Wednesday, December 4, 2024
अजंता देव
जोधपुर में प्रवासी बंगाली परिवार में 31 अक्टूबर, 1958 को जन्म ।
 
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हिन्दी साहित्य
 
में एम.ए. ।
 
शास्त्रीय संगीत (गायन) में बचपन से प्रशिक्षित, साथ ही नृत्य, चित्रकला, नाट्य तथा अन्य कलाओं में गहरी रुचि एवं सक्रियता होने के बावजूद मूलतः कवि के रूप में पहचान।
 
स्कूल के दिनों से कविता लिखना शुरू किया, चार कविता-संग्रह ‘राख का क़िला’, ‘एक नगरवधू की आत्मकथा’ ,”घोड़े की आँखों में आँसू”और’बेतरतीब’। एक उपन्यासिका “ख़ारिज लोग” लिखा है। बच्चों के लिए एक गल्प ‘ नानी की हवेली’ प्रकाशित ।
 
बांग्ला से नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती व शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं के और अंग्रेज़ी के ज़रिये ब्रेष्ट की कविताओं के हिन्दी में अनुवाद ।
 
राजस्थान पत्रिका और धर्मयुग में पत्रकारिता करने के बाद 1983 से भारतीय सूचना सेवा में। 2010 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन।

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अजंता देव की किताबें

अजंता देव की कविताएं

हुलिया

मेरी आँखें 
 
नहीं हैं वैसी भूरी 
 
मेरी नाक 
 
नहीं है उतनी गोल 
 
रंग बदलता रहता है 
 
मेरी त्वचा का मौसम के साथ 
 
पिछले साल 
 
कटवा लिए हैं बाल 
 
मैं चित्र नहीं हूँ 
 
कि धूल पोंछते ही 
 
निकल आएगी वही हँसी 
 
हुलिया लिखते वक़्त भी 
 
बदलता रहता है मेरा चेहरा

काली लड़की

काली आँखें
काले बाल
काला तिल
जब सौंदर्य-शास्त्र ने इतनी काली चीज़ें गिना रखी हैं
त्वचा का कालापन क्यों नहीं
क्यों अपना काला दिल बचाकर
किसी का चेहरा स्याह किया जाता है
क्यों सिर्फ़ अँधेरे में सहलाई जाती है काली देह
सवेरे हिक़ारत से देखे जाते है अपने ही नाख़ूनों के निशान
काले और लाल के लोकप्रिय रंगमेल में।

करुणा नहीं तंबाकू

सिनेमा के भावुक दृश्य पर वह रोती है एक पल 
 
दूसरे पल चल देती है प्याज़ कतरने 
 
चश्मा रखकर भूल जाती है 
 
मगर धाराप्रवाह सुनाती है 1935 के क़िस्से 
 
काननबाला के ब्लाउज़ का डिज़ाइन 
 
ब्योरेवार बताती है 
 
थोड़ी शर्मिंदा होती है 
 
अपने पिता की स्वामी-भक्ति पर 
 
जो बरतानवी सरकार के मुलाज़िम थे 
 
उसमें दुनिया-जहान की खोज है 
 
अपनी ग़रीबी को लेकर 
 
उसे गर्व है अपने सयाने बच्चों पर 
 
या ख़ुदा! ये माँ है या बाज़ीगर
 
जो चली आई है इतनी दूर 
 
असफल पति और सफल बेटे के बीच 
 
संतुलन रखकर 
 
और अब ज़रा सुस्ता रही है 
 
इसे करुणा नहीं 
 
थोड़ा तंबाकू चाहिए 
 
थकान मिटाने को 

अफ़सोस

ग़ायब हो गए बाज़ार से सादे बटन 
 
सूत के निवाड़ लगभग समाप्त हैं 
 
चोटियाँ क्या ग़ायब हुईं 
 
कि परांदे भी निकल गए ख़रामा-ख़रामा 
 
पीतल पीछे खिसक गया धीरे-धीरे 
 
धुएँ वाले इंजन खड़े रह गए 
 
और धुआँ विलीन हो गया बादलों में 
 
रेज़गारी की बदल गई शक्ल 
 
ख़त्म हो गए अनगिन रोज़गार 
 
मगर सबसे बुरी ख़बर अब भी बाक़ी है 
 
बहुत जल्द हमारी ज़िंदगी से 
 
ख़त्म होने वाला है अफ़सोस। 
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छिपाना

सब कुछ कहना होगा क्या?
मेरा दुख मेरी असफलता भी ?
मेरी कोशिकाओं में लिखी वह इबारत भी
मैं जिससे बनी?
क्या मेरा प्रेम अब अंततः उजागर हो जाएगा
मेरी घृणा और वितृष्णा अब सामने होगी?
क्या अब छिपाना  भी मेरा अधिकार न रहा
जैसे नहीं रहा मेरा अधिकार जानने का ?

आखिरी ख्वाहिश

 
नष्ट करो मुझे पूरा 
आधा नष्ट अपमान है निर्माण का
मेरा पुनर्निर्माण मत करना
मत करना मेरे कंगूरों पर चूना
 आधे उड़े रंग  वाले भित्तिचित्र ध्वस्त करना
ले जाने देना चरवाहे को मेरी अंतिम ईंट
मत बताना उसे  वह किस शताब्दी की थी
मेरे झूलते दरवाजों पर रख देना दीमक से भरी लकड़ी
मकड़ियों के जालों से एहतियात बरतना 
आखिर में मेरे साथ पूरे खिले फूलों  सा बर्ताव करना
 मुझे हरियाली के हवाले कर पलट कर मत देखना।

सर्वश्रेष्ठ प्रेमी

वह दीवार जिस पर कबूतरों के असंख्य पर अटके हैं
उस के पार वह पुरानी दुकान ख़स्ता कचौड़ियों के लिए मशहूर
बाहर गर्म चाय की भाप
उधर किताब बाज़ार के सामने वह  लाख के ज़ेवरों वाली गली
और फिर रिक्शा सजाए खड़े वो हुनरमंद जो पलक झपकते पहुँचा देंगे प्राचीन क़िले के द्वार पर
गलियों के भीतर गलियों के अन्दर गेरू और गुलाबी रंगे मकानों  की कतार
जिसे देखते हुए कहती है वह लड़की
तुम्हारा शहर तो  लाजवाब है
 हृदय प्रेमी को प्रेमी बनाता है
 शहर उसे बनाता है सर्वश्रेष्ठ प्रेमी ।

मेरा ग्रह

कम में काम चलाया मैंने
पूरी उम्र सिर्फ़ गिनती के पेड़ रहे मेरे चारों ओर
खेजड़ी फोग नीम और बबूल
इन्हें ही देखा इन्हें ही खाया
इनके तनों पर मनौती की मौली बाँधी
हवा में इनके फूलों की गंध भरी रही
इनके सूखे पत्तों से पतझड़ आता था मेरा
मेरा बसंत इनके नये कोंपल थे
इनका होना जंगल और न होना उजाड़ था मेरा
मेरे लिए अंतरिक्ष  है केरल
असम आकाशगंगा है
बंगाल मंगलग्रह
मेरे सौर्य मंडल में चक्कर लगाते हैं चार वृक्ष
मेरे ग्रह का नाम रेगिस्तान है।

पान दोख्ता

साफ़ चमकीली हँसी सिर्फ़ ख़ुद के लिए होती है स्त्रियों की
तुम्हारे सामने वो पान दोख्ते और लिपस्टिक से ज़्यादा होती ही नहीं
क्या तुम जानते हो कब कब हँसी थी स्त्री
जब तुम कमज़ोर थे
बेरोज़गार
डरे हुए
शंका और दर्प के बीच झूलते हुए थे
उसने ख़ुद को बचाया हँस कर
उसने तुम्हे भी बचाया
और हँस पड़ी मुँह छिपा कर
आते हुए भी हंसी थी
तुम्हारे पीठ पीछे
और जाते समय भी हँस देती है स्त्री
जिसे देख नहीं पाता पुरुष
पीछ से ।

प्रशस्तिपत्र

गहरे और गहरे
और भी गहरे
अमरता गहराई में है
ढूँढो उसे खोद कर धूल उड़ाकर
जब सब कुछ सूख जाता है
जीवाश्म की तरह रह जाती है कविता
अपने समय का पता देती हुई
अभी जहाँ खड़े हो वहाँ सिर्फ़ धूल है प्रशस्तिपत्रों की।

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