भारतीय सिनेमा की शुरुवात 1896 में फ्रांस के लुइस और अगस्त लुमिरै ने छह मूक फिल्मों का प्रदर्शन 7 जुलाई को बम्बई के वाटसन होटल में किया था।पर ये फिल्में अपनी भाषा में नहीं थीं अर्थात सामान्य जनता की भाषा से दूर थीं |.भारतीय सिनेमा का विकार्स ढुंडीराज गोविन्द फाल्के जो दादा साहब फाल्के के नाम से अधिक जाने जाते हैं उन्हें भारत की प्रथम स्वदेश निर्मित फीचर फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाने का श्रेय जाता है।भारत में बनने वाली पहली फीचर फिल्म दादा साहब फाल्के ने बनाई जो भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक ‘हरिशचंद्र’ पर आधारित थी।दादासाहब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र बनाई जो कि भारत की पहली लंबी फिल्म थी और 03 मई 1913 में प्रदर्शित हुई। ध्वनिरहित होने के बावजूद भी उस चलचित्र ने लोगों का भरपूर मनोरंजन किया और दर्शकों ने उसकी खूब प्रशंसा की। 14 मार्च 1931 को इस चमत्कार में एक सम्मोहन शामिल हो गया और वह सम्मोहन था ध्वनि का। अब पर्दे पर दिखाई देने वाले चित्र बोलने लगे। 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ से आज तक सर्वाधिक फिल्में हिंदी भाषा में ही बनाई गईं हैं।
फिल्म मे राजा हरिशचंद्र का किरदार दत्तात्रय दामोदर, पुत्र रोहित का किरदार दादा फाल्के के पुत्र भालचंद्र फाल्के जबकि रानी तारामती का किरदार रेस्टोरेंट मे बावर्ची के रूप मे काम करने वाले व्यक्ति अन्ना सालुंके निभाया था। ये है १९३१ में भारत में सिनेमा के क्षेत्र में स्त्री की स्थिति जब कोई स्त्री सिनेमा जैसे कलात्मक मनोरंजनात्मक उपदेशात्मक विधा में आने को और अपनी कला और प्रतिभा दिखाने को तैयार नही थी |
फिल्म राजा हरिश्चंद्र की अपार सफलता के बाद दादा साहब फाल्के ने वर्ष 1913 में मोहिनी भस्मासुर का निर्माण किया। इसी फिल्म के जरिये कमला गोखले और उनकी मां दुर्गा गोखले जैसी अभिनेत्रियों को भारतीय फिल्म जगत की पहली महिला अभिनेत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। इसी फिल्म में पहला डांस नंबर भी फिल्माया गया था। कमला गोखले पर फिल्माए इस गीत को दादा फाल्के ने नृत्य निर्देशित किया था।दुर्गाबाई पार्वती की भूमिका में हमारे सामने आयीं और कमलाबाई मोहिनी की भूमिका में |दुर्गाबाई का फिल्मों में आना कोई पारिवारिक स्वीकृति या उनके अभिनय की इक्षा न होते हुए एक विवशता थी अर्थोपार्जन की विवशता मात्र थी ,अपने पति से अलगाव की स्थिति में उनके पास तीन ही विकल्प थे पहला ,किसी के घर में काम करना ,वेश्यावृति का काम ,तीसरा फिल्मों में जाकर अभिनय करना |सामाजिक दृस्टि से ये तीनो काम ही समान रूप से निंदनीय थे |
ये सिनेमा में काम करने वाली स्त्रियों के प्रति समाज का नजरिया था |पर दुर्गाबाई ने अपने और अपनी पुत्री के जीवनयापन के लिए ये रास्ता चुना और एक नई क्रांति का जन्म दिया |कोई भी क्रांति विरोधों में ही पनपती है और फूलती फलती है |
आज सिनेमा में नायिका की ये स्थिति है की नायिका बनने की होड़ लगी है |अच्छे से अच्छे संभ्रांत परिवार से लड़कियां आ रही हैं अपने अभिनय का लोहा मनवाने के लिए ,कोई घर से विरोध करके चल पड़ा किसी ने घर ही छोड़ दिया ,कोई प्रशिक्षण लेकर आ रहा ,तो कोई विरासत में अभिनय लेकर आ रहा |
प्रतियोगिता बढ़ गयी है अभिनय से लेकर ,नृत्य ,शारीरिक बनावट ,फिटनेस ,भाषा ,से लेकर हर क्षेत्र में अलग चाहिए ,अपार प्रतिभा चाहिए |
ये हुआ नायिका का हिंदी सिनेमा में आगमन और कारन और उसके प्रभाव ,इसी समय वर्ष 1926 मे प्रर्दशित फिल्म बुलबुले परिस्तान पहली फिल्म थी जिसका निर्देशन महिला ने किया था।बेगम फातिमा सुल्ताना इस फिल्म की निर्देशक थीं। फिल्म में जुबैदा, सुल्ताना और पुतली ने मुख्य भूमिका निभाई थीं।
सन 1931 कें कुछ समय उपरांत ही भारतीय समाज में प्याप्त नारी जीवन की विडंबनाओं को लेकर कर्इ फिल्में बनार्इ गर्इ जिनमें ‘दुनिया ना मानें’ (1937), ‘अछूत कन्या’ (1936) ‘आदमी’-(1939), ‘देवदास’-(1935), ‘इंदिरा एम.ए.’ (1934) बाल योगिनी’ (1936) प्रमुख रूप से सम्मिलित है ।
इस तरह की फिल्मों में नारी जीवन से संबंधित जिन समस्याओं को उजागर किया गया उनमें ‘बाल विवाह’, ‘अनमेल विवाह’, ‘पर्दा प्रथा’, ‘अशिक्षा’ आदि थें |दरअसल उस समय के समाज में यही समस्याएं हावी थीं ,देश आज़ाद नहीं हुआ था ,तमाम प्रकार की सामाजिक सुधार वाली संस्थाएं अपना काम कर रही थीं ,देश में हर जगह आंदोलन की स्थिति थी ,सामाजिक कुरीतियों को उखाड़ फेंकने की हर जगह कवायद चल रही थी |ऐसे में इन्ही समस्याओं को केंद्रित कर सिनेमा को बनाना स्वाभाविक था |
सामाजिक परिवेश से जुडे रिश्तों को महिलाओं के किरदारों में बखूबी उतरा जाने लगा। 1935 में ‘औरत’, ‘हंटरवाली’, ‘डाकू की लडकी’, ‘मिस 1933’, 1936 में ‘अछूत कन्या’, 1950 में ‘जोगन’, ‘बडी बहन’, ‘छोटी भाभी’, ‘हमारी बेटी’, ‘मधुबाला’, ‘नई भाभी’, ‘सती- नर्मदा’, समाज के रुढीवादी होने पर भी कुछ नायिकाओं ने फिल्म की कहानी के अनुरूप किरदारों के शिद्दत से निभाने का साहस दिखाया। नायिका देविका रानी ने 1933 मे बनी फिल्म “कर्मा “मे ऐसा बोल्ड द्रश्य अभिनीत किया जो उस समय के समाज की सोच के अनुरूप अच्छा नहीं कहा जा सकता था। पर ऐसी हिम्मत उस समय नायिका देविका रानी के दिखाई जिस के परिणामस्वरूप उन्हें तारीफ और बुराई दोनों मिली।
ये तो हर क्षेत्र में होता है जब समाज के नियमों से अलग कुछ होता है ,कोई नया परिवर्तन नई क्रांति ,तो उसका विरोध होता ही है ,बल्कि इन विरोधों का कभी अंत नहीं होता| ये विरोध अभी भी जारी हैं जब सिनेमा में स्त्री की समस्याओं को नए ढंग से समाज के सामने लाया जाता है उन पहलुओं को समझने की कोशिश की जाती है जो सब जानते तो हैं पर उन पर कोई बात नहीं करना चाहता ,उसे चर्चा का मुद्दा बनाने में अहम को और नैतिकता को ठेस लगती है |
महिलाओं की अद्भुद जिजीविषा और लगन को प्रत्यक्ष रूप से साकार करने के लिये 1950 के दशक में के।ए। अब्बास, बिमल रॉय और गुरुदत्त जैसी निर्देशको ने खूब काम किया।इन सशक्त और सामाजिक सरोकारों में रुचि रखने वाले निर्देशको ने अपनी फिल्मों में मजबूत महिलाओं को चित्रित किया ।महबूब खान की ‘मदर इंडियाँ’ ऐसी ही कालजयी फिल्म थी जिसमें एक महिला के संघर्षशील जीवन को बारीकी से दिखाया है कि वह विपरीत हालातों में भी हिम्मत नहीं हारती और तमाम सादगी के साथ अपने बच्चों की परवरिश करती है। इसी समय में आयी थी ‘लाजवंती’, ‘अराधना’ जिसमें महिलाओं के व्यकितगत, पारिवारिक जीवन के बदलते रूपों को दिखाया गया था।
1964 में बिमल राय की कालजयी फिल्म “बंदनी” आयी, अपरिष्कृत महिला के रूप में नूतन ने भावपूर्ण अभिनय किया फिर 1960 में आयी बेहद मकबूल और एतेहासिक फिल्म ” मुगल-ए-आज़म” जिसमें अपने प्यार के लिये अपने आप को बलिदान कर देने वाली मज़बूत इच्छाशक्ति वाली नायिका का किरदार मधुबाला ने निभाया और इसी वर्ष “दिल अपना और प्रीत परायी’ में प्रेम की नैसर्गिक भावना को आत्मसात करती युवती की गाथा को किशोर साहू ने बडे परदे पर उतारा। 1962 में बनी फिल्म “मै चुप रहूंगी” में पितृसत्तात्मक समाज में नारी की दशा का सटीक चित्रण किया गया।
महिलाओं का सुधारवादी रूप फिल्मों में दिखाया जाने लगा । 1963 में आई ‘मुझे जीने दो’ जिसमे वहीदा रहमान ने और 1981 में “ज्योति” फिल्म में हेमामालिनी ने महिलाओं का सशक्त अभिनय को जीवंत किया।
1940 से 1960 को सिनेमा का स्वर्णिम युग माना जाता है। 1970 में “कटी पतंग” में परम्परागत भारतीय विधवा के जीवन की त्रासदी को दर्शाया, पंजाब के हरियाली इलाके के अमर प्रेम युगल “हीर राँझा” पर चेतन आनंद ने 1970 में फिल्म बनायी , और हीर का अमर पात्र पर्दे पर सांस लेने लगा ।इसी दौर में बेमिसाल नायिका हेमामालिनी को लेकर सुबोध-मुखर्जी ने ‘अभिनेत्री’ फिल्म बनाई। सामाजिक परिस्तिथियों की तरह ही फिल्मो मे भी महिलाएं न्याय और समानता जैसे विषयों पर पीछे ही रही, बिमल राय की “परिणीता” में पारम्परिक रिवाज़ों की बलि चढी, पर कमोबेश जायदातर फिल्मो मे नारी का सुधारवादी रूप ही दिखाया गया। “मुझे जीने दो” में वहीदा रहमान और “ज्योति” में हेमामालिनी इस रूप के सशक्त उदहारण है।
1960 में महिलाओं का लुहावना रूप दिखाया गया। फिर अगले दौर में दशकों को देखने को मिली सीधी- साधी 1971 में हृषिकेश मुख़र्जी ‘गुड्डी’, 1972 में ‘परिचय’ और ‘कोशिश’।अगले ही साल यानी 1973 से निर्देशक प्रकाश महरा की फिल्म ‘जंजीर’ में एक नायक का एंगी यंग मैंन के रूप में उदय हुआ और तभी से फिल्मों में नायिकायें महज एक आभूषण के तरह प्रस्तुत की जानी लगी। उसी समय उदय हुआ हिंदी सिनेमा की गैलमरस नायिकाओं का जिनमें परवीन बाबी, जीनत आमान और पूनम ढिल्लों , पद्मिनी कोल्हापुरे सबसे आगे थी। 1980 के दशक में बॉलीवुड में किरण बेदी के बुलंद व्यक्तितव से प्रभावित होकर फिल्मकारों का ध्यान महिलाओं को पुलिस के रूप में दर्शाने की तरफ गया। उसी समय स्त्री का प्रभावी किरदार चित्रपट पर नज़र आया। गुलज़ार ने 1975 में “आँधी” फिल्म तब की राजनैतिक पटल के शीर्ष पर पहुँची प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से प्रभावित हो कर फिल्म बनाई । इन सभी फिल्मों में महिला पात्र अपने बेहतरीन रूप में थे।
जैसे-जैसे समाज में महिलाओं की शक्ति को आँका गया वैसे-वैसे फिल्मो में महि़लाओं की समस्यांए रखी जाने लगी। ‘फूल बने अँगारें’ में रेखा, ‘अंधा कानून’ में हेमा मालिनी और ज़ख्मी औरत’ में डिंपल कपाड़िया। इस समय मे महिलाओं के प्रति यौन हिंसा के दुरुपयोग की घटनाओं की संख्या बढ़ने लगी थी। 70 और 80 के दशक से, नायिकाओं को केवल महिलाओं के स्थापित रूप में नहीं दिखाया गया है बल्की अब वह पूरे परिवार की जिम्मेवारी अपने कंधों पर उठा सकती है, ये महिलाएं अपने काम के माध्यम से कई सामाजिक लड़ाइयां लडती है।
70 के इस दौर मे जब महिलायें अपने आप को खोज रही थी तो सही मायने में उस दौर को संस्कारी दौर कहा जा सकता है जब तक आधुनिकरण की विषैली आँधी पश्चिम की ओर से भारत में नहीं पहुँची थी। माँ की रूप मे कामिनी कौशल, निरूपा रॉय, दुर्गा खोटे खूब सराही गयी, जिस तरह का ढोंगी नज़रीय आम जीवन मे भी समाज का है की एक तरफ तो वो नारी को देवी माँ बना कर पूजते है और दुसरी तरफ अपने ही घर मे नारी को अपमानित करते है उसी तरह माँ को सबसे ऊँचा दीखाया गया और हीरोईन को बलात्कार का शिकार तक होते देखाया जाता है यह विडम्बना भी फिल्मो मे हमें देखने को मिलती है, तभी फिल्मो को समाज का आईना भी कहा जाता है ।
बी आर चोपड़ा हिंदी फिल्मों में सामाजिक सुधार और सामाजिक चेतना को आधुनिक संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले सफलतम निर्माता निर्देशक हुए हैं। विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए उन्होंने ‘एक ही रास्ता’ (1958) बनाई। यह एक त्रिकोणात्मक कहानी है। सुनील दत्त और मीनाकुमारी पति-पत्नी हैं जब एक हादसे में सुनील दत्त की मृत्यु हो जाती है तो अशोक कुमार एक मित्र के रूप में मीना कुमारी की देखभाल करने लगते हैं। लेकिन यह स्थिति एक विधवा स्त्री को बदचलन घोषित करने के लिए समाज में पर्याप्त थी। बी आर चोपड़ा ने साहस के साथ फिल्म में विधवा स्त्री का विवाह (अशोक कुमार के साथ) करवाकर सुधार की एक नई परंपरा को स्थापित किया। इसके बाद समाज में विधवा स्त्रियॉं के लिए एक नए जीवन को स्वीकार करने का साहस पैदा होने लगा। बी आर चोपड़ा एक निर्माता और निर्देशक के रूप में हमेशा से ही भारतीय स्त्री जीवन की विसंगतियों के प्रति संवेदनशील रहे हैं और इसीलिए उनकी फिल्में व्या व्यावसायिक होने के साथ समस्यामूलक भी बन पड़ी हैं।
सन् 1959 में ही अविवाहित मातृत्व की समस्या से जूझने वाली स्त्रियों के जीवन के बिखराव और उसकी परिणति को दर्शाने वाली सशक्त फिल्म ‘धूल का फूल’ बी आर चोपड़ा के ही निर्देशन में आई। अविवाहित मातृत्व के परिणामस्वरूप जन्म लेनी वाली संतान अवैध घोषित की जाती है और उसका जीवन नारकीय हो जाता है। यह एक बहुत ही संवेदनशील विषय है जिसे फिल्म द्वारा समाज के सम्मुख लाने का साहस बी आर चोपड़ा ने किया है। ये फिल्में समाज को ऐसी विषम स्थितियों से बचने के लिए आगाह करती हैं और उन स्थितियों के पर्यवसान को बेबाकी से प्रस्तुत कर स्त्रियॉं के पक्ष में समाज को खड़े होने का साहस प्रदान करती हैं। बी आर चोपड़ा अपनी एक और फिल्म ‘इंसाफ का तराजू'(1959) बलात्कारित पीड़िता को न्याय दिलाते हैं। बलात्कारित स्त्री पीड़िता के रूप में समाज के सम्मुख आने से आज भी डरती है इस विषय पर बहुत कम फिल्में बनी हैं इसलिए इसे एक नई साहसपूर्ण प्रस्तुति के रूप में स्वीकार किया गया। हिंदी फिल्में प्रारम्भ से मूलत: स्त्री प्रधान ही रहीं हैं। हिंदी फ़िल्मकारों ने भारतीय स्त्री के सभी रूपों को फिल्मों में प्रस्तुत किया है। घरेलू स्त्री, कामकाजी स्त्री, किसान स्त्री, विवाहित और अविवाहित स्त्री आदि। जुझारू स्त्री, संघर्षशील स्त्री और अन्याय – अत्याचार से लड़ने वाली स्त्री आदि रूप हिंदी फिल्मों में प्रमुख रूप से आते रहे हैं। राजकपूर द्वारा निर्मित ‘प्रेमरोग’ (1982) में आभिजात्य परिवार की विधवा युवती ‘मनोरमा'(पद्मिनी कोल्हापुरी) का विवाह सामान्य वर्ग के युवक ‘देवधर’ (ऋषिकपूर) से करवाकर वर्ग वैषम्य को मिटाने की पहल की है की गई है। इस फिल्म में एक ओर वर्ग-संघर्ष है तो दूसरी ओर आभिजात्य परिवारों में प्रच्छन्न रूप से प्रचलित स्त्री शोषण का घिनौना रूप भी अनावृत्त हुआ है। ये फिल्में उपदेशात्मक और संदेशात्मक फिल्में हैं। इसी श्रेणी में आर के फिल्म्स के बैनर तले बनी फिल्म ‘प्रेमग्रन्थ’ भी आती है जो कि बलात्कारित स्त्री के उत्पीड़न और तद्जनित परिणामों को दर्शाती है। इस फिल्म के माध्यम से ऐसी लांछित स्त्रियों को समाज में स्वीकार करने की पहल की गयी है।
उसी समय में बॉलीवुड की मुख्यधारा में 1980 में ‘आशा’, ‘माँग भरो सजना’, ‘थोडी सी बेबफाई’, ‘ज्योति बने ज्वाला’ बनी, फिल्मकार बी आर चोपडा ने उस समय जिस विषय को चुना वह बेहद बोल्ड था, फिल्म थी “इंसाफ का तराजू” किस तरह बलातकार की शिकार महिला अपनी लडाई अकेली लडती है इसे लोगों ने पहली बार बारे परदे पर देखा, इसके बाद “सौ दिन सास के” और रेखा अभिनीत फिल्म “खूबसूरत” जैसी फ़िल्मी आई, 1982 में राजकपूर ने विधवा विवाह जैसे महतवपूर्ण समाजिक मुद्दे पर ‘प्रेम रोग” बनाई1990 तक आते-आते समाज में कई राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन हुये जिसकी छाया फिल्मों में भी साफ दिखाई देने लगी। मुक्त बाज़ार ने देश में पशचिमी चीज़ों के लिये दरवाज़े खोल दिये गये। फलस्वरूप स्त्री को एक ब्रांड के रूप मे प्रस्तुत किया जाने लगा ।
कल्पना लाज़मी ने 1993 मे “रुदाली” बनाई, बाद मे तनुजा चन्द्र, रीता कागती, फरहा खान, अनुषा रिज़वी, मेघना गुलज़ार आदि इस दिशा मे आगे आई।
हिंदी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारतीय समाज के रुढिवादीरूख के बावजूद जिन फिल्मों में नारी शक्ति का अदभुत देखने को मिला वे फिल्में थी, देवदास,‘बंदिनी’, ‘साहब-बीवी और गुलाम’, ‘अर्थ’, ‘अंकुर’, ‘भूमिका’, ‘मंडी’,’स्पर्श’,’आँधी’, ‘पाकिज़ा’, ‘उमराव जान’, ‘गुड्डी’, मिली’, ‘जीवन धारा’, ‘आखिर क्यों’, ‘मासूम’, ‘जुबैदा’, ‘मम्मों’, ‘परिणता’, ‘लज्जा’, ‘चकदे इंडिया’ आदि हिंदी फिल्मों में महिलाओं की भूमिकायें उल्लेखनीय मानी जाती रहेंगी। कई प्रतिभाशाली फिल्म निर्माताओं ने आग्रहपूर्वक और सम्मानजनक यथार्थवादी बन कर अपनी फिल्मो में महिलाओं को सही और मजबूत पक्ष चित्रित करने की कोशिश की है, इस शैली मे सत्यजीत रे, मृणाल सेन, महबूब खान, ऋषिकेश मुखर्जी, महेश भट्ट, अमोल पालेकर आदि का नाम होंसले के साथ लिया जा सकता है।
हिंदी फिल्में हर युग में बदलते परिस्थितियों के साथ भारतीय समाज के हर रूप और रंग को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं। आज का दौर फिल्मों का ही दौर है। फिल्में ही मुख्य मनोरंजन और ज्ञान-विज्ञान को संवृद्ध करने काकारगर साधन है। फिल्म प्रस्तुतीकरण की शैली में बदलाव अवश्य दिखाई देता है किन्तु इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंध ही रहे हैं। निश्चित रूप से फिल्में समाज को एक नई सोच दे सकती हैं।
भारतीय सिनेमा तीन मई 2013 को अपने सौ साल पूरे कर चुका है। इन सौ सालों में उसने कई यात्राएँ की हैं, कई पड़ावों को पार किया है। समाज में जितने आंदोलन, परिवर्तन हुए सभी को हिंदी सिनेमा ने अपने कथ्य का आधार बनाया फिर स्त्री जो कि परिवार,राष्ट्र की धुरी है उसको कैसे अनदेखा कर दिया जाता। सिनेमा ने अपनी ज़िम्मदारी पूरी तरह निभाई है। उसने कभी भी स्त्री और उसके सरोकारों से अपना पल्ला नहीं झाड़ा अपितु वह स्त्री के साथ सजग रहकर खड़ा रहा है।
पूर्ण कहीं कुछ नहीं होता ,जो है वो गति में है ,प्रवाहः में है |हिंदी सिनेमा, नायिकाओं के विभिन्न पक्ष ,समस्याओं .प्रतिभाओं ,को लेकर अपनी गति में आगे बढ़ रहा है और बढ़ेगा |ये प्रवाह कहाँ तक जाएगा कुछ पता नहीं ,प्रवाह की दिशा तय नहीं ,कुछ निश्चित लक्ष्य नहीं ,बस जो जैसा है ,जैसा चल रहा है ,जो परिवर्तन आ रहे हैं उन्हें दिखाना सिनेमा का काम है |समाज चाहे तो सीखे ,सोचे ,समझे न चाहे तो सिनेमा को केवल मनोरंजन का साधन समझे |पर सच तो यही है की एक निर्देशक ,या किसी भी प्रकार के लेखक का अपना एक लक्ष्य होता ही है ,एक सोच होती ही है ,अब उनकी सोच उनका नजरिया हमारे नजरिये से कितना मेल खाता है इस पर निर्भर करता है हमारे साहित्य या सिनेमा को पसंद किया जाना |