नाम -पारुल बंसल
शिक्षा- कॉमर्स विषय से स्नातकोत्तर
जन्म स्थान – वृंदावन
विधाएं – कविताएं, कहानियां ,लेख
प्रकाशन – आरंभ उद्घोष साझा काव्य संकलन, लघुकथा कलश साझा संग्रह, साहित्यनामा पत्रिका,अमर उजाला रूपायन, परिंदे पत्रिका ,अखंड भारत पत्रिका, दोआबा पत्रिका,संगिनी, गृहशोभा, सरस सलिल पत्रिका, दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, श्रीराम एक्सप्रेस, अमेठी पथिक, राग दिल्ली वेबसाइट, हम हिंदुस्तानी यूएसए सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन एवं मथुरा आकाशवाणी से संलग्न…..
सम्मान- निर्झर साहित्यिक संस्था कासगंज (सुकवि जय मुरारी लाल सक्सेना “अजेय”) द्वारा सम्मानित
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कविताएं
१- काश! ईश्वर तुम एक झपकी ले लेते
करना है बोझ हल्का दिल का
उनका और अपना
बताना है कुछ उन सभी प्रतीक्षारत प्रेमियों को
ऱुख्सती से पहले
कि क्यों मैंने उनके प्रणय निवेदन से
लबरेज़ ख़त को कोमल कंंवलों का
स्पर्श भी ना होने दिया
जतानी है कर्क रेखा को
पार न कर पाने की विवशता
दो तिहाई सागर को
न लांघ सकने की अक्षमता
क्योंकि मेरे कांधों पर ओढ़नी थी
दो कुलों के मान की
जिसकी उष्णता में भभक रही थी मैं
मेरे हाथों में मर्यादा की बेड़ियां थी
जिनकी रगड़ से ज़ख्मी हो रही थी मैं
मेरी देह को डस रहे थे वो तमाम सर्प
जिन का डसा पानी भी नहीं मांगता
काश! उस वक्त मैंने ईश्वर को
थपकी देकर सुला दिया होता
और ईश्वर ने एक झपकी ले ली होती
और तुम्हारा निवेदन मैंने
स्वीकार कर लिया होता…..
२-मत्स्य पीड़ा
सागर के इस खारे जल की गुनाहगार
वो असंख्य मछलियां हैं
उनके क्रंदन ने समस्त नदियों के जल को
खारयुक्त कर दिया …
हे मत्स्ये!
तुम्हारे दुःख का
अंदाजा लगाना भी मुश्किल
इतनी वेदना देने वाले को कभी कोसा नहीं?
क्या अश्रुओं से आए उफ़ान ने
कभी उनके घर को डुबोया नहीं …?
क्यूं तुमने अपने अश्रु
शिव की जटाओं से नहीं बांधे?
उनके क्रोध में धधककर
उड़ जाते भाप बन ….
नहीं होता जल खारा पयोधि का
तुम्हें नहीं सहना पड़ता
यह दंश बार -बार
हां हर बार …
तुम्हारे रुदन का कारण अज्ञात है
मुमकिन है कोई गोताखोर ही इसकी
खोज कर सकें।
३- रैन बसेरा
स्त्री चौके में सिर्फ रोटियां ही नहीं बेलती
बेलती है अपनी थकान
पचाती है दुख
सेकती है सपने
और परोसती है मुट्ठी भर आसमान
स्त्री चौके में …..
रात को बेलती है पति का बिस्तर
घोलती है उनकी थकान
भरती है श्वांसों में उजास
और ऊर्जान्वित करती है अल सुबह
गढ़ चुंबन सूरज को
स्त्री चौके में …..
वह बुहारती है आसमान
लीपती है धरती
सिलती है लंगोट आसमान का
और चोली धरती की
संवारती है केश नदी सी नव वधू के
स्त्री चौके में……
पीसती है अपनी इच्छाएं
फेंटती है समस्त ब्रह्मांड
तलती है पकौड़े भांति-भांति के
जीवित रखती है अन्नपूर्णा को
स्त्री चौके में…….
४-शिकायती पत्रिका पेटी
मुझे इल्म है
तुम्हें लगता है उबाऊ, नागवार
और अनचीता
मेरा यूं बेलगाम होकर
दुख -सुख की खाई पाटता
वृत्तांत सखियों से बतियाना
खगवृंदों से पैगाम भेजना
तितली संग उड़ना
और पौ फटने पर बिछौना ना छोड़नाा
तुम्हारे इस “शिकायती प्रार्थना -पत्र “को
मन की दुछत्ती पर पड़ी
“शिकायती पत्रिका पेटी” में
बिना टिकट चस्पा किए
प्रेषित कर दिया है….
५-क्षणिकाएं
१-प्रेम कब आया
कब गया
इसका भान ही ना हुआ
इसके पांव में घुंघरू
बंधे होने चाहिए
२-प्रेम को प्रेम ही रहने दो
व्यापार के लिए और
बहुत कुछ है
३-प्रेम पगी बातें हैं
कहीं अधिक मिश्री से भी मीठी
आशंका है श्रवण मात्र से
मधुमेह की
४- प्रेम है या नहीं
इसका निर्धारण उतना ही कठिन
जितना दर्पण की सच्चाई
५-प्रेमपाश में बंदी को
उम्रकैद नसीब होना
ईश्वर की झोली में
छेद हो जाने -सा है
६- छोटी बच्ची को
खिलखिलाते देख
प्रेम ने खुद पर नाज़ किया
मैं अभी जिंदा हूं…..
७- प्रेम ने मुझे इस तरह पोसा
अब कांधे पर ही बिठा लिया है…..
६-क्षणिकाएं
१-सुनो स्त्री!
दिल के तहखाने में दफ़न
गड़े मुर्दे ना उखाड़ना
अन्यथा संख्या दुगनी हो जाएगी
२-जिस दिन तुम कंटीले रास्ते का नक्शा
मेरे दिल का ढूंढ लोगे
दुनिया की तमाम स्त्रियों के लिए
नज़ीर बन जाओगे
३-गर हासिल होता हुनर मापने का
नाप लेता गहराइयां समुद्र की
या होता कोई मापक यंत्र
तो जांच लेता सागर से भी गहरी
गहराइयां स्त्री मन की
४-मेरे होठों की सीवन
जिस दिन उधड़ जाएगी
तुम्हारी जिंदगी फटे हाल हो जाएगी
५-अपनी पोशाक को इस्त्री करती स्त्री
बेखबर है इतर रखी
अंतर्मन की सिलवटों से
६- रखती है स्त्री एक प्रगाढ़ चुंबन
अल सुबह अपने घर के
सूरज के माथे पर
७- स्त्री वह जिल्द नहीं
जो क्षीण होने पर बदल ली जाए
८- स्त्री एक जंग लगा ताला
जरूरत पर सबने तेल डाला
और वो काम करती रही
पारुल हर्ष बंसल
कासगंज उत्तर प्रदेश
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