नाम- मनीषा जैन
जन्म- 24 सितम्बर, मेरठ में जन्म
शिक्षा- पी एच डी – जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
एम ए (हिन्दी साहित्य), यू जी सी, नेट क्वालिफाइड
प्रकाशन – रोज गूंथती हूं पहाड़ (कविता संग्रह), कल की उम्मीद लिए (कविता संग्रह), रचना का मानुष राग (विवेचनात्म समीक्षा संग्रह), भारत में पितृसत्ता का स्वरूप (शोधग्रंथ), नमिता सिंह के कथा साहित्य में पितृसत्ता के स्वरूप का अध्ययन (शोधग्रंथ, प्रकाशनाधीन)
नया पथ, इन्द्रप्रस्थ भारती, अलाव, विपाशा, युद्धरत आम आदमी, साहित्य भारती-लखनऊ, वर्तमान साहित्य, परिकथा, अलाव, कृति ओर, रचनाक्रम, मुक्ति बोध-राजनांद गांव, आकंठ आदि पत्रिकाओं में कविताएं, आलेख, समीक्षायें प्रकाशित।
बाल कविताएं: जनसत्ता, अभिनव इमरोज- बाल विशेषांक, अनेक रेखाचित्र साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित। हिन्दी जनसत्ता में लगातार एक वर्ष तक रविवारी में रेखाचित्र प्रकाशित।
पुरस्कार: भारतीय साहित्य सृजन संस्थान पटना द्वारा कथा सागर साहित्य सम्मान 2013, रोचना विश्व कीर्ति कविता सम्मान ‘कृतिओर पत्रिका’ द्वारा 2016, साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘संचेतना’ इलाहाबाद द्वारा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सम्मान 2018
संप्रति :स्वतंत्र लेखन
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कविताएं
1 - भूखे पेट तुम कर भी क्या सकते हो?
धरती के मटमैले तलछट के भीतर-बाहर
कितनी भूख, कितनी प्यास
निरंतर रोटी की तालाश
हाथ में रोटी आने पर
उसे खाने के लिए दौडोगे तुम
उसी पल छिन सकती है रोटी तुम्हारी
मुट्ठी को कसकर भींचो
नहीं तो कोई और छीन लेगा रोटी तुम्हारी
तब तुम्हारा पेट नहीं
किसी और का आसमान जगमगायेगा।
रोटी छीनने वाला कहीं दिखायी नहीं देगा
तुम अकेले खड़े रह जाओगे उस पल
जब रोटी सेंकी जा रही होंगी तंदूर में
और टेबल सजायी जा रही होगी
तुम्हारा ध्यान तो उस गोल-गोल रोटी पर होगा
मगर तुम अकेले होगे उस वक्त
कुछ नहीं कर पाओंगे तुम
क्योंकि भूखे पेट कोई कर भी क्या सकता है?
2 -रोटी
क्या है रोटी?
रोटी में इतनी ताकत क्यों है?
दो रोटी की जुगत में भटकी है दुनिया
ये अनगिनत दागों वाली रोटी
असंख्य दुख देती है रोटी
अनंत भूख मिटाती है रोटी
मज़दूर जब भूखा सोता है
तब हंसती है रोटी
बच्चा जब मांगता है रोटी
तब ही मुस्कुराती है रोटी
हाथ को लम्बा कर
छूने के प्रयास में हैं जो
उनसे दूर भागती है रोटी
कटीले तारों से बंधी रोटी
हर किसी को मय्यसर नहीं होती रोटी
क्या-क्या दिन दिखाती है रोटी
रोटी-रोटी करता, रोटी को चाहने वाला
चूमता है रोटी
सूंघता है रोटी
रस्सी पर नट जैसे नाच नचाती है रोटी
फिर भी हम कहते हैं बस
मिल जाए रोटी, रोटी, रोटी।
3 - अंधेरे में चहलकदम
अब सब चुप हैं
चारों ओर आग
द्वेष, धड़-पकड़
बंदूक बलात्कार
जेल, विरोध
घटाटोप अंधेरा
कौन हंसा यहां
एक दबी हुई हंसी
वो चुप रहकर तमाशा देखने लगे हैं
हंसा वो जिसे मरने का डर नहीं
चुप है वह
जिसे करनी है अपने मन की
सारी हवा, पानी
पेड़, जमीन किसके हैं
जिनकी बाहों पर गुदे हैं नाम
उनके पतियों के
जो जा चुके हैं अंधेरे में
उनके सत्तासीन होते ही
शर्म से झुक गई हैं आंखें जिनकी
चाल में है मंदी
ये हमारे कल का भविष्य हैं
जो भारी क़दमों से कर रहें हैं चहलक़दमी
हाथ खाली हैं इनके
फिर भी अंधेरों में चमक रहीं हैं आंखें इनकी
क्या पता कब तख़्ता पलट हो जाए।
4 - समय
सड़कों पर चीटियों से
बेशुमार आदमी
सब चुप्प
अपने में गुम
कोई नहीं बोलता किसी से
सारे हैं बेदम, भौचके, घबराये से
कोई नहीं खोलता स्वयं को
सभी चले जा रहे हैं/पता नहीं कहां
समय चलता हुआ तेजी से
ठेलता हुआ आदमी को
फिर आदमी चला जाता है पता नहीं कहां
कहते हैं समय भाग रहा है
लेकिन समय नहीं आदमी भाग रहा है
न समय रुकता है न ही आदमी
बस रुक जाती है नियति
फिर इंसान देखता रह जाता है
और समय निकल जाता है दूर
हाथ खाली, खेल ख़त्म।
(1 मार्च 2016 12.30 ए एम)
5 - अब छोड़ो सब कुछ
अब छोड़ो कुछ दिन तुम
ये घर के बर्तन, कपड़े
खाना पकाना, पानी भरना
बिस्तर लगाना
हर रोज तुम बढ़ रही हो
मृत्यु की ओर हौले हौले
कौन मनाता है तुम्हारा जन्मदिन
कौन देता है तुम्हें पुष्प गुच्छ
कौन करता है तुम्हारा स्पर्श
कौन देता है तुम्हें सांत्वना
जब खाना पकाते समय
तुम्हारे हाथ पर घी की गर्म
छींट पड़ जाती है
तुम जल जाती हो
तब कमरे में जा कर
छुपा लेती हो आंख के आंसू
या बाथरूम में जाकर
जले पर बहाने लगती हो पानी
तब पानी के साथ
बह जाती हैं तुम्हारी
सारी आशायें आकांक्षायें
और वो कमरे में बैठे गिन रहे हैं रूपये
हालांकि उन्होंने सुन ली है चीख तुम्हारी
फिर भी वो नहीं उठते
इसलिए छोड़ो दूसरो के लिए जीना
कल मर गई तो परसों दूसरा दिन
कोई नही पूछेगा, कौन थी
इसलिए कुछ देर तो जियो
कम से कम अपने लिए।
6 - अस्तित्व
झूठ कहते हो तुम
कि स्त्रियां डर गई तुमसे
तुम्हारी ही इज्जत की खातिर
छोड़ दिया हमने सपने देखना
हमने टांग दी अपनी इच्छायें
किसी बूढ़े बरगद पर
ताकि बरगद की जटाओं की तरह
बढ़ते रहें सपने तुम्हारें
और मरती रहें आकांक्षायें हमारी
लेकिन तुम कब बरगद बनोगें
क्या यह झूठ था
कि तुम अपनी छाया में पोषित करोगे हमें
तुम तो कोई भी वचन पूरा न कर सके
हमसे वचन की उम्मीद लगा बैठे हो तुम
सात फेरों की अग्नि में
स्वाहा क्यों नहीं कर देते
तुम अपने पुरूष रूपी अहं को
कब तक पालोगे इसको
आस्तीन के सांप की तरह
हम तो हमेशा ही देते रहे
सिर्फ तुम्हारी इज्जत की ख़ातिर
बलि अपने अस्तित्व की।
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