Thursday, September 18, 2025

मनीषा झा

अध्यापन एवं लेखन ।

1995 से कविता तथा समीक्षा का लेखन और प्रकाशन। 

50 से अधिक साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं में  कविताएं एवं समीक्षाएं प्रकाशित। 

प्रकाशित पुस्तक —

कविता संग्रह  :  1.शब्दों की दुनिया,  2.कंचनजंघा समय 

आलोचना : 1.प्रकृति, पर्यावरण और समकालीन कविता 2.कविता का संदर्भ  3.समय , संस्कृति और समकालीन कविता 4.साहित्य की संवेदना 

अनुवाद : बांग्ला उपन्यास ‘सोनार दुआर’ का हिंदी अनुवाद ‘सोने का दरवाजा ‘

संपादित दो पुस्तकें। 

साहित्यिक पत्रिका ‘समकालीन सृजन’ (कोलकाता) में छह वर्षों तक संपादन सहयोग तथा उत्तर बंग वि वि. की शोध पत्रिका ‘संवाद ‘का दस वर्षों तक संपादन ।

संप्रति : उत्तर बंग विश्वविद्यालय, सिलीगुड़ी,जिलादार्जिलिंग के हिंदी विभाग में प्रोफेसर। 

 

संपर्क : डाॅ. मनीषा झा 

हिंदी विभाग, उत्तर बंग विश्वविद्यालय, 

राजा राममोहनपुर, सिलीगुड़ी, 

जिला – दार्जिलिंग – 734013

पश्चिम बंगाल 

मो नं. – 9434462850

ईमेल – manisha_nbu@yahoo.com

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देवता बूढ़े नहीं होते

देवताओं की बाल तस्वीर कितनी मोहक लगती है! 
उनकी युवा छवि के क्या कहने 
वे पवित्र गरिमाएं बस जाती हैं सीधे हृदय में
हमने नहीं बनाए कभी 
किसी देवता की बूढ़ी तस्वीर 
 
हम रखते हैं अपने देवताओं को जवान 
रूप और आभा से जाजल्वमान
अस्त्र -शस्त्रयुक्त वरमुद्राधारी 
सुखकारी और दुखहारी 
 
बचपन बहता सचपन लेकर
जवानी है जीवन का वरदान 
बुढ़ापा नाम है निष्क्रियता का
 
सहारा ढ़ूंढ़ता एक निर्बल तन 
अनुभव संचित हो बनता सबसे बड़ा धन
परिस्थितियों की आंच में सिंका मन
बुढ़ापे के मस्तिष्क में चलता कोई विचार 
सोते -जागते अनवरत 
 
देवता ऐसे तो नहीं होते! 
हमने खूब गढ़े देवताओं के चित्र
बाल और युवा रखकर
खूब पूजा उन्हें 
 
जब अनचाहा आगंतुक  है बुढ़ापा 
जिसके आने से पहले 
बेहतर है आत्मा का प्रस्थान
फिर क्यों बनाते हम देवताओं की बुढ़ाई छवि
 
बुढ़ापा शरीर की गति है 
जो आ ही जाती है देर -सबेर
न चाहकर भी हो जाते हम बूढ़े
हम जिन्हें पूजते 
वे देवता कभी बूढ़े नहीं होते !
** मनीषा झा

सुख की तारीख

सुख लेना हो तो लग जाओ 
कतार में जल्दी -जल्दी 
वह शामिल हो गई अपना फटा हुआ दुःख लेकर 
कतार में जहाँ 
पहले से खड़ी थी स्त्रियां
अपना -अपना दुःख लेकर
 
लिख लो इस कागज की पर्ची में 
सब कोई अपना -अपना दुःख और सौंप दो हमें
एक- एक चिरकुट थमाते हुए उन्होंने कहा था 
लिखने लगी हर स्त्री अपना -अपना दुःख 
 
वे एक -एक कर लेते जा रहे थे दुःख से भरा चिरकुट
कहते जा रहे थे रुके रहना तुम लोग
बताया जाएगा सबसे अंत में सुख लेने आने की तारीख 
 
वे सब पर्चा थमा देने के बाद जमा होती जातीं 
एक बरगद की छाँव में 
इतने में भर गया वह मंच दुःख के चिरकुटों से
वे खोल- खोल कर तहाने लगे सब पुर्जे
 
लिखा था किसी ने 
बस के इंतजार में खड़ी मनचले द्वारा 
फब्ती सहने का अपमान 
यह कस्बाई युवती का रोजमर्रा का दुःख था
किसी ने लिखा था बाहर- भीतर कामुक नजरों से हिंसा की बात 
जवान होती स्त्री बड़े संकोच से लिख पाई थी यह दुःख 
 
एक दुःख था बुरी तरह पिटने का 
पियक्कड़ पति द्वारा 
लिखा था विस्तार से कि घर -घर जाकर चौका- बर्तन 
अपनी मेहनत की कमाई से करती है परिवार का पोषण 
मगर एक चुटकी सिंदूर की लालच में 
जमा हो गए थे तरह -तरह के दुःख
 
एक दुःख था जो उपजा था 
घर से बाहर कर देने की धमकी से 
एक दुःख था पेट भर खाने के लिए कुछ भी कर जाने की विवशता का
 
एक दुःख बलात्कार के कारण सिसक रहा था 
एक दुःख दंगों की दहशत से भरा था
एक दुःख पैदा हो गया था दो स्त्रियों को 
लड़वा देने से 
 
इतने तरह के दुःखों को देखकर
वे चकरा गए घबड़ा गए 
जिन्हें सह रही थीं स्त्रियां सदियों से 
 
फिर स्त्रियों की भीड़ को संबोधित कर उन्होंने कहा
दुःख लिखने की जगह ये? 
ये सब क्या लिखा है तुम लोगों ने
भला ये भी कोई दुःख है? 
 
तुम सब जाओ अब अपने -अपने रास्ते 
यहाँ से नहीं इश्यू होगी 
अब सुख की कोई तारीख। 

 

यहाँ से देखो

यहीं रहो न 
क्या जरूरत है चाँद पर जाने की 
यहाँ से देखो, मेरे पास आकर 
कितना सुंदर दिखता है चाँद 
 
मैंने सुना उस आदमी के बारे में 
जो बार बार पहुंच जाता था चाँद पर 
वह जीतना चाहता था चाँद
 इस नशा में वह 
दिखने लगा था एक खूंखार एलियन 
 
कुछ चीजें अच्छी लगती हैं 
अपने ही स्वभाव में
जैसे कि पृथ्वी 
जैसे कि सूरज 
जैसे कि तारे
जैसे नक्षत्र सारे 
 
कुछ रहस्य रहस्य ही रहता है 
तो बनी रहती है उत्सुकता 
जीने में
 
करो हिफाजत 
एक -एक कर उनकी
बात मानो
 
सुनो 
चाँद को चाँद ही रहने दो 
कितना सुंदर दिखता है चाँद 
यहाँ से देखो, मेरे पास आकर। 
**
मनीषा झा 
सिलीगुड़ी 
मो नं — 9434462850

रोजगार

और भोर होते ही कुछ लड़कियां
कुछ महिलाएं
चुनने आ जाती हैं ढेकी साग
पहाड़ी घास -पात के घने जंगल में
चुनती रहती हैं सुबह के
सात-आठ तक
 
मजबूरी उनके खून में उतरता है साहस बनकर
धंस जाती हैं वे
सांप-कीड़ों, मूस-छुछुंदर और
नेवलों से भरे जंगल में
 
लगन से खोजतीं
जल्दी जल्दी हाथ चलातीं
पैर बढ़ातीं
वे चुनती हैं ढेकी साग
 
सूर्य जब उठने लगता आकाश में
वे आ जातीं जंगल से
बनातीं मुट्ठी साग के जल्दी- जल्दी
 
बाजार लग चुका होता है तब तक
वहीं बैठना होगा
सुस्ताना होगा वहीं
साग की मुट्ठी सामने रख कर
 
जो बिकेगा तो बनेगा भात
नहीं बिकेगा तो पकेगा साग
केवल ढेकी साग
 
कल भात मिलने की आशा में
फिर आएंगी वे लड़कियां
वे महिलाएं
चुनने को ढेकी साग
 
वे आएंगी,आती रही हैं
ऐसे ही कटता जाता है दिन- पर -दिन
यही उनका रोजगार है
 
ऐसे ही निभाती हैं वे
जीने की शर्तें।

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