Friday, November 29, 2024

योगिता यादव
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कहानी संग्रह ‘क्लीन चिट’ (2014) और ‘गलत पते की चिट्ठियां’ (2020) के साथ योगिता यादव ने समकालीन हिंदी कथा साहित्य में अपनी एक अलग और मजबूत पहचान बनाई है। ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार (2014), कलमकार सम्मान (2015) राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान (2016) और डॉ शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान (2018) इसकी तसदीक करते हैं। उनकी कहानियां स्त्री विमर्श के लिए एक नई खिड़की खोलती हैं, जहां एक-स्त्री दूसरी स्त्री के साथ खड़ी दिखाई देती है। सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित ‘ख्वाहिशों के खांडववन’ उनका चर्चित उपन्यास है।

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कहानी

कांच का जोड़ा

ये एक किस्‍म का आत्‍मघात है। उसकी मुहब्‍बत में होना जो आपसे मुहब्‍बत न करता हो, या फि‍र जो इसके लायक ही न हो।

कांच का डॉल्फि‍न का जोड़ा खरीदते हुए बार-बार यही ख्‍याल आ रहा था,  क्‍यों खरीद लिया आखिर मैंने यहज‍बकि जानती हूं कि जलजले भरे इस माहौल में यह कभी भी टूटकर बिखर सकता है।

पिछले कुछ दिनों में दुनिया कितनी बदल सी गई है। दो तरह की घटनाएं-दुर्घटनाएं एक साथ घटित हुई हैं। असल में कोई भी रिश्‍ता किसी एक की हाथ की कठपुतली हो ही नहीं सकता, इसमें दो लोगों की अपनी-अपनी भूमिका होती है। अपना-अपना आस्‍वाद होता है। जिस शाम मैंने यह कांच का डॉल्फि‍न का जोड़ा खरीदा उसी शाम मुझे यह तलाक के कागज मिले। मैं यकीन ही नहीं कर पा रही हूं कि वो इतना उकता गया है मुझसे। 

हालांकि बहुत मुलामियत तो अरसा पहले ही खत्‍म हो गई थी पर मैं इसे वक्‍त का फेर ही मान रही थी। क्‍यों मैं भूल नहीं पाती हूं उन छोटे-छोटे लम्‍हों को,  जो आज भी उस क्षण की दीवानगी से भर देते हैं। 

सुबह पांच बजे स्‍टेशन पर पहुंच गई थी ट्रेन। मैं इसी उहापोह में थी कि इस समय कोई टैक्‍सी या ऑटो रिक्‍शा मिलेगा भी‍ कि नहीं, कि सामने देखती हूं वह बेंच पर बैठा मेरा इंतजार कर रहा है। एक साइड की मांग निकाल कर काढ़े हुए गीले बाल और आधी बांह की शर्ट में दुनिया का वह सबसे खूबसूरत लड़का अब भी मेरी आंखों में कैद है।

हम दिल्‍ली की संकरी गलियों और बाजारों में रिक्‍शे में साथ-साथ घूमे हैं, कितने ही खंडहरों की खाक छानी है, रात-रात भर कितने ही शायरों की शायरी और जिंदगी के किस्‍से सुने और सुनाए हैं। वो मेरे लिए पूरा का पूरा एनसाइक्‍लोपीडिया है। कहीं जाना हो या किसी से मिलना हो, मेरी यात्रा उसी से होकर गुजरा करती थी। मैं अब भी अपनी हर यात्रा का प्रारंभ बिंदु उसी को बनाना चाहती हूं पर एक दिन धीर-गंभीर शालीनता में उसने समझाया कि इस तरह हमारी निर्भरता बढ़ती है और हम अपना स्‍वतंत्र व्‍यक्तित्‍व नहीं बना पाते।

 और आज….. 

आज तीसरा दिन है उसकी राह तकते हुए। एक ही शहर में हों तो लगता है साथ हैं, भले ही कोई बात न हों। वह रात से लौट आया है पर हमारी मुलाकात अभी नहीं हो पायी है। घर की दो चाबियों ने हमें एक दूसरे की दस्‍तक और खबर से पूरी तरह स्‍वतंत्र कर दिया है। हम में से अब कोई भी डोर बेल नहीं बजाता, कि दोनों में से कोई भी नहीं चाहता कि कोई किसी की राह तके, कोई किसी के लिए दरवाजा खोले ….

क्‍या सचमुच ऐसा ही है , फि‍र क्‍यों मैं पिछले तीन दिन से उसकी राह देख रही हूं। रात भर मैं उसके सोशल मी‍डिया अकाउंट पर उसके किसी अपडेट की प्रतीक्षा करती रही हूं। यहीं वह अपने दोस्‍तों को अपने स्‍वतंत्र व्‍यक्तित्‍व के बारे में सूचनाएं देता हैअपना सेलिब्रेशन और सक्‍सेस शेयर करता है। यह सूचनाएं मेरे लिए नहीं होतीं, फि‍र भी बस एक यही सूत्र बचा है मेरे पास।  

हम दोनों के बीच बढ़ती जा रही अमैत्री के बीच जब मैंने उसे सोशल मीडिया पर फ्रेंड रिक्‍वेस्‍ट भेजी तब उसने फौरन यह रिक्‍वेस्‍ट स्‍वीकार कर ली थी। शायद वह भी जुड़े रहने का कोई एक सूत्र बचाए रखना चाहता था। पर अपने श्रेष्‍ठता बोध की कीमत पर नहीं, तभी उसने फौरन यह पोस्‍ट डाली थी , “ मित्रों की संख्‍या बढ़ती जा रही है , लगता है एक नया अकाउंट बनाना पड़ेगा या फि‍र कुछ पुराने निष्क्रिय साथियों को हटाना होगा।और यहीं अपने रिलेशनशिप स्टेटस में उसने जोड़ दिया है इट्स कॉम्लीकेटेड!

भीतर से कितना क्रूर है यह व्‍यक्ति, किंतु बाहर से कितना शालीन। अब मुझे इसकी शालीनता, क्रूरता, हिंसा और प्रदर्शन कुछ भी तो बुरा नहीं लगता। सब जैसे क्रमवार हैं। मैं इन्‍हें क्रमवार रखना भी सीख गई हूं। यह प्रशिक्षण भी उसी का दिया हुआ है।

एक-एक कर प्‍लास्टिक के पारदर्शी डिब्‍बों में दालें पलटते हुए मैं उन्‍हें किचन में सजाती जा रही हूं। क्रमवार, एक से सटा दूसरा डिब्‍बा। सब अपनी अपनी जगह उपस्थित। जब जिसकी जरूरत होगी मैं निकाल लूंगी। 

वह कितने भी लिहाफा ओढ़ ले, मेरे लिए अब बिल्‍कुल पारदर्शी हो चुका है। अगर वह इतना जटिल नहीं होता तो शायद मैं भी जीवन की जटिलता को इतनी गहराई से समझ नहीं पाती। 

पाउडर मिल्‍क का डिब्‍बा उठाते हुए हाथ संकोच में बोझिल हो रहे हैं, “उसे लेक्‍टोज से एलर्जी हो गई है।“ 

अब उसे दूध हजम नहीं होता, चाय कॉफी में भी नहीं। पहले हम साथ में चाय पिया करते थे। अब हम अलग-अलग ब्‍लैक टी पीते हैं। मैंने घर में दूध मंगवाना ही बंद कर दिया है। पर क्‍यों?, क्‍यों अब भी इतनी जरूरी है मेरे लिए उसकी पसंद-नापसंद? यही सोचकर, कल शाम गुस्‍से में मैंने यह पाउडर मिल्‍क का डिब्‍बा खरीदा था। असल में अब उसे मुझसे एलर्जी हो गई है और यह प्रदर्शन बस उसी का है। 

तो फि‍र मैं क्‍यों पियूं ब्‍लैक टी?

मैंने बड़े मग में दो चम्‍मच मिल्‍क पाउडर डाला और चाय छान ली। किसी मशीन की तरह मेरे बाएं हाथ ने रैक में से दूसरा मग उठा लिया है और उसमें मैं ब्‍लैक टी छान रही हूं। दोनों मग को ट्रे में रखती हूं और मेरे पैर उसके कमरे की तरफ बढ़ने लगे हैं…. 

वह हर बार बेवजह रूठ जाता है , अकारण ही । मैं इस बार किसी तरह के समझौते के मूड में नहीं हूं फि‍र भी मैं चाहती हूं कि वो मेरे साथ हो। मेरे भीतर शायद कोई दूसरा भी है, जो हमारे रिश्‍ते की सच्‍चाई , दुनियावी गुणा भाग को दरकिनार कर हर बार उसकी तरफ जाने वाले रस्तों पर ही बढ़ता है। मैं भरसक उसे खींच कर पीछे हटाती हूं।

क्‍या दरवाजा नॉक करूं ? नहीं अभी सोया है, सोने देना चाहिए। बहुत थक गया होगा। मेरे भीतर का वो कोई दूसरा अब भी उसे किसी किस्‍म की कोई तकलीफ देना नहीं चाहता।

और मैं ट्रे लिए वापस लीविंग एरिया के सोफे पर बैठ जाती हूं। टेबल पर अदालती कागज पड़े हैं। वकील ने कहा है साइन करने से पहले अच्‍छी तरह पढ़ लेना, पर उससे पहले अच्‍छी तरह सोच लेना। मैं इन कागजों से नजरें नहीं मिलाना चाहती।

अपना अखबार उठाकर उसे उलटने-पलटने से पहले मैंने उसका अखबार उठाकर टेबल के दूसरी तरफ रख दिया है। खबरें चाहें एक जैसी हों, पर उन्‍हें देखने के हम दोनों के नजरिये में बहुत अंतर आ गया है। उस नजरिये में उलझ कर कोई गैरजरूरी बहस हो और घर जंग का अखाड़ा बन जाए, इससे बेहतर है कि हम अखबार भी अलग-अलग कर लें, यह समझौतावादी निर्णय भी उसी ने दिया था, और मैं इस निर्णय को हर रोज निभाती हूं। 

अखबार उलटने पलटने के बाद भी कोई खबर ध्‍यान नहीं खींच रही।

 वह उठ जाता तो अच्‍छा था, उसका घर आ जाना ही मेरे लिए सबसे प्‍यारी खबर है।

मैं पूछ लेती कि वह खाने में क्‍या खाएगा। हम भले ही खाना अब एक साथ न खाते हों , पर उसे मेरे हाथ का खाना बहुत पसंद है। वह अपने दोस्‍तों में कहता भी है कि पेट उसका घर के खाने से ही भरता है। कितनी ही जगहों से वह भूखा लौट आया है कि खाना उसकी पसंद का नहीं था।मेरे भीतर का कोई और फि‍र उस पर रीझने लगा है और मैं दोबारा उसे पटखनी देती हूं।

मैं उसकी पसंद में क्‍यों बौराउं ? खाना होगा तो खा लेगा, जो बना होगा। सामने ट्रे में दो मग चाय रखी हैं। मैं अपने मग को उसके मग से अलग कर लेती हूं और चाय का पहला घूंट भरती हूं

उफ्फ कैसा स्‍वाद है इसका’,  पाउडर दूध की चाय की अनावश्‍यक मिठास ने मेरे होंठों में एक अजीब सा चिपचिपापन भर दिया है। मैं फौरन मग नीचे ट्रे में रख देती हूं और किसी मशीन की तरह ब्‍लैक टी वाला मग उठाकर दूसरा घूंट भरती हूं …. 

इसके कड़वेपन में गहन अपनापन है, वो जो उस पर रीझता है फि‍र से उसका कड़वापन पीने को तैयार है।

कड़वे घूंट भरते हुए मैं फि‍र चाहती हूं कि वह बस एक बार उठकर आए और मेरे करीब बैठ जाए। मैं उसकी खुशबू की आदी हो गई हूं, इतनी कि 

बस एक सांस खुशबू की आस में उसकी कड़वाहटें पीती रही हूं।

मग की यह जोड़ी भी मैंने बहुत प्‍यार से खरीदी थी, जैसे डॉल्ि‍फन की यह जोड़ी। पर मग के समय इतना संकोच नहीं था, जैसा अब था। मेरी नजर हमेशा जोड़ों पर ही अटकती है, जानें क्‍यों। तब हम साथ-साथ चाय पिया करते थे, उन दिनों चाय में मिठास हुआ करती थी और हमारे रिश्‍ते  में भी। हम दोनों एक-दूसरे को खोज रहे थे, हर बार एक नया अनुभव रिश्‍ते में और शक्‍कर घोल देता, मन के बंद्ध खुल रहे थे। मैं इस दुनिया की सबसे सादा लड़की लगती थी उसे और वो मुझे इस दुनिया का सबसे प्‍यारा इंसान। मुझे तो अब भी वो उतना ही प्‍यारा लगता है, पर उसके प्‍यार की आंख की पुतली अब बदल गई है। 

आज लीविंग एरिया से उसके कमरे तक की दूरी इतनी ज्‍यादा हो गई है कि मुझसे वह तय ही नहीं हो पा रही। सार्वजनिक जीवन से किसी के निज तक की दूरी अकेले तय हो ही नहीं सकती। हम दोनों के साथ होने में अब सिर्फ साथ होने का प्रदर्शन भर ही बचा है। सार्वजनिक जीवन में हम दोनों साथ-साथ जाते हैं और फि‍र वापस लौट आते हैं, निजी जीवन में एक-दूसरे से बिल्‍कुल अलग होने के लिए। कभी-कभी सोचती हूं इस प्रदर्शन से भी छुट्टी पा लूं। कम से कम दोहरी जिंदगी तो नहीं जीनी पड़ेगी। लेकिन इसमें मैं कहां , मुझे क्‍या हासिल हुआ। जब उसे मेरे करीब आना थामेरे साथ होना थाहम होते चले गए और अब जब उसे मुझसे दूर जाना है, वो दूरियां बनाता जा रहा है। तब भी जब मैं नहीं चाहती, वह अपनी मर्जी से रिश्‍ते की दिशा तय कर रहा है। यही तो करता आया है वह हर बार।

अब तो गुस्‍सैल भी हो गया है पिछले दो एक साल में, पर उसका गुस्‍सा भी अब मुझे विचलित नहीं करता। बेडरूम की तस्‍वीर का वह टूटा हुआ फ्रेम, स्‍टडी टेबल की खिंची हुई ड्रॉर और झड़ा हुआ कोना, टेबल क्‍लॉक का निकला हुआ शीशा बता रहा था कि इस घर को भी उसके गुस्‍से की आदत हो गई है। इन सबका होना इस घर में उसका होना है। 

मैं वापस मोबाइल उठाती हूं, अब तक नहीं जागा, अगर जाग गया होता तो मेरे मैसेज का जवाब जरूर देता। बिले‍टेड हैप्‍पी बर्थ डे।” 

मैं इसके बाद उससे और बात करना चाहती हूं। बहुत कुछ पूछना चाहती हूं।

अगर मैसेज पढ़ लेता, तो जवाब जरूर देता। इतनी शालीनता तो उसमें है ही कि वह मेरे मैसेज पर थैंक्‍स भेज दें। यह सोचते हुए मैं उसकी कड़वी शालीनता को घूंट घूंट पी रही हूं। 

मैं क्‍यों गैरजरूरी सवालों में खुद को मथ रही हूं ? अब उठना चाहिए, वरना देरी हो जाएगी। 

मैं जल्‍दी-जल्‍दी रसोई का काम समेट रही हूं। 

जल्‍दीजल्‍दी चपाती बेलते हुए एक बा‍र फि‍र से मुझे डॉल्फि‍न का जोड़ा परेशान कर रहा है, “कहीं टूट न जाए, क्‍या इसे उठाकर कुछ उंचाई पर रख दूं? ” 

नहीं फि‍र हो सकता है उसकी नजर ही न पहुंचे उस तक। आखिर लायी तो उसी के लिए हूं न! वह नहीं निभाना चाहता तो न निभाएंमुझे तो अब भी उसका हर खास दिन बहुत जरूरी लगता है। ये बात और है कि अब मैं उसके लिए नितांत गैर जरूरी हो गई हूं। 

मैं रात भर उसकी राह तकते हुए उसके सोशल मीडिया अकाउंट को खंगालती रही हूं सेलिब्रेशन की किसी एक फोटो को देखने भर के लिए। 

कुछ कहूंगी तो कह देगा तुमने कौन सा विश कियाया कुछ ऐसा ही जिसका जवाब मेरे पास नहीं होगा।

अब मुझे किसी जिरह, किसी सफाई का हिस्‍सा नहीं बनना। जो जहां है, जैसा है, पड़ा रहे वहीं। नहीं पहुंचती तो न पहुंचे उसकी नजर इस तोहफे पर, बर्थडे तो वह मना चुका है दोस्‍तों के साथ, “

मैं फटाफट अपना टिफि‍न पैक करती हूं और सहसा नजर टिफि‍न की दूसरी जोड़ी पर चली जाती है, जिसकी पै‍किंग भी उसने नहीं खोली, यह कहते हुए कि तुम्‍हें पता है न मुझे इस तरह ठंडा खाना पसंद नहीं है। भूख लगेगी तो मैं बाहर ही कुछ खा लूंगा। वरना घर लौटकर।

बाहर के खाने से मेरा पेट नहीं भरता!”

और 

भूख लगेगी तो मैं बाहर ही कुछ खा लूंगा, वरना घर लौटकर।

इन दोनों संवादों में से मैंने उसके अंतिम तीन शब्‍द चुने, “वरना घर लौटकर। इसलिए हर समय मैं उसके घर लौटने का इंतजार करती रहती हूं।

वह कहता है तुम औरतें खुद को सामानों के मोह में कैद कर लेती हो। पर मेरे लिए हर सामान अपने समय को समेटे होता है। उसे देखकर हम उस समय में दाखिल हो जाते हैं जब वह हमारी जिंदगी में दाखिल हुआ था। उसके होने में उस समय की हंसी खिलखिला रही होती है। 

जब कुछ संभालने का शउूर ही नहीं है तब क्‍या करना इन सबको इकट्ठा करके”, यह उसका मानना था और उसके बाद बहुत अरसे से हमने इस घर के लिए कोई नया सामान नहीं खरीदा। 

पर कल अचानक जब क्‍नॉट प्‍लेस में डॉि‍ल्‍फन का यह जोड़ा देखा तो खुद को रोक नहीं पाई। इनके चेहरे भी उसकी तरह पारदर्शी हैं, जिनमें मैं सब  कुछ देख सकती हूं। पत्‍ते से बिंदी निकालती हूं, माथे तक लाती हूं मगर उसे वापस ड्रेसिंग टेबल के किनारे पर लगा देती हूं, नहीं मन करता। 

ऐसे ही ठीक है। किसी के लिए नहीं, अपने लिए भी नहीं, चेहरे को भी जिंदगी की तरह सपाट होना चाहिए, यह भी झूठ क्‍यों बोले। नजर फि‍र सेंटर टेबल पर पड़े उन कागजों पर जा पड़ी है, मुझे डर लगता है इन्‍हें देखने भर से।

मैं जल्‍दी-जल्‍दी पर्स उठाती हूं, सैंडि‍ल पहनती हूं। बाहर से दरवाजा लॉक करके निकलने लगती हूं,। ओह्र, फि‍र याद आता है टिफि‍न तो मैं भूल ही गई। मैं झटपट लॉक खोलकर वापस अंदर दाखिल होती हूं। सीधे किचन की तरफ। टिफि‍न उठाकर लौटती हूं और नजर मोबाइल पर जाती है, इसे भी भूली जा रही थी, उठाकर चैक करती हूं अंतिम बार, वह जाग गया है, ऑनलाइन हैमेरा मैसेज जा चुका है, उस पर नीले रंग की दो स्टिक नजर आती हैं। मैं जल्‍दी से मोबाइल पर्स में डालती हूं और  ठगी बोझिल सी जल्‍दबाजी में कोहनी कांच के डॉल्ि‍फन के जोड़े से टकरा जाती है और जोड़ा फर्श पर गिरकर चकनाचूर…..

कांच टूटने की आवाज के साथ ही उसके कमरे का दरवाजा खुला है और वह बाहर आया, “क्‍या हुआ

फि‍र कुछ टूट गया?”

नहीं कुछ खास नहीं। सकपकाते हुए इस जवाब के साथ ही मैंने देखा कि वह कपड़े बदले बिना ही सो गया था। 

कैसा रहा ट्रिप?”

बहुत ही प्रितिकर!”

प्रिति उसकी नई दोस्‍त, मैं शर्मिंदा हो गई हूं, भीतर ही भीतर उसके इस अर्थपूर्ण जवाब पर।

पर तुम बहुत लेट हो गईं आज”, अपनी घड़ी देखते हुए एक दिखावटी चिंता जताते हुए उसने जवाब दिया। 

हम्‍म, बहुत ज्‍यादा नहींथोड़ी सी, बस थोड़ी सी ही तो।

कांच के जोड़े का बिखरा हुआ कांच अब मैं समेटना नहीं चाहती और बढ़कर वो अदालती कागज उठाकर अपने पर्स में डाल लेती हूं।

वकील ने कहा था साइन करने से पहले इन्‍हें ठीक से पढ़ लेना। मैं अब हर चीज को ठीक से पढ़ना चाहती हूं।

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किताबें

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