Friday, November 22, 2024
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क्या आप देवप्रिया जी को जानते हैं?

देवप्रिया की अज़ीब दास्तान
विनोद भारद्वाज
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अब तक आपने हिंदी के करीब तीस नामी गिरामी लेखकों की पत्नियों की दास्तान पढ़ी।इनमें कई समकालीन लेखक भी शामिल हैं।ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, इब्बार रब्बी के बाद आप पढ़िये सुप्रसिद्ध हिंदी कवि, कला एवम फ़िल्म समीक्षक तथा उपन्यासकार विनोद भारद्वाज की पत्नी देवप्रिया जी के बारे में जो कैंसर से लड़ते हुए इस दुनिया से विदा हो गयीं।
विनोद जी” दिनमान” जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में काम कर चुके हैं जिसने हिंदी पत्रकारिता में एक नया मानदंड स्थापित किया था। विनोद जी कुंवर नारायण रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा जैसे यशस्वी कवियों के आत्मीय मित्र रहें हैं।एक जमाने में उन्होंने अपनी युवा अवस्था में “आरम्भ” जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका निकाली जिसमें धूमिल , जगूड़ी जैसे लेखकों की आरंभिक कविताएं छपी थीं। पिछले दिनों विनोद जी के संसरणों की किताबें काफी पसंद की गईं। “स्त्री दर्पण” के अनुरोध पर उन्होंने अपनी पत्नी के बारे में बड़े मनोयोग से लिखा है और शिद्दत से उन्हें याद किया है।
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मेरी पत्नी स्व.देवप्रिया के बारे में मेरे अलावा मेरे दो घनिष्ठ मित्र—विष्णु खरे या मंगलेश डबराल ही लिख सकते थे।दुर्भाग्यवश वे दोनों अब हमारे बीच नहीं हैं।वर्ष 2001 में 22 नवंबर को कैन्सर से भयावह लड़ाई के बाद देवप्रिया का निधन हुआ था।वे दिवाली के दिन थे।उसके बाद मैं दिवाली कभी न मना सका।जाने क्यूँ देवप्रिया मौत से अपनी लड़ाई(कैन्सर को आख़िर डेथ वॉरंट भी कहा जाता है)को तीस नवंबर तक किसी तरह से खींच लेना चाहती थी।उस दिन हमारे विवाह के पच्चीस वर्ष पूरे हो जाते।लेकिन उसे आठ दिन और न मिल सके।उसके चौथे की औपचारिकता पर मंदिर में उसके बारे में कोई पंडित नहीं बोला था,महा पंडित विष्णु खरे ने बहुत मार्मिक ढंग से देवप्रिया को याद किया था।अपने निधन से दो साल पहले विष्णु खरे ने एक मुलाक़ात में मुझे भावुक हो कर बताया था कि उन्हें सपने में देवप्रिया दिखी थी।विष्णु खरे की पत्नी कुमुद और देवप्रिया में इतनी दोस्ती हो गयी थी कि साहित्यिक मित्र उन्हें सगी बहनें समझने लगे थे।
देवप्रिया से मेरा विवाह 30 नवंबर,1976 को दिल्ली में हुआ था।मैं विवाह से पहले एक बड़े साहित्यकार की बेटी के प्रति आकर्षित था।विष्णु खरे मुझे बराबर उस अधूरे रिश्ते को पूरा करने की सलाह देते थे।मैं जब “दिनमान “में 1973 के अंत में स्टाफ़ में शामिल हुआ,तो मैं ही अकेला अविवाहित व्यक्ति था।टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लायब्रेरीयन मेरे पास देवप्रिया के पिता को ले कर आए।वह उन दिनों अपनी इकलौती बेटी के लिए रिश्ता खोज रहे थे।देवप्रिया के चार भाई हैं।घर में वह सबसे बड़ी थीं।उससे छोटा भाई एक बड़ा डॉक्टर है जो बरसों से मलेशिया में रह रहा है।पिता सरकारी नौकरी में थे,संस्कृति प्रेमी थे जैसा देवप्रिया नाम से ही स्पष्ट है।वह थानाभवन,उत्तर प्रदेश के निवासी थे।दिल्ली में सरकारी नौकरी में साधारण कर्मचारी थे।पर बच्चों को उन्होंने अच्छी शिक्षा दी।
देवप्रिया का जन्म दिल्ली में हुआ—18 अक्तूबर 1950 को। वह मुझसे दो साल छोटी थी।कॉलेज में वह नृत्य आदि के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थी।पुरस्कार में उसे एक बार श्रीकांत वर्मा का कहानी संग्रह मिला था जो उसने संभाल कर रखा हुआ था।वह किताब आज भी मेरे पास है।लेकिन जब उसके पिता मुझसे पहली बार मिलने आए,तो मैं अपने अधूरे प्रेम में आकंठ डूबा हुआ था।मैंने उनसे फ़ोन नम्बर ले लिया।तीन महीने बाद जब मुझे प्रेम का हल्का झटका लगा,तो मैं फ़ोन करके देवप्रिया से मिलने सरोजिनी नगर उसके घर गया।मैं एक पंजाबी परिवार का था,मेरे पिता बैंक कर्मचारी थे जो विभाजन से पहले लखनऊ आ गए थे।देवप्रिया के पिता को मुझ पर कुछ शक हुआ कि यह इतने दिनों बाद अचानक क्यूँ मेरे घर देवप्रिया से मिलने आया।वह एक और लड़का देख रहे थे जो होटल मैनज्मेंट का था।पर देवप्रिया ने एक लेखक को ही चुना।वह खुद लिखती नहीं थी पर साहित्य-संस्कृति में उसकी गहरी रुचि थी।उसने मुझे हमेशा लेखन कार्य में मदद की।उन दिनों श्रीकांत वर्मा मेरे घर आते थे,उसे यह सब देख कर अच्छा लगा।मेरी एक पड़ोसन अभिनेत्री थी।उसने देवप्रिया को सलाह दी,ये लेखक बड़े रोमांटिक होते हैं,ज़रा ध्यान रखना।देवप्रिया पर जाने क्यूँ मुझ पर अंत तक भरोसा करती रही।वह घूमने की शौक़ीन थी।मेरे साथ रूस में उसने अपने जीवन के सबसे अच्छे दस दिन बिताए थे।मेरी कॉलोनी में वह वर्किंग क्लास में बहुत लोकप्रिय थी क्यूँकि वह उनके बहुत कामों में मदद करती थी।उसके निधन पर वे सब खूब रोयीं।उस ब्यूटी पार्लर का सारा स्टाफ़ अंत्येष्टि में आया जहाँ अंतिम दिनों में वह मैनेजर थी।पार्लर की मालकिन मेरी कहने को मेरी दोस्त थीं।पर स्टाफ़ के इस फ़ैसले से वह नाराज़ थीं।
मेरे घर पर देवप्रिया की कई तस्वीरें लगी हुई हैं।किसी पर भी कोई हार नहीं लगाया गया है।इक्कीस साल बाद भी मुझे यही लगता है कि देवप्रिया शायद कहीं गयी हुई है।वह लौट भी सकती है।वह जब थी,तो दिवाली पर लक्ष्मी पूजन करती थी।मैं भी साथ बैठ जाता था।ये वो दिन थे जब पूजा के बाद मृणाल पांडे सरीखी किसी मित्र का फ़ोन भी आ जाता था,दिवाली की शुभकामनाओं के साथ ।अब तो मैं जानता ही नहीं कि दिवाली पर लक्ष्मी पूजन क्या होता है।जब तक वह जीवित थी,हम मध्यवर्गीय उदासी और ख़ुशी का जीवन जी रहे थे।मैं कम वेतन में भी किताबों पर,रेकर्ड्ज़ आदि पर कुछ ज़्यादा ही पैसा खर्च कर देता था।पर देवप्रिया ने कभी प्रोटेस्ट नहीं किया था।उसके निधन के बाद कला बाज़ार में रौनक़ आ गयी,और मेरे पास जो थोड़ी बहुत कलाकृतियाँ थीं,वे महंगी हो गयीं।मैं दुनिया की सैर कर सका।भावुक क़िस्म का तर्क तो यही कहेगा कि देवप्रिया के लक्ष्मी पूजन ने मुझे कुछ अच्छे दिन दिखाये हैं।
मेरे समय के कई बड़े लेखकों ने अधिक सुंदर ,कम उम्र,अधिक साहित्यिक प्रेमिका मिल जाने के बाद अपनी पहली पत्नी को बेरहमी से छोड़ दिया था।अभी मनीषा कुलश्रेष्ठ ने कांता भारती का आत्मकथा प्रधान उपन्यास” रेत की मछली “पढ़ने के बाद धर्मवीर भारती की” कनुप्रिया” को फेंक देने की बात लिखी थी।भारती जी और पुष्पा भारती के मधुर संबंधों को मैं एक-दो बार उनके घर जा कर ख़ुद देख सका हूँ।उसकी चर्चा एक अलग स्पेस माँगती है।पर मैं देवप्रिया से विवाह के बाद किसी बेहतर स्त्री के जीवन में आ जाने के बाद भी अपनी पत्नी को छोड़ देने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था।एक चितेरी सुंदरी ने मुझे देवप्रिया के रहते हुए एक पत्र में लिखा था कि आप कहते हैं कि देवप्रिया से आपके अच्छे संबंध हैं,लेकिन क्या वे मधुर हैं?
अच्छे रिश्तों में मधुरता टॉर्च ले कर खोजनी नहीं पड़ती है।एक बार एक युवा पत्रकार से मेरी मित्रता के खूब चर्चे हुए।मंडी हाउस में मित्रों ने कई बार मुझे उसके साथ घूमते देखा था।मंगलेश जी ने देवप्रिया को फ़ोन किया और सावधान रहने की सलाह दी।देवप्रिया ने हँस कर कहा,मुझे इस बात की कोई चिंता नहीं है।यादनामा में मैंने लिखा भी है, वह ईर्ष्याप्रूफ़ थी।मेरे एक युवा संस्कृतिकर्मी की पत्नी ने इस ईर्ष्याप्रूफ़ पहचान की खूब तारीफ़ की थी।
विवाह से पहले दिनमान के मेरे बॉस और प्रिय कवि रघुवीर सहाय के पुत्र वसंत एक बार मेरे घर आए।मैं एक लंबी सिम्फ़नी सुन रहा था।वसंत ने मुझसे कहा,शादी के बाद आपकी पत्नी को मुश्किल हो जाएगी आपके बीहड़ शौक़ जान कर।लेकिन देवप्रिया में बुनियादी सांस्कृतिक गुण थे।उसने धीरे-धीरे उन्हें और परिष्कृत किया।
मंगलेश जी लंबे समय तक हमारे घर के पास ही रहते थे।घर आना-जाना था।प्यारे इंसान थे।एक बार किसी दूतावास की पार्टी की तरंग में मेरे घर के सामने मुझे छोड़ते हुए बोले,विनोद जी ,देवप्रिया से मुझे प्रेम है।फिर कुछ रुक कर बोले,पर मेरे प्रेम में कोई वासना नहीं है।यह संस्मरण मैं तब लिख चुका हूँ,जब मंगलेश जी जीवित थे।
पर मेरी निजी धारणा यह है कि वासना का कुछ प्रतिशत प्रेम में होता ही है—भले ही वह दो प्रतिशत क्यूँ न हो।
देवप्रिया के निधन के बाद मैं दूसरी शादी के बारे में कभी न सोच सका।मेरा इकलौता बेटा जापान में माँ को खोने के बाद पंद्रह साल बिता चुका है।उसने शुरू में मुझसे कहा,मैं तो बहुत दूर रहूँगा।चाहो तो तुम दूसरी शादी करवा लो।एक चित्रकार मित्र ने विवाह का प्रस्ताव भी रखा।पर मेरी हिम्मत नहीं हुई।
आज भी कम उम्र की लेखिका से अच्छी मित्रता हो जाए,तो ये बातें सुनने को मिलती हैं कि मैं विवाह की सोच रहा हूँ।मुझे कुछ हंसी भी आती है,एक पाँव कब्र में हों,तो शादी की कोई मूर्ख ही सोच सकता है।ख़राब रिश्ते को ज़बरदस्ती झेलने के पक्ष में मैं क़तई नहीं हूँ।पर अच्छे रिश्ते को पच्चीस साल बिताने के बाद उसकी जगह शायद ही कोई ले पाए।पर आज भी दोस्तियों में प्रेम का हल्का स्पर्श कोई गुनाह तो नहीं है।वैसे प्लेटोनिक लव को मैं आज भी एक मिथ मानता हूँ।
आज “स्त्री दर्पण” के लिए देवप्रिया की तसवीरें खोज रहा था।उसकी एक तसवीर मिल गयी।विवाह की।ब्लैक एंड वाइट।दुल्हन के रूप में। इस तसवीर ने मुझे उदास कर दिया।देवप्रिया आज भी है मेरे कमरे में मुस्कराती हुई मेरी स्मृति में है।”लेखकों की पत्नियां “शृंखला ने आज उसकी स्मृति को एक बार ताजा कर दिया।
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