Wednesday, December 4, 2024
नाम:इंदु सिंह
जन्म:४ अगस्त,उन्नाव( उ .प्र)
शिक्षा:ऍम.ए(हिंदी) लखनऊ विश्वविद्यालय,
दो वर्ष हिंदी अध्यापन ।
लखनऊ दूरदर्शन पर साहित्यकी,नए हस्ताक्षर, कार्यक्रमों में काव्य पाठ किया एवं इन कार्यक्रमों का संचालन भी किया।
ऑल इंडिया रेडियो के अनेक कार्यक्रमों में काव्य पाठ एवम संचालन किया।
विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे वागर्थ, परिकथा, लमही, सादर इंडिया,उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रकाशित,”साहित्य भारती”,अपरिहार्य” एवं समाचार पत्र स्वतंत्र भारत,लखनऊ ,हिंदी दैनिक,आज,लखनऊ, में कवितायें,कहानियां और लेख प्रकाशित हुए हैं।
अन्य रुचियाँ: घूमना,देशाटन,योग,सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना आदि .
 
काव्य संग्रह – “तेरे समक्ष” प्रकाशित 
 
http://hridyanubhuti.wordpress.com 

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किताबें

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कविताएं

नहीं होना चाहती

नहीं होना चाहती
मैं पौधा छुईमुई का
कि कोई भी बंद कर दे
मुझे मेरे वजूद में
हो जाना चाहती हूँ
कैक्टस की तरह
छुअन का ख़याल भी
न कर सके कोई
जब तक रहूँ
जो हूँ रहूँ
कि सख्त चुभते
कैक्टस पर भी
खिलते हैं कोमल फूल
हो जाना चाहती हूँ
दुनिया की तरह सख्त
बन जाना चाहती हूँ
एक अदद कैक्ट्स !

सविता

सविता पढ़ाई का ‘ प ‘ भी नहीं जानती
स्कूल जो नहीं गई कभी
वह मंझली है भाई बहनों में
बड़ा भाई बी.ए.कर चुका
छोटी बहन ग्यारहवीं में है
बाप रिक्शा चलाता है
माँ घर संभालती है
और सविता !
सविता घर चलाती है
खर्चे बढ़ गए हैं बहुत
भाई के कपड़े और
फ़ोन के पैसे भी
बहन पढ़ती है पर
चाहती नहीं पढ़ना
बनना संवरना भाता है उसे
उम्र ही ऐसी है
सविता करती है साफ़
दूसरों के घरों को
जूठन को उनकी
नहीं आती उसे कोई घिन
रगड़ – रगड़ कर चमकाती है
तवे – कड़ाही को
गीली फ़र्श पर बिछ जाती है
उसे ठण्ड भी नहीं लगती
उसे शर्म भी नहीं लगती
बर्तन साफ़ नहीं
झाड़ू ठीक से नहीं लगाई
सुनना
उसकी आदत में है शामिल
आज देर से क्यों आई या
कल छुट्टी क्यों चाहिए
जैसे सवाल झुक जाते हैं
उसके अड़ियल जवाब के समक्ष
चार-चार घरों में काम करती है वो
सवालों – जवाबों की आदी है वो
कमाती है पाँच हजार हर महीने
चलाती है माँ – बाप का घर
हर महीने
खुद पहनती है दूसरों की उतरन
लगा देती है जीवन
अपनों को सजाने में
शादी की उम्र है पर शादी भला कहाँ
भाई की नौकरी ही माँ – बाप का अरमाँ
करेगी इंतज़ार, कर रही है वो
कोई तो सुबह हो
जो उसके लिए हो
सविता चुप रहती है
बोलना उसे नहीं भाता
उसका मौन अपने साथ
हर बवंडर को पी जाता
कभी – कभी हौले से मुस्काती है जब
ज़िंदगी भी उसके समक्ष
ठगी रह जाती है तब !!!

आहिस्ता – आहिस्ता

जैसे ही सिल के दाँत
घिसने लगते हैं
उसे फिर से छिदवाती है औरत
पत्थर पर चलती हुई
छेनी और हथौड़ी की मार
थोड़ा खुरच देती है सिल को
और बार बार लगातार
प्रहार के बाद
तैयार होती है सिल
पूरी तरह
अब जो चाहे पीसो
पिसेगा
पहले थोड़ी खिसकन
ज़रूर निकलेगी
आहिस्ता आहिस्ता
सब गायब !
तैयार की जाती है औरत भी
इसी तरह
रोज़ छेदी जाती है
उसके सब्र की सिल
हथौड़ी से चोट होती है
उसके विश्वास पर
और छेनी करती है
तार तार
उसके आत्म सम्मान को
कि तब तैयार होती है औरत
पूरी तरह
चाहे जैसे रखो
रहेगी
पहले थोड़ा विरोध थोड़ा दर्द
ज़रूर  निकलेगा
आहिस्ता आहिस्ता
सब गायब !

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