंक दिया। चोर निगाहों से चारों ओर देखा कहीं कोई नज़र न आया। इस मंज़िल पर यह अकेला पेंटहाउस था। ऑफ़िस बैग वहीं छोड़, दरवाज़ा खोला। पहले पेंटिंग को घर के अंदर रखा। शुक्र है विक्टर इस समय घर पर नहीं। सशंकित मन से पुनः बाहर झाँका और बिखरा हुआ सामान और बैग अंदर खींचकर ज़ोर से दरवाज़ा बंद कर दिया। जितने सन्नाटे हमारे भीतर भरते जाते हैं उतनी ही मुखर हमारी प्रतिक्रियाएँ होती जाती हैं। सूखे होठों पर जीभ फेरते पुनः पेंटिग को अनावृत किया। वही थी… बिल्कुल वही… हू ब हू। खुली आँखों से भी.. बन्द आँखों से भी। आँखें बँद कर लरजती उंगलियों से छुआ वही… वही स्पर्श… उंगलियों को सूँघा… वही गंध। वह फ़्रेम में भी थी, फ़्रेम के बाहर भी!
कौन लाया? किसने बनाया? यह प्रश्न गौण हो गए थे इस समय। वह आत्ममुग्धता में डूबी थी। पेंटिंग उठा कर ड्रेसिंग में ले आई। आदमकद शीशे के सामने खड़े हो, अक्स देखने लगी। बालों में बँधे तौलिए के पाश से मुक्त हो चलीं कुछ आवारा लटों की देह से लिपटी लज्जाहीन पानी की बूँदे, कुछ उसके माथे और कुछ उसके कोमल कंधो को चूम रही थीं। अतीत से आ, दो भुजाओं ने उसे घेर लिया। उपत्यकाओं को अनावृत करने की आतुरता। जलबूँदों से कंठ भिगोने की बेचैनी! पूरे बदन में सिहरन दौड़ गई। पेंटिंग को पुनः देखा। बेडरूम की खिड़की के पास मेज़ पर रखे वास में सूरजमुखी के फूल लगाती वह! चित्रकार की खिड़की सम्भवतः उसकी खिड़की के सामने खुलती होगी। कितनी आयु रही होगी उस पल के ठिठक की? उसने याद करने का प्रयास किया। उस दिन विक्टर से लंबी बहस हुई थी। याद ने बदन पर पड़े नील को छू, टीस बढ़ा दी। उसने क़मीज़ उठाकर धब्बों को यू छुआ ज्यों वहाँ उस पल का इतिहास संरक्षित हो। विक्टर चला गया था। उसकी सुबह की फ़्लाइट थी। वह देर तक सोती रही थी। जाने से पहले विक्टर ने उसे चूमा होगा क्या? आँखों ने उत्तर ‘न’ माना और छलक उठीं। जब आँख खुली थी, सूरज खिड़की से अंदर दाख़िल हो, उसका बदन सेंक रहा था। वह देर तक नहाई थी। न पानी सकुचाया था न वह। किंतु यह पेंटिंग… एक हाथ तौलिए पर रखे दूसरे से फूल लगाती हुई वह। अतीत का पल सजीव हो सामने चला आया। वह बाथरूम में थी जब डोरबेल बजी। जलकणों को दो तौलिओं को सुपुर्द करती वह मुख्य द्वार की ओर गई थी। स्पाई आई से देखा फ्लोरिस्ट का लड़का था। सूरजमुखी के फूल लिए! वह उमंग से भर गई थी। बुके वहीं छोड़, जाने का निर्देश दिया और ज़रा सा दरवाज़ा खोल फूल उठा, बेडरूम में चली आई थी। मुरझाए गुलाब हटाके सूरजमुखी लगा रही थी जब तौलिए की पकड़ शिथिल हो चली, बाएँ हाथ से तौलिए को साधते अनजाने नज़र खुली खिड़की पर रुकी थी। वह ठिठकी रही कोई चेहरा तलाशती। नहीं, कोई नहीं दिखा था। उसने इत्मीनान से फूल लगाए थे और ड्रेसिंग में चली गई थी।
इन्हीं पलो में किसी एक जोड़ी आँख ने उसे छुआ होगा, सहेजा होगा,उस क्षणिक अनुभूति को रंगों में घोल, लम्बा जीवन दिया होगा। हवा में तिरती एक लचक उसे छू गई।
वह वापस ड्रेसिंग में गई। अलमारी में से वही तौलिया निकाल कर बाँधा। दर्पण में देखा। कुछ और नीचे… ढलकता हुआ… हाँ बस इतना ही! वह सिहर गई। एक जोड़ी आँखे उसका रोम रोम जलाने लगी। एक जोड़ी ही थी? अनुभूति ही कैद हुई या तसवीर भी या वीडियो भी? अनिष्ट की जकड़न बढ़ने लगी। उसने उस पल में लौट खिड़की को बंद करना चाहा। पेंटिंग को उलट-पलट कर देखा कहीं कोई नाम नहीं, इनिशियल्स नहीं। केवल एक शीर्षक- लेडी विद सनफ्लॉवर्स!
इसी क्षण फ़ोन बजा था।पसीना पोंछ वापस कपड़े पहने। विक्टर की कॉल थी। पेंटिंग को अलमारी के पीछे कपड़ों में छुपाया। इतने में फ़ोन शांत हो गया था। विक्टर का मैसेज था उसे 2 दिन और रुकना पड़ रहा था। ताप्ती ने राहत की साँस ली। पेंटिंग दो दिन और बाहर रह सकती थी।
हाउस ऑफ प्लेज़र
उसने रंगों से अपना पहला परिचय याद किया। वह एक आम-सा शहर था लेकिन ख़ास होने की चाह लिए। इस घर की ख़ास बनने की कहानी भी ख़ास है। इसे ख़ास बनाया दो अलग लोगों ने जो घर की ही तरह ख़ास होने की चाहत से भरे थे। आम से ख़ास होने की इस यात्रा में शब्दों ने मायने बदले, वरीयता के पायदान बदले और इस यात्रा में जो सहेजने योग्य था अनचीन्हा झर गया, जिसके झरने से कोई रिक्त न होता, वह बचा रहा। एक अभिशप्त दास्तां सुनाने के लिए!
वह बिस्तर पर आ लेटी। कुछ मार्टिनी का नशा, कुछ तन को जकड़ता ज्वर, उस पर पूरे हफ़्ते की थकान! वह नींद में थी पर अतीत की जाग लिए। ‘आई फील लाइक आई एम अ मिसिंग पीस ऑफ स्लीप…’ स्टीरियो पर बजते गाने के साथ गुनगुनाते हुए गिलास ख़ाली कर पलंग पर लुढ़का दिया।
साहिल से उसका परिचय एक फूल प्रदर्शनी में हुआ था। वह फूल हाथों में लिए पलटी थी। ऊँचा कद, समुद्री नीली आँखें, फूल उसके हाथों में से अपने हाथों में लेते अँगुलियों पर संगीत छोड़ता बेहिचक बोला था- “मे आई किस यू?”
‘व्हाट’ कहते हुए खुले होंठ अजनबी स्पर्श में डूब गए। कुछ था जाने हवा में,उसके इत्र में या उस स्वर में या कि वह उम्र ही थी बहकने की! भूला स्वाद होठों पर तैर गया। ‘बियट्रिस!’ उसने होठों पर दबाव बढ़ाते हुए कहा था। वे अलग हुए थे पुनः जुड़ने के लिए। इस बार संवाद पूरा था। लव एट फर्स्ट साइट? डस इट रियली एक्सिस्ट? वह अक्सर ख़ुद से पूछती थी। आज उत्तर उसे तलाशता औचक चला आया था।
“*बियट्रिस कौन?” ताप्ती ने उनींदे साहिल का माथा चूमते पूछा था।
प्रत्युत्तर में वह मुस्कराया था,”जेलस?”
वह झेंपी थी। क्या वह शादीशुदा है? बच्चे हैं? मन काँपा। प्रेम में ऐसे प्रश्न मायने रखते हैं क्या? दिमाग ने दिलासा दिया।
बियट्रिस **दांते की आत्मा का प्रवेश द्वार! साहिल ने उसे बाँहों में भरते कहा था। एक हफ़्ते वह उस द्वार की चाबी तलाशती रही थी। साहिल का न कोई फ़ोन आया न संदेश। दो बार उस बासन्ती घर की डोरबेल बजा लौट आई। उसे आश्चर्य होता कि क्या वह कल्पना में मिली थी? ‘कंसीडर मी अ ड्रीम’ *काफ़्का से शब्द उधार लेते, ज्यों साहिल ने उसके कानों में बुदबुदाया। स्वप्न के पदचापों का पीछा करते,देह पर पड़े प्रेम चिन्हों से उसने पूछा- “तुम भी स्वप्न हो क्या?” आज जानती है हर खुशी एक स्वप्न है। हर आत्मिक सम्बन्ध स्वयं से छल! किन्तु स्वप्न देखते व्यक्ति की अनुभूतियाँ सच्ची होती हैं और हर सम्बन्ध एक अदृश्य लेन-देन। दृष्टि विकसित करके क्या हासिल है? भटकन का कोई हल है क्या? जितने सुख हैं सब अज्ञानता की देन हैं। तभी तो रविवार की सुबह मिल्कमैन की जगह साहिल को दरवाज़े पर खड़ा देखकर ख़ुशी से चीख पड़ी थी। ताप्ती ने करवट बदलते विगत को याद किया।
“चलो!” उसने कहा था।
“कहाँ?”
“मेरे साथ।” साहिल ने लिफ़्ट की प्रतीक्षा में एक लंबा चुंबन चुरा लिया।
“घर तो लॉक करने दो।” उसने भीगी आँखों से ताज़ी मुस्कान बिखेरी और बासी रात धारण किए जगमगाती सुबह में दाख़िल हो गई थी। साहिल ने कॉटेज का दरवाज़ा खोला। बोला, “रुको !”
वह चौंक कर रुक गई। साहिल ने स्कार्फ़ उसकी आँखों पर बाँध दिया। आगामी क्षणों का रोमांच उसकी देह पर तरंगित हो रहा था जब साहिल ने आँखें खोलने के लिए कहा।
“साहिल!” उसने अपनी हथेलियों से मुँह ढक लिया। आँखें बह चली।
“विल यू बी माइन?” वह सामने घुटनों पर बैठा था। छल्ला हाथ में लिए। ‘यस ,यस, यस ‘कहते वे लिपट गई थी। छल्ला पहनाते साहिल ने बाँहों में भर लिया। आसमान ने अनगिन लड़ियाँ जला कर इस पल को उत्सव में बदला। ताप्ती उस तारों भरी रात के सौंदर्य से अभिभूत थी।
जो परिचय पहले मिलना चाहिए था वह पीछे मिला। साहिल चित्रकार था। कई नौकरियाँ और शहर छोड़ चुका था और अंततः मुम्बई से आकर पणजी में अपने दोस्त के इस कॉटेज में बस गया था। समय के साथ साहिल के प्रेम का खुमार बढ़ता जा रहा था और ताप्ती की भविष्य के लिए चिंता। साहिल की आमदनी का कोई स्रोत न था। ताप्ती की नौकरी उन दोनों के लिए पर्याप्त थी किंतु साहिल के लिए लंबे पोज़ देते वह थक जा रही थी। जिसका असर उसके काम पर पड़ रहा था।
यह ख़ास दिन था। जिस दिन मन की कोई अनसुनी साध सध जाती है, उस दिन का अगले बरसों में ख़ास हो जाना दुनिया की रीत है। ताप्ती ने उस दिन को ख़ास मान कोई गुनाह न किया था। साहिल के लिए महत्व दिन का नहीं पल का रहता था। हर पल पहले से अधिक तरल, अधिक सुंदर ,अधिक अवधि, अधिक संतुष्टि का होना चाहिए। यही मानवीय संस्कृति के उत्तरोत्तर सौंदर्यीकरण का सूत्र है।
वह पिछले दो घंटों से अचल बैठी थी। साहिल के हाथ कैनवस पर तेज़ी से चल रहे थे। ‘अब बाकी का कल..’ उसने कहना चाहा। साहिल ने न हिलने का इशारा किया, “चलो आज कहीं बाहर चलें।” उसने इसरार किया। साहिल ब्रश रख, आहिस्ता से पलटा,
“कांट यू बी स्टील, फॉर अ व्हाइल। यू ˈरूइन्ड माय मोमेंट।”
“नो यू ˈरूइन्ड माय लाइफ़।” वह चिल्लाई थी, “..और क्या बनाते हो तुम? यह टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ? वीभत्स चेहरे! यह मैं हूँ? ऐसी दिखती हूँ मैं?” वह क्रोध से काँप रही थी, “यह कला है? सौंदर्य है?”
“कला और उसमें निहित सौंदर्य के विषय में तुम कुछ नहीं जानती मूर्ख औरत! जाने कैसे मैं तुम्हें बर्दाश्त कर रहा हूँ।” साहिल के स्वर में घुली हिकारत पूरे कमरें में फैल गई।
“तुम मुझे बर्दाश्त कर रहे हो? तुम?” आश्चर्य से उसको मुँह खुल गया, “तुम मुझे बर्दाश्त नहीं कर रहे। इस्तेमाल कर रहे हो। जिस कला की दुहाई दे रहे हो वह तुम्हें एक समय का खाना नहीं दे सकती। उस कला के निर्माण के लिए मॉडल तो भूल ही जाओ। तुमने मुझसे शादी की। खाना और मॉडल दोनों मिल गए।”
साहिल कुछ न बोला। रक्तिम नेत्रों से उसे घूरता हुआ सिगरेट पीता रहा। वह भीतर कमरे में आँसू बहाती रही। स्त्रियाँ केवल उपभोग के लिए हैं? अगली सुबह उठी तो कमरा फूलों से महक रहा था ज्यों बदली छट गई हो। सब कुछ खिला-खिला… किसी दैवीय स्पर्श से रोशन! सिरहाने ‘सॉरी’ का कार्ड रखा था। वह कार्ड हाथ में लिए बाहर आई तो साहिल ने झुककर कोर्निश की और मेज़ पर सजे नाश्ते की ओर इशारा किया। कितनी परते हैं मन पर सुख-दुख की ! काश कि जीवन से भी नापसन्द परत हटाई जा सकती। उसने सैंडविच से निकालकर कैप्सिकम की स्लाइस प्लेट में साइड रखते हुए सोचा।
“मैं बदलूँगा तुम्हारे लिए! हमारे आने वाले बच्चे के लिए!” साहिल ने हाथ थाम कर कहा, “मुझे छोड़कर मत जाना ताप्ती! *जौर्ज जेनां हैस पीओनी… अर्नेस्ट कोस्ट हैस द हॉलीहॉक… बट आई हैव यू… ओनली यू।” वह अभी अधिक नशे में हैं या कल शाम था। उत्तर अनिर्णित रहा, “आई लव यू। एक अवसर और दो। आख़िरी अवसर।”
वह रो पड़ी, “कला अपनी जगह है जीवन की ज़रूरतें अपनी जगह। पूरक हो सकते हैं विकल्प हरगिज़ नहीं। कोई नौकरी देखो।”
“मन नहीं लगता। हर वक्त रंग घेरे रहते हैं। रेखाएँ संवाद करती हैं। हर दृश्य में संभावनाएँ… एक नया द्वार… एक नया दृष्टिकोण!” उसके अंदर की छटपटाहट स्वर के साथ बाहर चली आई।
ऐसा नहीं कि वह साहिल की उलझन और बेचैनी न समझती हो। ऐसा नहीं कि एक चित्रकार की प्रेरणा होना उसे भाता न हो। ऐसा नहीं कि उसके मन में निर्बाध बहते जाने की चाह न हो किन्तु सब उड़ेंगे तो सिरा कौन थामेगा ? क्या सम्भव नहीं कि थोड़ा साहिल थिर हो जाए, उड़ने की थोड़ी मोहलत ताप्ती को भी मिल जाए! घर संजोने का ख़्याल भी साहिल को किसी जुनून की मानिंद आया था। वह दरों-दीवार सजाने में जुट गया था। उसे कैसे समझाए कि घर दीवारों को सुंदर तसवीरों से सजाने से नहीं मन पर सुंदर स्मृतियों के अंकन से बनते हैं… बचते हैं!
सूरजमुखी फ़र्श से अर्श का सफर
इसी समय इब्राहिम का औचक प्रवेश हुआ था। साहिल ने उसे आमंत्रित किया था। उसके साथ कुछ प्रोजेक्ट्स में साझेदारी करना चाहता था। इब्राहिम प्रभाववादोत्तर शैली का अनुयायी था। जितना वह समझ पाई थी,इम्प्रेशनिस्ट स्कूल की बनिस्पत पोस्ट इम्प्रेसनिज़्म की अवधारणा उसे अधिक उचित प्रतीत होती थी। कला आम जीवन को पृथक और नई दृष्टि से देखना ही तो है किन्तु अधिकतर चित्रकार जाने किस प्रकाश में संसार को देखते हैं कि उनकी बनाई कृतियाँ किसी अन्य ही संसार की प्रतीत होती हैं उसे।
इस छोटे से कॉटेज में एक ही बेडरूम था। इब्राहिम ने बिना किसी शिकवे के गैराज को अपना बसेरा बना लिया। चित्रकारों का एक गाँव बसाना साहिल की महत्वकांक्षी परियोजना में शामिल हो गया। इब्राहिम बसन्त की महक लिए आया था। घर की उकताहट उसके कहकहों से धुलने लगी। वे साथ बैठते, हँसते और वीकेंड पर पिकनिक जाते। साहिल और ताप्ती खोए हुए लम्हों की भरपाई करते और इब्राहिम उन लम्हों को कैद करता। उस दिन बाग़ीचे से लाए सूरजमुखी के फूलों को वास में रखते ही साहिल ने गुनगुनाते हुए ब्रश उठा लिए थे। वह और इब्राहिम साथ बैठे विमर्श करते रहे कि यह पेटिंग किस दीवार और किस रंग के साथ बेहतर लगेगी। ताप्ती के जहन में बाग़ीचा और खुली धूप घूमती रही।
मौसम अचानक बदल गया था। रात भर बारिश हुई थी। इब्राहिम अपने एक दोस्त से मिलने गया था और लौट नहीं पाया था। गैराज में पानी भरने का संशय लिए, इब्राहिम का सामान भीगने से बचाने वे दोनों भागे थे। वहाँ जो देखा कल्पनातीत था। साहिल कैनवस फाड़ता हुआ चिल्लाने लगा,
“कब? कहाँ? बताओ?” प्रश्नों के उत्तर उसके पास कब थे? एकतरफ़ा आकर्ष कि उसे कोई खबर न थी। “सच बताओ।” चिल्लाते हुए साहिल ने उस पर हाथ उठाया। वह संभल न पाई और ज़मीन पर रखे सूरजमुखी के फूलों पर गिर पड़ी। साहिल चिल्लाता रहा और वह एकटक उन फूलों को देखती रही। कितना सफ़र तय कर पाएँगे यह? यूँ ही मुरझा जाएँगे या ज़मीन से उठेंगे और किसी वास में कैद ? क्या यही नियति है?
“प्यार करती हो उससे?” साहिल के नाख़ून उसकी बाहों में गड़ रहे थे। आँखों से निकलता ताप चेहरे को झुलसा रहा था।
वह मौन, प्रश्न का उत्तर तलाश रही थी। प्रश्न ज़रूर अलग था। क्या वह साहिल से प्यार करती है ? साहिल के विषय में उसे विश्वास हो चला था कि प्रेम उसे मात्र अपनी कला से है ताप्ती से सम्भवतः अधिकार का सुख!
इब्राहिम और सूरज साथ-साथ लौटे। अपना सामान बाहर पड़ा देख उसने आँधी को दोष दिया होगा लेकिन भीतर की हवा ने बताया कि दोष उसके ही नाम दर्ज़ है। साहिल एक शोल्डर बैग में सामान लेकर जा रहा था। इब्राहिम सिर झुकाए खड़ा रहा। न ताप्ती ने रोका न सफ़ाई दी। न इब्राहिम ने सफ़ाई दी न रोका। ज्यों आँधी का आना और जाना, सब विधि के हाथ। हम केवल मूक दर्शक!
“क्यों किया तुमने ऐसा?” इब्राहिम से पूछते इस स्वर में एक शिथिल जिज्ञासा थी। एक मित्रवत शिकायत तक नहीं और आक्रोश तो बिल्कुल ही नहीं।
“सृजन से भी ज्यादा खूबसूरत है सृजन की प्रक्रिया। वह तुम्हें रच रहा था। मैं अभिभूत देख रहा था। उसे ही तो उकेरा है।” समतल स्वर झूठ के बोझ से, अंत तक दम तोड़ गया था। ताप्ती ने पाया तीन तसवीरों में अकेली वह है एक में साहिल के साथ । पाँचवी तसवीर में वह एक अन्य पुरुष के साथ, जिसका चेहरा छिपा है किन्तु इस तसवीर में पुरुष के कंधे पर पोरों से कुछ लिखते, ताप्ती के चेहरे पर शब्दातीत ओज है! उसने पढ़ना चाहा पर लिपि अनजानी थी। क्या इसे ही साहिल ने इब्राहिम माना? इब्राहिम ने क्या माना? उत्तर तलाशते नज़र इब्राहिम के चेहरे पर टिक गई। उसने आँखों से पूछा, “क्या?”
“किसी युगल की निजता में सेंध लगाना कला है?” उसने प्रश्न बदल दिया। स्वर में उकताहट थी, शिकायत अब भी नहीं। शिकायत की अनुपस्थिति मानो तसदीक कर रही है कि उस फ़्रेम में उपस्थिति से वह आनन्दित है!
वह मौन रहा.. केवल कुछ क्षण। शब्द व्यवस्थित करता हुआ। “कलाकार के लिए निजता बेमानी है। वह मुझसे या तुमसे नहीं स्वयं से खफ़ा है।” पेंटिंग के फटे हुए सिरों को हथेली से सहारा दे कर, मिलाता हुआ बोला , “तुम्हारे चेहरे पर कैसा संतोष है। एक दिव्य आलोक! तुम इस फ़्रेम में हो क्योंकि तुम उस पल में थी, उसे जी रही थी। साहिल इन पलों से उगाही की कल्पना में था। वह उन पलों के आनन्द में था ही नहीं।” वह उन पलों में थी या नहीं किंतु इन पलों में हैरान थी। अर्धविक्षिप्त कलाकारों का यह आत्मकेंद्रित संसार!
“इसमें है साहिल?” उसने पाँचवी तसवीर को इंगित करते हुए पूछा।
इब्राहिम कुछ क्षण तसवीर पढ़ता रहा फिर करीब आ, उसकी आँखों में झाँकता विश्वास के साथ बोला, ” जो यह साहिल होता तो क्या तुम उसे न रोकतीं। मैं उसे न रोकता।” ताप्ती सच्चाई सुनने के लिए तैयार नहीं थी। खिड़की के बाहर नीरव आकाश में कोई तारा तलाशती रही।
“मैं रुकूँ?” इब्राहिम ने पूछा था।
“नहीं।”
“तब तुम चलो साथ।” स्वर में निर्णय भी था विनय भी किन्तु यह एक पुरुष का नहीं मित्र का निर्णय था।
“नहीं।” उसने आँसू रोकते दृढ़ता से कहा था।
इब्राहिम के जाने के बाद दो फ़ोन आए थे। क्रम उसे याद नहीं। दोनों पर उसने ‘ठीक है’ की समान प्रतिक्रिया दी थी। एक फ़ोन ऑफिस से टर्मिनेशन कि इत्तिला देने के लिए आया था। दूसरा विक्टर का, घर की चाबी के लिए। साहिल ने घर छोड़ने की सूचना दी थी उसे। अगली सुबह अपना सामान पैक कर, अख़बार में नई नौकरी तलाश रही थी जब विक्टर ने प्रवेश किया।
“जब तक तुम चाहो रह सकती हो यहाँ।” उसने पैक रखे सामान को लक्षित करते कहा, “इब्राहिम ने बताया सब।” आगे धीमे स्वर में बोला। मानों सब दोष उसी का हो।अपने लिए बनाई कॉफी दो मग में डाल, एक विक्टर की ओर बढ़ा दिया।
“घर नहीं नौकरी चाहिए।” उसने गहरी साँस लेते हुए कहा।
“कब तक टेंपरेरी नौकरियाँ करोगी? परमानेंट के लिए क्या कहती हो?” उसने सवालिया नज़र ताप्ती पर टिका दी।
सब इतनी जल्दी में क्यों हैं? रिश्ते ज्यों दुकानों में सजा सस्ता शो पीस हों। पसन्द आया घर सजाया। मन भर गया, टूट गया, कोई चिंता नहीं। कुछ नया और बेहतर और ट्रेंडी आ गया होगा। उसने समय माँगा था। द्वंद्व की सुई ‘हाँ’ पर स्थिर हो चाहे ‘न’ पर इसकी प्रतीक्षा किए बिना उसने साहिल से अपने रिश्ते की आख़िरी निशानी से अवश्य निजात पा ली थी। उन दवाइयों को निगलते उसके हाथ नहीं काँपे थे। सृजन का सुख! साहिल कहता है। इब्राहिम भी। उसने अपने पहले सृजन को अनदेखे ही विसर्जित कर दिया था। तन से रिसते रक्तस्राव के साथ क्या उसके मन की तरलता भी जाती गई। क्या वह पाषाण हो गई है। स्वयं से प्रश्न अवश्य किया पर उत्तर से आँखे मिलाने का न साहस था, न समय।
जाने वह विक्टर का सतत प्रेम निवेदन था या वैभव जिसने उसे मोह लिया था या यह संतुष्टि कि वह कलाकार नहीं है, जुमले नहीं जानता। भविष्य सुरक्षित है उसके साथ। शादी धूमधाम से चर्च में हुई थी। जिसमें इब्राहिम एक मूक दर्शक की तरह बिना उमंग सम्मिलित हुआ। साहिल अनुपस्थित रहा।
इब्राहिम ने चार दिन बाद फ़ोन पर बताया कि साहिल ने बार मालिक से हाथापाई की और रक्तरंजित हालत में बार के बाहर बेहोश मिला। उसे रिहैबिलिटेशन सेंटर ले जाया गया है। वह मिलने जाना चाहती थी किन्तु इब्राहिम और विक्टर दोनों ही ने इसे साहिल के लिए अहितकारी पाया। कला और कलाकारों के प्रति ताप्ती के मन में अनजाने चली आई विरक्ति के पश्चात भी जाने क्यों विक्टर के मन में संशय बना रहा। कला प्रेमी न होने के पश्चात भी वह साहिल और इब्राहिम के काम पर नज़र बनाए रखता जबकि वह साहिल को बहुत पीछे छोड़ आई थी। किसी दुर्लभ खगोलीय घटना की तरह इब्राहिम ज़रूर अचानक प्रकट हो अचंभित कर जाता। वह अपने आगामी प्रोजेक्ट्स के बारे में बताता। विक्टर पीछे छूटे उसके प्रेम सम्बन्धों के बारे में। दोनों तसवीरों में कोई साम्य न था। वह ख़ुशनुमा तसवीर फ़्रेम कर लेती। दूसरी को चिंदी चिंदी कर जला देती।
यथार्थ भी तो जलाने लगा था उसे। वह अपनी छोटी नौकरी छोटी पहचान को याद करती। विक्टर के आभामंडल में उसने अपनी पहचान खो दी थी। घर से उकता कर ऑफिस चली जाती। ऑफिस से उकता कर घर आ जाती। दोनों ही जगह उसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति महत्वहीन थी। विक्टर की सपाटबयानी, सुरक्षित भविष्य उकताने लगे थे। थोड़ा रोमांच, थोड़ा रोमांस नीरसता से बचाए रखते हैं शायद। कलकारों की विक्षिप्तता, उनका जुनून, उनकी बेचैनी, उनकी दृष्टि… वह क्यों वही सब पुनः तलाशने लगी थी। इब्राहिम कहता है, “तुम्हारे सौंदर्य को एक कलाकार की दृष्टि ही देख सकती है। विक्टर इसे नहीं देख सकता। तुम देखना नहीं चाहती किन्तु तुम्हारी अंतर्दृष्टि उसे प्रतिपल देखती है तभी तो तुम्हारे इर्द-गिर्द एक सम्मोहित करता ऑरा निर्मित हो जाता है। तुम कला हो… ईश्वर रचित!”
“हर कला कामोद्दीपक है।” वह तंज से मुस्कराई होंठ तिरछे हो गए, “यही कहते हैं न तुम्हारे गुस्ताव क्लिमट।”
इब्राहिम शांत खड़ा उसे देखता रहा। उसकी शांति सदा ताप्ती की उद्वेलित करती है। फिर पास आकर माथा चूमते हुए बोला, ” कला को इतना सीमित क्यों करना चाहती हो? उद्दीपन तन का हो, मन का हो, विचारों का हो… जड़ता को समाप्त करता है। यही कला का उद्देश्य है, यही जीवन का भी।”
इब्राहिम से मिलने के बाद कई दिनों तक वह स्वयं को तलाशती है, खंगालती है। विक्टर झल्लाता है। कमी क्या है? ख़ुश क्यों नहीं? उसे लगता है वह जड़ हो गई है। सुविधाओं की सतत थकान है। साहिल के साथ के कष्ट अपने थे, संघर्ष अपने थे। अब देखती है जो कुछ है सब पर विक्टर की छाया है। उसके हिस्से की धूप कहाँ हैं? धूप की तलाश न हो तो छाया में क्या दुख है? इब्राहिम क्यों उसे सूरज का पता बताना चाहता है?
….और अब यह पेंटिंग! उरभूमि में गहरे दबे चाहत के बीज सम्भवतः इस पेंटिंग ने अंकुरित कर दिए थे। क्या वह स्वयं को कलाकार की दृष्टि से देखना सीख गई थी? वह पेंटिंग निरखते सोचने लगी। यह साहिल न था इब्राहिम न था। उसने स्वयं को पुनः खिड़की पर खड़ा पाया।
कुछ छह माह रिहैबिलिटेशन में रहने के पश्चात साहिल ने एक पार्सल ताप्ती के नाम भेजा था। यह आड़ी-तिरछी रेखाओं में दर्ज वीभत्स सत्य न था। यह भरी-पूरी रेखाओं में सुंदरता और मोहकता को अक्षुण्ण रखने की चाह लिए एक ईमानदार प्रयास था। चित्रकार की मनःस्थिति के अनुरूप उस पेंटिंग की स्मृतियों का रंग उन्माद भरा था। तीव्र स्ट्रोक्स द्वारा रंगों की गहरी परत… जिनके तले अनुभूतियों की प्राण वायु अवरुद्ध हो जाती और आज यह पेटिंग थी एक महीन उदासी ओढ़े, श्रद्धा के रंगों में रंगी। ज्यों ईश्वर से प्रार्थनारत्त हो कोई; प्रार्थनाएँ सुनी नहीं जातीं की पुख़्ता अवधारणा लिए। ईश्वर किसकी रक्षा करेगा उसके विश्वास की या प्रार्थना की? कौन है यह अपरिचित कलाकार? क्या इसे ही इब्राहिम ने पाँचवी तसवीर में उकेरा था? इस पाँचवे पुरुष की तलाश में कब तक भटकेगी वह! साहिल का क्या दोष था? उसकी वरीयता कला थी। वह कल्पना के अंतहीन आकाश में विचरता था।उसे पकड़ने के प्रयास में थक कर वह उससे दूर हो गई थी। दूर न भी होती तो मोहभंग उसकी ओर से हो जाता। कलाकार नई तसवीर और नए सम्बन्ध पुरानी स्मृतियों के बोझ तले नहीं बनाता। क्या जटिलता से ही रचनात्मकता संचालित होती है? सफल लेखक, कलाकारों ने प्रायः रिश्तों की असफलता का त्रास झेला है। उनका महत्त्वकांक्षी कल्पना जगत यथार्थ को यूँ ढक लेता है कि आमजन उससे सामंजस्य नहीं बिठा पाता। स्वयं से पूछा तुम्हारी कोई महत्त्वकांक्षाएँ नहीं क्या? तुम क्या चाहती हो? प्रेम? सुरक्षा?स्टेटस?
विक्टर का क्या दोष? वह यथार्थ की ऊबाऊ सख़्त ज़मीन पर खड़ा है उसके इतना समीप कि वह हवा को तरस जा रही है। इब्राहिम? कहीं इब्राहिम ही तो नहीं वह पाँचवा पुरुष? नहीं , नहीं, यह प्रश्न तो जाने कितनी बार विक्टर की आँखों ने पूछा है। उसने भी पूछा है स्वयं से। उत्तर सदा न आया है। उससे मन बाँटा जा सकता है,तन नहीं। सम्भवतः विशेष पलों में हम अपनी चाहतों के अनुरूप रिश्तों में बँधते जाते हैं। ज़रूरत बदलती हैं रिश्ते बदल जाते हैं। रिश्तों से अधिक हमारी चाहतें अस्थायी हैं!
विचारों के अतिक्रमण से आहत वह आराम कुर्सी पर बैठ गई। आँखे मूँद गई। कमरा रोशनी से भर गया।
पहले कमरे की दीवारें ढहीं फिर छत गायब हुई। सुदूर आकाश से मानो एक प्रकाश पुंज उसे पुकार रहा था। वह सूरजमुखी बन ऊपर उठती गई। ऊपर और ऊपर इतना ऊपर की समस्त सृष्टि उसके समक्ष लघु प्रतीत होने लगी। प्रकृति आश्रिता बन उसकी गोद में सिमट गई। उसने दोनों हाथ फैला दिए। बांसों के झुरमुट से गुज़रती शीतल हवा के स्पर्श के साथ उसने गाया- “द् विंड इस ब्लोइंग ब्रिस्कली टुवार्डस माय होम….” गीत के स्वर उसके भीतर भरते जा रहे थे।
सूखे हुए सूरजमुखी
विक्टर, होटल से चेकआउट कर रहा था जब उसे यह ख़बर मिली। किसी ने पुलिस स्टेशन फ़ोन करके ताप्ती की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाई है। फ़ोन करने वाले ने अपना नाम नहीं बताया। विक्टर ने ताप्ती को फ़ोन मिलाया जो अनुत्तरित रहा। ऑफिस फ़ोन मिलाया तो पता चला कि दो दिन से ताप्ती का ऑफिस से कोई सम्पर्क नहीं हुआ है। परेशान विक्टर जब घर पहुँचा तो पुलिस ऑफिसर सगारे भी लिफ़्ट के बाहर ही मिल गए। दरवाज़ा खोला। सब वैसा ही जैसा दो दिन पहले था। ताप्ती को पुकारा। कोई उत्तर नहीं। भीतर बेडरूम में रखी आरामकुर्सी सूरजमुखी के मुरझाए फूलों से भरी थी। मेज़ पर रखी थी- ‘लेडी विथ सनफ्लॉवर्स’। वह पेंटिंग पर कलाकार का नाम तलाश रहा था जब दूर किसी खिड़की पर एक साया लहराया। इसी समय इंस्पेक्टर सगारे के पास फ़ोन आया। कॉल ट्रेस हो गई थी। उन्होंने कहा-
“उस टेलिफ़ोन बूथ का पता चल गया है जहाँ से गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाई गई थी। बूथ की दीवार पर मुरझाए सूरजमुखी की तसवीर बनी है। इस चित्रकार को ढूँढना होगा।” वह पंजों पर उचकते हुए बोले।
“यह किसी एक चित्रकार का काम नहीं है।” विक्टर ने ठहरे स्वर में कहा।
“आप कैसे कह सकते हैं? आपने वह तसवीर देखी है? सस्पेक्ट के नाम जानते हैं?”
विक्टर ने पेंटिंग को एहतियात से मेज़ पर रखा। एकबारगी नज़र आरामकुर्सी पर रुकी। एकबारगी सामने की खिड़कियों पर। मन का बोझ चेहरे पर परिलक्षित हो रहा था। क्या है जीवन? मृत्यु का लंबा अभ्यास? कहते हैं मृत्यु पूर्णविराम नहीं बस अल्पविराम है। चोला बदलेगा और नया जन्म। तब नए जन्म की पूर्वसंध्या पर क्या नए साल से भी अधिक रौनक नहीं होनी चाहिए? ओहो ताप्ती! बिना जिए, बिना अपनी खुश्बू बिखेरे, बिना अपने रूप पर मोहित हुए पुष्पों को मुरझाना नहीं चाहिए। नए जन्म की आस में घुटते हुए मिटना नहीं चाहिए। एक हूक उठी। वह शब्दों को तोलता हुआ बोला, “सस्पेक्ट तो पूरा समाज है।” फिर फूलों को वास से बाहर रखता हुए वह रुका। वास का पानी बदलकर लौटा, मुरझाई पत्तियों को हटाया, फूलों के डंठल ट्रिम कर, उन्हें पुनः वास में लगाया। आगे कहा, “आपको क्या लगता है इन सूखे फूलों को अनुकूल मिट्टी में रोप देने से ये जी उठेंगे?”
सगारे की आँखों का आश्चर्य कमरे में फैल गया, “सस्पेक्ट?” उसने विषय याद दिलाया।
“मैं बस तीन नाम जानता हूँ…” निराशा में डूबा क्लांत स्वर , “उनमें से एक आपके समक्ष अपना गुनाह क़ुबूल कर रहा है।” और अपने हाथ गिरफ़्तारी के लिए आगे बढ़ा दिए। सगारे हतप्रभ खड़ा प्रतिपल जटिल होती इस गिरह का सिरा तलाशने का प्रयास कर रहा था। इसी समय सामने की खिड़की पर खड़ा चौथा गुनाहगार पर्दें की ओट में, किसी और खिड़की की ओर मुख़ातिब था।
सूरजमुखी का बाग़ीचा
‘माय होम’ में प्रवेश करते, ताप्ती ने आहिस्ता से आँखों को खोला। अहसास हुआ कि जितना वह ऊपर उठी है उतनी ही गहरी उसकी जड़ें पहुँचती जा रही हैं या यह विपरीत क्रम में हुआ? उसने हौले से उस प्रकाश पुंज को छुआ और पाया कि अब वह सूरज पर निर्भर न रही है। धूप न तलाश रही है। वह प्रकाश पुंज आत्मचेतना का अंश है। वह आकाश को न देख अपनी बाँहों की परिधि में अठखेली करती सृष्टि को गर्व से निहार रही है। सृष्टि सखी बन गई। सारी रिक्तताएँ भर गईं। सूरजमुखी को नया नाम दो। वह अब सूरज को नहीं तकना चाहता। वह रात में भी खिलना चाहता है, बरसात में भी। वह अपनी दिशा स्वयं निर्धारित करना चाहता है। अपना सारथी स्वयं बनना चाहता है। पाँचवी तसवीर में पुरुष के कंधे पर लिखी लिपि अब अबूझ न रही थी। इसी बोध के साथ सृष्टि का प्रत्येक पुरुष पाँचवा पुरुष बन गया था।
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