Friday, December 20, 2024

इस पेज पर आप जानी मानी महिला हस्तियों के इंटरव्यू सुन सकेंगे और पढ़ सकेंगे।


हिंदी की चर्चित कथाकार द्वारा प्रसिद्ध लेखिका का इंटरव्यू पढ़िये

कि. सिं. आपको कब और कैसे पता चला कि आपको हिंदी भाषा और साहित्य का आलोचक बनना है? आप अपने दो छोटे भाइयों की तरह प्रशासनिक सेवा या चिकित्सा क्षेत्र में क्यों नहीं गई?

रो. अ. आप सवाल कर रही हैं और मैं देख रही हूं उस लड़की को जो सारे काम निबटा कर खिड़की की सिल पर पैर पसार कर बैठी है. पसंदीदा जगह है यह उसकी – घर के भीतर भी, और घर के बाहर दुनियावी हलचलों के बीच भी. पचास बरस का फासला इतना नहीं होता कि दूर अतीत के धुंधलके में डूबी चीजें साफ-साफ न दिखें. दरअसल साठ बरस की वय में आंखें धुंधला ही इसलिए जाती हैं कि वे अपनी ज्योति मन की आंखों को देने लगती हैं. बेपनाह मोहब्बत के साथ! बेपनाह उदारता के साथ! … तो यह लड़की बरस दर बरस इसी खिड़की में बैठी रहती है. हाथ में किताब …किताब में ध्यान … और ध्यान में कल्पनाएं … लड़की वहां होती भी है, और वहां से बहुत दूर पता नहीं कहां-कहां भटकती फिरती है. कहानियों के जंगल में भटक कर खोने का डर नहीं होता. कहानियों के जंगल में संबंधों का घना जाल होता है. भूख, प्यास, नींद –  जितनी प्राकृतिक जरूरतें, जंगल उतनी ही विनम्रता से उन्हें पूरा करने की सामग्री जुटा देता है. लड़की कभी सिंदबाद के साथ कोरल रीफ के बीच घूम रही है, कभी गुलिवर के साथ बौनों के देश में अपनी ऊंचाई का आनंद ले रही है. पाल वाली नौका … एक आंख पर पट्टी बांधे समुद्री लुटेरे … उड़ने वाला घोड़ा … परियों का नाच … पिंजरे में बंद तोता … लड़की की दुनिया बहुत बड़ी है. अजनबी कोई नहीं. समुद्र नहीं देखा उसने. नदी भी नहीं. लेकिन देखने-न देखने से क्या फर्क पड़ता है! उसके पास कल्पना है. वह चित्र बना सकती है. किताब के किरदारों को जिंदा कर सकती है. उनके संग चांद-तारों की यात्राएं कर सकती है. वह नहीं डरती नरक के दुख कष्टों से …  गर्म तेल के कड़ाहे… पीप-मवाद के समंदर … देह काटती बर्फ की सिल्लियां …वह क्यों डरे किसी से? गलत काम करो, तो सजा मिलती है. हर दम सही-सही काम करो, बताए गए रास्ते पर चलते रहो तो सजा क्यों मिलेगी भला? लड़की अन्न और पानी के साथ, सांस और संस्कार के साथ, स्कूली बस्ते और सामाजिक कायदों के साथ सही-गलत, पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा की परिभाषाओं को भीतर उतारती जा रही है. वह राजलक्ष्मी-किरणमयी-सावित्री के साथ फूट-फूट कर रोना चाहती है. नदी की धार बनकर समुद्र के सीने में दुबक जाना चाहती है. कोलंबस बनकर दुनिया का आखिरी छोर भी छू लेना चाहती है. लेकिन पाती है कि वह जलपरी की तरह विचित्र सा प्राणी बन गई है. उसके कंधों पर पंख उगाए हैं – परियों सरीखे! देह बिल्कुल हल्की! वह पंख फड़फड़ाती है. ऊपर आसमान साफ है. चमकीला है. दूर उड़ते सफेद बगुलों की पांत दिखाई पड़ रही है. उसने उड़ने के लिए पैर ऊपर उठाए – ठीक वैसे जैसे रस्सी कूदने के लिए रस्सी से बचते हुए अपने पैरों को उसकी कठोर मार गिराने वाली मर्यादा से बाहर रखना पड़ता है. लेकिन यह क्या! उसके पैर तो जमीन से चिपके हुए हैं. वह उन्हें हिला रही है. तेजी से. झटक रही है. लेकिन उनमें कोई जुंबिश नहीं. वह झुक कर पैरों को छूती है … और चीख कर वहीं ढह जाती है. पैरों में प्राण नहीं. वे पत्थर के हैं. बेजान! लड़की किताब बंद कर देती है. कंधे पर उगे पंख शॉल या कोट सरीखे होते तो उन्हें उतार कर बक्से में धर देती. वे तो नाखून की तरह उसकी त्वचा में गहरे धंसे हैं.

 मैं लड़की के भीतर प्राण की तरह आवाजाही कर रही हूं. 

उड़ान!

 उसका इकलौता सपना!!

 

उस दिन मम्मी-डैडी उसी को लेकर बात कर रहे थे. आठवीं की परीक्षाएं हो चुकी है. नौवीं क्लास में ही कैरियर की दिशा तहय की जाने वाली थी. आर्ट्स या साइंस? मम्मी की आंखों में अपने कुचले सपनों की किरचें थीं  वह डॉक्टर बनना चाहती थीं, लेकिन बंद समाज के बंद परिवारों में लड़कियों के लिए सांस ले सकने लायक हवा से ज्यादा उन्मुक्तता कहां? मम्मी साइंस के पक्ष में हैं. वह तर्क के बिना निराधार कोई भी बात नहीं करतीं. जमाने की ऊँच-नीच देखकर कोई फैसला लेती हैं. भावना में बहकर फिसलते कभी नहीं देखा उन्हें. लड़की को उनसे डर लगता है. उनकी परफेक्शन से! उनकी दिलेरी से! उनके जीवट से! वह आम मांओं की तरह रो-धो कर, बतिया-रिसा कर ममता के फव्वारे छोड़ने वाली मां नहीं हैं.  लड़की को उनसे उलझन होती है. लड़की होने की वजह से उसे उनके संग घर के सब काम निपटाने होते हैं. वह उन्हें सख्त ड्यूटी की तरह अतिरिक्त मुस्तैदी से संपन्न कर देती है. बिना एक भी गलती किसे. मम्मी की परफेक्शन के कठोर मानदंडों पर खरे उतरने की कोशिश में. लेकिन दम फूल जाता है. फिर उनके चंगुल से छूटते ही वह अपनी दुनिया में लौट आती है. उसकी दुनिया, जिसके सर्जक हैं डैडी. भावनाओं का समंदर! कोई रोक-टोक नहीं! निर्बंध बहने की स्वतंत्रता!

 मम्मी तर्क दे रही हैं – “लड़की के लिए पढ़ाई-लिखाई जरूरी है,लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है ऐसी पढ़ाई जो उसे इंडिपेंडेंट बनाए. आर्थिक रूप से भी, मानसिक-वैचारिक रूप से भी.”

 लड़की को बात ज्यादा समझ नहीं आई, पर देखा, डैडी गंभीर हो गए हैं.

“हूं!!”

 डैडी की दुलारी लड़की … गंभीर होकर सुनने लगी वह भी.

“ डॉक्टर बनेगी तो ब्याह भी अच्छे घर होगा. लड़का भी बराबर का होगा. वरना जैसी हमारी माली हालत …”

 देर तक चुप्पी पसरी रही.

 चुप्पियों में कभी-कभी चांटे की चोट दर्द से कराहने लगती है. मुझे वह कराहट सुनाई दे रही है.

डैडी ने कुछ भी नहीं कहा.

लड़की स्तब्ध!मानो मन-प्राणों को खूंटे से बांध कर कोई घर को ताला लगा कर चला गया हो.

 वह रोने-बिल बिलाने के सिवा कर भी क्या सकती है?

लेकिन नहीं! वह बिल्कुल नहीं रोएगी. वह रोने-बिलबिलाने के लिए नहीं रती गई है. डैडी ने ही तो बताया है, रोना मतलब अपनी हार कबूलना – लड़ाई से पहले.

 वह मोर्चे पर आ डटती है. “मुझे नहीं बनना डॉक्टर-फॉक्टर!” भावनाएं अंदर बगूले बनकर उड़ रही हैं. लड़की के पास तर्क नहीं हैं. सिर्फ अनिच्छा है! ज़िद है! डर है! डर – डाईसेक्शन का! चूहा-खरगोश!

 मेरे रोंगटे खड़े हो गए हैं.

 खौफ!घृणा! घुटन!

 लड़की बताती है, ‘उस दिन सहेली संगीता माथुर के घर गई थी तो हम दोनों चुपके से नजर बचाकर अस्पताल की ओर निकल गईं थीं. संगीता अपने पापा का नया ऑफिस दिखाना चाह रही थी. उसके पापा सिविल सर्जन है न! वहां मैंने देखा, खून से सनी पट्टियां … कटा हुआ प्लास्टर … दवा की खाली औंधी पड़ी शीशियां …खून-पीप-मवाद … अस्पताल के वार्ड से उठती मद्धम कराहटें उस बिखरे कूड़े को और भी भयावह बना रही थीं. मैंने उल्टी रोकने की कोशिश के बीच कसम खाई थी – कभी अस्पताल नहीं आऊंगी.‘ 

संगीता हंसती रही थी – कमजोर लड़की! कमजोर!

 मैं प्रतिवाद भी नहीं कर सकी! पर मैं कमजोर नहीं हूं. बस, डॉक्टर नहीं बनूंगी.‘

 आवेश से कांपते लड़की के हाथ से एक पतली सी कॉपी छूटकर नीचे गिर गई है. 

“मन का दर्पण! क्या है यह?” मम्मी ने उसे उठा लिया है.

 इस कॉपी में उसकी स्वरचित कुछ अनगढ़ कविताएं हैं. कुछ ब्यौरे. कुछ बतकहियां. कॉपी पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है – मन का दर्पण. डैडी ने ही यह शीर्षक सुझाया था.

 डैडी ने आंसुओं से धुले मेरे चेहरे पर निश्चयात्मकता की आभा देख ली है. उन्होंने हौले से कहा, पूरे आत्मविश्वास से भर कर – ‘मेरी बेटी लेखिका बनेगी. उसके बाएं हाथ में होगी घड़ी, और दाएं हाथ में कलम. घड़ी उसे समय की कद्र करना, अनुशासन में रहना सिखाएगी. कलम उसे अपने सपनों को साकार करना, वक्त को रचना सिखाएगी.‘

 

 जिंदगी कुम्हार के आंगन में पड़ी कच्ची मिट्टी नहीं होती कि आप उसे गूंध कर मनचाही गढ़त दे दें. जिंदगी तो आपको कच्ची मिट्टी सा गूंध कर जब-तब नए-नए प्रयोग करती चलती है. इंसान के हाथ में बस यही एक ताकत है कि लड़ते-लड़ते भी अपने सपनों का पीछा करना न छोड़े. फिर एक दिन जिंदगी ही उसे नेगोशिएशन टेबल पर ले आती है, और दोनों हाथों को अपनी मुट्ठी में बांध सहला देती है – ठीक है! ठीक है! अब सपनों की तामीर करो!

 सोचती हूं, खिड़की में बैठकर दुनिया की ओर देखती उस लड़की में कितना हौसला था कि जिंदगी के प्रलोभनों और चोटों को सहते-सहलाते हुए भी उसने मजबूती से अपने को सपनों की डोरियों से बांधे रखा.

 

 कि. सिं. आप अंग्रेज़ी से एम. ए. करने के बाद हिंदी में क्यों आईं? इसका संबंध नौकरी से हैं या भाषा के प्रति रुचि से? आप कितनी भाषाएँ जानती हैं?

 रो. अ. मैंने बीए ऑनर्स (अंग्रेजी) करने के बाद एम. ए. के लिए हिंदी विषय को चुना. परिवार के विरोध के बावजूद. कारण दो थे. सबसे पहले तो यही कि लिखने का शौक जुनून बन गया था. मन में यह भाव था कि साहित्य तभी रचा जा सकता है जब उसी भाषा का साहित्य जिया जाए. दूसरे, जाने क्यों एक उलजलूल विश्वास घर कर गया था कि एम.ए. यानी मास्टर्स इन आर्ट्स का अर्थ होता है उस विषय में पारंगत होना. भाषा के ज्ञान में भी. साहित्य के ज्ञान में भी. पिछड़े इलाके में रहने की वजह से अंग्रेजी बोलने में संकोच होता था. तब लगता था कि जो भाषा बोल नहीं सकती, उसमें मास्टर्स कैसे कर सकती हूँ. बाद में महसूस किया कि पर्फेक्शनिस्ट होने की वजह से कई बार आप अब व्यावहारिक और लूजर भी होते चलते हैं. एम. ए. हिंदी करने के दौरान हिंदी साहित्य से खासा मोहभंग भी हुआ. अंग्रेजी के क्लासिक साहित्य ने ह्यूमन डिग्निटी, लोकतंत्र, एक्सप्लोरेशन (घुमक्कड़ी नहीं), चिंतन और विश्लेषण की जो परंपरा संस्कार रूप में मुझे दी थी वह एम. ए. हिंदी के पाठ्यक्रम में कहीं भी नहीं मिली. एम. ए. अंग्रेजी करने के मूल में अपनी उसी दुनिया में लौटने की बेताबी थी.

 हां, नौकरी मेरा ध्येय कभी नहीं रहा. दरअसल तब तक जिंदगी जी ही कहां थी. उसे तो किताबों में पढ़ा था. इसलिए लगता था, मैं ताउम्र बच्ची बनी रहूंगी. मजे-मजे से पढ़ती रहूंगी और एक दिन चेखव की कहानी ‘शर्त‘ के नायक की तरह दुनिया का सारा ज्ञान भीतर उंडेल कर दुनिया को अलविदा कह दूंगी. दृष्टि और जिंदगी में रोमान की छाया टीन एज तक ही नहीं रहती. कभी-कभी ताउम्र रास्ता छेंक कर खड़ी हो जाती है. जिंदगी की धूप में सिंकने के बाद रूमानियत को बेदर्दी से पीटकर दर ब दर करना पड़ता है. वही पल जिंदगी पर अपनी पकड़ मजबूत करके समाज से जुड़ने का पल भी होता है.

 अलबत्ता साहित्य ने मुझे जितना आकृष्ट किया, उतनी भाषाएं सीखने के प्रति दिलचस्पी नहीं रही. हिंदी-अंग्रेजी के अलावा पंजाबी लिख-पढ़-बोल लेती हूं. मेरी मातृभाषा है. इसलिए. हरियाणवी बोली भी. एक बार चेन्नई जाते समय ट्रेन के छत्तीस घंटे के सफर में तमिल प्राइमर की मदद से इतनी तमिल सीख ली थी की स्टेशनों के नाम, दुकानों के साइन बोर्ड, माइल स्टेन पढ़कर जगह का नाम जान सकूं. भाषा का व्याकरण एवं संरचनागत ढांचा हमेशा मेरी पकड़ से छूट छूट जाता है.

 

कि. सिं. आप गोल्ड मेडलिस्ट रही हैं. चिकित्सक बनने की परीक्षा में टॉप किया हुआ लड़का/लड़की अच्छे सर्जन भी निकले , क्या ऐसा होता है?

 रो. अ. हम सदियों से विश्व-गुरु बनने का सपना देखते रहे हैं, लेकिन विडंबना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों की योग्यता जांचने में हमेशा असफल रही है. शिक्षा ज्ञान देने की बजाय विद्यार्थी को सूचनाएं देती है. उसे विश्लेषणात्मक दृष्टि से संपन्न करने की वजह रट्टू तोता (प्रोग्राम्ड कंप्यूटर/ रोबो) बना देना अपना ध्येय समझती है. शिक्षा प्रणाली एवं शिक्षण संस्थानों का मूल चरित्र व्यापारी का है जो डिग्रियां देने का कारोबार चला कर युवा पीढ़ी को कच्चे सपने बेचते हैं. हम सब शिक्षा के इस मूलभूत जर्जर चरित्र को जानते-समझते हैं. हम सब यानी माता-पिता, शिक्षण संस्थान, सरकार, विद्यार्थी. फिर भी आंख मूंदकर उसी कोल्हू में बैल की तरह जुते रहते हैं क्योंकि शिक्षा को स्किल के साथ जोड़कर हम अपने बच्चों को वर्कर नहीं बनाना चाहते; और शिक्षा को क्रिटिकल मेंटल फैकल्टी का रूप देकर सत्ता अपने लिए आलोचकों की फौज तैयार करना नहीं चाहती. इसलिए मुझे नहीं लगता कि डिवीजन और गोल्ड मेडल की कोई ज्यादा अहमियत है.

हमारी शिक्षा व्यवस्था दोस्त की तरह विद्यार्थियों से खुलकर संवाद नहीं करती. पुस्तकों को जिंदगी की खुली किताब के साथ जोड़ने का विवेक नहीं देती. शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थी के भीतर इतना आत्मविश्वास नहीं भरती कि स्थापित मान्यताओं के प्रति अपनी शंकाओं और असहमतियों को दर्ज कर सके. वर्तमान शिक्षा पद्धति विद्यार्थी की निजता, व्यक्तित्व और मौलिकता को कुतर कर उसे सांचा बंद प्रोडक्ट की अनुकृति बनाने का काम कर रही है. वह स्वयं को परीक्षा प्रणाली की  यांत्रिक सख्ती (और बेईमानी भी) में घुसकर विद्यार्थियों के माथे पर मूल्यांकन का ठप्पा लगाकर उनके आकाश को सीमित करती रही है. ऐसे में स्वभाव से डिफाएंट (विद्रोही) प्रतिभाएं परीक्षा और शिक्षा दोनों के आप्लावनकारी प्रभाव को धता बताकर अपनी अलग संघर्ष भरी राह चुनते हैं. लेकिन बहुत से विद्यार्थी शिक्षा व्यवस्था और कायदे-शर्तों के अनुरूप खुद को मोड़ते हुए बाजी जी मार लेते हैं. गोल्ड मेडल व्यवस्था की तमाम घेराबंदी और शर्तों के बीच ऐसे विद्यार्थी की बेहतर मेहनत, लगन और प्रतिभा का एक मामूली सा प्रमाण भर होता है. वह नागरिक के तौर पर उसके समग्र व्यक्तित्व, मनुष्य के तौर पर उसके बोध और दृष्टि, और कर्मचारी/ नौकरीपेशा के रूप में उसकी दायित्वशीलता व जवाबदेही पर कोई टिप्पणी नहीं करता.

 

कि. सिं. अपने स्कूल कॉलेज के दिनों की बातें याद आती है? वे बता सकती हैं? 

रो.अ. अध्यापक होने का एक फायदा तो है कि स्कूल-कॉलेज के दिन बारंबार लौटते रहते हैं – उम्र के फासलों को बेमानी करते हुए, उसी ताजगी, उम्मीद और चहचहाहट के साथ. लेकिन एक खराबी भी है. स्मृतियों के रेले का प्रवाह इतना जबरदस्त होता है कि कई बार पैर उखाड़ कर अपने साथ दूर तक बहा ले चलता है. वयस्क उम्र आसमान में उड़ने के कुलाबे कितने ही बांधे, जमीन पर पकड़ को छोड़ दे तो औंधे मुंह गड्ढे में जा गिरती है. इसलिए बहुत ही एहतियात के साथ स्कूल-कॉलेज के दिनों को याद करते हूं – कभी अपनी अल्हड़ नादानियों पर हंसने के लिए, कभी सीखे हुए सबक को दोबारा याद करने के लिए. 

 स्कूल के दिनों की दमदार शख्सियत रही हैं कुसुम मैडम. हिंदी की टीचर! जब-जब लेख/कहानी लिखने के लिए कोरा कागज खींचकर सामने फैलाती हूं, कुसुम मैडम कोरे पन्नों की सफेदी में अपनी कड़क और वत्सल मुद्रा में जान सुखाती और अभयदान देती आ जाती हैं. वे मेरी सर्जक हैं. (ईश्वर का प्रतिरूप?) …लेकिन कमेंट्री क्यों कर रही हूं मैं? सीधे-सीधे संस्मरण ही सुना देती हूं. तो हुआ यूं कि आठवीं कक्षा में प्रोमोट हुए. गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुले तो मैडम ने ग्रीष्मावकाश के अनुभव को पिरोते हुए सभी को पत्र लिखने को कहा. सब की तरह लड़की ने भी रटा-रटाया पत्र लिख दिया. बना-बना कर खूब सुंदर हस्त-लेख… और वाद्मिता प्रदर्शन के लिए कुछ नए-नए सीखे तत्सम शब्द. लट्टू ऐसे कि किला फतह कर लिया हो. मैडम ने नोट चढ़ाया – ‘पुन: लिखें‘. पुनः लिखने का मतलब हुआ फेल! लड़की रोने-रोने को. दोबारा लिखा. और भी सुंदर लिखावट.और भी कठिन शब्दों की भरमार. अनदेखे जयपुर भ्रमण की काल्पनिक कथा (किताब में वही थी) में लड़की और क्या छौंक लगाती? पूंजी ही इतनी सी थी. मैडम ने फिर नोट चढ़ाया – ‘निकृष्ट‘! लेकिन इस बार भावहीन भाव से कॉपी पकड़ाई नहीं, अपनी कुर्सी की बगल में खड़ा कर समझाया – ‘रटा हुआ उगलो मत. वही लिखो जो तुमने जिया है.‘

‘ लेकिन हम छुट्टियों में कहीं किसी जगह घूमने नहीं गए. सिर्फ जैतो-मानसा गए. पंजाब में.‘

‘ तो उन्हीं के बारे में लिखो.‘

‘ लेकिन वे दर्शनीय स्थल नहीं है दिल्ली जयपुर की तरह. वहां मेरे दादा-दादी. नाना-नानी रहते हैं.‘

 मैडम हंस पड़ीं -‘जगह कभी बड़ी नहीं होती. बड़ा होता है अनुभव. बड़ी होती है जिंदगी. बड़ी होती है आपकी नजर. कल जो पत्र लिखकर लाओ, ध्यान रहे कि उसमें मैं तुम्हें देखूं. तुम्हारी दुनिया को जानूं. तुम्हारे दादा-दादी, नाना-नानी की तस्वीर देखूं. जयपुर दिल्ली की किताबी सैर को नहीं.‘

लड़की ने सिर हिला दिया. लेकिन हिलाने से सिर पर रख भार तो नहीं हटता न! लड़की सोचती रही, क्या लिखूं? पानी की तरह बहती जिंदगी को चुल्लू में बांधकर कैसे कागज पर उतारूं? जिंदगी जीने के लिए होती है, और किताब पढ़ने के लिए. अपनी जिंदगी कॉपी-किताब के पन्ने में ठूंस देने के लिए नहीं होती. बेहद पसोपेश में है लड़की. स्कूल की कॉपी ‘मन का दर्पण‘ नहीं होती… पर मैडम कहती हैं … लड़की ने स्कूल की कॉपी परे रख कर ‘मन का दर्पण‘ कॉपी उठा ली. थोड़ी देर बाद तन्मयता से किसी काल्पनिक सखी को पत्र लिखती रही… जैतो-मानसा … दादी-नानी… ताया जी से अंग्रेजी ग्रामर पढ़ते हुए एक्टिव-पैसिव और डायरेक्ट-इनडायरेक्ट बनाने का हुनर सीखना … गीता के साथ गुड़िया का खेल खेलने में खूब-खूब अरुचि … भारती चाचा के साथ बैठकर चार्ल्स और मेरी लैंब की किताब ‘टेल्ज़ फ्रॉम शेक्सपियर‘ पढ़ना … और बुधवार को बिनाका गीतमाला सुनने का चस्का लगा बैठना… रात को थरथराते हाथों से ‘मन का दर्पण‘ की बातें स्कूल की कॉपी में टीप दीं. हस्तलेख बहुत खराब था. मन डर और अपमान से काला. आज निकृष्टतम मिलेगा. मैडम ने पढ़ा और नोट चढ़ाया – उत्कृष्ट! लड़की रो पड़ी! 

खुशकिस्मत हूं न? 

बहुत विरलों को ही मिलते हैं ऐसे अध्यापक जो आप की संभावनाओं को पहचान कर उन्हें निखारने में जुट जाएं. कुसुम मैडम न होतीं तो शायद मैं भी ढर्रे पर चलते हुए यही मानती रहती कि स्कूली शिक्षा का जिंदगी की सच्चाइयों से कोई वास्ता नहीं है; कि स्कूली शिक्षा डिग्री कमाने के लिये होती है; डिग्री नौकरी पाने के लिए; और नौकरी जिंदा रहने के लिये. आज भी जब कॉलेज-यूनिवर्सिटी में सहकर्मी ‘कफन‘ (या कोई भी कहानी, कविता, उपन्यास) कहानी को घीसू-माधव की निजी जिंदगी की त्रासदी बता कर चरित्र-चित्रण, उद्देश्य और देशकाल वातावरण तक कहानी के पाठ को बांध देते हैं तो लगता है, एक साथ दो हत्याएं कर रहे हैं. पहली हत्या लेखक के सरोकारों और साहित्य की अपील की. लेखक जिन पात्रों को रचता है, वे कहानी के फ्रेम में फड़फड़ाती प्रेत-आत्माएं नहीं हैं, जिंदगी को देखने की बेधक बेचैन दृष्टियां हैं. दूसरी हत्या, विद्यार्थी के कौतूहल,विश्लेषण क्षमता और अभिव्यक्ति के अवसरों की. साहित्य जिंदगी के जरिए संवाद करने का मंच है और उसमें अपने को किरदार के रूप में शामिल कर अपने को निसंग दृष्टि से जांचने का हुनर भी. अध्यापक से बेहतर भला इसे कौन बताएगा. लेकिन हमारे यहां स्कूली शिक्षा सबसे ज्यादा जर्जर और उपेक्षित अवस्था में है. अध्यापकों के प्रशिक्षण और नियुक्तियों में गहरी सजगता और समझदारी होनी चाहिए. लेकिन हम पाते हैं, आंख पर पट्टी बांधकर झिलमिलाते उजालों पर निबंध लिखने का कौशल दे रही है शिक्षा व्यवस्था. दो सेट दांत है न इसके पास, हाथी की तरह, दिखाने के और (मूल्यों और मोरल पर बात करने का दंभ), खाने के और (भ्रष्टाचार और काहिली).

उफ्फ! किस्सा कहते-कहते शिक्षा व्यवस्था की दरकनों पर लौट आई हूं. ठीक कहते हैं लोग, आलोचकों को हर घड़ी छिद्रान्वेषण करने का शौक! कभी तो धूल की मोटी परत चढ़ा कर चीजों को बेखबरी में गुम हो जाने दो आलोचक महोदय! यह क्या कि हमेशा झाड़ू-पोंछा लिए आईने सा साफ-शफ्फाक चमकाने को आमादा! सिर झुका कर कबूल कर लेती हूं अपने गुनाह! (न, यहां गुनाह शब्द कुछ ज्यादा ही भारी हो गया है) सामने वाला बाउंसर फेंक रहा हो तो लिटिल मास्टर गावस्कर/विश्वनाथ की तरह सिर झुका कर उसकी इज्जत करो और अपनी विकेट बचा लो. 

 

कि. सिं. रोहतक में रहना आपका चुनाव क्यों रहा? आप चाहती तो किसी महानगर के विश्वविद्यालय में जा सकती थीं.

रो.अ. चुनाव कर लेने लायक स्थितियां तो बहुत खुशकिस्मतों के पास ही आया करती हैं. हम लोग 1966 से 1978 तक हरियाणा के सबसे पिछड़े इलाके नारनौल में रहे. नारनौल हमारा चयन नहीं था. डैडी की पोस्टिंग यहीं हुई थी. और चूंकि कोई भी इस पिछड़े क्षेत्र में रहना नहीं चाहता था, इसलिए सबके साम-दाम-दंड-भेद के करतबों ने मेरे चुप्पा आत्मकेंद्रित संतोषी डैडी के लिए नारनौल की पोस्टिंग को बरस दर बरस पक्का कर दिया. बीए के बाद अलबत्ता हम बच्चों की हायर एजुकेशन की दुहाई देकर डैडी ने दो ही स्टेशन मांगे – रोहतक या कुरुक्षेत्र. दोनों जगह विश्वविद्यालयों के कारण. हमें ख्याल भी नहीं था कि इन दोनों विश्वविद्यालयों के बाहर दिल्ली के किसी यूनिवर्सिटी में भी एडमिशन लिया जा सकता है. जेएनयू के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी. दिल्ली हमारी पिछड़ी कस्बाई मानसिकता को डराती थी. फिर जेब भी तंग थी. हॉस्टल के खर्चे की बाबत सोचा भी नहीं जा सकता था.

 एक घटना याद आई आपके इसी सवाल पर. सुनिए.

2015 की बात है. हमारे प्रदेश में भिवानी नामक जगह पर चौधरी बंसीलाल यूनिवर्सिटी नई-नई खुली थी. मुझे वहां किसी काम के लिए बुलाया गया. कुलपति के ऑफिस में कई विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर मौजूद थे. गपशप के दौरान हम सब हरियाणा के पिछड़े इलाकों और स्त्री शिक्षा पर बात करते हुए अपने-अपने संस्मरण साझा कर रहे थे. तभी मेरी बात सुनते हुये जेएनयू से आए प्रोफेसर साहब ने बताया – ‘ जेएनयू की शिक्षा नीति में तीन बातें बहुत अहम हैं. एक, दाखिले के समय पिछड़े क्षेत्र के मेधावी विद्यार्थियों के लिए आरक्षण ताकि वे साधन-संपन्न प्रगतिशील इलाकों के विद्यार्थियों की समकक्षता में आ सकें. दूसरे, मेधावी लड़कियों को प्राथमिकता दिया जाना, और तीसरे, आर्थिक रूप से अक्षम परिवार के होनहार विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति का प्रावधान.‘

 सच मानिए, उस दिन मुझे लगा, मैं पिंजरे में बंद कर दी गई मैना भर हूं. पंखों में ताकत थी खुले आसमान में तैर आने की. इसलिए कभी-कभी लगता है, आज जो सूचनाओं का विस्फोट हुआ है, उसमें सही-फेक का अनुपात कितना क्यों न हो, वह मेरे जैसे कितने ही अज्ञानियों का उद्धार कर सकता है. लेकिन जिंदगी कंप्यूटर पर रची जा रही किसी कृति का ड्राफ्ट नहीं होता कि आप उसे डिलीट या एडिट करके मनमाना नया रूप दे सकें.

 

कि. सिं.- कहानी लिखना छोड़ कर आप आलोचना में क्यों आईं? नामवर सिंह ने कविता लिखना छोड़ कर आलोचना में आने के लिए कहा है, आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास. एक जगह नामवर जी ने कहा है कि ‘मैं तो सरस्वती के मंदिर में गया था. वहां बहुत कूड़ा कचरा देखकर झाड़ू लगाने लगा.‘ आलोचक इनमें से कौन है? (क) साहित्य का दरोगा है? (ख) सरस्वती के मंदिर का मेहतर? (ग)  कविता-कहानी से भागा रणछोड़दास है? (घ) अपरिभाषित है.

 

 रो. अ. – कहानी छोड़कर आलोचना में आना मेरा फैसला नहीं था. नौकरी का दबाव था. लेक्चरर से रीडर और रीडर से प्रोफेसर की प्रोमोशन के लिए पांच-पांच शोध पत्रों का प्रकाशन अनिवार्य था. नौकरी में फिसड्डी रहना कतई मंजूर नहीं था कि कागज पर कल्पना की उड़ाने भरते रहें, और असल जिंदगी के भगदड़ भरे मैदान में लाश की तरह गिरे रहें और लोग आपकी देह पर पैर धर कर आगे बढ़ते रहें. चलना, टहलना, दौड़ना  – जिंदगी की गति के तीन आयतन है. जिंदगी मेरे लिए कर्म और सक्रियता का प्रतीक है. कहानी लिखना कुछ दिन के लिए मुल्तवी किया. मन में संदेह नहीं, पक्का विश्वास था कि आलोचना जैसी गंभीर गरिष्ठ बुद्धि ओरिएंटेड विधा मेरे बस की बात नहीं. अन्य अध्यापकों की तरह यहां-वहां से जुगाड़ करके दस पेपर लिख लूंगी, और फिर कहानी की दुनिया में सकुशल लौट आऊंगी. लेकिन शोध पत्र लिखते हुए लगा, कहानी जितनी ही रचनात्मक विधा है आलोचना. भाव और बुद्धि का सम्मिश्रण! तर्क और कल्पना के ताने-बाने से बुना जिंदगी का अक्स! अपने को अभिव्यक्त कर पुनः पुनः समृद्ध होते चलने की अनवरत साधना! बस, किरदार ही तो नहीं जन्मते. घटनाएं ही तो नहीं उमगतीं. लेकिन कविता या निबंध या यात्रा संस्मरण में भी कहां जरूरी है पात्रों-घटनाओं का होना. अभिव्यक्ति के लिए जरूरी है भीतर कुलबुलाती कोई बात – ऐसी बात जिस की निजता जितनी निस्सीम है उतनी ही असीम है व्यापकता. आलोचना ने रेशमी फंदों से मुझे बांधा तो लगा मेरी अभिव्यक्ति की जमीन यही है – बिंदु के भीतर प्रविष्ट होकर परिवेश को देखने-बुनने-गुनने की जमीन.

 अलबत्ता शूल की तरह कुछ कसकता तो है निरंतर. तब, जब आलोचक को पाठक जगत लेखक ही नहीं मानता. तब, जब ‘हिंदी का स्त्री लेखन‘ या ‘समकालीन लेखन‘ आदि विषयों की बात करते हुए तमाम नवोदित रचनाकारों. कथा-कविता की बात होती है, लेकिन विमर्श की परंपरा आगे बढ़ाने हेतु किसी आलोचक का जिक्र तक नहीं होता. गोया आलोचक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव या सेल्समैन की तरह दूसरों के सामान को बेचने वाला एजेंट भर हो. अपने आप में शून्य! यह कसक तब और बढ़ती है, जब रचनाकार-पाठक आलोचना को आलू-चना कहकर खारिज करने में भी देरी नहीं लगाते.

 आलोचक की साख/ईमानदारी/प्रतिभा को प्रश्नांकित किया जा सकता है, लेकिन आलोचना का मजाक उड़ा कर सृजन, समय और समाज किसी को भी नहीं बचाया जा सकता. आलोचना  यानी समय के साथ अपने संबंधों को तार्किक संवेदना के साथ परखना. आलोचना-दृष्टि के बिना न हम बेहतर मनुष्य हो सकते हैं, न नागरिक, न लोकतंत्र के प्रहरी.

 

 साहित्य और साहित्य की किसी भी विधा को समग्र दृष्टि से देखना कहां संभव है. अंधों द्वारा देखा गया हाथी है साहित्य/आलोचना. सब सही हैं/ हो सकते हैं अपने-अपने निष्कर्षों-ऑब्जरवेशन में. लेकिन मेरी नजर में आलोचक न दारोगा है, न मेहतर, न रणछोड़दास. वह साहित्य का चटोक अध्येता है. गंभीर विश्लेषक है. खदबदाते विजन के साथ समय और साहित्य, मनुष्य और समाज, सरोकार और कल्पना के बीच एक पुल तैयार करने वाला आर्किटेक्ट है. जब तक आलोचना को सम्मान भरी जगह और नजर साहित्य-समाज नहीं देगा, आलोचक कवि-कथाकार-निबंधकार की तरह अपनी जमीन पर ठसके के साथ बैठनहीं सकता. वह पुख्ता जमीन की तलाश में निरंतर दौड़ती विकलता है कि दो घड़ी आराम और मान पाकर फिर से काम पर निकल जाए.

 

कि. सिं.- इस विषय पर कई लेख है कि फैसला देते समय जज के अपने संस्कार निर्णय को प्रभावित करते हैं. वैसे ही आलोचक के अपने संस्कार, पूर्वाग्रह, विचारधारा, स्वार्थ मित्रता, आलोचक की उस समय की मन:स्थिति, देश काल का वातावरण आदि कृति की व्याख्या को क्या प्रभावित करते हैं? आलोचना की तटस्थता को सबसे ज्यादा क्या प्रभावित करता है?

 

रो. अ. आलोचक जज नहीं है. वह रचनाकार है. अपने संस्कारों, पूर्वाग्रहों, प्रतिबद्धताओं से सिरजा एक व्यक्तित्व. तर्क और वैचारिकता उसके व्यक्तित्व को वस्तुपरक आयाम देते हैं तो मन:स्थिति, परिवेशगत प्रभाव/दबाब, रुचियाँ-प्राथमिकताएं वस्तुपरकता में आत्मपरकता की झिलमिलाहट को जोड़ देती हैं. साहित्य अपने को तटस्थ रखते हुए आत्माभिव्यक्ति का ज़रिया ही है – लेखक के सजग ‘मैं’ की सधी हुई पेंटिंग. अपने मैं को तिरोहित करते हुए समय के ‘मैं’ को पकड़ने के प्रयास में दर असल आलोचक  समय के कैनवस पर अपनी ख्वाहिशों और सपनों को ही उकेरता है. आलोचना चूंकि डूब कर समाधिस्थ अवस्था में सत्यान्वेषण का गंभीर प्रयास है, इसलिए स्वयं नहीं जान पाता कि उस समय (लेखन के दौरान) उसकी आत्मपरकता का कौन सा नुकीला कोना तटस्थता की नाजुक भित्तियों से टकरा रहा है. लेकिन इतना तय है कि जब-जब स्वार्थ,मित्रता के दबाव, अवसर के लोभ उसकी दृष्टि में आ बैठते हैं, तब-तब वह डूब कर नहीं, कीचड़ भरी सतह पर लथपथ बदहवास अवस्था में लिखने का व्यापार कर रहा होता है. आलोचना का ड्राफ्ट इतना ईमानदार दर्पण है कि आलोचक के मन की भीतरी हलचलों, विचलनों और काइयां मानसिकता को छुपाने की कोशिश के बावजूद जस का तस उघाड़ देता है. पकड़ने की नजर ही पाठक को सजग सावधान संवेदनशील प्रहरी बनाती है.

 

कि. सिं.- लेखन पलायन, युद्ध, विरेचन, अमरता की चाह, समाज सेवा, बौद्धिक विलास, व्यवसाय में से क्या है? या कुछ और है? 

रो. अ. – लेखन संलाप है – प्रलाप और आत्मालाप की संकरी वीथियों को पार कर समाज से जुड़ने, वक्त की हकीकतों से जूझने, और भीतर की बेचैनियों को सपनों की झालरों से सजाकर किसी नए लोग की तामीर करने का जुनून है. ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तर्ज पर साहित्य के लक्ष्य, प्रयोजन, स्वरूप को लेकर अनादिकाल से दिग्गजों /काव्यशास्त्रियों के बीच बहस चलती आ रही है, लेकिन जिंदगी की तरह क्या इसका भी मर्म पाया जा सकता है? दरअसल इस सवाल का अनुत्तरित या प्रासंगिक बने रहना लेखन के साथ समय और लेखक के रिश्तों की गहराई और प्रामाणिकता को मापना ही है. मेरे लिए लेखन एक्सप्लोरेशन का आनंद है और हृदय की मुक्त अवस्था को जीने का आह्लाद!

 

कि. सिं. ‘कथालोचना के प्रतिमान’( पृष्ठ 123 पर) आप कहती हैं -‘आलोचक को किसी ताले की डुप्लीकेट चाबी मानना दरअसल आलोचना की तौहीन करना है. उसके भीतर सांस की तरह रची बसी सृजनात्मक अकुलाहटो को सुनने से इनकार करना है’.. वहीं पृष्ठ 125 पर आप कहती हैं ‘आलोचना अपने समय की बौद्धिक प्रहरी है – सृजनशीलता के वजूद पर टिकी.’ आप आलोचना को सृजनात्मक और स्वायत्त बनाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. यह सृजन के सुख के लिए है? या आलोचना के दायरे के विस्तार के लिए? या ऐसा ही आपका व्यक्तित्व है? क्या आपको सृजनात्मक आलोचना की दिशा में पहल लेने वाली या मजबूती से स्थापित माना जा सकता है?

 

 रो. अ. आलोचना कृति की टीका नहीं है. वह फौरी तौर पर कृति पर आधारित दिखती है, लेकिन दरअसल कृति के बहाने वह समय की शिनाख्त और अपनी भीतरी हलचलों की पड़ताल ही करती है. आलोचना आलोचक की दृष्टि और बोध, सरोकार और दायित्व से बंधा समय का विश्लेषणात्मक आख्यान है. अपनी अंतिम टेक में वह कृति से दूर होकर एक चिंतक के रूप में ही उभरता है. इसलिए आलोचना को कृति निर्भर रचना मानने से इंकार करती हूं. आलोचना की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए जरूरी है आलोचना के स्वरूप और आलोचक की गरिमा को कबूलना. आलोचना को लेकर पाठक -लेखक वर्ग में इतने पूर्वाग्रह है, इतनी हेय दृष्टि है कि वे आलोचना और समीक्षा में फर्क ही नहीं कर पाते. इसी वजह से लेखक के अनिवार्य गुण – द्रष्टा-स्रष्टा – की वे आलोचक से अपेक्षा भी नहीं करते. स्कूल-कॉलेज में अक्सर साहित्य की क्लास में विद्यार्थियों को कविता, कहानी, निबंध का सार अपने शब्दों में लिखने को कहा जाता है. आलोचना सार लिखने की कला कदापि नहीं है. आलोचना की स्वायत्तता को प्रतिष्ठित करने के लिए पहले हमें अपने दिमागी जाले-फफूंद साफ करने होंगे. जिस दिन ऐसा हुआ, उस दिन कोई भी लेखक न किसी से अपनी कृति पर आलोचना (?) लिखाने की मुखर-प्रच्छन्न अपील करेगा, न आलोचना को आलू-चना कहकर हिकारत से देखेगा. आलोचना का स्वरूप निर्धारण आज हिंदी साहित्य के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है क्योंकि बहुत से घुसपैठिए (सार लिखने वाले विद्यार्थीनुमा आलोचक) आलोचना में घुस आए हैं.

 मैं अक्सर आलोचना को परिभाषित करते हुए कहती हूं – सृजन का विश्लेषणात्मक विवेक ही आलोचना है.सृजनात्मक होना साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आलोचना की भी पहली शर्त है. सृजनात्मकता जोड़-पैबंद लगी चादर नहीं होती कि एक-एक विचार बिंदु को सिलसिलेवार अलग-अलग अनुच्छेदों में ‘निपटा’ दिया जाए. वह संगीत की लहर की तरह आवर्ती, स्वायत्त, संपूर्ण है – आदि, मध्य, अंत सब परस्पर जुड़े हुए – महीन और अमूर्त, तार्किक और अनुभूतिप्रवण.ठीक वैसे जैसे रुई की पूनी में से निकलती सूत की पतली महीन अखंड डोर.

 

कि सिं आप बार-बार विवेक, संवेदना, कल्पना और सृजनात्मकता इन- चार शब्दों का प्रयोग करती हैं. (अंतः करण में सिमट कर बैठे विवेक, संवेदना और कल्पना के सर्जनात्मक उपकरणों का ज्ञान, वही प़ २९) क्या इन चार शब्दों को आप की अवधारणा या किसी को जांचने का आप का पैमाना मान लिया जाए? आपकी आलोचना पद्धति /आलोचना सिद्धांत को क्या नाम दिया जाए ?

रो. अ. जी, आप इन चार शब्दों को मेरी दृष्टि से आलोचना के बीज शब्द कह सकती हैं.

 

 कि. सिं. आपकी भाषा कविता के नजदीक है. आपकी आलोचना में कहानी का रस है. आपके विचार दार्शनिकों के नजदीक हैं. एक व्यक्तित्व के इतने आयाम कैसे संभव हैं? अपने व्यक्तित्व के रहस्य को खोलिए.

 रो. अ. सृजन चिंतन की समाधि अवस्था है. एकाग्र तल्लीन भाव से गहरे उतरने की साधना. जो दृश्यमान है (भौतिक संसार), उसे बनाने वाली कारक शक्तियों और कार्य कारण श्रृंखला की पड़ताल ; जो दृश्यमान नहीं है (आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का संसार,  भविष्य) उसे उकेरने के तार्किक आधार. नि:संगता! और गहरी अपराजेय जिजीविषा! सृजन अपनी’ मैं’ में ब्रह्मांड की गूंज भर लेने की आकांक्षा है. और उस लय-तान में आत्मविस्मृत हो जाने की चैतन्यता. सृजन उलटबांसियों का संगम है – खोकर पाने की कला. अपनी कनविक्शंस पर अडिग-अविचल रहकर जमाने भर की यात्रा कर आने की चपलता. सृजन में नित्यक्रमिकता की ऊब, एकरसता, घुटन, हताशा नहीं, कुछ अचीन्हा-अनजाना पा लेने का आनंद है;  कष्टसाध्य आनंद. इसलिए कविता अनायास यूं ही उत्सुक भाव से उसे निहारने आ जाती है. यूं कविता भी क्या है? गहरी तन्मयता से  विचार या अनुभूति, तथ्य या कल्पना की परिक्रमा करते हुए अंतरतम की परतों को एक-एक कर परखना;  फिर उसके नग्न विराट रूप को देखकर सत्य का साक्षात्कार! रोमांच भरी उपलब्धि और सम्मोहन की जड़ीभूत अवस्था है कविता – तरल और पारदर्शी. संगीत की लहरियां अनायास इसकी बेसुधी को थाम लेती हैं. कविता में चूंकि विचार और संवेदना गहरी पारस्परिकता में चिंतन की  इंटीग्रिटी (अन्विति) और पारदर्शी इमानदारी दर्शन की ओर खुलने लगती है – जीवन के साथ संवाद करते हुए, तो इसमें कहानी का रस आएगा ही न.

 

 कि. सिं. – साहित्य की सभी प्रमुख विधाएं एक ही कृति में साधने का प्रयास क्यों करती हैं? अपने स्वभाव से अलग नहीं जाना चाहतीं? या कृति को विशिष्ट बनाना चाहती हैं? क्या यह आपकी मौलिक विशिष्टता मानी जाए? या इसकी परंपरा रही है?

रो. अ.  – बहुत गहरे उतर कर जब रचनाकार जिंदगी से संवाद करता है तो वह विधाओं की बाड़ाबंदी तोड़ डालता है. विचार, कल्पना, संवेदना, संगीत, नृत्य की अंतर्वर्ती लहरें, सपनों की फुहारें, रंग-रस सब कुछ तो उसमें घुले चले आते हैं. अज्ञेय की कविताओं में ! मुक्तिबोध की कविताओं और कहानियों में! विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों व कविताओं में! कहीं कोई उलझाव नहीं, बाधा नहीं – अबाध बहते समय में उतनी ही निर्बाध अंतर्यात्रा जिसकी चापें समय की छाती पर पड़ती है. प्रयास से एक विधा में कुछ डालना चाहें तो वह ठूंसने की कुत्सित चेष्टा भर बन जाती है. पाठक छद्म को तुरंत पहचान लेता है क्योंकि रचना का आंतरिक सौंदर्य अमूर्त होते हुए भी पाठक तक सबसे पहले पहुंचता है. मैं नहीं जानती, मेरी आलोचना में कविता-कहानी-दर्शन की अन्विति कैसे होती है, लेकिन इतना जरूर कहूंगी कि सघन चिंतन और गहन ईमानदारी ही मेरा पाथेय है, मेरे टूल्स भी.

 

किरण सिंह : समकालीन कवि कहानीकार क्यों कह रहे हैं कि हमें आलोचक की जरूरत नहीं? क्या आलोचकों ने जानबूझकर उनकी उपेक्षा की है? या आलोचक को उनमें कुछ खास नहीं लगा? अथवा आलोचक इतना पढ़ नहीं सकता?

 रोहिणी अग्रवाल : मुझे यह कथन जेनुइन न लग कर एक राजनीतिक स्टेटमेंट ज्यादा लगता है कि ‘हमें आलोचक की जरूरत नहीं’. जैसे यह दावा कि सरकार चलाने के लिए जब सत्तापक्ष ही जरूरी होता है तो विपक्ष का क्या काम? जब विपक्ष का कोई काम नहीं, तो क्यों नहीं ‘विपक्ष मुक्त भारत अभियान’ चलाकर अनावश्यक शूल-कंटकों को रास्ते से उखाड़ फेंका जाए?

 आलोचक राज दरबार में नियुक्त भाट-चारण नहीं कि प्रशस्ति गान कर राजा के मनोबल को बढ़ाने हेतु सचोझूठ के कुलाबे बांधता फिरे. आज जिस परिमाण में लिखा जा रहा है,आनन-फानन में फैक्ट्री से निकले प्रोडक्ट की तरह ढेर सी हमशक्ल कविताएं-कहानियां रची जा रही हैं, उन्हें मील का पत्थर साबित नहीं किया जा सकता. लेखक यदि शोध एवं श्रम करके किसी उपन्यास को वर्षों बाद संपन्न करता है, और फिर भी उपन्यास में शोध और रिपोर्ताज की गठरी ढोने के श्रम की बदहवासियां साफ दिखाई दे रही हैं, तो कैसे आलोचक उन्हें नजरअंदाज कर सकता है? फैक्ट की अनगढ़ता यदि फिक्शन में चली आई है तो इसका अर्थ है कि लेखक फैक्ट को अनुभव में ढालकर संवेदना के स्तर पर नहीं जी सका है. इसलिए वह उसकी दृष्टि से प्राणवान नहीं हो पाया;  तमाम मशक्कत के बावजूद किसी ‘दूसरे’ का ही जीवन-सत्य बनकर रह गया है. विषय के साथ निसंग आत्मीयता एक ऐसी खूबी है जो रचनाकार को बड़ा बनाती है.

 आलोचक के पास रचना को परखने की अपनी दृष्टिगत कसौटियां होती हैं – उसकी अपनी निसंग आत्मीयता का निदर्शन करती हुईं. अपनी चेतना, बोध और संवेदना के स्तर पर जाकर ही वह रचना के साथ संवाद करता है. जाहिर है उसके प्रतिमान उसकी अपनी दृष्टिजन्य कसौटियां है जो जितनी आत्मपरक हैं, उतनी ही वस्तुपरक भी. मूल्यांकन की उसी जमीन पर खड़े होकर जब वह किसी रचना पर असहमतियां दर्ज कर रहा होता है, और रचना के भीतर गुजरने की प्रक्रिया के दौरान जुटाए गए तर्कों-तथ्यों के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत करता है, तब वह महज रचना का ‘अपना’ पाठ कर रहा होता है. रचना को खारिज करने, ‘उठाने-गिराने’ की टुच्ची हरकतें पास नहीं फटकतीं. आलोचक पर आरोप लगाने से पहले आलोचक की मनोभूमि और रचना प्रक्रिया पर भी सहृदयता से विचार कर लेना जरूरी है. रचनाकार और आलोचक के संबंध शुरू से ही काफी नाजुक और विवादास्पद रहे हैं. यह भी देखने में आया है कि आलोचक-लेखक मिलकर एक गुट जैसा कुछ बना लेते हैं और निहित मंतव्यओं के मद्देनजर उठापटक के काम को अंजाम देते चलते हैं. लेकिन यह तो माफिया की सरहदों के भीतर चलतीं ‘कारगुजरियां’ हैं. बहुत सा जेनुइन साहित्य इन कारगुजारियों की छाया के बिना भी रचा जा रहा है. रचनाकार (आलोचक भी इसमें शामिल है) यदि धीर-गंभीर और संवेदनशील होगा तो आलोचनात्मक टिप्पणियों को लेकर बौखलाने की अपेक्षा आत्ममंथन करेगा.

 यूं एक अंतर्विरोध खूब पनप रहा है इन दिनों. रचनाकार (मंच पर) कह रहे हैं कि हमें आलोचक की जरूरत नहीं, लेकिन साथ ही (मन में) चाहते हैं कि एक नहीं, कई-कई पत्रिकाओं में कई-कई आलोचक उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तकों पर लिखें. अपने स्टैंड का निर्धारण तो रचनाकार को स्वयं करना है. आलोचना की सत्ता उनकी नाराजगी या खुशी के बावजूद बनी रहेगी क्योंकि आलोचना कृति की प्रतिक्रिया नहीं,है लेखक की विवेकसम्मत दृष्टि से प्रस्तुत किया गया समय का भाष्य है.

 

किरण सिंह : आलोचना को सबसे ज्यादा नुकसान किस से पहुंचा है – (क) कवि-कहानीकार आदि द्वारा आलोचकों के अहम को बढ़ावा देना? (ख) कवि कहानीकार आदि द्वारा अपने और औसतपन में आलोचकों का निरादर करना?(ग) मठाधीश और उनकी चेलावाही?(घ) झोलाछाप द्वारा भी सर्जरी करना?(च)शिक्षण/साहित्यिक संस्थानों द्वारा ज्ञान को जड़ बना देना?

 रोहिणी अग्रवाल : ये पांचों दरअसल विकल्प नहीं, आलोचना की महत्ता को क्रमशः विघटित और विश्रृंखलित करने वाले घटक हैं. आलोचना की संस्कृति उपभोक्ता संस्कृति को प्रश्नांकित करती है; जड़ता और संवेदनशीलता की संवेदनहीनता की प्रतिगामी ताकतों पर कुठाराघात करती है. नव उदारवादी दौर में पूंजी, उपभोग, शोषण, दक्षिणपंथी रुझानों के अबाध प्रवाह को रोकने में चूंकि आलोचना महती भूमिका निभा सकती है, इसलिए इसे उपेक्षा की ठंडी मार के जरिए दृश्यपटल से हटा दिया जा रहा है.

 विडंबना है कि बाजार की ताकतों ने बिकने के लिए प्रस्तुत आलोचना को अपने हाथ की डुगडुगी भी बना लिया है.

 

कि. सिं. ‘स्त्रियों को अपना खुद का इतिहास जानना चाहिए‘… (साहित्य की जमीन पृष्ठ 16. क्या आपने सुमन राजे की तरह हिंदी साहित्य का आधा इतिहास जैसा कुछ लिखने की योजना बनाई है?

रो. अ.  ऐसी किसी वृहद योजना पर टिक कर काम करने का विचार अभी नहीं आया है. हां, 2011 में ‘स्त्री लेखन: और संकल्प’  शीर्षक से एक किताब जरूर आई थी जिसमें मीराबाई से लेकर 2010 तक के स्त्री कथा-लेखन के प्रमुख पड़ावों पर विचार किया था. किताब में ज्यादा फोकस मैंने नवजागरणकालीन साहित्य और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान रचे गए साहित्य पर किया और इस तथ्य को जांचने का प्रयास किया कि 1850 से 1947 तक रचे गए साहित्य का स्वर स्त्री को लेकर कितना उदार, परिवर्तनकामी या क्रांतिकारी रहा है? कि क्या स्त्री रचनाकार और पुरुषरचनाकार की दृष्टि, संस्कार और सरोकार में फर्क है? कि तदयुगीन समाज सुधारक/राजनेता/ साहित्यकार कैसे अनजाने ही मर्दवादी सोच से जकड़े हुए हैं, और स्त्री के संदर्भ में अंतर्विरोधों को जब तब उजागर करते रहे हैं. शिवरानी देवी और प्रेमचंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र और मल्लिका देवी एक ही समय की उपज होते हुए भी क्यों स्त्री प्रश्नों और सामाजिक सरोकारों को लेकर अलग-अलग राय रखते हैं? महादेवी वर्मा हालांकि हिंदी की सशक्त स्त्री पैरोकार के रूप में उभर कर आती हैं, लेकिन उनकी दृष्टि को रखमाबाई, पंडिता रमाबाई और अज्ञात हिंदू महिला के संदर्भ में जांचना भी खासा रोचक लगा. कई बार सोचती हूं, स्त्री कथा लेखन का इतिहास जैसी कोई पृथुल पुस्तक लिख डालूं. डेढ़ सौ बरस की कालावधि में भारतीय समाज के मनोविज्ञान, परिवर्तन की परतों, पूर्वाग्रहों और समय के साथ परिपक्व या संकीर्ण होती सोच को समझने का मौका मिलेगा. लेकिन इतनी एकाग्रता, इतना अध्यवसाय, इतनी मेहनत … रूह कांप जाती है. पता नहीं, वक्त के गर्भ में क्या है?

 

 किरण सिंह :  हम ‘ द सैकेंड सेक्स‘ और ‘अ रूम ऑव वन्स‘ को बराबर याद रखते हैं. हम अपने देश की स्त्री विमर्शकारों जैसे ताराबाई शिंदे की किताब ‘स्त्री पुरुष तुलना‘ को क्यों याद नहीं करते हैं?

 रोहिणी अग्रवाल : हमने राजनीतिक आजादी 1947 में जरूर पाई, लेकिन मानसिक आजादी आज तक नहीं पा सके हैं. मानसिक आजादी पाने के लिए न बेचैन हैं, न संघर्षशील. अंग्रेजी और अंग्रेजियत यानी पाश्चात्य जीवन शैली और जीवन मूल्य हमारे आधुनिक होने की कसौटी बन गए हैं. आधुनिकता न लिबास में है, न भाषा में. यह आधुनिकता का कृत्रिम आरोपित शोभित बाह्य पक्ष है. उसका वास्तविक और अभ्यंतर पक्ष है – विचार; और विचार को हमने बेहद गैर जरूरी बना दिया है. विचार हमारा व्यक्तित्व है. विचार की निर्माण प्रक्रिया में परिवेश, परंपरा, संस्कार से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रभाव जितनी भूमिका निभाते हैं, उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका है इन सारे प्रभावों को आत्मसात कर निजी दृष्टि विकसित करने की; संवेदना का स्तर बनाने और अपनी कार्यशैली को अंजाम देने की.

 साहित्य के संदर्भ में हमने विचार के स्वायत्त अस्तित्व को अस्वीकार कर उसे विचारधारा से जोड़ दिया है, और अपनी प्रकृति के अनुरूप दक्षिणपंथी या वामपंथी विचारधारा को अपनाकर हम अपनी मानसिक गुलामी पर मुहर लगाते जा रहे हैं. दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं तो आधुनिकता का बाह्य मुलम्मा स्वीकार कर आधुनिकता, वैज्ञानिकता और वैचारिक उदारता को वैदिक संस्कृति में रोप कर शुद्ध हिंदुत्व की बात करने लगते हैं.यहां आधुनिकता यानी प्रश्न की निरंतरता विवेक और आत्मालोचन की अनिवार्यता का प्रतिलोम बनकर परंपरा और आस्था को वृहद मूल्य बना देती है. ऐसे में इतिहास, संस्कृति, राजनीति और धर्म की विकास यात्रा की पड़ताल से बंधी हुई दृष्टि और गढ़े गए लक्ष्यों के अनुरूप होती है. बहुत कुछ जैनुइन और जरूरी बिंदु/ व्यक्ति/ संदर्भ जानबूझकर छोड़ दिए जाते हैं. रखमाबाई,ताराबाई शिंदे की क्रांतिकारिता, भारतीय आर्ष ग्रंथों- परंपराओं और मनुस्मृति की धज्जियां उड़ा देने की ओजस्विता दक्षिणपंथी विचारधारा के एजेंडे में फिट नहीं होती. सायास चुनी चुप्पियां और हिकारत से बरसाई गई बर्छियां इसका उदाहरण हैं.

 वामपंथी विचारधारा दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रतिलोम होते हुए भी एक बिंदु पर उसका प्रतिरूप है; और वह है कट्टरता एवं असहिष्णुता. वामपंथी विचारधारा आधुनिकता का आयात पश्चिम से करती है. भारत की शास्त्रीय परंपराओं के प्रति हिकारत का भाव और पाश्चात्य चिंतन परंपरा के प्रति अनुरक्ति जीवन, समाज और साहित्य को पश्चिम के चश्मे से देखने में उभरती है. विदेशी चिंतकों-दार्शनिकों-साहित्यकारों की नेम ड्रॉपिंग, सिद्धांतों की चर्चा और देशज जरूरतों को नजरअंदाज करते हुए उन्हें ही टूल मानने की हठधर्मिता अक्सर स्त्री विमर्श को सिमोन द बउवार,  वर्जिनियां वुल्फ और परवर्ती स्त्री विमर्शकारों तक सीमित रखती है. हालांकि आज यह ग्रंथि टूट रही है और भारतीय स्त्री की स्थिति, इतिहास और संघर्ष की पड़ताल करते हुए भारतीय स्त्री विमर्शकारों की ओर जाने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है. फिर भी यह तय है साहित्यकारों के एक वर्ग के लिए बुद्धिजीवी वही है जो पश्चिमी विचारकों के आईने में भारतीय समय-समाज का सच देखता है.

 

कि. सिं. : ‘बेशक अध्ययन मनन के दौरान स्त्री हूं, स्त्री होकर सोचती-महसूसती हूं.‘ (हिंदी उपन्यास का स्त्री पाठ पृष्ठ 149) क) यह घोषणा जरूरी क्यों है?

ख) यह घोषणा आपकी पहचान और दृष्टि की सीमा तो नहीं तय कर देती है?और आपकी ही ‘संपूर्ण मानव जाति की अवधारणा‘ को बाधित तो नहीं कर देती? क्या आपकी आलोचना में स्त्री विमर्श की दृष्टि का अनुपात अधिक और राजनीतिक और आर्थिक एंजेडे के लिए जगह कम है?

 रोहिणी अग्रवाल : स्त्री को केंद्र में रखकर ठोस और महत्वपूर्ण लेखन करने वाली वरिष्ठ और नामचीन लेखिकाएं जब डंके की चोट पर यह घोषणा करें कि लेखक सिर्फ लेखक होता है, स्त्री या पुरुष नहीं; कि वे स्त्री विमर्शवादी लेखिका नहीं हैं, तब जरूरी हो जाता है कि उनकी हमसफर होने के नाते आप खुद अपनी खबर लें कि लेखन के दौरान क्या आप सिर्फ लेखक हैं? कि क्या लेखक का जेंडर, धर्म, वर्ग आदि नहीं होता? कि स्त्री विमर्श इतनी घृणास्पद संदेहास्पद चीज है कि आप विधिवत घोषणा करके इस से कोसों दूर भाग जाना चाहते हैं?

 विमर्श तो संवाद है न! खुला! अनवरत! पूर्वाग्रह से मुक्त संवाद! विमर्श शास्त्रार्थ नहीं कि जय-पराजय की हुंकारों के बीच वर्चस्व की राजनीति खेली जाए. विमर्श को दायरे में बांधना उसकी स्वाभाविक ग्रोथ को रोककर बोनसाई बना देना है. मेरे लिए स्त्री विमर्श का अर्थ है – स्त्री को केंद्र में रखकर की जाने वाली बहस ताकि उसकी मानवीय अस्मिता, मानवीय गरिमा और मानवीय अधिकारों को पहचान कर उन संस्थाओं, व्यवस्थाओं, मनोवृतियों, पूर्वाग्रहों, विशेषाधिकारों को चिन्हित कर सकें जो स्त्री से मनुष्य होने का नैसर्गिक अधिकार छीनते हैं; और उसी अनुपात में पुरुष की अस्मिता में दर्प और विकृत ताकत का आरोपण करते हुए मनुष्यता से गिराते चलते हैं. स्त्री विमर्श, जाहिर है, इसीलिए स्त्री मुक्ति का आख्यान भर नहीं है; समाज में स्त्री की पतनशील स्थिति की पड़ताल के क्रम में स्त्री और पुरुष दोनों की मानवीय अस्मिता की रक्षा की वैचारिक लड़ाई है.

 विमर्श सामंती और साम्राज्यवादी ताकतों के दरबार के इकहरे स्ट्रक्चर का विरोध करते हुए प्लूरलिस्ट है. यह किसी एक खास पहचान, निष्कर्ष , मूल्य को फतवा या अचार संहिता बनाकर व्यक्ति की निजी पहचान और स्वायत्तता को ढांपने की कोशिश नहीं करता, बल्कि सब को एक दूसरे के बरक्स रखकर गहरी समझाइश और आपसदारी में अपने विवाद सुलझाने की पेशकश करता है. विमर्श एक ऐसा पारदर्शी धरातल है जहां आप न किसी आड़ में अपने को बचा/छुपा सकते हैं, न अपने गोपन अंतर्मन की भीतरी परतों की ओर से आंख मूंद सकते हैं. इसलिए स्त्री विमर्श सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं का पुनरीक्षण करता हुआ देखता है कि कुप्रथा, रूढ़ियों, परंपराओं, मत-विश्वासों-संस्कार के नाम पर जिन अमूर्तताओं की ओर दोषारोपण के लिए व्यक्ति उंगली उठाता रहा है, वे सब तो उसकी रोजमर्रा की जिंदगी/विचार/ व्यक्तित्व और दृष्टि को बना रही हैं. उसके जिंदा होने की औसत शर्त बन गई हैं. इसलिए बेहद असहज हो जाता है इंसान जब सोते-जागते उंगलियां उसी और तनी रहें. स्त्री विमर्श पुरुष को नहीं गरियाता, पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सोच से संस्कारित पुरुषवादी मानसिकता वाले स्त्री-पुरुष को आत्मालोचन के लिए प्रेरित करता है. स्त्री विमर्श पुरुष को कठघरे में खड़ा करने का शौकिया या विद्वेषपूर्ण लेखन नहीं; लैंगिक दृष्टि से समतामूलक समाज की पुनर्रचना का स्वप्न है.

 इस स्वप्न की पूर्ति के लिए सबसे पहले व्यक्ति/ इकाई के तौर पर अपनी बेबाक शिनाख्त जरूरी है. फिर अपने संदर्भ में दूसरों की भूमिका, गरिमा और योगदान पर बात. एक स्त्री होने के नाते मेरे निजी अनुभव मेरा कोरा बुद्धि विलास नहीं हैं. न ही मेरी भावनाओं की अतिरेकपूर्ण प्रतिक्रियाएं. उनके उसी रूप में होने में समाज की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता.

 चलिए, काफी गंभीर बात हुए जा रही है. आपको एक कविता सुनाती हूं:

 

औरत

 ख़ुद नहीं जानती 

अपने सहजात डर की उम्र और जाति.

 

 वह

उम्र की उंगली थाम

तालीम की रोशनी में

 आत्मनिर्भर होने के दर्प से

 कतरा-कतरा छितरा देना चाहती है डर.

 

कतरा-कतरा छितराया डर

इशारों इशारों में गलबहियाँ डाल

 जकड़ लेता है उसे ऑक्टोपस सा.

 

औरत

 ऑक्टोपस से लड़ना नहीं जानती

 उसके भीतर के समंदर में 

ऑक्टोपस की पैदावार

 ख़त्म होने को नहीं आती.

 

 औरत

 परेशान है ऑक्टोपस से

एक ख़ास शक्लोसूरत लेकर सामने आए 

तो हुलिया बयान कर

 पकड़वाने का जतन करे भी वह.

 खून बन कर प्राण में समा जाए तो भला

किस से जुदा हो वह?

आज भी अंधेरा घिरते ही रेल के वातानुकूलित डिब्बे में पुरुष-यात्रियों के बीच अकेली महिला होने की अनुभूति उम्र और अनुभव की सीमा पार कर मन में टीन एज की भय से सिहरती धड़कनों को भर देती है. मेरा यह भय न मेरे पिता-भाई का जिया हुआ डर है, न बेटे-पति का. लेकिन बेबुनियाद या अर्धसत्य होते हुए भी वह मेरे लिए खौफनाक दु:स्वप्नों की सृष्टि करता है. इसलिए जीवन और जगत् को पढ़ने-देखने-समझने की दृष्टि मेरे लिंग द्वारा एक सीमा तक अवश्य निर्धारित होती है. लेकिन इसे संकुचित या बाधित दृष्टि क्यों कहा जाए?  मुख्यधारा का साहित्य विमर्शवादी साहित्य से पहले लंबे अरसे तक सिर्फ सवर्ण संभ्रांत पुरुष के मनोजगत, सामाजिक संबंधों और पुरुष-दृष्टि का ही उत्सव मनाता आया है, जिसमें उससे इतर हर प्राणी अपनी स्वायत्त पहचान लेकर नहीं उभरता, उसके सापेक्ष अपनी अलग छवि गढ़ता है. जैसे वह नर है तो उससे बिल्कुल अलग दैहिक संरचना की जीवंत प्राणी ‘नारी‘. लेकिन दैहिक संरचना की दृष्टि से अपने जैसे पुरुष में स्त्री जैसे हावभाव पाकर वह स्तब्ध है और अकस्मात पूछ बैठता है – किम् नर? कैसा है यहन र? किन्नर! स्त्री विमर्श नर की केंद्रीयता को अपदस्थ कर मनुष्य को केंद्र में रखता है. इसलिए मुख्यधारा के साहित्य को न खंडित करता है, न बांटता है, वरन उसमें रुद्ध/ अदृश्य कर दिए गए स्वरों को मिलाकर समृद्ध करता है. विमर्शवादी साहित्य मुकम्मल इंसान बनने की वैचारिक- मानसिक तैयारी की ओर बढ़ाया गया कदम है क्योंकि यह दृष्टि को बाधित एवं सुनिश्चित करने वाले पूर्वाग्रहों को तोड़ने की नैतिक पहल है. बशर्ते इसी उदार निर्भीक सोच के साथ उसे लेखन, जीवन और कर्म में उतारा जाए.

(ग) जी, आप ऐसा कह सकती हैं कि मेरी आलोचना में स्त्री विमर्श की दृष्टि का अनुपात अधिक है और राजनीतिक एवं आर्थिक एंगल के लिए जगह कम है. लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री को पराधीन बनाए रखने की राजनीतिक चाल ही तो है. इसे संस्कृति और धर्म के हवाले कर हम इसे अपने लिए सहज, आदर्श और अनुकरणीय बना डालते हैं. इसलिए मेरी दृष्टि समाज की सांस्कृतिक संरचनाओं की पड़ताल करने में अधिक केंद्रित रही है.

 

किरण सिंह : आपने स्त्री विमर्श को प्रोत्साहित करते हुए लिखा है – ‘स्त्रीवादी साहित्य … स्त्रीवादी इतिहास की बाजार में मांग है . हमें इसे उपलब्ध कराना चाहिए.” साहित्य की जमीन और स्त्री मन के उच्छ्वास, पृष्ठ 16) बाजार में मांग क्यों है? क्या बाजार स्त्री को लेकर मानवीय हो गया है? 

रो अ : “स्त्रीवादी साहित्य,  स्त्रीवादी इतिहास की बाजार में मांग है. हमें इसे उपलब्ध कराना चाहिए.”  ये पंक्तियां बेवर्ली जोन्स और जुडिथ ब्राउन के 1968 में छपे ऐतिहासिक महत्व के पंफलेट ‘टुवर्ड्स फीमेल लिबरेशन‘ से ली गई हैं. स्त्री विमर्श की उग्रउन्मूलनवादी लहर को गति देने में तीस पृष्ठ के इस पंफलेट की काफी अहम भूमिका रही है. 

भारत के संदर्भ में यदि उपर्युक्त कथन को देखें तो पाएंगे, 90 के दशक के दौरान स्त्री-केंद्रित साहित्य को लेकर पत्र-पत्रिकाएं अचानक सजग हो गई थीं. खासतौर से राजेंद्र यादव ने हंस को स्त्री चेतना (एवं दलित भी) के प्रसार का मंच ही बना दिया था. इस पर्चे में उल्लिखित अन्य बातों को लेकर राजेंद्र यादव ने ढेर सी नवोदित संभावनाशील लेखिकाओं को प्रोत्साहित भी किया कि (1)वे अपने अनुभवों को लिखें,(2) स्त्री-इतिहास को अपनी पारिवारिक परंपरा से गुजर कर दर्ज करें, (3) संघर्षशील स्त्री-चिंतकों के अवदान एवं संघर्ष को सामने लाएं, (4) पुरुष-परिवार के साथ अपने संबंधों को बदली हुई नई दृष्टि से जांचें, (5) अपनी असहमतियां और मांगें दर्ज करें. हिंदी साहित्य के लिए स्त्री की केंद्रीय स्थिति एक नई परिघटना थी. साथ ही इसने साहित्य के मिजाज, स्वाद और तेवर में भी क्रांतिकारी बदलाव किया. पूर्ववर्ती स्त्री लेखन से भिन्न इस दौरान स्त्रियों ने स्वयं को अन्या नहीं ‘अन्या कर दी गई मनुष्य चेतना‘ के रूप में प्रस्तुत करते हुए लेखन किया. जाहिर है, बाजार/पाठक वर्ग ने इस मुहिम का नए अन्न की खुशबू की तरह स्वागत किया.

 

 बाजार का चरित्र बेहद विचित्र है. वह कर्त्ता भी है, और नियंता भी. वह मांग भी पैदा करता है, और आपूर्ति भी करता है. वह जितना घोर मुनाफाखोर और व्यवसायी है, उतना ही संवेदनशील और उदार होने का ढोंग भी करता है. बाजार जानता है, जब नई आहटों का विस्फोट क्रांति की शक्ल लेकर मुख्यधारा में हस्तक्षेप करने का माद्दा रखता हो, तब उसके स्वागत में बिछने में ही बुद्धिमानी है. कविता, कहानी, निबंध, आलोचना – साहित्य की ही बात करें तो स्त्री-रचनाओं की बाढ़-सी आई इस दौर में. साहित्य से बाहर राजनीति और शैक्षणिक जगत में भी खासी उठापटक रही. खासतौर पर यूनिवर्सिटियों में स्त्री अध्ययन विभाग बनाए गए. जेंडर सेंसटाइजेशन के एजेंडा को राजनीतिक मुहिम के साथ स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय में शुरू किया गया. कन्या भ्रूण हत्या के विरोध और स्त्री शिक्षा को लेकर नए सिरे से नई नीतियां बनीं. इसी के साथ स्त्री के विरोध और स्त्री-द्वेष का प्रच्छन्न-मुखर माहौल भी खूब बना. घनघोर यथास्थितिवादी कठोर पितृसत्तात्मक सोच और अपनी छीनी गई जमीन की वापसी के लिए संघर्ष करती स्त्री की जमात – बाजार ने दोनों ध्रुवों को जमकर उछाला. दोनों का खूब दोहन किया और मुट्ठी भर-भर मुनाफा अपनी झोली में डाला. फेमिनिज्म को आंदोलन से ज्यादा ‘गाली‘ में तब्दील कर देने का श्रेय निश्चय ही बाजार को जाता है जिसका अपना चरित्र सामंती और वर्चस्ववादी रहा है. बाजार कोई अमूर्त शै नहीं है. वह प्रकाशन संस्थानों, मीडिया हाउस, शिक्षण संस्थानों, राजनीतिक-धार्मिक संस्थाओं आदि के रूप में मर्दवादी सोच के साथ कार्यरत दिखाई देता है. स्त्री विमर्श उसके लिए अस्मिता संघर्ष का वैचारिक आंदोलन नहीं, स्त्री की केंद्रीयता है. स्त्री नेपथ्य में न रह कर केंद्र में आए – बाजार ने स्त्री विमर्श यानी स्त्री-पुरुष की मानवीय गरिमा को बस इतना समझा, और इस समझ के साथ मीडिया/टीवी के माध्यम से जिस चटपटी मसालेदार डिश के रूप में उपभोक्ताओं के सामने परोसा, वहां न स्त्री की गरिमा शेष रही, न उसके संघर्ष के सकारात्मक रचनात्मक पहलू. एकता कपूर के टीवी धारावाहिकों ने मुक्त स्त्री के नाम पर जिस स्त्री को नई सदी का रोल मॉडल बनाया, वह फेमिनिज्म से पीठ मोड़ कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सामंती मूल्यों को इंटरनलाइज़ करते हुए प्रोडक्ट के रूप में उभरी है. 

 

बाजार आंदोलन की गरिमा की रक्षा नहीं कर सकता. दोनों के चरित्र और तासीर में बुनियादी फर्क है. आंदोलन समय की छाती पर पैर गड़ा कर खड़ा होता है. शोषण- दमन की ऐतिहासिक परंपरा उसकी चेतना को निर्मित करती है. भविष्य को रचने की स्वप्नशीलता उसे गति स्फूर्ति, गति और दृढ़ता देती है. वह व्यवस्था में मानीखेज उलटफेर करने की संकल्पदृढ़ता के साथ जब अवतरित होता है, तब उसके पास न प्रशंसक होते हैं, न अनुयायियों-समर्थकों की भरमार. आंदोलन जड़ता को रौंदकर आगे नहीं बढ़ता, वैचारिक जड़ता के भीतर छिपी चेतना की लौ को जगाने का धीर-गंभीर समय-कठिन प्रयास करता है. इसके विपरीत है बाजार का चरित्र. समय को बहता दरिया मानकर वह उसमें डुबकी लगा लेना चाहता है. उसके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है पल. वर्तमान का वह तात्कालिक पल जो उसे अधिक मुनाफा दे, उसके वर्चस्व /ताकत को हवा दे, और भविष्य के मुनाफा-केंद्रों पर उसकी पकड़ मजबूत करे. चेतना से बाजार का छत्तीस का रिश्ता है. वह सपनों की तिजारत करता है, लेकिन ऐसे कच्चे सपनों की जिनमें आत्ममुग्धता की गाढ़ी विलासी नींद है. वह भूख जगाता है, अपने को वैचारिक एवं संवेदनात्मक रूप से समृद्ध करने की नहीं, लौकिक एषणाओं को स्वर्ग का प्रतिरूप बना देने की. आंदोलन का लक्ष्य है संवेदना को विवेकपूर्ण संघर्ष में ढालना. बाजार का लक्ष्य है संवेदना को भावना और भावना को बचकानी भावुकता में तब्दील कर मनुष्य को उपभोक्ता बनाए रखना. मनुष्य ऊर्ध्वगामी सोच और सरोकारों, सृजनधर्मी सपनों और अपराजेय संघर्षशीलता के कारण अपनी सीमाओं को अछोर करते-करते अपने को विराट बना डालता है. उपभोक्ता अपने को ही कुतर कर मिट्टी में मिलाता, और फिर मिट्टी खा कर पेट भरता केंचुआ है. 

जाहिर है बाजार ने स्त्री-आंदोलन की ऊर्ध्वमुखी सकारात्मकताओं को क्षति पहुंचाई है. उसने इस चतुराई से चेतना को आत्ममुग्धता में बदला है और मानवीय मुक्ति की प्रस्तावना को पुरुषद्वेषी उच्छृंखल स्त्री की छवि में ढाल दिया है  कि 21वीं सदी तक आते-आते स्त्री विमर्श समय को गढ़ने की आर्त्त मानवीय पुकार न रहकर स्कोर सेटल करने का अखाड़ा बन गया है. लेकिन 1968 के आशा और उत्साह से लबरेज आदर्शवादी माहौल में ब्राउन एंड जोंस को यह कहां भनक होगी कि उनकी पहलकदमियां आत्मकेंद्रिता के खड्ड में जाकर गिर जाएंगी. 

बाजार ही क्यों, किसी भी वर्चस्ववादी संस्था का चरित्र कभी मानवीय नहीं हो सकता.

किरण सिंह : ‘वह तो चाहती है देह में स्थित मस्तिष्क और हृदय, विवेक और विश्लेषण के सामर्थ्य पर अपना नियंत्रण.‘ (साहित्य की जमीन पृष्ठ 64) क्या स्त्री के सामर्थ्य पर आज भी दूसरों का नियंत्रण रहता है?

 रोहिणी अग्रवाल : मुट्ठी भर स्त्रियों की बात छोड़ दें तो आज भी स्त्री पराधीन है. विडंबना यह है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता, शिक्षा, मोबिलिटी (कर्मक्षेत्र तक जाने और सभा संगोष्ठी में भाग लेने की स्वतंत्रता) और आत्माभिव्यक्ति की क्षमता ने मध्यवर्गीय शहरी कस्बाई स्त्री को उन्मुक्त आधुनिक स्त्री की नई छवि जरूर दी है, लेकिन पर्दे के पीछे वह आज भी नियंत्रित की जाती है. वह कमा रही है, लेकिन अपनी आमदनी को मनचाहा खर्च नहीं कर पाती. दिन का एक बड़ा हिस्सा घर से बाहर नौकरी करते बिताती है, लेकिन फिर भी घरेलू दायित्व मुख्यतः उसी के हैं. पति हाथ बंटा दे, तो उसकी मेहरबानी. लेकिन एक दिन की सदाशयता नियमित दिनचर्या की गारंटी नहीं. बच्चों की शिक्षा, विवाह, प्रॉपर्टी का क्रय विक्रय, कार के रंग -मॉडल-मेक का अंतिम फैसला – मसले छोटे हों या बड़े, स्त्री की राय को दरकिनार करके चलने का चलन आज भी समाज में मौजूद है. यूं अपवाद हर जगह दिख ही जाते हैं. सोचती हूं, इसका कारण क्या है? पितृसत्तात्मक व्यवस्था का वर्चस्व? या फिर पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति स्त्री की सहज कंडीशनिंग, जो उसे निर्णय लेने, निर्णय के जोखिम से जूझने, और उत्तरदायित्व लेने के बड़े फैसलों से दूर करती है? गुलामी की सुरक्षा आज भी सुशिक्षित स्त्री के मनोविज्ञान को रचने वाली मजबूत डोर है. युवा पीढ़ी की प्रोफेशनल-टेक्नोक्रेट स्त्रियों को देखती हूं तो हैरत में पड़ जाती हूं. एक ओर वे फर्राटे से कार दौड़ाती, कार रैली में भागीदारी करती, वर्जनाहीनता को जीवन का मूल मंत्र मान समवयस्क पुरुषों के साथ मेलजोल बढ़ातीं, दफ्तर के कामकाज को बुद्धिमत्ता एवं डिप्लोमेटिक कौशल से संपन्न करती दिखती हैं तो दूसरी ओर कमनीयता और सौन्दर्य (लुक्स) को स्त्रीत्व की पूंजी मान फैमिनिन वाइल्स का हथकंडे की तरह उपयोग करती हैं.

 स्त्री विमर्श कहने को समूची स्त्री जाति की बात करता है, लेकिन शिक्षा, पूंजी, मैरिटल स्टेटस, स्थान (महानगर, नगर, कस्बा, गांव), वर्ग -धर्म -जाति के विभेदीकरण और स्तरीकरण के कारण स्त्री जाति की इतनी भिन्न विशिष्ट परते हैं कि किसी एक निष्कर्ष को सामान्यीकृत करके समूचे समाज का सत्य नहीं बनाया जा सकता, सिवाय इसके कि स्त्री विमर्श की लड़ाई पैट्रियार्क पुरुष से ही नहीं, पैट्रियार्क स्त्री से भी है; और कि स्त्री की पराधीनता के बीज उसकी अपनी पारंपरिक मेंटल ओरियंटेशन में छिपे हैं.

एक प्रसंग याद आ रहा है. क्लास के बाद रिसर्च स्कॉलर्स और एमफिल विद्यार्थियों के साथ बतकही चल रही थी. विद्यार्थियों में अधिकांश लड़कियां विवाहित हैं और गांव से आती हैं. गांव में जाहिर है, खेती-किसानी उनका पारिवारिक व्यवसाय है और संयुक्त परिवार. सारी लड़कियों की एक सी दिनचर्या – तड़के मुंह अंधेरे उठना, गाय-भैंसों को दुहना, चारा-पानी देना, फिर घेर (पशुओं का बाड़ा) से लौटकर रसोई के ढेर से काम…. बच्चों को स्कूल भेजना… सास ससुर की सेवा… नौ बजते-बजते यूनिवर्सिटी के लिए तैयार होना ताकि साढ़े दस बजे तक क्लास में… पांच बजे फिर शाम को घर लौटते ही किताबें पटक कर खेत में जाना… चारा काटना… भरोटा सिर पर ढोकर लाना… रात का खाना… बच्चों के होमवर्क की तफ्तीश… पशु दुहना… दूध समेटना – इस सारी दिनचर्या में पढ़ाई और शिक्षा से उगे सवालों के लिए कोई जगह नहीं. पूरे दिन का स्वर्णिम समय उनके लिए वही और उतना ही जितना यूनिवर्सिटी में बिता पाती हैं. कारण बहुत विचित्र कि शहर में आकर ही भरपूर सांस ले पाती हैं. शहर में उन्हें चेहरे को ढक कर रखने, आंखें झुका कर चलने की बाध्यता नहीं है. सिर से पल्लू उतार कर और बालों को खुली हवा में लहरा कर माने सुख की सांस लेती है क्योंकि बालों का दिखना भी बुजुर्गों की शान में गुस्ताखी माना जाता है. ‘हमें मुंह सिर ढांप कर ढोर की तरह ही जीवन जीना है.‘ वे स्त्री के नजरिए से समकालीन कथा साहित्य की पड़ताल करते हुए पीएचडी थीसिस लिखती हैं, और अपनी पराधीनता को नियति मानकर जीती चलती हैं.

‘ चुनाव करने की आजादी हमारे पास नहीं.‘  उनके निश्चय में शंका की कोई गुंजाइश नहीं. मैं उन्हें टटोल-झिंझोड़ कर जगाना चाहती हूं – ‘हक के लिए टकराना तो पड़ेगा. लड़ोगी, तभी कुछ पाओगी.‘

 वे मूक भाव से मुझे निहारती भर हैं, और दबी जुबान से बता जाती है कि ‘मारपीट के बाद ससुराल वालों ने यदि घर (मायके) भेज दिया तो पीहर वाले भी रखने को तैयार नहीं होंगे. फिर कहां जाएंगी हम?‘

 मैं निरुत्तर हो जाती हूं, और सोचती हूं – स्त्री विमर्श क्या सिर्फ कागजी लड़ाई बनकर रह गया है? एक आक्रामक भंगिमा? सतह पर उठती हल्की सी हिलोर? सतह के नीचे तो जड़ता का अखंड साम्राज्य अपनी गहरी जड़ों के साथ अभी तक फैला हुआ है. लेकिन मेरा सवाल और सवाल में छिपा आग्रह आज भी यही है कि व्यवस्था की क्रूरता क्या टकराए बिना घुटने टेकने को तैयार होगी? व्यवस्थाएं अपरिवर्तनीय नहीं हैं. वे प्रभुतासंपन्न वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है. उनमें परिवर्तन करने के लिए मानसिक-नैतिक-सांगठनिक ताकत की जरूरत किसी भी सामूहिक बेचारगी के रोदन से मुल्तवी नहीं की जा सकती. 

 

किरण सिंह : जब आपकी विवेक सम्मत विवेचना-विश्लेषण के बाद उस पर ‘स्त्रीवादी नजरिए से आपने अच्छा पाठ किया है‘ – यह टिप्पणी की जाती है, तो यह प्रशंसा आपको कैसी लगती है?

 रोहिणी अग्रवाल : यह प्रशंसा तो किसी भी नजर से है ही नहीं. यह एक चेतावनी है, और अनुग्रहभरी (लेकिन) खिसियायी हुई उदारता भी कि ‘ज्यादा उड़ो मत. हम बैठे हैं महीन जाल लिए बहेलिए- परिंदों के पर कतरने के लिए. आलोचक मान लिया है तो उतना ही स्पेस लो, जितना हम देने को तैयार हैं.‘ लेकिन मैं खिसियाहट का मजा लेती हूं. सोचती हूं, टिप्पणीकर्ता खिसिया कर मुझे खांचे में बंद क्यों कर देना चाहता है? क्या इसलिए कि स्त्री को सॉफ्ट स्किल से जोड़कर वे प्राणपण से इस तथ्य को ठेलठाल कर अपने पाले में ले आएं कि बुद्धि- विश्लेषण, विवेक-संयम जैसे गुण सिर्फ पुरुष की बपौती हैं. आलोचक स्त्री को गार्गी की तरह शट अप कहना सभ्यता के मानदंडों पर खरा नहीं उतरता तो उसके आकाश को पिंजरे में कैद कर दो.

 

 कोयल के बच्चे की कहानी जानती हैं न! मुझे लगता है, मैं कोयल थी. मजे से कहानी की अपनी दुनिया में कुहुक रही थी. अचानक क्या हुआ कि अपना अंडा आलोचना के घोसले में रख आई. लेकिन जैसे ही अंडे का छिलका फोड़ कर बाहर आई, मेरी बोली बानी सुनकर ममता बरसाता समाज परेशान. चोंच मार-मार कर घोंसले से निकालने को आतुर! बिरादरी से बाहर के आगंतुक अंत तक संदेहास्पद और अस्वीकृत बने रहते हैं! लेकिन वह हौसला ही क्या जो खतरों के आगे सिर झुका दे? आलोचना यदि हुनर है तो उसमें अपने मिजाज की अलग तार जोड़ना मेरा जुनून है. आलोचना यदि बौद्धिक कवायद है तो उसमें संवेदना की सृजनात्मक गूंज मिला देना मेरा पैशन. घोंसले और घेरे नहीं मिले स्वीकृति के, तो क्यों न मानूं कि बंधना नियति नहीं. जिप्सी हो जाना भीतर के एक्सप्लोरर की घुमड़न को शांत करने की तरकीब है.

 शिवमूर्ति की कहानी ‘तिरिया चरित्तर’ की विमली की तरह पाती हूं, ऐसी टिप्पणियां बार-बार मेरे माथे को दाग कर एक ही छवि अंकित करती जा रही हैं कि मैं सिर्फ और सिर्फ स्त्रीवादी आलोचक हूं. स्त्रीवाद के अर्थ में बाजार, राजनीति और पितृसत्ता जिस मौन चतुराई से सीमित दृष्टि, संकीर्णता, और तात्कालिक क्षुद्रता का भाव भरकर उसे स्त्री की किटी पार्टी सरीखे अ-बौद्धिक शगल में तब्दील कर देने को आमादा है, उससे मुझे घोर आपत्ति है. लेकिन मैं आरोपित अर्थ को स्वीकार कर अवधारणाओं को उनके मूल उद्गम से क्यों छिन्न-भिन्न करूं? स्त्रीवाद एक संवेदनात्मक दृष्टि है जिसका लिंग से कोई लेना देना नहीं है. लेकिन हां, वह लैंगिक असमानता के खिलाफ संवेदनात्मक एवं वैचारिक लड़ाई छेड़ने की साझा मुहिम है. अर्थ की इस व्याप्ति और कांति से भर कर स्त्रीवादी आलोचक होना मैं एक बहुत बड़ी नियामत मानती हूं, क्योंकि यह नजरिया हाशिये पर धकेली जाती अस्मिताओं को गहरे लगाव और नि:संगता के साथ देखने और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की मानवीय ऊर्जा देता है. यह स्त्रीवादी आलोचक की संवेदना और सरोकार के पाट को चौड़ा भी करता है, और इस तथ्य पर अचरज भी करता है कि देश-राजनीति, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, जातिगत समीकरणों और पर्यावरण संकट पर कलम चलाने वाले क्यों एक पल को भी ठहर कर नहीं सोचते कि परिवार की छोटी सी चौहद्दी में निहत्थी स्त्री को घेर-घार कर वे जिस संकुचित विभाजनकारी उत्पीड़क सोच को रोजमर्रा की जिंदगी में उतार रहे हैं, उसी का व्यापक फैलाव देश-समाज के प्रांगण में नफरत फैलाने वाली समस्याओं का रूप लेकर आता है .

अलबत्ता जर्मेन ग्रियर की बहुत याद आ रही है कि ‘वे हमसे इतनी घृणा क्यों करते हैं? कि वे हमसे इतना डरते क्यों हैं?’ लेकिन जर्मेन ग्रियर पर भारी पड़ती है हमारे लोक में प्रचलित कहावत – ओखली में सिर दिया तो मूसल की क्या परवाह!

 

 किरण सिंह : क्या स्त्री के राजनीति में जाने से कठिनाइयां दूर होंगी?साहित्य में ‘स्त्री और राजनीति’ इस विषय पर बात की गई है ?

उत्तर : चाहती हूं कि ग़ालिब से शब्द उधार लेकर कहूं, कोई उम्मीद बर नजर नहीं आती.लेकिन अपने भीतर हौसले के बहते दरिया को देख बेसाख़्ता कहती हूं- उम्मीद करने में क्या हर्ज है! उम्मीद मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की दास्तान तो नहीं कि ऊंघते-ऊंघते भी बांच कर बांछें खिलाते रहे. उम्मीद ठोस रणनीति का सुस्पष्ट ब्लूप्रिंट है जो अपने साथ हौसला और संघर्ष लिए आती है. स्त्री – यानी अपने श्रेष्ठतम रूप में सभी सामाजिक-सांस्कृतिक विभेदों  से मुक्त एक मुकम्मल मनुष्य – राजनीति को गंदगी का पर्याय नहीं रहने देगी. हंसती हुई स्त्री को ‘शूर्पणखा’ कहकर संबोधित कर देने वाला दम्भ शायद पक्ष-विपक्ष की सभी स्त्रियों राजनेताओं के सख्त ऐतराज़ को सुनकर मर्यादा में रहना सीख ले, और भय से ही सही, अपने बघनखों को उतारकर परे फेंक दे. उम्मीद की जा सकती है कि बदलती परिस्थितियों में स्त्रियों की नई समस्याओं और जरूरतों का सही प्रतिनिधित्व करते हुए वे स्त्री को उसके जरूरी हक दिलाएं और संसद में एक दिलेर इमानदारी के साथ बहस करें कि बलात्कार/यौन शोषण की शिकार लड़की को दया/सामाजिक ग्लानि की तस्वीर बनाने का अर्थ पुरुष की दरिंदगी को भूलने की सामूहिक निर्लज्जता है. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान संविधान बनाने की प्रक्रिया में राइट्स एंड ड्यूटीज का चार्टर बनाते समय राजकुमारी अमृत कौर, हंसा मेहता, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी स्त्री राजनेताओं के योगदान को भला कौन भूल सकता है? श्रमिक स्त्रियों के लिए श्रम कानून, समान वेतन जैसे कानून स्त्री की भागीदारी से ही संभव हुए. लेकिन वह रचनात्मक एवं सहनशील दौर तो कब का उड़न छू हो गया है. आज देखा तो यही गया है कि राजनीति में स्त्री की काया में काइयां पैट्रियार्क घुसा चला आया है और पैट्रियार्क के भीतर बैठा शातिर बुनकर अपने वर्चस्व के करघे पर तिकड़म और छद्म के ताने-बाने से प्रपंच और प्रवंचनाओं की महीन बुनाई करता रहता है.

साहित्य में स्त्री कथाकारों द्वारा स्त्री-राजनीति केंद्रित रचनाओं की बात करूं तो फिलहाल मुझे मृदुला गर्ग के ‘ अनित्य’, मन्नू भंडारी के ‘ महाभोज’, मैत्रेयी पुष्पा के ‘अल्मा कबूतरी’ और किरण सिंह की कहानी ‘यीशू की कीलें’ याद आती है.

राजनीति की बिसात पलट कर नए युग की शुरुआत करने की जो बेचैनी ‘ यीशू की कीलें’ की भारती में है, वह समय की माँग है.

 

 किरण सिंह : क्या आपको स्त्री विमर्श की अपनी ही नायिकाओं सिमोन द बउवार, सावित्रीबाई, पंडिता रमाबाई की श्रेणी में रखा जा सकता है?

 रोहिणी अग्रवाल : शायद नहीं. दो वजहें साफ हैं, और ठोस भी. सबसे पहले, पंडिता रमाबाई, सावित्री फुले जैसी जिन स्त्री चिंतकों की बात आप करती हैं , वे एक्टिविस्ट भी रही हैं. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि उनका चिंतक स्वरूप उनकी समाज सुधार गतिविधियों/कार्यक्रमों का ही बायप्रोडक्ट है. उनकी ऊर्जा ,तेजस्विता और प्रेरणा स्त्री चेतना को फील्ड के जरिए घर-घर तक पहुंचाना है. वे अपने समय की बड़ी ‘आइकॉन‘ हैं और समय को प्रदूषित करती रूढ़ियों-कुप्रथाओं के खिलाफ डटकर लोहा लेने के लिए अकेली खड़ी भी रही हैं. दूसरी कोटि सीमोन द बउवा की है जो एक बहुत बड़ी दार्शनिक हैं. दार्शनिक भविष्य का स्वप्नदर्शी संत होता है, जो अपने समय को खोखला करती दीमकों की भिन्न- भिन्न प्रजातियों का तलस्पर्शी अध्ययन करने के बाद उनसे मुठभेड़ की नई मानवीय रणनीतियां बनाता है. सिमोन का स्त्री चिंतन सभ्यता की विकास यात्रा के अनादि क्रम को भी जांचता है; ताकतवर के मनोविज्ञान की पड़ताल करते हुए उसके भीतर उगती निरंकुश अधिनायकवादी ताकतों का जायजा लेता है, अधीन कर ली गई पूरी स्त्री जाति को उसकी आयु के विविध पड़ावों, विवाह-मातृत्व-वैधव्य की स्थितियों के बीच रख उसकी मनोवृत्तियों,आकांक्षाओं और अवसाद को जानने की कोशिश भी करत हैं. सिमोन स्त्री की पराधीनता और मुक्ति की बात करती है लेकिन उन्हीं पंक्तियों-शब्दों की रिक्तियों में पुरुष के खोखले दंभ और दयनीय सूरत को भी उभारती चलती हैं. सिमोन ने मुझे स्त्री के तलघर को पारदर्शी ईमानदारी और बेखौफ निडरता के साथ देखना सिखाया है.  सिमोन स्त्री के भीतर कुंठा और अवसाद की जड़ें लहराने वाली ग्रंथियों को चीन्हना-खोलना सिखाती हैं. ये सब मेरी अग्रजाएं हैं. हमारे समय की भाष्यकार और रणनीतिकार! इनकी परंपरा का संवाहक बनना अपने आप में बहुत बड़ा सौभाग्य है. एक बड़े कॉज़ के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई में सेनापति जितना महत्वपूर्ण होता है, उतना ही जरूरी और महत्वपूर्ण होता है छोटी सी टुकड़ी का एक अदना सा सिपाही. मैं सिपाही की स्फूर्ति और चैतन्यता से उम्र भर लड़ती रहूं, यही कामना करती हूं.

 

किरण सिंह :स्त्री यौनिकता को कैसे समझें? यौन शुचिता का मतलब क्या स्त्री का व्यक्तिगत मसला है?अथवा यह लिंग, वर्ण, संपत्ति से जुड़ा एक राजनीतिक सामाजिक-आर्थिक मसला है?

रोहिणी अग्रवाल : फ्रेडरिक एंगेल्स की किताब द ओरिज़न ऑफ द फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट‘ स्त्री की पराधीनता के क्रमिक इतिहास को समझने के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी विकास के सोपानों को. सभ्यता के सोपानों का आरोहण करते वक्त पशुधन के साथ-साथ स्त्रियों और पराजित शत्रुओं को गुलाम बनाकर सबल पुरुष ने प्रभुसत्ता और वर्चस्व की जिस मनोवृत्ति को मूल्य बनाकर सींचा, वह समय के साथ-साथ राजनीति का स्वरूप निर्धारित करती गई. राजनीति की अर्थ-व्याप्ति शासन तक ही नहीं, दो व्यक्तियों के आपसी संबंध के बीच भी है जहां ‘दूसरे‘ की पृष्ठभूमि, हैसियत, उपादेयता देखकर व्यवसायिक/सामाजिक संबंध तय किए जाते हैं. इतिहास गवाह है कि राजा लोगअपने इकबाल को बुलंद करने के लिए मीनारें, शिलालेख, स्तंभ वगैरह बनवाते रहे हैं. स्त्री पुरुष के इकबाल को बनाए रखने वाली सबसे बड़ी स्मारक है. वह उसकी जागीर है. यूं ही धर्म-ग्रंथों में स्त्री को हरे भरे चरागाह नहीं कहा गया है, जहां पुरष (लेकिन उसके इकबाल को बुलंद करते करते पशु की उपमा देकर उसकी सही मनोवृतियों का मूल्यांकन क्यों कर दिया गया है?) कभी भी मुंह मार सकता है. तो लब्बोलुआब यह कि चिंतन और ताकत की तमाम कवायदें यही साबित करने के लिए कि स्त्री भोग्या है, रक्षणीया है. उसकी संतति की जननी है और वंशवबेल को थामकर अदृश्य बनी रहने वाली मजबूत दीवार. वह मां है, लेकिन सृजनशील ताकत नहीं. महज एक कोख! मातृत्व को मानसिक-बौद्धिक-संवेदनात्मक अनुभव का जागृत चेतन दायित्वपूर्ण रूप न देकर वय और दांपत्य संबंध की निरंतरता में आने वाली एक अपरिहार्य बायोलॉजिकल परिणति का रूप देना मातृत्व को गर्भ में और गर्भ को कोख जैसे एक अंग में रिड्यूस कर देना है. कोख पर कब्जा जमाना ताकतवर के लिए आसान है – यह स्वामी का दंभ भरने वाली पितृसत्ता भी जानती है. कोख पर एकछत्र अधिकार का अर्थ है स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण, ताकि संतति के पिता की पहचान की गफलत ही न उभरे कभी. स्त्री पुरुष की संपत्ति, नाम और वर्चस्व की परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने का जरूरी माध्यम है. उसे स्वतंत्र छोड़ना पुरुष के मनोरथों का विफल हो जाना है. इसलिए यौनिकता का मसला नितांत व्यक्तिगत होते हुए भी पुरुष की मिल्कियत में पड़ने वाली जागीर बना दिया गया है. यह पूरी तरह से अमानुषिक, बर्बर, अ-लोकतांत्रिक राजनीतिक कृत्य है जिसने सबसे पहले धर्म की सहायता लेकर इसे अंजाम दिया है. धर्म को आस्था (जहां तर्क नहीं,भावुकता की ओर बहती हार्दिकता का प्राधान्य है); और आस्था को धर्म-दंड से भयभीत जड़ता में रुद्ध करने के बाद फतवे और फरमान देकर किसी भी अरक्षित समुदाय को संत्रस्त करना सरल रहता है. इस त्रिक् की तीसरी कड़ी के रूप में सबसे आखिर में समाज त्राता की भूमिका में प्रकट होता है. वह इस संत्रस्त समुदाय को भौतिक सुरक्षा, आश्रय, संबंधों का रागत्मक संसार देने का वायदा करते हुए उसे उतनी ही भौतिक- मानसिक खुराक देता है,जिससे वह जिंदा रहे, जिंदगी को ‘जी‘ न सके. सुन्नत जैसी कुप्रथाओं का होना और यौन शुचिता को विवाह की पहली शर्त के रूप में देखना स्त्री पर पुरुष-नियंत्रण के काले इतिहास का वर्तमान तक पसरते चलना है. स्त्री विमर्श देह पर स्त्री के नियंत्रण की बात करता है तो उसकी मानसिक-भावनात्मक बुनावट से लेकर शरीर के संदर्भ में स्वीकार की गई सामाजिक-धार्मिक वर्जनाओं के हस्तक्षेप को अस्वीकार करते हुए अपने जीवन का नियंता और रचयिता स्वयं होने की पैरवी करता है. समाज, धर्म, राजनीति और बाजार द्वारा स्त्री विमर्श के सुचिंतित विरोध का एक बड़ा कारण देह (जिसमें मस्तिष्क अनिवार्य रूप से शामिल है) पर आत्मनियंत्रण की स्त्री की इच्छा भी है. इसलिए चुस्त कानून और प्रशासन व्यवस्था के होते हुए भी यौन अपराधों की संख्या न केवल बढ़ रही है, बल्कि मुखर और निर्लज्ज भाव से उपदेश दिए जाते हैं कि क्यों नहीं स्त्रियां घर बैठकर अपने को सुरक्षा-दायरों में कैद कर लेतीं? यह कहते हुए वे सुभीते से भूल जाते हैं कि घरों में भी यौन शोषण के विकल्प को वे अपनी रुग्णताओं के उपचार और स्वतंत्रता-कामी स्त्री के ‘दिमागी इलाज‘ के रूप में खुला छोड़ आते हैं.

 लेकिन स्त्री द्वारा अपनी यौनिकता पर आत्मनियंत्रण का मसला इतना इकहरा और सरल भी नहीं. यौन संबंध दो व्यक्तियों के बीच बनाई गई आपसी रजामंदी है जो समाज के भीतर सांस लेते पारिवारिक-सांस्कृतिक ढांचे को प्रश्नांकित भी करते हैं, और तोड़फोड़ भी करते हैं. कहीं ये संबंध दांपत्य संबंध की एकनिष्ठा पर चोट करते हैं, कहीं परिभाषित दायरे से बाहर संतान को जन्म देकर नई तरह की समस्याओं की शुरुआत करते हैं, तो कहीं तमाम दायित्वशीलता से दामन छुड़ा कर उच्छृंखलता का ही विस्तार बन जाते हैं. 

स्त्री द्वारा अपनी यौनिकता पर आत्म नियंत्रण का अर्थ है फैसला लेने की सूझबूझ, दृढ़ता और दायित्व को निभाने की आर्थिक-सामाजिक-मानसिक-बौद्धिक क्षमता. उसे यह स्वीकारना ही होगा कि यौन स्वतंत्रता और यौन शुचिता दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं. पहली स्थिति में वह स्वतंत्र स्वायत्त मनुष्य की तरह निर्णय लेने की अधिकारी है, तो दूसरी स्थिति में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के फरमानों तले अपनी आकांक्षाओं और स्वायत्तता को कुचलते रहने वाली एक अभिशप्त इकाई.

कि. सिं. : स्त्री यौनिकता के मसले को लेकर आप अपने लेखों में अनुदार दिखाई देती हैं. यह इस विषय के दुरुपयोग के कारण हैं या आपके व्यक्तिगत संस्कार हैं?

 उत्तर : व्यक्ति और लेखक के विकास की कहानी एक से मोड़ों-पड़ावों को पार करते हुए अपनी अनवरत यात्रा का संधान करती चलती है. संस्कार के रूप में मनुष्य अपने व्यक्तित्व में निजी दृष्टि के जिन ठोस मोटे धागों को पाता है, वे दरअसल सूत्रधार (समाज) के हाथों में पकड़ी गई डोरियां हैं जो कठपुतलियों को नचा कर तमाशे से मनोरंजन करता है. मनुष्य में जिस क्षण कठपुतली न बनने की आकांक्षा पैदा होती है, उसी क्षण डोरियों को तोड़कर संस्कार के संकुचित घेरों से बाहर निकल आता है. लेकिन संस्कारों की एक महीन परत संवेदना या पूर्वाग्रह बनकर संग-संग चली आती है. नई दिशाओं के संधान में द्वंद्व और अंतर्विरोधों की स्थिति का विस्फोटक होते चलना; और अपनी ही यात्रा में स्पीड ब्रेकर की तरह आ पसरना – मनुष्य की इसी अंतर्वृत्ति के कारण है. इसलिए व्यक्ति और लेखक के आकलन का एक मानदंड यह भी है कि हम उसकी विकास-यात्रा के ग्राफ को देखें; उसके संघर्ष के घनत्व को पहचानें और तमाम अंतर्विरोधों के बीच ऊंची छलांग की तैयारी में व्यस्त उसकी मनोक्रियाओं को समझें. इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका स्त्री-यौनिकता के मसले को लेकर अपनी दृष्टिगत अनुदारता को जस्टिफाई करने के लिए नहीं है. मैं स्वीकारती हूं, स्त्री (और पुरुष दोनों) का पुरुष सरीखा उच्छृंखल यौन-आचरण मुझे कहीं भी नहीं सुहाता. अपने को किसी कथा-चरित्र की तरह पढ़ती हूं तो पाती हूं खासा विडंबनात्मक पात्र है यह. किस्से-कहानियों और फिल्मों के वर्चुअल संसार में प्रेम करती, प्रेम की सघनता के बीच विवाहेतर यौन संबंध बनाती स्त्री मुझे कभी नहीं खटकती. अन्ना करेनिना से बड़ा ट्रेजिक और मानवीय चरित्र मुझे और कोई नहीं लगता. शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की चरित्रहीन कही जाने वाली नायिकाएं भी उसके सामने फीकी हैं जो आकांक्षा को व्यवहार तक नहीं ले जातीं, आकांक्षा का रूप बदलकर मातृ स्वभाव में आ जाती हैं. जाहिर है शरत्चंद्र के यहां यौनिक स्वतंत्रता का उभरता हुआ मसला गायब हो जाता है और विद्रोह की भंगिमा के साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्था की रक्षा का छद्म उद्योग शुरू हो जाता है. ‘चितकोबरा’ (मृदुला गर्ग) में मुझे यौनिक स्वतंत्रता के बिना अपनी अधूरी नियंत्रित अस्मिता पर छटपटाती स्त्री पूरे भारतीय संदर्भों के साथ दिखाई पड़ती है. 

 

दरअसल स्त्री यौनिकता का मसला अबाध उन्मुक्त देह-सुख का लाइसेंस नहीं है. यह विचार, विमर्श और संघर्ष का बड़ा मुद्दा है जहां परंपरा से चली आ रही नैतिक-अनैतिक की अवधारणाओं से टकराना जरूरी हो जाता है – पहले प्रश्नांकित करने के स्तर पर; फिर तर्क आधारित बहस के स्तर पर; फिर आंदोलन के स्तर पर ताकि समाज और संस्थाओं की सोच को बदला जा सके; और फिर अंत में कानून के स्तर पर.

 आपकी रचना ‘शिलावहा’ की अहल्या मुझे इसीलिए तो प्रिय है कि एक संघर्षशील ईमानदारी से भरकर वह स्थापित मूल्यों को चुनौती देती है, और अपने कृत्य पर लज्जित न होकर उसे अपनी दैहिक- मानसिक- वैचारिक वरण की मजबूती मानती है. लेकिन आज युवा स्त्री रचनाकारों में दैहिक स्वतंत्रता को देह उच्छृंखलता में बदलकर  भोग को  बाजार-प्रायोजित  भोगवाद तक  ले जाने की  जो प्रवृत्ति बढ़ रही है, उसके प्रति मैं  सशंकित भी हूं, और अनुदार भी. 

यह मसला ज्यादा जिम्मेदारी से रचनात्मक संघर्ष का  मसला है.

 

  किरण सिंह : आपने कृष्णा सोबती पर लिखते हुए ‘ ‘दिलोदानिश’  (हिंदी उपन्यास:  समय से संवाद) , ‘ऐ लड़की’,   ‘सूरजमुखी अंधेरे के’  का कई बार उल्लेख किया है.  ‘मित्रो मरजानी’ की चर्चा कम है.  मित्रो मरजानी उपन्यास पर  और इसके अंत पर  आपके क्या विचार हैं ?

रोहिणी अग्रवाल : मित्रो मरजानी पर मेरे दो लेख हैं. संभवतः आपकी नज़र से छूट गए.  एक,  प्रारंभिक पुस्तक  ‘एक नजर कृष्णा सोबती पर’ (1997) में  में संग्रहीत है;  और दूसरा  अप्रैल 2019 में ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ.  पहला लेख  मेरी मुग्धाावस्था का परिणाम है,  और दूसरा अनुभव से परिपक्व हुए  प्रौढ़ चिंतन का  परिणाम.  मैं चाहूंगी  कि ‘मित्रो मरजानी : कुछ खतरे , कुछ  दुश्वारियां ‘ लेख आप जरूर पढ़ें.

 अमूमन हम कुछ लेखकों की छवि को एक बहुत बड़े  मान से बांधकर उसे अलौकिक और आलोचना से परे बना देते हैं.  तब उस पर  प्रवाह के विपरीत जाकर टिप्पणी करना छोटे मुंह बड़ी बात मान लिया जाता है: और समर्थकों-प्रशंसकों द्वारा  वाक्-कुटम्मस का ऐसा सिलसिला निकल पड़ता है कि आलोचना से पहले साहित्य रसिकता ही दम तोड़ देती है. खैर! यह भटकाव हुआ ….

‘ मित्रो मरजानी’ उपन्यास मुझे किशोर मानसिकता से रचा गया  चौंकाऊ उपन्यास लगता है.  मेरी दृष्टि में  अच्छी रचना वह है  जो गणित की तरह  कैलकुलेशन करके नहीं बनती;  एक्सप्लोर करने की प्रक्रिया में  अपना रास्ता  आप बनाती चलती है.  ‘मित्रो मरजानी’ में लेखिका की  एक्सप्लोरेशन  दिखाई नहीं देती . बकायदा पूर्व-नक्शा बनाकर  ईंट पर  ईंट धरने का करिश्मा बनकर उभरती है. कथावस्तु के चयन से लेकर चरित्र-चित्रण  सब कुछ  सफेद -स्याह- विलोम बनकर  एक दूसरे के  रंग और  तासीर को  गाढ़ा करता हुआ.  उपन्यास बांधता है  क्योंकि भाषायी चपलता  और गत्यात्मकता चमत्कृत करती है ;  स्त्री का नया अवतार चौंका कर उसे भरपूर तकने का  निमंत्रण देता है.  लेकिन लगता है  जैसे लेखिका का लक्ष्य  भीड़ जुटाना भर रहा हो. अपनी यौनिकता पर आत्मनियंत्रण एवं स्वतंत्रता की  मांग करती  मित्रो की कथा को परवान चढ़ाना  गौण हो गया हो.  इस रचना को लेकर मेरी दो आपत्तियां है. स्त्री की यौन आकांक्षाओं को लेकर मध्यवर्गीय कुलीन परिवार की  किसी औसत स्त्री की बजाए  मित्रो के रूप में कसबन ( वेश्या) की बेटी का चयन.  दूसरे, कई कलाबाज़ियों के बाद बोल्ड स्त्री के  चयन-वरण के नाम पर उस पर क्रमशः पितृसत्तात्मक व्यवस्था के  ‘सती स्त्री’ के मूल्यों को आरोपित करते चलना.  यह रचना मुझे शेक्सपियर के नाटक  ‘टेमिंग ऑफ द श्रू’  की याद दिलाती है जहां सिधाकर पालतू बना दी गई स्त्री की जयजयकार में व्यवस्थाएं और आचार संहिताएं पीछे नहीं रहतीं.  इस पूरी रचना में  मित्रो की  अतिरिक्त लाउडनेस के बावजूद  उसकी जेठानी सुहागवंती की चुप्पियां ज्यादा मानीखेज हैं  जो जिबह कर दी गई स्त्री की निजता और घरेलू हिंसा जैसे  सवालों को  उठा जाती हैं.  सोचती हूं,  यह उपन्यास  पुरुष पाठकों के बीच  इतना चर्चित क्यों रहा?  क्या इसलिए कि सतीत्व की चादर ओढ़ कर नून-तेल-हल्दी की महक से गंधाती औसत स्त्री की  तुलना में  मित्रो अधिक ग्लैमरस है, और रति संबंधों में  वेश्या का सुख देने में माहिर?  या इसलिए  कि उनके घर-आंगन में बंधा और बंदी जीवन जीती स्त्री यदि कभी दैहिक स्वतंत्रता के नारे में उलझ कर घर की देहरी उलांघने का जतन भी करे  तो मित्रो के बहाने याद रखे कि स्त्री के लिए खुलने वाले सारे मुक्ति मार्ग अंततः भूल भुलैया में भटक कर घरों की चारदीवारों में ही  आकर खुलते हैं?  एक मौजूं सवाल के साथ  शुरू हुआ यह उपन्यास  लेखकीय साहसहीनताके कारण अपने ही भटकाव और बिखराव की त्रासद  कथा है.

सच कहूं  तो मित्रो की तुलना में मुझे फणीश्वर नाथ रेणु की  छोटी सी कहानी  ‘नैना जोगिन’ की  रतनी  ज्यादा आधुनिक , आत्मनिर्भर, साहसी और संघर्षशील स्त्री लगती है, जिसके पास  न्याय-अन्याय का  प्रखर बोध भी है, और व्यवस्था के षड्यंत्रों को  भांप कर अकेले अपनी पगडंडियां बनाने का साहस भी.

 स्त्री की यौनिक स्वतंत्रता का अपहरण एक राजनीतिक षड्यंत्र जरूर है , लेकिन यौनिक स्वतंत्रता की लड़ाई  महज एक राजनीतिक मुद्दा नहीं है,  वह सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक संरचनाओं में  तदनुरूप परिवर्तन का  सुविचारित  ड्राफ्ट भी है.

किरण सिंह :  ‘सतीत्व बनाम स्त्रीत्व’ (हिंदी उपन्यास का स्त्री पाठ, पृष्ठ 173) में से किसे चुना जाना चाहिए?

 रोहिणी अग्रवाल : सतीत्व बनाम स्त्रीत्व की बायनरी मैंने ‘आवारा मसीहा’ (विष्णु प्रभाकर) से ली है – शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की नायिकाओं के संदर्भ में. वेश्या, कुलटा, पतिता कही जाने वाली स्त्रियां कितनी मानवीय हैं, यह बायनरी उनके इसी पक्ष को मजबूती से उद्घाटित करती हैं. लेकिन आज लगभग दो दशक के अंतराल के बाद मैं इस शब्द-युग्म में थोड़ा सा परिवर्तन करना चाहती हूं – सती बनाम स्त्री;  और आपके सवाल को इस रूप में लेती हूं कि सती बनाम स्त्री में से किसे चुना जाए? यकीनन स्त्री को; एक ऐसी मानवीय इयत्ता को जो बायलॉजी की दृष्टि से पुरुष से अलग है, जेंडर का प्रतिनिधित्व करते हुए पितृसत्ता के मूल्यों की संवाहक नहीं है. सतीत्व पितृसत्तात्मक मूल्यों से रची गई स्त्री की अवधारणा है जो पुरुष के संदर्भ में स्त्री के मानसिक- नैतिक विकास को अनुकूलित करते हुए उसे छाया और अनुगूंज भर बना देती है. ‘स्त्रीत्व’ शब्द को भी मैं खारिज करना चाहूंगी क्योंकि उसमें स्त्री – मनुष्य – होने की अस्मितामूलक नैसर्गिक सुगंध नहीं, बल्कि उसकी निजता और स्वायत्तता में किन्हीं पूर्वनिर्मित मूल्यों/ प्रभावों/ प्रलोभन को साजिश के तहत घुलामिला देने की कलाबाज़ियाँ हैं. स्त्री को निर्बंध ही रहने दें – हवा की तरह, पानी की तरह. बंधन बाहरी न रहकर जब स्वविवेक से आत्मानुशासन के रूप में आते हैं, तब विकास की सामूहिकता में सबकी स्वायत्तता भी बनी रहती है.

 

 किरण सिंह : स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्माण में इनकी भूमिका को क्रम से लगाइए :(१) साइकिल (२)गर्भ निरोधक दवा (३)मोबाइल (४)सैनिटरी नैपकिन (५) प्रेशर कुकर (६) जींस

 

रोहिणी अग्रवाल :(१)गर्भ निरोधक दवा (२)सैनिटरी नैपकिन (३)प्रेशर कुकर (४)साइकिल(५)मोबाइल (६) जींस.

 

 किरण सिंह : हमारे यहां बलात्कार, यौन हिंसा या यौन शोषण की कहानियां अक्सर पीड़िता के पक्ष में सहानुभूति का सैलाब उमड़ाने के लिए कही जाती हैं. यह कोशिश उत्पीड़न को नजर बचाकर गायब होने के अवसर देने के लिए है या उत्पीड़िता की समूची जिंदगी को उसी एक लम्हे के इर्द-गिर्द दफन कर देने की साजिश…( हिंदी कहानी वक्त की शिनाख्त पृष्ठ 116) प्रभा खेतान, माया एंजलू ने बचपन में अपने बलात्कार की बात लिखी है. बलात्कार क्यों होते हैं? क्या आने वाले समय में यह रुकता दिखाई देता है?

रोहिणी अग्रवाल : पौधों की एक प्रजाति है – इनडोर प्लांट्स. ये सजावटी पौधे प्लास्टिक के नकली पौधों के पर्याय नहीं, सांस लेती जीती-जागती हरियाली हैं. कहने को ये इनडोर यानी घर के अंदर रखे जाने वाले पौधे हैं लेकिन चार-पांच दिन बाद इन्हें हवा-धूप में न रखो तो मुरझा कर धीरे-धीरे दम तोड़ देते हैं. प्रकृति का नियम है कि कोई भी जिंदा चेतन चर-अचर प्राणी कैद का जश्न नहीं मनाता. खुले आसमान के नीचे सूरज से ऊर्जा खींचता है और हवा से प्राण. प्राण और ऊर्जा विकास और गति को सुनिश्चित करते हैं. मनुष्य के लिए प्राण है मनुष्यत्व की रक्षा; और ऊर्जा है संवेदनशील विचारों का निर्बंध प्रवाह. लेकिन अपनी ही क्षुद्रताओं और वैचारिक जड़ताओं के घटाटोप में जब कैद कर लेते हैं तो व्यक्ति-समाज-समय के व्यक्तित्व-विकास के सारे द्वार रुद्ध हो जाते हैं. तब सतह पर तैरने लगती हैं महानता की छद्म संरचनाएं, पाखंडपूर्ण आचरण, बेईमान दंड विधान, नैतिक वर्जनाओं के भीतर से अपने वर्ग, वर्ण, लिंग, धर्म के लिए खुलते चोर दरवाजे. ये सब कपटपूर्ण संहिताएं मिलकर सामाजिक-मानसिक रोगों का विकास करती हैं जो किन्हीं अमूर्तनों में नहीं फूटते, विचार, व्यवहार और भाव के जरिए संचरण करते हुए व्यक्तियों में स्थित हो जाते हैं. पितृसत्तात्मक व्यवस्था का आदिम जड़ विषतामूलक स्त्री द्वेषी विधान यदि सभ्यता की विकास-यात्रा के क्रम में अपनी रुग्णताओं और उत्पीड़क स्वरूप से मुक्ति पाकर मनुष्य का सहचर बन गया होता, तो संभव है आज बलात्कार जैसी अमानवीयताएं समाज में न होतीं. बलात्कार चंगुल से छूट पड़ती आधुनिका (मुक्त) स्त्री को सजा चखाने का शारीरिक बल मात्र नहीं है, राजनीतिक-धार्मिक-सामाजिक संरक्षण की शह पर की गई अपराधिक कुंठित मानसिकता का प्रतिफलन है जो मात्र एक व्यक्ति (बलात्कारी) की मानसिक रुग्णता की ओर संकेत नहीं करता, पूरे सिस्टम के नैतिक स्वास्थ्य पर सवालिया निशान लगा देता है. बलात्कार स्त्री की पराधीनता को अक्षुण्ण बनाए रखने का राजनीतिक-सांस्कृतिक षड्यंत्र है. जब तक समूचा सिस्टम वर्चस्व और सत्ता की भूख को जीवन का मूल्य मानकर मृगतृष्णा में भटकता रहेगा, तब तक स्त्री बलात्कार की शिकार होती रहेगी. सृष्टि के आरंभ से ही स्त्री की भांति पृथ्वी भी वर्चस्ववादियों की इस लप-लपाती हवस की शिकार होती रही है. स्त्री संवेदी होने का अर्थ जीवन-पर्यावरण संवेदी होना भी है. लेकिन वर्तमान परिदृश्य को देखकर लगता नहीं कि निकट भविष्य में बेहतरी के आसार हैं. ऐसा कहते हुए मैं निराशावादी लग सकती हूं, लेकिन आज जिस तरह दक्षिणपंथी ताकतें दुनिया के अधिकांश देशों में मजबूत होकर लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर अधिनायकवादी मनोवृतियों को प्रतिस्थापित कर रहे हैं, उससे उम्मीद के रहे- सहे रेशे भी हाथ से छूट जाते हैं. 

राजनीतिक सत्ता और विचारधारा देश और संस्कृति की नीतियां तय करती है. लोकतांत्रिक चेतना के अतिरिक्त स्त्री की मानवीय गरिमा की रक्षा करने का माद्दा किसी में नहीं है.

 

किरण सिंह:’राइटर्स ब्लॉक’ क्यों होता है ? न लिख पाने का दुख क्या होता है ? यह कैसे ठीक होता है ? क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ ?  

रोहिणी अग्रवाल : अक्सर देखती हूँ, मैं एक खदान हूं. भीतर तक भरी – अंधेरे में डूबी! उन ख़तरनाक गहराइयों में उतरकर वह संपदा बाहर लाई जा सकती है.  मैं मज़दूर बनकर खदान में उतरती हूँ और माथे पर लगी हेडलाइट्स के सहारे खुदाई करने लगती हूं. रोज़-रोज़ … मैं खदान बनकर अपने को रीतता हुआ देखती हूं …  मैं मज़दूर बन कर अपने को थका हुआ निढाल पाती हूं … गहरे ख़ुद जाने की सीमा के बाद खदान अपनी ही विपन्नता पर पानी-पानी होने लगी है …न न! अब और नहीं! …. मज़दूर के हाथों-पैरों में ताक़त नहीं बची …. मैं लंबी चुप्पी पर निकल पड़ती हूं. पढ़ना …. पढ़ना … संग संग दोस्तों से बतियाना … मनोरंजन …. राइटर्स ब्लॉक एक विचार के चुक जाने का संकेत है; अपने रीत गए कोश को चिंतन-मनन-अध्ययन से पुन: समृद्ध करने का अलार्मिंग सिग्नल.

किरण सिंह: जैविक उम्र बढने के साथ लेखन परिपक्व होता है अथवा याददाश्त, कल्पना, एकाग्रता, उत्साह में कमी आती है ?

रोहिणी अग्रवाल : फ़िलहाल तो यही लगता है कि जैविक उम्र बढ़ने के साथ लेखन परिपक्व हो उठता है. दस साल बाद उम्र के अगले पड़ाव पर पहुँचने के बाद शायद याददाश्त, कल्पना और एकाग्रता क्षीण होने लगे. अभी तो सब दुरुस्त है, अरबी घोड़े की नाईं.

 

किरण सिंह:’इतनी निर्भीकता और ईमानदारी के साथ अपनी नग्नता को कबूल करना…सचमुच, एक लुप्त हो गई प्रजाति के अन्तिम अवशेष हैं मुक्तिबोध।” ( वहीं,15) क्या सचमुच अन्तिम अवशेष हैं मुक्तिबोध या आप उस ब्रह्मराक्षस की शिष्या उनकी परंपरा को बनाए रख कर अपनी कमियों, कमजोरियों का कबूल करेंगीं ?

रोहिणी अग्रवाल: कहानियों में सतत अपने को जाँचा है. अपनी दरकनों को, लोभ-लालसाओं को भी. कहानी अंत:करण का कोलाज है. आलोचना बुद्धि का तार्किक जाल. वहां आप उघड़ते नहीं. कभी कराह का एक कोना दिखाई दे तो बस वही. कहानी में पाया है, मैं अपने हृदय की शल्य चिकित्सा कर उसके चेहरे की परतों को एक-एक कर नोच रही हूं. दोनों संग्रहों में .

 

किरण सिंह :’मुक्तिबोध की कहानियाँ एक साथ विचार कहानियाँ है और आत्मकथात्मक भी। आत्म की घनघोर संलग्नता और विचार की निःसंग निर्लिप्तता।’ आपकी मुक्तिबोध पर की गई यह टिप्पणी क्या आपको समझने की कुंजी है ? 

रोहिणी अग्रवाल: जी, आप आप ऐसा कह सकती हैं.

 

221 किरण सिंह :क्या आपकी आत्मकथा लिखने की योजना है ?

रोहिणी अग्रवाल : मैं प्रकृति से स्वच्छंद हूं. देर तक टिक कर कोई काम नहीं कर सकती. डुबकी लगाकर कहीं का कहीं पहुँच जाने में जो आनंद है, वह एक महायात्रा में कहां? आत्मकथा अपने को अथ से इति तक ‘अन्य’ नज़र से देखने की साधना है. वह अनुशासन और तटस्थता, ईमानदारी और निर्भीकता की माँग करती है. बीती हुई गलियों में सायों के बीच अपनों को आवाज़ लगाना /ढूँढना इमोशनल समस्या भी पैदा करता है. पर जोखिम से दो-दो हाथ करना भी प्रिय है. देखते हैं, भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है?

किरण सिंह: आपको क्या लगता है कि अभी भी वह जगह नहीं मिली जिसके आप योग्य हैं ? या आपको जितनी उम्मीद थी ज्यादा प्यार और आदर मिला है ?

रोहिणी अग्रवाल : प्यास और तृप्ति – दोनों के घट हमेशा ख़ाली रहते हैं. जिस तेजी से भरो, दोगुनी तेज़ी से रीत जाते हैं. इसलिए उस सुकोमल राजकुमारी जैसा होने का स्वांग क्या भरना जिसे सात-सात गद्दों के नीचे भी मटर का दाना चुभता रहता है. ज्ञानी जन कहते हैं – उपलब्धि के प्याले का खालीपन न देखो. रिक्तता को टक निहारते रहोगे तो वह अवसाद से भर जाएगी. देखो भरेपन को, पूरेपन को. उपलब्धि के आनंद को न देखो, कर्म के आह्लाद को महसूसो.

 न मिलने की रंजिश को पाउडर-सुर्खी की तरह चेहरे पर पोत लेने से खोई/छीनी हुई जगहें नहीं मिलती हैं. वे अपमान करती हैं आदर और प्यार की उस ऊष्मा और थाती का जो पाठकों-बुद्धिजीवियों से अनायास मिल गई है. बाक़ी देना-पावना का हिसाब-किताब तो सफ़र के अंत में लगाया जाता है.

 अभी तो चलना है दूर तलक. रॉबर्ट  फ़्रॉस्ट के शब्दों में कहूं तो माइल्स टू गो बिफोर आई स्लीप.

 

किरण सिंह:’हर कोई जीवन का अंतिम दर्शन अपने जीवन में पाता है, किसी की सीख में नहीं. अज्ञेय की इस मान्यता कोई भला क्यों अस्वीकार करेगा ?’ (हिन्दी उपन्यास का स्त्रीपाठ,169) आपको अपने जीवन से क्या दर्शन मिला।

 

रोहिणी अग्रवाल: जिजीविषा, संघर्ष, हौसला – दुख और शिकस्त को हमसफ़र बना कर आगे बढ़ने का हौसला!

अपने एकांत में दुनिया की गूंज मिलाने का सपना! 

विवेक को आईना बना कर सोच की कारगुज़ारियों पर पैनी नज़र रखने का साहस!

जो दीख पड़ता है नंगी आँखों से, जो छुआ जा सकता है दो कदम आगे बढ़ कर, उसके पार अदृश्य में बैठेी ताकतों/व्यवस्थाओं को जानने का जनून!

एक्स्प्लोरेशन ही तो आनंद है! वही गति! वही विकास!

 

किरण सिंह: आपके जीवन का उद्देश्य क्या है ? उसे पाने का रोड मैप क्या है ? उस दिशा में कितना चल चुकी हैं कितना चलना है ?

रोहिणी अग्रवाल : घुमक्कड़ी! और घुमक्कड़ी!!

 विचार-यात्राएं! … 

यात्राओं का अंतहीन सिलसिला …जहाँ ले जाए.

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मित्रो हिंदी जगत अपनी लेखिकाओं का जन्मदिन आम तौर पर नही मनाता कुछेक अपवादों को छोड़ कर।उनकी जन्मशती भी भूल जाता है। क्या आपको पता है कि इस वर्ष दूसरा सप्तक की कवयित्री शकुन्त माथुर की जन्मशती भी है। कुछ साल पहले उनके पति कवि गिरिजाकुमार माथुर की जन्मशती तो मनाई गई पर आज शकुन्त माथुर को किसी ने याद नही किया। गिरिजा कुमार पहले सप्तक में थे ।दिलचस्प बात यह है कि शकुन्त जी को कविता से इतना लगाव था कि उन्होंने एक कवि सम्मेलन में माथुर जी की एक कविता सुनी वह उनको इतनी पसंद आई कि उन्होंने माथुर जी से विवाह करने की जिद्द ठान ली और उनके माता पिता को 1940 में यह शादी करनी पड़ी लेकिन बाद में घर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी निभाने में उनका लेखन प्रभावित हो गया ।उन्हे उपेक्षा मिली ।विभा सिंह ने उनकी बेटी का एक इंटरव्यू लिया है जो अपनी मां के बारे में बता रही हैं।
अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘दूसरा सप्तक’ से साहित्यिक जगत में प्रवेश करने वाली शकुन्त माथुर का 24 फरवरी, को जन्मदिन है। उनका विवाह गिरिजा कुमार माथुर जी से हुआ। शकुन्त जी और गिरिजा कुमार माथुर ऐसे अकेले दंपत्ति है, जो ‘सप्तक’ परम्परा में शामिल हैं। उनके व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन से जुड़ी बातों, विचारों और एक स्त्री के रूप में उनकी बेटी लेडी श्रीराम कालेज की पूर्व लेक्चरर डा बीना बंसल उन्हें कैसे देखती-परखती, कैसे याद करती है? इन्हीं कुछ प्रश्नों का उत्तर, जिज्ञासाओं का समाधान पाने का प्रयास करती हुई- डा. विभा सिंह।
विभा- शकुन्त जी के आरंभिक जीवन के बारे में कुछ बताइये- उनका जन्म कहाँ हुआ? शिक्षा कहाँ हुई?
डा बीना बंसल – माँ का जन्म पुरानी दिल्ली के चिरेख़ाना में 24 फरवरी, 1920 में हुआ था। मेरे नाना सरकारी नौकरी करते थे और बाद में वे दिल्ली के तिमारपुर के सरकारी कॉलोनी में रहने लगे थे। उनकी दसवीं तक की शिक्षा तो दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ स्कूल से हुई थी। इसके बाद उन्होंने प्रभाकर इलाहाबाद से किया था।
विभा- उनका विवाह कब हुआ था?
डा बीना बंसल – माँ का विवाह 1940 में हुआ था। उनके विवाह का बड़ा ही रोचक प्रसंग तुम्हें बताती हूँ। मेरे नाना उस समय दिल्ली के संभ्रान्त परिवार में से थे। उनकी सबसे बड़ी संतान होने के कारण नाना माँ का विवाह किसी नामी-गिरामी जस्टिस के परिवार में करना चाहते थे। जबकि मेरी माँ ने मेरे पिता गिरिजा कुमार माथुर जी को किसी कवि सम्मेलन में कविता-पाठ करते हुए सुना-देखा था और ये अनशन करके बैठ गई कि मुझे तो उन्हीं से विवाह करना है।
डा. विभा सिंह के साथ बीना बंसल.
विभा- फिर, क्या आसानी से उनका विवाह हो गया?
डा. बीना बंसल – हो तो गया। पर थोड़ी कठिनाई तो आई क्योंकि गिरिजा कुमार माथुर जी का परिवार एक सुदुर गाँव से जुड़ा था। इस कारण नाना-नानी थोड़े आशंकित थे कि उनकी बेटी ने कभी गाँव देखा नहीं वहाँ कैसे रह पायेगी ये। उस समय दिल्ली के जो माथुर हुआ करते थे, वो बड़े आधुनिक और आजाद ख्याल के थे। परदा प्रथा बगैरह नहीं था हमारे यहाँ। तभी तो उस समय भी माँ पढ़ पाईं। और माथुरों की लड़कियाँ बड़ी सुन्दर भी हुआ करती थी, माँ बहुत सुन्दर थीं।
विभा- तो कैसे संपन्न् हुआ उनका विवाह?
डा बीना बंसल – माँ अनशन पर बैठ गई कि मुझे तो उन्हीं से विवाह करना है। पिताजी उस समय जैसे युवा कवि दिखते हैं, सुन्दर दिखते थे और माँ ने उन्हें केवल कविता-पाठ करते सुना थोड़े ही था, पिताजी को देखा भी था। अंत में नाना को मानना पड़ा। पर, विभा तुम्हें बताऊँ माँ ने निभाया भी बहुत अच्छे से। मेरी दादी जब बीमार थी और पलंग से उठ नहीं पाती थी तो मैने माँ को उनकी सेवा करते देखा और गाँव के रीति-रिवाजों में ढलते देखा है।
विभा- तो क्या कविता लिखने का शौक उन्हें विवाह के बाद हुआ?
डा बीना बंसल – नहीं, नहीं, तुकबन्दी और गाने लिखने का शौक तो उन्हें बचपन से ही था। हाँ, विवाह के पश्चात ही इन्होंने मध्यभारत के गाँवों और जंगलों को देखा, जिसकी छाप इनकी कविताओं में दिखाई पड़ती है। पर अपनी कवितओं को वे एकदम स्वान्तः सुखाय ही मानती थीं- अपने ही आप को संतुष्ट करने के लिए की गयी रचनाएँ। उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि वे एक कवयित्री है और उनकी रचनाएँ औरों के लिए भी कुछ महत्त्व रख सकती है। साथ ही गिरिजा कुमार माथुर जैसे कवि की पत्नी होने के कारण एक मानसिक दवाब भी वे महसूस करती होंगी। जैसा कि उन्होंने कहा भी है न ‘जब भी मैं लिखती इनकी कोई न कोई रचना मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती और मेरी कविता शर्मिंदा हो जाती। परन्तु पिताजी के प्रतिष्ठित साहित्यिक मित्रों ने यहाँ मैं अज्ञेय जी का नाम लेना चाहुँगी – जब शकुन्त जी की रचनाएँ देखीं, सराहा और उन्होंने प्रकाशित करवाया तब उन्हें भी अनुभव हुआ कि स्वान्तः सुखाय काव्य की सार्थकता तभी है जब वह प्रत्येक को स्वान्तः सुखाय लगे और बहुजन हिताय हो जाय।’
विभा- उनकी साहित्यिक यात्रा के बारे कुछ बताइये?
डा. बीना बंसल- अपने आप को कवयित्री और अपनी रचनाओं को काव्य मानने की गलती बहुत समय तक नहीं की उन्होंने; हँसते हुए। हालाँकि बचपन से ही तुकबंदी का शौक था उन्हें। आरंभिक कुछ रचनाएँ साप्ताहिक ‘अर्जुन’ तथा अन्य छोटे-मोटे पत्रों में प्रकाशित हुई थी। परन्तु शादी के बाद पारिवारिक व्यस्तता के बीच जो कविताएँ उन्होंने लिखी उन्हें अज्ञेय जी जब एक बार घर पर आए और देखा तो पुलिंदा ही उठा कर ले गए और उसे ‘दूसरा सप्तक’ जैसे काव्य-संग्रह में स्थान दिया। अज्ञेय जी जैसे व्यक्तित्व से प्रशंसा पाना, तुम सोच सकती हो कि उनके लिए कितनी बड़ी बात रही होगी। बाद में हिन्दी की सभी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहीं। उनकी कविताओं का संग्रह-चाँदनी चूनर ;1961द्ध अभी और कुछ ;1966द्ध, ‘लहर नहीं टूटेगी’ ;1990द्ध प्रकाशित कविता-संग्रह है। उनकी कविताओं के अंग्रेजी, रूसी, जर्मन पोलिश तथा अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। पहले ही काव्य-संग्रह ‘चाँदनी चूनर की भूमिका पंत जी ने लिखी थी।
शकुन्त माथुर जी अपने परिवार के बच्चों के साथ.
विभा-एक स्त्री के रूप में आप उन्हें कैसे देखती है?
डा बीना बंसल- कर्तव्यनिष्ठ! आलस से दूर, अपना काम स्वयं करने वाली। दूसरों से काम कराना उन्हें बिल्कुल पंसद नहीं था। अंतिम दिनों तक अपना काम वे स्वयं करती थी। प्रबंधन उनका देखने लायक था। चाहे वह खाना बनाना हो, घर को सजाने-सँवारने का हो या बागवानी का हो। ढेरों फूलों और सब्जियों से भरे आँगन का वे अपने हाथों से देखभाल करती थी। त्योहारों पर विशेषतः होली में गुझिया, पापड़ी, मालपुए आदि बनाना- सारे लोगों को बुलाकर खिलाना, गाना- बजाना वो दिन कितने अच्छे थे। अपना सबकुछ छोड़कर पति, बच्चों को पीछे जैसे सूरज पृथ्वी के साथ घूमता है, वे घूमती थीं। अपने हाथों से बच्चों को खिलाना, अपने हाथ से बुने स्वेटर ही पहचाना, मुझे याद नहीं कभी बाजार से खरीदा स्वेटर हम भाई-बहनों ने पहना था। चादर-गिलाफ में कढाई करना, क्या नहीं था जो वो करती न हों। विविधता उनके कामों में था। चाहे वह घर हो या लेखन। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर एक बार विजेन्द्र स्नातक जी ने कहीं कहा था ;याद नहीं कहाँ तुम देख लेनाद्ध गिरिजा कुमार माथुर जैसे वटवृक्ष के नीचे भी शकुन्त माथुर पनपती रहीं।’
विभा-एक माँ के रूप में कैसे याद आती है? कैसे याद करना चाहेगी आप?
डा. बीना बंसल – वो सामाजिक मर्यादावादी थीं। बच्चे कोई ऐसा काम न करे जिससे हमारे संस्कारों को चोट लगे। साथ ही इतनी आधुनिक थीं कि शिक्षा और कपड़े पहनने की दृष्टि से कभी रोक-टोक नहीं किया। पूरी आजादी दी थी उन्होंने अपने बच्चों को। अपने बच्चों में उन्हें विश्वास था, हाँ अनुशासन प्रिय थी वे – जिंदगी को एक अनुशासन में बाँधे रखना उन्हें पसंद था। जीवन जीने का सलीका और तरीका उन्हें पंसद था, अस्त-व्यस्तता उन्हें पसंद नहीं थी। सुचारू रूप से काम करना उनकी दिनदर्या में शामिल था। अपनी परम्पराओं में उन्हें विश्वास था, भारतीय संस्कारों में विश्वास था। जैसे दामाद के साथ थोड़ी-सी औपचारिकता वे रखती थी। पूजा-पाठ उतना नहीं करते हुए भी ईश्वर में उन्हें आस्था थी, कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं थी। हाँ, सच के प्रति उनका अगाध् प्रेम था। मैने कभी उन्हें झूठ बोलते हुए नहीं सुना। बहुत सोशल नहीं थीं, वे जल्दी-घुलती मिलती नहीं थीं। जबकि इसके विपरीत पिताजी थे, वे पान-सब्जीवाले से भी घंटों बतियाते थे।
विभा- अपने समय के बारे में कभी उन्होंने कुछ बताया? मसलन जब वे युवा होगी तो हम स्वतंत्र नहीं थे।
डा. बीना बंसल- अपने जीवन में स्वाधीनता की लड़ाई को उन्होंने निकट से देखा था। अपने दादी के साथ सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया। गाँधी जी के आह्वान पे अपने आभूषण उतार कर दिये। वहीं से उनके मन में देशभक्ति की भावना जगी, जिसकी प्रेरणा उनकी दादी रहीं। यही कारण है कि स्वान्तः सुखाय रचनाएँ बाद में सामाजिक प्रक्रिया के रूप में मुखरित हो उठी। हालाँकि जितना सोचा उतना कर नहीं पायी।
विभा- उनकी पसंद की कोई कविता, जो आपको याद हो?
डा बीना बंसल- कई कविताएँ हैं। उनके घर आँगन के प्रतिदिन के अनुभवों से जुड़ी कविताओं -‘तुम सुंदर हो, घर सुन्दर हो’, ‘इंतजार का नया ढंग’, ‘एक अनुभूति, सूरज मेरे कमरे में, के अलावा- नारी का संदर्भ’, ‘काँच, ‘सिर्फ तराशती रही’, ‘खण्डो की सार्थकता’, ‘रूप’आदि अनेक ऐसी कविताएँ है जो सामाजिक यथार्थ को, नारी मन के संघर्ष की दर्शाती हैं।
विभा- …… जो आपको याद हो?
डा बीना बंसल – ‘हरा-भरा / घना पेड़ / पीछे / चाँदनी का कुमुद-तन / हजार आँखे / ;रूपद्ध ‘‘मैं इतनी कमजोर क्यों हूँ / जो अपने आप से बार-बार हार जाती हूँ। … क्यों सोचती हूँ। कट जाती है जिन्दगी / तरसते-तरसते। क्यों नहीं सोचती / अभाव। जुड़ जाता है / किसी धर में / बरसते बरसते।
विभा- बचपन की कुछ यादें, कुछ रोचक संस्मरण जो माँ से जुड़ी हों?
डा. बीना बंसल – कई बातें है जो मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है। बचपन में लगभग पाँच-छह वर्ष की थी मैं। लखनऊ में महिला विद्यापीठ में पढ़ने जाने के लिए सुबह चार बजे ही उठाती थी वे और मैं उठकर आते हुए सीढ़ियों पर ही सो जाया करती थी। वो आती देखती कहतीं अरे बीना फिर सो गई उठ जा….. कई ऐसी बातें है। उस जमाने में हमें कपड़े से ढके ढेले वाले स्कूल ले जोने के लिए सुबह पाँच – साढे पाँच ही आ जाते थे। हाँ, लखनऊ में बंदर बहुत थे। एक बार माँ खाना बनाकर नहाने गई और मुझे कहा देखना कही बंदर न ले जाए और सचमुच में बंदर आ गए और घी से चुपड़ी रोटियों का डब्बा उठाकर भाग गए। उस दिन बहुत डाँट पड़ी थी मुझे…।
विभा- भाई- बहन के साथ जुड़ी यादें…?
डा. बीना बंसल – एक बार बंदर हम भाई-बहनों का चप्पल उठाकर छत पर भाग गया तो माँ ने हमें छत की दूसरी तरफ भेजकर बचे चप्पलों को फेंकने को कहा ताकि बंदर भी नकल कर चप्पलें नीचे फेंक दे। एक बार बड़े भाई जब छोटे थे तो छत की मुंडेर पर चढ़कर बैठ गए। उन्हें उतारने के लिए माँ ने आवाज न देकर धीरे- से ऊपर चढ़कर पीछे से उन्हें अंक में भर लिया कि आवाज सुनकर कहीं हड़बड़ाकर गिर न जाए। प्रत्युत्पन्न मति थी उनकी। तत्पर बुद्धि बहुत थी उनमें। जब वे युवा थी तब उनके भाई-बहन उन्हें ‘शेर’ के नाम से पुकारते थे इतनी निडर, निर्भीक थी वे। कभी विचलित होते उन्हें नहीं देखा। होती भी होगी तो कभी हमारे सामने प्रकट नहीं किया। क्या-क्या बताऊँ जीवन ही माँ की यादों से भरा हुआ होता है।
विभा- उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को आप कैसे देखती है?
डा. बीना बंसल – वे एक कवयित्री थी, ममतामयी माँ थी, कर्तव्यनिष्ठ पत्नी थीं परन्तु नारी का सुख केवल उसकी घर-गृहस्थी तक ही सीमित है, ऐसा वे नहीं मानती थीं। एक इंसान के रूप में व्यक्ति का मानसिक विकास उसकी संतुष्टि, जिस भी कार्य में वह पाता है, उसकी तरफदार थीं वे।
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