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अनुराधा सिंह की कविताएँ
प्रेम का समाजवाद
दलित लड़कियाँ उदारीकरण के तहत छोड़ दी गयीं
उनसे ब्याह सिर्फ किताबों में किया जा सकता था
या भविष्य में
सवर्ण लड़कियाँ प्रेम करके छोड़ दी गयीं
भीतर से इस तरह दलित थीं
कि प्रेम भी कर रही थीं
गृहस्थी बसाने के लिए
वे सब लड़कियाँ थीं
छोड़ दी गयीं
दलित लड़के छूट गए कहीं प्रेम होते समय
थे भोथरे हथियार मनुष्यता के हाथों में
किताबों में बचा सूखे फूल का धब्बा
करवट बदलते जमाने की चादर पर शिकन
गृहस्थी चलाने के गुर में पारंगत
बस प्रेम के लिए माकूल नहीं थे, सो छूट गए
निबाहना चाहते थे प्रेम, लड़कियाँ उनसे पूछना ही भूल गयीं
लड़कियाँ उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं
जो उन्हें प्रेम करके छोड़ देना चाहते थे।
ईश्वर नहीं नींद चाहिए
औरतों को ईश्वर नहीं
आशिक़ नहीं
रूखे फ़ीके लोग चाहिए आस पास
जो लेटते ही बत्ती बुझा दें अनायास
चादर ओढ़ लें सर तक
नाक बजाने लगें तुरंत
नज़दीक मत जाना
बसों ट्रामों और कुर्सियों में बैठी औरतों के
उन्हें तुम्हारी नहीं
नींद की ज़रूरत है
उनकी नींद टूट गयी है सृष्टि के आरम्भ से
कंदराओं और अट्टालिकाओं में जाग रहीं हैं वे
कि उनकी आँख लगते ही
पुरुष शिकार न हो जाएँ
बनैले पशुओं/ इंसानी घातों के
जूझती रही यौवन में नींद
बुढ़ापे में अनिद्रा से
नींद ही वह कीमत है
जो उन्होंने प्रेम परिणय संतति
कुछ भी पाने के एवज़ में चुकायी
सोने दो उन्हें पीठ फेर आज की रात
आज साथ भर दुलार से पहले
आँख भर नींद चाहिए उन्हें।
मरने के कारगर तरीके
वापस न आना चाहो तो
एक स्पर्श में छोड़ आना खुद को
एक आँख में दृश्य बन कर ठहर जाना वहीं
जीवित रहने के इतने ही हैं नुस्ख़े
चकमक पत्थर से नहीं
दियासलाई से जलाते हैं अब आग
नष्ट होने का सरलतम उपाय अब भी प्रेम है
वह भी न मार सके
तो एक डाह अँगीठी में
सुलग बुझना
हिंसा से न मारे जाओ
तो धोखा खा कर मर जाना
प्रतीक्षा से मिट जाना असंभव लगे तो
तो संभावनाओं में नष्ट हो जाना
एक दिन भीड़ में ख़त्म करना खुद को
शोर में खो जाना
जब मरने के परंपरागत तरीके नाक़ाम हो जायें
तो खुद को जीने में खपा देना
औरतें गालियों से घट रही हैं यह एक सपना है
आदमी का अपने समय से घट जाना है दुःस्वप्न……..
पाताल से प्रार्थना
(साल २००६ में जब कन्या भ्रूणहत्या जोर-शोर से हिंदुस्तान भर में ज़ारी थी, पंजाब के पटियाला करनाल तथा हरियाणा के सिरसा में कुछ निजी अस्पताल दर्ज हुए जिनके पिछवाड़े सोद्देश्य खोदे गए कुओं में से सैकड़ों की तादाद में अजन्मे कन्या भ्रूण और नवजात बच्चियाँ बरामद हुईं.)
सिरसा पटियाला और करनाल में
बच्चियाँ कुओं में गिर पड़ीं हैं
हालाँकि उन्हें जन्म लेने में कुछ घंटे दिन या महीने
शेष थे अभी
सबसे बड़ी की उम्र
दो घंटे बारह मिनट है
दादी जन्म के दो घंटे बाद पहुँच पायी थी अस्पताल
इस बीच पी चुकी थी वह दूध एक बार
गीली कर चुकी थी कथरी दो बार
लग चुकी थी माँ की छाती से कई- कई बार
अब कुएँ भर में सिर्फ वही पहने है
एकपाड़ घिसी चादर
चूँकि जन्म ले चुकी थी मरते वक्त
अब उसे ही है आवरण का अधिकार
सिरसा पटियाला और करनाल में
बच्चियाँ कुओं से बाहर आकर
जन्म लेना चाह रही हैं
शेष इच्छाएँ गौण हैं
सबसे पहले उन्हें बाक़ायदा पैदा किया जाये, ससम्मान
उनकी नालें जुडी हैं अब भी नाभि से
वे उन्हें रस्सी बना कुएँ से बाहर आना चाह रही हैं
वे उन्हें आम की शाख पर डाल झूला पींगना चाह रही हैं
वे उन रस्सियों पर गिनती से कूदना चाह रही हैं
सिरसा पटियाला और करनाल में
कुछ बच्चियों के फेफड़े नहीं बने अभी
हवा और रोशनी की प्रार्थना गा रहीं हैं समवेत
जबकि उन्हें पता है
आसमानों का ईश्वर पाताल के बाशिंदों की नहीं सुनता
कुछ के पाँव नहीं बने अभी, कुछ की उंगलियाँ
कुओं से बाहर आ पंक्तिबद्ध
अस्पतालों में जाना चाहती हैं
आँखें अक्सर बंद हैं सबकी
फिर भी देखना चाहती हैं सोनोग्राफी मशीनें
ऑपरेशन थिएटर, फोरसेप्स और नश्तर
छूना चाहती हैं ग्लिसरीन के इंजेक्शन,
सीसा, गला घोंटने वाली उंगलियाँ
करना चाहती हैं ज़रा ताज्जुब
कितना लाव- लश्कर खड़ा किया है रे !
एक बस हमारी आमद रोकने के लिए
इस दुनिया ने .
भी
(स्त्री- कविता )
मेरे हिस्से उनका विनोद था
गज़ब सेंस ऑफ ह्यूमर
ऐसे- ऐसे चुटकुले कि
कोई हँसता- हँसता दोहरा हो जाए
लेकिन मैं नहीं हँसी
मुस्कुराई भर
मुझे अपने लिखे पर बात करनी थी
मेरे पास मीठा गला था
स्त्रियोचित लोच और शास्त्रीय संगीत की समझ
मंद्र सप्तक में भी कहती रही
मैं भी कवि हूँ
गाने पर नहीं कविताओं पर बात करते हैं
मेरे पास था उज्ज्वल ललाट
छोटी सी यूरोपीय खड़ी नाक और खिंची
पूरबी आँखें
और तो और मेरे चिबुक का स्याह तिल
पहुँचने ही नहीं देता था
उन्हें मेरी कविताओं तक
फिर मैंने कहा, आप
सदियों से मेरे चमकदार खोल की
प्रशस्ति कर रहे हैं
जबकि लिखते- लिखते
मेरी आत्मा नीली- काली हो गयी है
दया कर, एक बार उसे भी पढ़ लीजिये
आपने सही कहा मैं खाना अच्छा बनाती हूँ
चित्रकारी उम्दा करती हूँ
बागवानी प्रिय है
नौकरी में कर्मठ कही जाती हूँ
वात्स्यायन की मानें
तो केलि और मैत्री के लिए सर्वथा उपयुक्त
किन्तु आपके सामने बैठी हूँ मैं
सिर से पैर तक एक कवि ही बस
आइये, मेरी भी कविताओं पर बात करें।
पितर
माँ कहती अभी किनकी है
भात ढँक दो
पिता कहते सीमेंट गीला है
पैर नहीं छापना
खेत कहते बाली हरी है मत उघटो
धूप कहती खून पसीना कहाँ हुआ अभी
चलती रहो, और बीहड़ करार हैं अभी
मैं समय के पहिये में लगी सबसे मंथर तीली
जब तक व्यथा की किनकी बाक़ी रही
किसी के सामने नहीं खोला मन
ठंडा गरम निबाह लिया
सुलह की थाली में परोसा देह का बासी भात
आँख के नमक से छुआ
सब्र के दो घूँट से निगल लिया
पत्थर हो गया मन का सीमेंट पिता
कहीं छाप नहीं छोड़ी अपनी
देह की बाली पकती रही
नहीं काटी हरे ज़ख्मों की फसल
इतनी निबाही तुम सब पितरों की बातें
कि चुकती देह और आत्मा के पास नहीं बाक़ी
अपना खून पानी नमक अब ज़रा भी .
कितनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ मैं
माँ ने एक साँझ कहा
संभव हुआ
तो अगले जनम मैं भी इंसान बनूँगी
इस पूरे वाक्य में मेरे लिए
बस एक राहत थी कि माँ
इंसान होने का कोई बेहतर अर्थ भी जानती थी
उसने एक के बाद एक चार लड़कियाँ पैदा कीं यह उस बुनियादी इच्छा के खारिज
होने की शुरुआत थी
फिर भी औरतें पूछती ही रहीं
हाय राम, बच्चा एक भी नहीं
और वह अविनय और अविश्वास से
शिशुओं का लार और काजल पोंछ लेती रही
अपने गाल से
माँ की स्त्री में कई परतें हो गयीं थीं
सबसे ऊपर वाली क्लांत और उदास
इच्छाओं की ज़मीन पर खोदती रहती जुगाड़ के कुएँ
चिंता से चूम भी लेती रही बेटियों को यदा कदा
जबकि बीच में दबी स्त्री मान चुकी थी कि
कोई बच्चा नहीं जना उसने अब तक
हर बार अपनी प्रसव पीड़ा को बंध्या मान
चाहती रही वंश कीर्ति
सबसे भीतर वाली स्त्री को फूल पसंद थे
ताँत पान और किताबें भी
यह उसके मनुष्य होने की कामना का विस्तार था
और इतने गहरे दबा था कि बंजर हो चला था
आजन्म माँ की दायीं आँख से एक निपूती औरत
और बायीं आँख से एक इंसान झाँकते रहे
तो सुनो दुनिया बस इतनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ
कि तुम्हारे हलक में उंगलियाँ डाल कर
अपनी माँ के इंसान बनने की अधूरी लालसा खींच निकालूँ
खतरनाक है लौटना
खतरनाक थे सिद्धार्थ, बुद्ध वे बाद में हुए
खतरनाक है दरवाज़ा खुला छोड़ कर जाने वाला हर व्यक्ति
या सोचना उसके बारे में जो ‘विदा’ कहे बिना चला गया
क्योंकि वह लौटेगा फागुन में बरसात की तरह
खुशहाल बैसाख की संभावनाएँ ध्वस्त करता हुआ
आदमी बस उतना ही
जिंदा रहना चाहिए जितना हमारे भीतर है
उससे पहले और बाद के आदमी के
बारे में जानना खतरनाक है
जानते तो हो कि खतरनाक होते हैं मंच से किये गए वायदे
मान लो कि उससे भी अधिक खतरनाक है
भीड़ में खड़े आदमी के शब्दों पर विश्वास करना
हर अपराध संविधान में सूचीबद्ध नहीं हो सकता
फिर भी खतरनाक हैं वे लोग जो
गलतियाँ इसलिए करते हैं कि उनका दंड निश्चित नहीं.
सपने हथियार नहीं देते
सपने में देखा
उन्होंने मेरे हाथों से कलम छीन ली
आँख खुलने पर खबर मिली
कि दुनिया में कागज़ बनाने लायक जंगल भी नहीं बचे अब
सपने में सिरहाने से तकिया उठा ले गया था कोई
सुबह पता चला कि आजीवन
किसी और के बिस्तर पर सोई रही मैं
वे सब चीज़ें जो मेरी नहीं थीं
बहुत ज़रा देर के लिए दी गयीं मुझे सपनों में
बहुत ज़रा ज़रा
मछलियाँ पानी से बाहर आते ही जान नहीं छोड़ देतीं
औरतों के सपने उन्हें ज़रा देर के लिए मनुष्य बना देते हैं
यही गज़ब करते हैं
सपने के भीतर दुनिया को मेरे माथे पर काँटों का ताज
और पीठ में अधखुबा खंजर नहीं दिखाई देता
डरती हूँ मैं उन लोगों से जो यातना को
रंग और तबके के दड़बों में छाँट देना चाहते हैं
लेकिन पहले डरती हूँ अपने सपनों से
जो अपने साथ कोई हल या हथियार नहीं लाते
उसी आदमी को मेरी थरथराती टूटती पीठ सहलाने भेजते हैं
जिसे अपने चार शब्द सौंप देने का भरोसा नहीं मुझे
और अबकी नींद खुलने पर भी शायद याद रहे
कि यही खोया था मैंने, यही ‘भरोसा’
यही याद नहीं आ रहा था जागते में एक दिन.
मेरे सपने बहुत छोटे आयतन और वृत्त
की संभावनाओं पर टिके
दसियों साल से न देखे हुए एक चेहरे
की प्रत्याशा पर टूट जाते हैं
जबकि मैं न जाने क्या क्या करना चाहती हूँ उस चेहरे के साथ
कितनी विरक्ति, घृणा, कितना प्रेम .
क्या सोचती होगी धरती
मैंने कबूतरों से सब कुछ छीन लिया
उनका जंगल
उनके पेड़
उनके घोंसले
उनके वंशज
यह आसमान जहाँ खड़ी होकर
आँजती हूँ आँख
टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में
तोलती हूँ अपने पंख
यह पन्द्रहवाँ माला मेरा नहीं उनका था
फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे
मैंने बाघों से शौर्य छीना
छीना पुरुषार्थ
लूट ली वह नदी
जहाँ घात लगाते वे तृष्णा पर
तब पीते थे कलेजे तक पानी
उन्हें नरभक्षी कहा
और भूसा भर दिया उनकी खाल में
वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में
धरती से सब छीन कर मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
चुराई हुई नदी बाँध रखी अपनी आँखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में.
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किताबें
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