श्रीमती श्रद्धा सुनील की कविताएं
कविता
पेड़ के नीचे बैठकर
लिखी कविता
कागज़ हवा उड़ाकर ले गई
स्याही सूख गई धूप में
कड़ी दोपहरी में झुलस गईं
घनी बरसात में बह गईं
धूप हवा पानी में घुल गईं अनुभूतियां
कविता मैने पेड़ के नीचे
बैठकर लिखी है
सुंदर अलमारियों में
सहेज कर नहीं रख पाई
रंगीन किताबों में नहीं हो
सकीं कैद
नहीं पहुंच सकीं विश्व पुस्तक मेला तक
इसके उसके जेहन में कभी किसी मस्तिष्क में
मचाती रहीं उत्पात
नहीं लिख सकी घर के सुख चैन में बैठकर
कविता मैने
जंगल की भयावह खूंखार आंधियों में
पेड़ के नीचे बैठकर लिखी है ।।
श्रद्धा सुनील
प्रेम
पृथ्वी की तर्ज पर
अति विलंबित लय में
सूर्य की परिक्रमा कर रही
उस अति प्राचीन स्त्री ने
अपने ढलते सौंदर्य को दर्पण में देखा
और
आत्मा के उजाले में
अपना चिर युवा वह रुप तेजस्वी चैतन्य देखा जिसे पार्थिव आखों से
कभी कोई देख न सका
देखी जर्जर होती अपनी देह
और देखा
युवा होती बेटी का उगते सूर्य जैसा दमकता चेहरा
लावण्य में डूबी एक सिंदूरी सांझ में उसने
बेटी को जीवन अनुभव का मर्म समझाया
तुम सदैव प्रेममयी रहना
प्रेम तुम्हे शाश्वत सौंदर्य के सत्य तक पहुंचाएगा
लेकिन
यह सीख हमेशा याद रखना
इसे संसार में कहीं मत
तलाशना
यह कहीं मिलेगा नहीं ।।
श्रद्धा सुनील।।
मुस्कराती स्त्रियाँ
नदी से उसने कहा
उस रात
उस रात !!
मैने आकाश में बिछौना लगाया था
ओस भीगी चाँदनी में
मेरे सपनों का हर सिंगार झरता रहा
नींद और स्वप्न में खोई
मै जाग गई थी, तुम चांदनी के संग ओस बन कहीं और झरते रहे
मेरी देह आकाश की सीढ़ियों से चुपचाप
नीचे उतर आई थी
लेकिन
आज भी मेरा हृदय,, मन वहीं कहीं नक्षत्रों में विचर रहा है
खास बात यह है
कि
अब उदासी,, दुख,,उसे छू नहीं सकते हैं ।।
श्रद्धा सुनील।।