नाम- कल्पना पंत
जन्मस्थान- नैनीताल
अध्ययन- डी. एस बी परिसर कुमाउँ विश्वविद्यालय नैनीताल
अध्यापन- प्रवक्ता हिन्दी बनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में एक वर्ष
लोक सेवा आयोग राजस्थान से चयनित होकर राजकीय म० धौलपुर तथा रा० कला म० अलवर में तीन वर्ष
१९९८ में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग से चयनोपरांत रा०स्ना० म० बागेश्वर,गोपेश्वर ,ॠषिकेश एवं पावकी देवी में अध्यापन
2020-21में रा० म० थत्यूड़ (मसूरी के निकट) में प्राचार्य
वर्तमान में श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के ऋषिकेश परिसर में आचार्य
लेखन-
शोधपरक एवं विमर्श- कुमाउं के ग्राम नाम –आधार,संरचना एवं भौगोलिक वितरण(-पहाड़ प्रकाशन 2004) https://pahar.org/book/kumaon-ke-gram-nam-by-kalpana-pant/
कविता संग्रह- मिट्टी का दु:ख कविता संग्रह-2021{समय साक्ष्य}
साझा संकलन- स्त्री होकर सवाल करती है( जनवरी 2012सं० लक्ष्मी शर्मा बोधि प्रकाशन), शतदल 2015 संपादक–-विजेन्द्र –बोधि प्रकाशन ,अंकित होने दो उनके सपनों का इतिहास–2021 समय साक्ष्य, कविता के प्रमुख हस्ताक्षर–2022 गुफ्तगू प्रकाशन में कविताएं प्रकाशित
सम्मान- निराला स्मृति सम्मान
उत्तरा,लोक गंगा,समकालीन जनमत,उदाहरण,समालोचन,कर्मनाशा,अनुनाद इत्यादि में समय समय पर कविताएं , लेख, कहानियां, फीचर समीक्षाएं और यात्रावृतांत प्रकाशित
ब्लाग- दृष्टि, मन बंजारा
यू ट्यूब चैनल- साहित्य यात्रा
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कविताएँ-
तुम्हारे लिए
मैंने सूरज की दीवार पर
सारा रंग उड़ेल दिया
आसमां पर सारा नीला पानी
सागर से ठिठोली की
हवा से छेड़खानी
तरंगों में लहराई
दरिया पर छपाकें मारी
तारों को भिगो डाला
चांद के झगोले से
एक सुनहरा धागा लेकर
धरती की सौंधी खुशबू
से लपेट दिया
फूलों के पैरहन
मन की सलवटो पर
पहन लिए
और तुम्हारे लिए प्रार्थना की-
रात की सियाही में
दूधिया उजाला हो
सुबह की रौशनाई में
सुर्ख गुलाबी रंग हो
जहां भी तुम हो
जहां भी तुम हो.
जिजीविषा
कभी-कभी ऐसा लगता है
मेरे भीतर लग गए हैं हजारों -हजारों साल पुराने जाले
मन के भीतर उस अंधेरे में
जहां धूप कभी नहीं आती
अंधेरा है निस्तब्ध अंधेरा
सन्नाटे का है बसेरा
रात काली काली और काली घनी और गहरी होती जाती है
मकड़ियाँ जालों की परत पर परत बुनते जाती है
वे बड़ी अच्छी बुनकर हैं
अंधेरे से अपना जाला बुनती हैं
कोठरी में कोई ऐसी रोशनी नहीं है जिस की राह पकड़ कर मैं धीरे से बाहर निकल आऊँ
पर तलाश जारी है
गैलीलियो ,सुकरात!
तुमसे पूछती हूं अंधेरे से निकलने की राह
कैसे चुना था ?
कौन से थे तुम्हारे हथियार और कैसी थी तुम्हारी जिजीविषा?
कैसी थी वह मुक्ति की चाह?
घर
कितने बरस, चुप चुप निर्विकार देखता है अनवरत
नवोढ़ा का आगमन, प्रिय मिलन
खिलता आंगन प्यार प्रीत मनुहार
और अलक्षित रुदन,
शिशुओं की खिलखिलाहट
आंगन में मालिश
गुनगुनी धूप की तपिश
हरीरे की महक
बड़ी बूढ़ियों की सलाहियत
छत पर पतंग का उड़ना
आंगन में धमक कूदना
मां का झुंझलाना
दादी नानी का पुचकारना
पहली बार रोते हुए स्कूल जाना
फिर धीरे-धीरे होमवर्क लेकर आना
अचानक से लंबोतरा हो जाना
अपनी छवि देख आप ही मुस्काना
बड़े होते बच्चों का एक-एक कर घर से जाना
दादी नानी का कृशकाय होते जाना
एक दिन अंतिम खबर आना
घर देखता है तबादलों को
महसूस करता है अकेलेपन को
चुपचाप रोता है
अपने, दर्द को झरती हुई दीवारों में दिखलाता है
बरसों -बरस कोई घर नहीं आता
बच्चों की किलकारियां , आंगन की धमक ,
बूढ़ी आंखों की चमक
याद करता
झर झर झर झरता चला जाता है.
मासूम
उनकी गलती नहीं थी
वे बहुत मासूम थे
गलती इतिहासों की थी
जिन्हें गलत बरता गया था
वे इतिहास की गलती सुधार रहे थे
इतिहास सुधारने में एक बड़ी आबादी इतिहास हो गई
उनकी क्या गलती
वे तो अब भी मासूम हैं
मासूम रहेंगे
चुभते रहेंगे
इतिहास के नाखून.
तुम्हारे जाने के बाद
हर शनिवार
शाम कम गहरी हो जाती है ,
रात का अंधेरा घट सा जाता है।
काम से घर लौटते वक़्त घर कुछ
ज्यादा घर लगने लगता है।
रविवार की सुबह सुंदर हो जाती है,
गमले कुछ ज्यादा हरे हो जाते हैं,
और घर इन दो दिनों के लिए
सचमुच घर हो जाता है।
घर सोमवार को भी घर रहता है
पर कुछ कम हो जाता है
तुम्हारे जाने के बाद ।
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किताबें
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