जोधपुर में प्रवासी बंगाली परिवार में 31 अक्टूबर, 1958 को जन्म ।
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अजंता देव की किताबें
अजंता देव की कविताएं
हुलिया
काली लड़की
काली आँखें
काले बाल
काला तिल
जब सौंदर्य-शास्त्र ने इतनी काली चीज़ें गिना रखी हैं
त्वचा का कालापन क्यों नहीं
क्यों अपना काला दिल बचाकर
किसी का चेहरा स्याह किया जाता है
क्यों सिर्फ़ अँधेरे में सहलाई जाती है काली देह
सवेरे हिक़ारत से देखे जाते है अपने ही नाख़ूनों के निशान
काले और लाल के लोकप्रिय रंगमेल में।
करुणा नहीं तंबाकू
अफ़सोस
छिपाना
सब कुछ कहना होगा क्या?
मेरा दुख मेरी असफलता भी ?
मेरी कोशिकाओं में लिखी वह इबारत भी
मैं जिससे बनी?
क्या मेरा प्रेम अब अंततः उजागर हो जाएगा
मेरी घृणा और वितृष्णा अब सामने होगी?
क्या अब छिपाना भी मेरा अधिकार न रहा
जैसे नहीं रहा मेरा अधिकार जानने का ?
आखिरी ख्वाहिश
सर्वश्रेष्ठ प्रेमी
वह दीवार जिस पर कबूतरों के असंख्य पर अटके हैं
उस के पार वह पुरानी दुकान ख़स्ता कचौड़ियों के लिए मशहूर
बाहर गर्म चाय की भाप
उधर किताब बाज़ार के सामने वह लाख के ज़ेवरों वाली गली
और फिर रिक्शा सजाए खड़े वो हुनरमंद जो पलक झपकते पहुँचा देंगे प्राचीन क़िले के द्वार पर
गलियों के भीतर गलियों के अन्दर गेरू और गुलाबी रंगे मकानों की कतार
जिसे देखते हुए कहती है वह लड़की
तुम्हारा शहर तो लाजवाब है
हृदय प्रेमी को प्रेमी बनाता है
शहर उसे बनाता है सर्वश्रेष्ठ प्रेमी ।
मेरा ग्रह
कम में काम चलाया मैंने
पूरी उम्र सिर्फ़ गिनती के पेड़ रहे मेरे चारों ओर
खेजड़ी फोग नीम और बबूल
इन्हें ही देखा इन्हें ही खाया
इनके तनों पर मनौती की मौली बाँधी
हवा में इनके फूलों की गंध भरी रही
इनके सूखे पत्तों से पतझड़ आता था मेरा
मेरा बसंत इनके नये कोंपल थे
इनका होना जंगल और न होना उजाड़ था मेरा
मेरे लिए अंतरिक्ष है केरल
असम आकाशगंगा है
बंगाल मंगलग्रह
मेरे सौर्य मंडल में चक्कर लगाते हैं चार वृक्ष
मेरे ग्रह का नाम रेगिस्तान है।
पान दोख्ता
साफ़ चमकीली हँसी सिर्फ़ ख़ुद के लिए होती है स्त्रियों की
तुम्हारे सामने वो पान दोख्ते और लिपस्टिक से ज़्यादा होती ही नहीं
क्या तुम जानते हो कब कब हँसी थी स्त्री
जब तुम कमज़ोर थे
बेरोज़गार
डरे हुए
शंका और दर्प के बीच झूलते हुए थे
उसने ख़ुद को बचाया हँस कर
उसने तुम्हे भी बचाया
और हँस पड़ी मुँह छिपा कर
आते हुए भी हंसी थी
तुम्हारे पीठ पीछे
और जाते समय भी हँस देती है स्त्री
जिसे देख नहीं पाता पुरुष
पीछ से ।
प्रशस्तिपत्र
गहरे और गहरे
और भी गहरे
अमरता गहराई में है
ढूँढो उसे खोद कर धूल उड़ाकर
जब सब कुछ सूख जाता है
जीवाश्म की तरह रह जाती है कविता
अपने समय का पता देती हुई
अभी जहाँ खड़े हो वहाँ सिर्फ़ धूल है प्रशस्तिपत्रों की।
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