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तुझी मी वाट पाहते
हर इंसान के भीतर स्मृतियों की बड़ी दुनिया होती है। किसी के पास स्मृतियों का कंटीला जंगल होता है। किसी की स्मृतियों में फूल और कांटों का मिला-जुला झुरमुट होता है, जिसके सहारे जीवन का सफर तय होता है। किसी के पास अतीत और वर्तमान की ऐसी क्यारी होती है, जिसमें घटनाओं की नुकीली ईंटें गहराई तक धंसती चली जाती है…..अतीत की क्यारी में रोपे हुए कुछ ही पौधे लहलहाते हैं, ज्यादातर वक्त की तेज आंधी में मुरझा जाते हैं।
खिड़की पर बैठे कांव-कांव की रट लगाए कौवे को रोटी खिलाकर वे फिर स्मृतियों के जंगल में दाखिल होने ही जा रही थीं कि तमतमाई हुई अभिधा सामने……उसके बेडरूम के दरवाजे बंद होने की खटाक से आवाज हुई। खिड़की का ग्लास जैसे हवा ने ज़ोर से हिला दिया हो….उनके पैर के पास नोटबुक और किताब के पन्ने फड़फड़ा उठे, वे झुकीं…
…“अरे यह क्या”।
अभिधा का चेहरा लाल ….माथे से पसीना चुहचुहाया हुआ…..। नई पीढ़ी, नया खून….गुस्से का तरीका भी नया। वे अभिधा के पास पहुंचें इससे पहले ही अभिधा के शब्दों के ओले उनके कान में चोट पहुंचाने लगे—“बहुत सुन ली तुम्हारी….बस अब नहीं, अब the end………”… कहते हुए अभिधा ने मोबाइल दीवान पर लगभग पटक दिया। मोबाइल चोटिल नहीं हुआ लेकिन उनके ज़ख़्मों की जड़ें नम हो गईं।
“किससे कह रही हो? मत कहो ….’the end’ कहने से पहले ‘beginning’ याद कर लो…रिश्तों की बिगिनिंग का सिरा थाम लो, बस the end वहीं end हो जाएगा। कभी-कभी जुबां से निकले अल्फाज़ सच हो जाते हैं और इंसान पछताता रह जाता है।”
अतुल तो बात-बात में कहता है—‘ये हमारी ज़िंदगी का आखिरी पन्ना है’… –अभिधा बुदबुदाई। अभिधा के कहे ‘The End’ से वे अपने जीवन की बिगिनिंग में पहुंच गईं। वैसे भी ज्यादातर वक्त वे स्मृतियों की सैर में ही बिताती हैं। उनकी आंखें दूर आसमान पर टिक गई और वे अब यहां इस घर में हो कर भी नहीं हैं।
“दादी आपने कुछ कहा ”…?
“अं….. हाँ …न , नहीं तो ”…
वे बोलीं लेकिन उनका बोलना जैसे समंदर की लहरों के शोर में विलीन होते शब्द हों ……जो कानों में बड़े मद्धम-से सुनाई देते हैं। वे खुद भी समंदर ही हैं, दरअसल हर स्त्री समंदर होती है। स्त्री के भीतर सरोकारों की दुनिया, उसकी पीड़ा…….पीड़ा की अथाह जल राशि होती है जिसका ओर- छोर नहीं होता। उनके भीतर भी तेज लहरों का आवागमन होता रहता है–इसकी ख़बर उनके अपनों को नहीं होती।
— “दादी बारिश तेज हो गई है। भीतर आइए। मौसम विभाग वालों की चेतावनी है कि आगामी 48 घंटों तक तेज बारिश होगी”।
— “मेरे भीतर की बारिश से कम है ये बारिश ”..
– “मतलब”…?
— “मतलब समझने के लिए तुम्हें मेरा मन पढ़ना होगा, जो बहुत कठिन है। मेरे मन के भीतर भी बारिश है…अथाह जल है, समुद्र है, जिसकी सतह नहीं दिखती”…।
— “आप क्या कहना चाहती हैं दादी? कोई फंतासी रच रही है क्या”??
— “स्त्री फंतासी ही तो होती है। स्त्री के मन की बारिश सिर्फ वह देख सकती है, उसकी भीतर की बारिश में कभी इंद्रधनुष नहीं निकलता, सिर्फ काली घटाएं होती हैं”–कहती हुई वे लैपटॉप के की-बोर्ड को अपनी उंगलियों से धीरे-धीरे छूने लगीं। IRCTC की वेबसाइट पर लॉग-इन कर खेड़ के टिकट की उपलब्धता चेक करने लगीं। उम्र की आखिरी दहलीज़ पर अकसर ही कामकाज में सुस्ती आ जाती है लेकिन वे आज भी वक्त की सीढ़ियां फटाफट चढती हैं।
— “दादी इस तेज बारिश में दापोली जाना ठीक नहीं, हम अगले महीने चलेंगे” ।
— “नहीं तब तारीख दिन और महीना बदल जाएगा, कुछ तारीखें ही खास होती हैं, जिन्हें हम ताबीज़ की तरह अपने गले में पहने रहते हैं”।
— “दादाजी से जुड़ी कोई ख़ास याद है”??
— “पहले खेड़ का टिकट बुक कर,..फिर बताऊंगी”।
— “पिछले बरस आप इतनी बीमार थी डॉक्टर ने सफर करने को मना किया था फिर भी नहीं मानी ….आखिर वजह क्या है”??
उनके लिए उस रोज़ वाली बारिश के सामने सारी बारिशें फ़ीकी थीं। वे राघव के साथ पिकनिक पर गई थीं, घर से निकलीं तो बूंदाबांदी थी लेकिन घंटे भर में काले डरावने बादल समंदर में डुबकियां लगाने लगे थे…….दूर तक कहीं कोई किनारा नहीं नजर आ रहा था। मूसलाधार बारिश में बिजली कड़कती तो लगता जैसे समंदर की लहरों में आग लग जाएगी। …बचपन से ही बेलौस मिज़ाज की वे उफनते समंदर के पानी में गड़गड़ाती बिजली को पकड़ने दौड़ीं…। लहरों के बीच दौड़ना मतलब खुद को गिराना……लहरों की चपेट में बुरी तरह गिरीं, पर राघव ने कश्ती बन उन्हें बचा लिया। दापोली का करडे बीच…हरहराता उफनता…समंदर का फेनिल पानी और चंद मछुआरे और दो चार साहसी लोग ही दिखाई दे रहे थे।
बादलों ने धूप का अस्तित्व मिटा संध्या का धुंधलका फैला दिया था। धुंधली रोशनी में चारों ओर पानी ही पानी नजर आ रहा था। बारिश की बूंदों की लड़ियों को हवा उड़ाकर बालों पर मोती धर रही थी। सर्द बदन पर राघव की गरम हथेलियां किसी बिजली से कम नहीं थीं। दोनों की आंखों में आग और पानी घुलमिल गए थे। ताज्जुब की बात है पानी में चिंगारी ज्यादा सुलगती है। माने पानी आग लगाता भी है और बुझाता भी है। उस रोज़ जब वे समंदर और राघव के शोलों यानी प्यार के ताप से नहाई अपने घर पहुंचीं तो उससे पहले ही सवालों का काफिला पहुंच चुका था। ‘आई’ की डांट के ओलों ने उनके बारिश वाले दिन के मख़मली अहसास को रौंद डाला था। समंदर के किनारे की तेज़ हवाएं सिसकियां लेने लगी थीं। तरह-तरह के जख़्मों के जरिए उनके भीतर राघव के लिए नफ़रत के बीज बोए जाने लगे। लेकिन कहां?…… प्रेम का अंकुर एक बार फूटने पर पौधा लहलहाता ही है। ज़ख़्मों से उनके मन के कपाट भीतर…और भीतर खुलते गए जिस पर राघव की अनंत छवियां क़ब्ज़ा करती गईं…।
–“दादी हम बीच पर जाने की वजह आज रिसोर्ट में ही रहें”…..खेड़ स्टेशन से बाहर आकर टैक्सी में बैठती हुई अभिधा बोली। वह चिहुँककर अपनी पीठ सहलाने लगीं। दर्द-सा महसूस हुआ, कई ख़रोंचें लहूलुहान हो गईं, गुंथी हुई लंबी-पतली चोटी को आगे कर खींच कर देखा….सलामत हैं बाल। बाबा की दी वो चोटें हरी हो गईं। आंखों में उतरे समुद्र को रोकना उनके लिए मुमकिन नहीं रहा। उनकी स्मृतियों का यह चौरस्ता बहुत ही बीहड़ है। अपनी आंखों की लहरों पर काबू पाती हुई वे बोलीं–“आज करडे बीच और लाडघर भी चलेंगे”।
“आपको दादाजी की याद आ रही है? आप उदास हैं?”
“यादों का झरना है भूचाल है लेकिन…. ”
….“लेकिन क्या?”
“………”
अभिधा अपनी दादी की इस मन:स्थिति से बेचैन होकर उन्हें बहलाने की कोशिश करने लगी।वो अपने कोलेज की बातें बताने लगीI पर वे अपने कॉलेज के दिनों में पहुंच गईं, कृषि-अर्थशास्त्र राघव को बोरिंग लगता तो उस पीरियड में राघव उनके नाम चिट्ठियां लिखा करता।
खेड़ से दापोली का रास्ता अब थोड़ा ही बचा है। कोंकण के इस इलाके में कहीं-कहीं सड़क और समुद्र एक-दूसरे का हाथ थामे चलते हैं। अभिधा के लिए ऐसा ख़ूबसूरत नज़ारा तिलिस्मी है। गाड़ी के साथ साथ चलते पेड़-पौधे, उसके साथ-साथ चलता समुद्र………समुद्र तटों पर जहां बारिश नहीं हुई है वहां मछलियां रेत पर सुखाई जा रही हैं। मछलियों की वजह से यह पूरा इलाका दुर्गंध से भरा है। समुद्र के आंचल में बसे ये छोटे-छोटे गांव, पानी में भीगी काली रेत….रेत पर चमकती सीपियां, दूर कतार में खड़े नारियल के दरख़्त, दूसरी तरफ झूमते हुए हापुस आम के पेड़, कहीं ऊंचाई पर पानी से भरे खेत……खेतों में इठलाती फसलें…..सागर किनारे का ऐसा सज़ा-संवरा अलौकिक रूप अभिधा पहली बार देख रही है। वह मन ही मन अपने दोस्तों की टोली के साथ दापोली पिकनिक का प्लान बना रही है। और मुरुड बीच की काली रेत पर पैर के अंगूठे और एड़ी को गोल घुमा कर गोला बना रही है। उसमें उसने तर्जनी उंगली से अपने दोस्तों के नाम लिख डाले हैं।
छोटी पुलिया से गुजरकर तिर्यक रास्ता हरणे गांव की ओर जाता है। सागर की लहरों के सामने बिखरे छोटे ठिये और दुकानों के बीच एक रेस्तरां में रुक कर अभिधा और उन्होंने भाखरी (चावल की रोटी) और अंडा करी खायी। भाखरी खाते वक्त उनके चेहरे पर मुस्कान की तेज किरण चमकी पर फिर तुरंत ही बदली में तब्दील हो गई। अभिधा ने उनकी आंखों के नीचे अटकी खु़शी की किरण को बाक़ायदा देखा और परखा। अभिधा सोचने लगी, हर वर्ष 5 जुलाई को दादी का दापोली आना…..उनकी किताब का कोई अहम पन्ना है जो वह पढ़ नहीं पा रही है पर कभी ना कभी पढ़कर रहेगी। करडे बीच, लाडघर बीच और भी कई बीच वे गईं। अभिधा उनकी छाया बनकर साथ-साथ चलती रही।
रिसोर्ट पहुंचकर वे शावर के नीचे देर तक खारे पानी का नमक बदन से छुड़ाती रहीं। गुनगुने पानी से नहा कर उनकी थकान उतर गई। अभिधा ने रेस्टोरेंट से दोनों के लिए ब्लैक कॉफी के साथ भुनी हुई फिश फ्राई मंगवाई। वनमाली रिसोर्ट बारिश से नहाकर और निखर आया है। लैंप पोस्ट की रोशनी में झिलमिलाते हरसिंगार और गुलमोहर झूम रहे हैं। गुलमोहर के नर्म-नाज़ुक फूल बारिश की बूंदों को सह पाने में असमर्थ झरकर जमीन पर लाली बिखेर रहे हैं। बालकनी के झूले पर अभिधा कुदरत के इस नजारे को अपने मन के एल्बम में चिपका रही है। वे झींगुरों की तेज सीटीदार समूह गान के साथ कोई उदास गीत गुनगुना रही हैं। दो लताएं आपस में गलबहियां डाले प्रेम में लिप्त है। ठूंठ जैसे बांस के दो पेड़ एक दूसरे को छूते हुए सरसरा रहे हैं। रुकी हुई बारिश फिर शोर करने लगी है। सामने हरहराते समंदर की लहरें इतनी ऊंची उठ रही है कि जैसे अभी उड़कर कमरे के भीतर आकर उन्हें बहा ले जाएंगी। पानी के बारीक-बारीक फ़ाहे हवा के कणों में नमक घोल रहे हैं। होठों पर जीभ फिराते ही मुंह का स्वाद नमकीन हो रहा है। उनकी झुर्रीदार आंखों में अतीत का सैलाब उमड़ आया है।
एक दिन जब वह अपने आई-बाबा के साथ समुद्र में डॉल्फिन देखने गई थीं, पानी की सतह पर तैरते हुए डॉल्फिन के समूह पर सूरज ने अपनी किरणें बिखेर पानी में नीला रंग घोल दिया था। समुद्र तट से काफी दूर……वहां कई कश्तियां तैर रही थी सामने की बोट में राघव था। और वे आंखों की कोरों से राघव को देख रही थीं। उन दिनों उन पर आई-बाबा का पहरा था, लेकिन प्रेम में पड़ी स्त्री के लिए पहरे का किला भी बौना हो जाता है। शायद इसीलिए घरवालों और समाज के तमाम नियम-कानून के बावजूद ठोंक-बजाकर प्रेम नहीं किया जाता, प्रेम बस हो जाता है।
“दादी आप भीग रही हैं तबीयत खराब हो जाएगी”…..कहते हुए अभिधा ने उन्हें हाथ का सहारा दिया लेकिन वह जड़वत बैठी रहीं। उनके गालों पर कुछ नमकीन बूंदें झर गईं। जिंदगी में नमक जरूरी है लेकिन बिना मिठास के नमक ज़्यादा ही खारा लगता है। दादी इंसान दुनिया से जाकर सितारा बन जाता है वह आसमान से अपनों को देखता है, दादाजी भी आपको बादलों की ओट से देखते होंगे ।
–“पर मैंने कभी उन्हें भर आंखों देखा ही नहीं, उन्हें देखते ही मन में विद्रोह की आग जलती…”…कहते हुए ठंड से कांपते हाथों को हवा में फैला कर उन्होंने स्ट्रेच किया, टूटती आवाज को सहारा दे वे ‘पिच’ को थोड़ा और ऊपर उठाते हुए फिर बोलने लगीं। अपनी आवाज़ जितनी ‘हाई पिच’ की ओर ले जातीं, थकी आवाज़ उतनी ही नीचे गिर कर बेस पर आ जाती।
“मेरे अंतर्मन के पन्ने को कोई नहीं पढ़ सका ”
“दादी अपने भीतर के ज्वार को बाहर निकाल दीजिए मैं सुनना चाहती हूं, पढ़ना चाहती हूं आपके अंतर्मन के पन्ने”।
“तुम्हें मैं वह बताती हूं जिस पर मैं बहुत पहले पर्दा डाल चुकी थी” ।
भिधा अपनी दोनों हथेलियों में अपना चेहरा टिकाकर प्रश्नवाचक मुद्रा में उनके सामने बैठ गई ।
यही वह करडे बीच था जहां मैं हर शाम बैठकर उदास आंखों से लहरों का आना-जाना देखती। जिस समंदर के अलौकिक सौंदर्य पर मैं अभिभूत रहती। लहरों में इतना खेलती थी कि हाथ पांव दुखने लगते। उन्हीं लहरों में मैं वस्तु की तरह घंटों बैठी रहती, लहरें भी मुझे चट्टान मान चुकी थीं इसलिए शायद वे कभी मुझे अपने भीतर बहा ले जाने की कोशिश नहीं करती थीं। शाम ढले तक मैं बीच पर बैठी लहरों का खेल देखती रहती। तट पर रहने वाले लोग मुझे पागल समझने लगे थे। घर वालों ने दया भाव से मेरा मानसिक इलाज भी शुरू कर दिया था। बहुत देर हो जाने पर कई बार वे ज़बरन मेरा हाथ पकड़ कर घर ले जाते। दरअसल समाज संवेदनशीलता के चरम को पागलपन का नाम देता हैं। कहते कहते उनकी बूढी आवाज़ कंपकंपाने लगी। इसके बाद कुछ पलों का मौन…जो अभिधा के लिए असह्य था, वह एक कथानक की तरह आगे सुनने को आतुर थी। उसके युवा-मन में समानांतर अटकलों की कहानी भी चल रही है– “लगता है दादा से इनके विवाह में अड़चनें आई होंगी”। उनकी ख़ामोशी अभिधा के लिए एक नई कहानी बुनने की पीठिका बना रही है। उनके चेहरे की झुर्रियों के बीच बारीक-बारीक स्याह पड़ी लकीरों पर अचानक ललाई सी छा गई, होंठ हल्के से हिले, खुले और बंद हुए। आंखें चमकी और उनके कानों में बाबासाहेब कृषि कॉलेज के अंतिम पीरियड का घंटा टन्न से बज गया। वे फिर अतीत की वादियों में विचरण करने लगीं, उनकी आंखों गुलमोहर और बोगनविलिया के लाल गुलाबी रंग से सज गई हैं। उन्हें देखकर इस वक्त कोई भी कह सकता है वह प्रेम के सघन और दिव्य पलों को जी रही हैं। उनका मन उन्हीं पेड़ों की टहनियों में अटक गया है, जिनकी पत्तियों पर ढलते सूरज ने लाल फीता धर दिया था और ख़ुद समुद्र में डुबकी लगाने चल दिया। साथ साथ चलते हुए राघव और उनके बीच इतना फासला था कि सामने से कोई वाहन आता तो दोनों के कंधे आपस में टकरा जाते और उनका मन बीरबहूटी हो जाता।
अचानक जब राघव ने उनकी हथेली अपने हाथों में ली तो उनके हाथ रेशमी धागे के गोले-सा नरम हो गया था, उनकी हथेली पर उसने अपने होंठ रखे तो रात-रानी की ख़ुशबू हवा में घुल गई, हवा में नमी थी लेकिन उनके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थी। उनके पांव जमीन से उड़ने लगे थे, सड़क और घर का फ़ासला भी भूल चुकी थीं।
बादलों की तेज गड़गड़ाहट और बौछारें अब भीतर आने लगीं। अचानक बिजली की कड़क ने उनकी आंखों पर सर्च लाइट चमका दी। वे चिहुंक कर अपने तिलिस्मी ख्याल से बाहर आईं ।
अभिधा ने उन्हें हुलस कर बाँहों का सहारा देते हुए इसरार किया कि वे चलकर बिस्तर पर आराम करें। बाहर बारिश का शोर पर उनके भीतर गहन सन्नाटा… रिज़ोर्ट के ग्राउंड फ्लोर पर जगह-जगह पानी भर गया था। स्विमिंग पूल पानी से ढँक गया था। वहां कोई अनजान आदमी आए और वहां के कर्मचारी एहतियात से ना बताएं तो व्यक्ति छपाक से जा गिरे पूल में। अभिधा का मन उनकी बातों से काफी बेचैन था उसने आखिरकार पूछ ही लिया-
“क्या दादा जी से आपके रिश्ते ठीक नहीं थे” ?
“अंजरले और करडे बीच से आपका इतना ज्यादा जुड़ाव क्यों है? कह डालिए वह कहानी जो आपको कचोट रही है”
… “हम और वो कोंकण कृषि विद्यापीठ से निकलते और सड़क पर पैदल साथ साथ चलते”। अभिधा की आंखों में सवालों की घटाएं घिर आईं थीं। ….. “उस रोज़ मेरा आसमानी दुपट्टा झरते हरसिंगार और अमलतास से भर गया था, मैं लाल पलाश के फूलों से जैसे नहा उठी थी, दूर समंदर में अस्ताचल को जाता सूरज पानी में लाल और नारंगी रंग घोल रहा था और वह मेरी खूब सारी तस्वीरें खींचते खींचते अचानक इतने करीब आ गया कि मुझे उसके दिल की धड़कनें सुनाई देने लगीं, उसकी गरम सांसो की उष्मा से मैं हड़बड़ा उठी थी, तभी दूर से आते बाबा के दोस्त ने हमें देख लिया। बस उसके बाद मुझे बेड़ियाँ पहना दी गईं। पर बहती हवा को रोकना जरा मुश्किल होता है। उस बरस कृषि कॉलेज में मैंने टॉप किया था। इसी बिना पर ‘आई-बाबा’ को आगे पढ़ाई जारी रखने के लिए मैं कन्विंस कर पाई थी। इस तरह पढ़ाई और चुपके-चुपके राघव से मिलना भी जारी रहा”।
“…राघव….? दादाजी का नाम तो राघव नहीं है”… और भी अनगिनत प्रश्नों की बारिश से अभिधा भीग गई, पर दादी की मन:स्थिति को देखते हुए उसने एक भी सवाल पूछने की हिमाक़त नहीं की। थोड़े विराम के बाद वे फिर बोलीं- “राघव कभी-कभार नोट्स देने के बहाने से मेरे घर आता। ‘आई-बाबा’ को लगता कि वह पढ़ाई में मदद कर रहा है, उनके मन में उहापोह होता। कभी वे राघव से मीठा बर्ताव करते…यहां तक कि यदा-कदा मम्मी उसे भाकरी और फिश भी खिलातीं। साथ में हरी पत्ती वाली चाय पिलातीं, लेकिन कभी ‘आई-बाबा’ उससे बड़ी बेरुख़ी से पेश आते। इस रिश्ते में वह बड़े कंफ्यूज़ थे। दरअसल हरे भरे गांव की तरह लोगों का मन भी हरा-भरा था लेकिन सभ्यता और विकास की सदी में पहुंचकर भी हमारे विचार बेहद अविकसित हैं। हमारे सभ्य समाज में संवेदनशीलता के जामा में बेहद निर्मम मन छिपा होता है हमारे घर वाले भी समाज के ठेकेदारों के सम पर अपनी रागिनी छेड़ते”।
“राघव आया था उत्तर प्रदेश के गांव से”।
“तो तू यूपी के भैया से लगन करेगी” ‘आई’ जो खुद जीवन भर ‘सच्चा प्यार’ तलाशती रहीं…बोली थीं।
“वह यूपी का भैया है इसलिए बुरा इंसान है..?”
“….’यूपी के भइया’ नाम के जातिवाद की एक और शाखा प्रस्फुटित हुई, जिसके बारे में मैंने कभी सोचा ही नहीं था”।
“पण ती मराठी माणूस नहीं आहेत न …..! कशाला लग्न करणार…..”??
“मैंने उस समय ‘मराठी थाट’ से ‘दीपक राग’ की उत्पत्ति की तब घर हिंसा और तनाव की ज्वाला से भर गया। ‘दीपक राग’ गाने से मुझे सफलता नहीं मिली। राघव के मन के तार में मैं इतनी गुँथ गई थी कि उससे अलग होती तो मेरे जीवन का वायलिन टूट जाता, सो राघव नाम की प्रेम की नदी को अपने भीतर बहने दिया, अपना सुर बदल दिया…तार सप्तक से मध्य सप्तक में अपना सुर लाकर मैं सिर्फ ‘मेघ-राग’ गाने लगी। निरंतर ‘मेघ-राग’ गाने से ‘आई-बाबा’ का मन भी सूखे रेगिस्तान से पहाड़ी नदी में तब्दील होने लगा। राघव के प्रेम का मोरपंख मुझे सहला रहा था, जिसके हौसले से मैं अपने ‘आई-बाबा’ के मन को धान का खेत बना रही थी जिसमें बेहन लगाने से पहले खूब नरम किया जाता है”।
उस दिन उफनता समुद्र लहरों से अठखेलियां करता उसे अपनी आग़ोश में भर रहा था, पूनम के दिन की लहरें ग़जब ढा रही थीं…लहरों के किनारे पर हमने प्रेम लिखा, लहरों ने मिटाया। हमने फिर लिखा। पत्थरों पर खुदे हुए नामों की तस्वीरें खींची, तलछट पर लेटकर लहरों को ओढ़ लिया, फिर छापक-छैया खेला…। धीरे-धीरे खिसकती रेत पर अपने पैर की एड़ी गड़ाकर गोलाकार बनाए, मुट्ठी में गीली रेत भरकर एक दूसरे के चेहरे पर हमने मल दी।… ” कहते कहते वह फिर उन लम्हों को जैसे जीने लगी । उनकी आंखें आसमान की ओर तिरछी उठीं”।
अभिधा के दिल की धड़कन थम-सी गई हैं वह अपनी अनझिप आंखों से उनके चेहरे पर लिखे अबूझ अफ़साने को पढ़ने की कोशिश कर रही है।
…..उन्हें राघव की सांसों की उष्मा अभी भी महसूस हो रही है, राघव के कहे अल्फ़ाज़ को पहन वे कुछ कह रही हैं, जिसे वे ख़ुद ही सुन पा रही हैं। उनके अतीत की फुलवारी में कांटे ज्यादा…फूल कम नज़र आ रहे हैं। फिर भी वह इस वक्त कचनार-सी खिल गईं हैं, शब्द-दर-शब्द टटोलती वे फिर बोलने लगीं…
……..“और हम अपनी कार से पानी के तेज़ छींटे उड़ाते हुए लहरों के किनारे-किनारे दूर तक निकल गए। अचानक ही राघव को महसूस हुआ कि कार मोड़ते हुए गाड़ी के पहिए रेत में फंस रहे हैं… गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही है, जैसे-जैसे राघव एक्सेलेटर को दबाते वैसे-वैसे पहिया अंदर धंसता जाता, हमने तुरंत वापस लौटने का फैसला किया, लेकिन कार टर्न होने का नाम ही नहीं ले रही थी। रेत के जिस हिस्से पर पहिया घूमता…वहां रेत गीली हो जाती और गोल गड्ढा हो जाता। हम समुद्र तट के ऐसे निर्जन छोर पर थे जहां सिर्फ विराट समुद्र था।…और ऊंची-ऊंची लहरों का तेज़-डरावना शोर… समंदर के विपरीत, ऊंचे टीले और विशालकाय पत्थरों के पीछे नारियल के दरख्त की कतार थी और था बीहड़ सन्नाटा। डर और घबराहट में हाथ बर्फ़ हो गए थे…आंखों के आगे समंदर गोल-गोल घूमने लगा–जिसमें आई बाबा का चेहरा भी…यूं ही काफी देर हो चुकी थी। घर पहुंचने का निर्धारित समय ख़त्म हो गया था। दूर….बहुत दूर…तट पर कुछ मछुआरे नाव बांध रहे थे, दूर से वह छोटे बच्चे नजर आ रहे थे। राघव और मैं मिलकर रेत में धंसी कार को बाहर निकालने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। मैं भाग कर सामने के टीले से एक पत्थर ले आई, कार के पहियों को राघव ने पत्थर के ऊपर चढ़ाने की कोशिश की। मैंने पीछे से ‘पुश’ करने की कोशिश की….लेकिन पहिया टस-से-मस नहीं हुआ। पानी हमारी ओर बढ़ता जा रहा था, हर बार लहरें चिप्स के नए रैपर और पॉलिथीन छोड़ जातीं। लहरों का आवेग इतना ज्यादा था कि लगता अब हम अगले झोंके में बह जाएंगे, लेकिन समुद्र का विराट दिल जल्दी से किसी को लीलता नहीं। आखिर इतनी सारी नदियां उसकी आगोश में समाहित होती हैं तो अपनी बड़प्पन का उसे भी ख्याल रखना पड़ता है। इंसान को कहां ख्याल रहता है कि कुदरत हमारी हिफ़ाज़त कर रही है, इसलिए हम भी उसका सम्मान करें, ऐसे जोखिम उठाने की भला क्या ज़रूरत…यह हमें कहां याद रहता है। बार-बार हम खुद को कोस रहे थे कि इस खोखली रेत और ऐसे निर्जन किनारे पर भला क्यों आए…गुदगुदाने वाली लहरें अब विध्वंसक लगने लगी थी। राघव गाड़ी के पहियों और रेत के साथ लगातार मशक्कत कर रहा था।
“तुम करडे बीच की ओर जाओ, वहां कोई मछुआरा मिल जाए तो बेहतर…एक बार किसी की कार बीच पर पार्क की गई थी, लहरें उसे भिगो रही थीं, एक मछुआरे ने कार स्टार्ट करके सड़क तक ला दी थी। ये लोग यहाँ के एक्सपर्ट होते हैं”……हताश स्वर में कहते हुए राघव और ज्यादा पत्थर इकट्ठे करने लगा शायद पत्थरों पर गाड़ी का पहिया चढ़े और कार स्टार्ट हो जाए… वहां दूर तक कोई मदद करने वाला नहीं था। फिर भी मैं मदद की गुहार करती हुई उलटी दिशा में तलछट में दौड़ने लगी…. मेरी सांसों में जैसे उस वक्त मृदंग बज रहा हो और समुद्र तटीय हवा के वेग से भी तेज थी सांसों की गति…. तभी दिए और तूफान की कहानी की मानिंद वहां दिए भर रोशनी जगमगाई, तीन इंसानों की छाया टीले की तरफ से यानी समुद्र की विपरीत दिशा से आती नजर आई। हमारे जैसे साहसी रोमांच के शौकीन लोगों की काया थी ये…। तफरीह के अंदाज में तीनों कदमताल करते हुए मेरी ओर बढ़े आ रहे थे, मैं उनकी ओर दौड़ी, लेकिन मेरे भीतर संशय की नदी हिलोरे भी हिलोरें मारने लगी–“पता नहीं यह तीनों व्यक्ति ठीक हैं या नहीं….”। पर यह तीनों सचमुच तूफान में तिनके का सहारा निकले। मेरी परेशानी सुनकर बड़े तटस्थ भाव से एक जो उन दोनों के बीच में चल रहा था बोला- “यहां रेत खिसकना आम बात है। एक बार हमारी गाड़ी भी फंस गई थी। पत्थर-वत्थर रखकर रेत में से गाड़ी तो निकाल ली लेकिन पूरी तरह से गाड़ी खड़ंजा हो गई थी।” वे तीनों और मैं आधा किलो मीटर भी नहीं चले होंगे कि बहुत ऊंची वेगवती लहरें आईं और हम चारों को धकेल गईं। अब तक सिर्फ पैर और कमर तक ही हमारी पोशाकें गीली थी—पर लहरें सिर तक भिगो गईं। मुंह में नमकीन पानी घुस गया और दांतों में रेत किरकिराने लगी। बालों में नमक चिपचिपाने लगा। लहरों का वेग और ऊंचाई बढ़ती जा रही थी और मेरे मन के चलने की रफ्तार घोड़े सी हो गई थी।
मेरा मन डर की गहरी घाटी बन गया था, जिसमें एक तरफ….रेत की गहरी खाई में गाड़ी फंसी है जिसे बाहर निकालना- खाई में खुद गिर कर वापस पहाड़ी पर चढ़ने जैसा कठिन है, दूसरी तरफ ‘आई-बाबा’ का ख़ौफ़…अब तक घर पहुंच जाना था… जैसे-जैसे देर होगी उनका सामना करना दोपहर के तेज़ गरम सूरज से आंखें मिलाने जैसा होगा…ख्याल आते ही मैं गीली रेत पर दौड़ने लगी। मेरे पैर हल्के हल्के रेत में धंस रहे थे, लहरें कभी तेज कभी धीमी गति से हमारी बाईं ओर से आकर भिगोकर लौट जा रही थीं। मेरे पीछे-पीछे वह तीन व्यक्ति भी तेज गति से चलने लगे।
अचानक मन के कपाट पर फिर एक ख़्याल ने दस्तक दी–“कहीं यह तीनों व्यक्ति अच्छे ना हों और मेरे अकेलेपन और सुनसान जगह का ये फायदा ना उठाएं… ” इस ख्याल के अंकुर के साथ ही मेरे हाथ पाँव जमने लगे, पैर आगे बढ़ाऊँ तो जैसे हवा में लहरा जाए… पीछे मुड़कर देखने का हौसला भी जाता रहा, कनखियों से गर्दन हल्की घुमा कर देखने की कोशिश की कि वह आ रहे हैं और शायद उनका इरादा भी नेक है। ऐसा लग रहा था हम तीनों नजदीक पहुंच रहे हैं। नारियल का बड़ा गाछ जिसके आधे भाग चारों ओर गोलाई से बड़े पत्थरों से घिरे थे…. उसी के पीछे दूर एक रिजोर्ट था, यहीं कहीं हमारी गाड़ी फंसी थी, यहीं से मैं राघव को गाड़ी के साथ छोड़कर मदद की गुहार लगाने दौड़ती हुई गई थी पर अब अंधेरे में कुछ नजर नहीं आ रहा था… ।
न ही कहीं राघव नजर आ रहा था, हमने राघव को आवाज दी। मेरी आवाज़…. डर और आशंका से टकराकर मेरे ही कानों में गूँज रही थी। अपनी ही आवाज की अनुगूंज से कान झनझना रहे थे। अब पानी इतना बढ़ गया था कि आगे जाना मुमकिन नहीं लग रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था कि अब अगली लहर आएगी और हम तीनों को समंदर के बीचों बीच बहा ले जाएगी।
“लगता है वो गाड़ी छोड़कर आगे उस रेज़ोर्ट की ओर चले गए होंगे, क्योंकि गाड़ी तो कहीं नजर नहीं आ रही”–उनमें से एक युवक बोला था। दूसरे युवक ने हामी भरी…..“हां.. अपने साथ भी यही हुआ था… दरअसल यहां की रेत खोखली है, रेत पर पैर रखते ही गहरे से गड्ढे हो जाते हैं और फिर भू-स्खलन.. ”. यह बात सुनते ही मेरे मुंह से चीख निकली –“नहीं प्लीज़….अपशकुन वाली बातें न करें….राघव बहुत हिम्मती और समझदार है उसने खुद को बचा लिया होगा”।
“अब आगे जाना खतरे से खाली नहीं है दलदल जैसी है यहाँ की रेत…..कभी भी गड्ढा हो सकता है ”….पहला युवक जो थोड़ा आगे चल रहा था, बोला…..
“हम यहां कतई सुरक्षित नहीं हैं…. कुछ महीने पहले इसी बीच का कोई हिस्सा धंसक गया था, कई लोगों की जानें गई थीं ”…..यह कहते हुए वे तीनों युवक उस रेज़ोर्ट की ओर चल पड़े थे, जिधर कहीं बहुत दूर से मद्धम रोशनी टिमटिमा रही थी। मेरे कदम आगे ही नहीं बढ़ रहे थे…..चारों तरफ घूम-घूम कर मैं आगे बढ़ती, फिर पीछे लौटती, फिर राघव को आवाज़ लगाती… मेरी आंखों के सामने वह दृश्य कौंध गया….जब होली पर पेड़ का बड़ा-सा तना अपने कंधों पर रखकर कुछ युवक डांस कर रहे थे। ये सब होलिका दहन से पहले का जश्न था। उनके हाथ में बोतल थी और वे नशे में थे, कुछ पर शराब का नशा था, कुछ युवकों पर रंग का और कुछ युवक प्रेम के नशे में धुत्त थे। डांस करते करते उनमें से कुछ युवक मस्ती में पानी में काफी आगे तक निकल गए। पानी में जाते हुए तो वे दिखे पर पौराणिक कथा के चमत्कारी किरदार की तरह थोड़ी देर बाद वे अंतर्ध्यान हो गए। उनमें से कुछ जो किनारे की ओर थे वे उन्हें बचाने के लिए गोताखोरों की गुहार लगाने लगे। जो तेज लहरों में विलुप्त हुए थे उन्हें गोताखोरों की टीम ढूंढने गई थी, पर यहां ना तो कोई मछुआरा है ना कोई गोताखोर… ना ही दूर तक कोई आकृति नजर आ रही थी, न ही कोई कश्ती….मैं ‘राघव राघव’ पुकारे जा रही थी पर मेरी आवाज़ पाम और नारियल के पेड़ के क़तार में कहीं गूंज कर विलुप्त हो रही थी। शायद उन दरख़्तों में पनाह लिए चिड़ियों ने जरूर सुनी होगी तभी तो टिटिहरी की ‘टी टी’……किसी और चिड़िया का महीन स्वर फिज़ा में गुंजायमान हुआ था। मेरी आवाज़ राघव तक नहीं पहुंची….न समंदर ने सुनी….न ही उसमें रहने वाली डॉल्फिनों ने। हां शायद रेत के महीन कणों ने जरूर सुनी होगी, तभी तो मेरे पैरों तले गहरे निशान बने थे और उनमें पानी भर गए था, उस नन्हे
गड्ढे में इकट्ठे पानी में एक स्टार-फिश दिखी थी।
पाम के अलसाए पेड़ तेज हवा पाकर तड़-तड़ की आवाज़ कर के मन में और ख़ौ़फ़ पैदा कर रहे थे। चांद की खू़बसूरती शबाब पर थी। चांद ही तो अपने गुरुत्वाकर्षण से रचता है ज्वार-भाटे का क़हर और खेल…। शाम रात के आग़ोश में समा चुकी थी। आसमान से बूंद-बूंद चांदनी झर रही थी। पूनम की रात समंदर के साथ गलबहियां डाल कर और निखर आई थी। पर यह खू़बसूरती मेरे ऊपर फब्तियां कस रही थी। मेरी आंखों से बहती नमकीन खारी बूंदें होठों पर ठहर कर पपड़ा गईं थी। आसमान से झरती चाँदनी बदन पर शोले-से बरसा रही थी, मैं ‘राघव-राघव’ रटती हुई बिलखने लगी थी।मैं अपनी ही चीत्कार से खौफज़दा हो रही थी … अगर हमारी कार यहां दिखाई देती तो मैं यही मानती कि राघव ने गाड़ी यहीं छोड़ कर खुद को बचा लिया लेकिन गाड़ी का कोई अता-पता नहीं है। पाम और नारियल के दरख्तों के पार चारों ओर अपनी आंखों की पुतलियां घुमा-घुमा कर में बेचैनी से देख रही थी कि राघव कहीं खड़ा होकर हमारा इंतजार तो नहीं कर रहा है। ये ख्याल आते ही लहरों में डूबता उतराता पुरे समुद्र में राघव ही राघव नज़र आने लगा , मेरा दिमाग सुन्न सा होने लगा I
“दापोली के इन दो तीन बीच पर भूस्खलन आम बात है….बीच के इस तरफ आना ख़तरे से खेलना है। अब यहां वक्त बर्बाद करने की बजाय हमें किसी ग़ोताख़ोर को खोजना चाहिए। उधर जहां से मुट्ठी भर रोशनी आ रही है। वहां कोई रिजोर्ट या मछुआरों का घर जरूर होगा उनसे हमें मदद लेनी चाहिए”…..तीनों में से एक युवक की कही बात का हर शब्द टूटे हुए कांच की तरह किरच-किरच मुझे चुभ रहा था। मैं पीड़ा के दंश से कराहने लगी थी। मेरी कराह और उम्मीद का गला घोंट दिया था उस शख़्स के जवाब ने जो उस मद्धम रोशनी वाले रेज़ोर्ट से आ रहा था। उसके एक एक शब्द ने राघव के वहां न पहुँचने की मुहर लगा दी थी।
“वह रेज़ोर्ट बंद है, वहां कोई व्यक्ति नहीं है”…..उसका ये वाक्य सुनते ही मेरी आंखों के सामने राघव का बेबस चेहरा ठहर गया, जो ऊंची लहरों के थपेड़े से चोट खाते हुए जूझ रहा है। ख़ुद को बचाने के लिए उसने पत्थर और टीलों की ओर भागने की कोशिश की होगी। रेत के अंदर धंसते हुए….पानी के अथाह सागर में बेचैनी से छटपटाते हुए…खु़द को बचाने के लिए उसने इधर-उधर हाथ बढ़ाया होगा–शायद कार का दरवाजा या बोनट पकड़ में आ जाए। उसने मुझे आवाज दी होगी….लेकिन उसकी आवाज गले के भीतर ही घुटकर दम तोड़ रही होगी। उसने ‘बचाओ बचाओ’ की गुहार जरूर की होगी। उसके मुंह और नथुनों में पानी भर गया होगा। उसने अपने घरवालों को याद किया होगा। उसके सामने पूरा ब्रह्मांड घूम गया होगा। उसने अपने भगवान को याद किया होगा। प्रार्थना की होगी अपनी जान बचाने की। खुद को अथाह जल राशि के भीतर पाकर कितना छटपटाया होगा। किस तरह से तड़पा होगा। दम घुटा होगा। उफ़-उफ़। क्या मेरा नाम वह अंतिम क्षणों में पूरी तरह से बोल पाया होगा।
रेत का भँवर मेरी आंखों की पुतलियों में गोल-गोल घूमने लगा। मैं राघव को पुकार रही थी लेकिन ‘रा…’ अक्षर के बाद कोई और अक्षर मेरे मुंह से उच्चरित नहीं हो पा रहा था। सिर्फ मुंह खुल रहा था। मेरी आवाज़ पानी में विलीन हो गयी थी। जिस तरह नींद में हम कोई भयावह सपना देखते हैं, और ज़ोर से चीखते हैं—लेकिन मुंह से आवाज़ नहीं निकलती…. अंदर ही अंदर गले में घुटती रहती है… ठीक वैसा ही अहसास था उस रोज़। मेरे मुंह से निकली वो आख़िरी चीख़ थी शायद। ‘राघव’ कहने में मैंने इतनी ताक़त लगायी कि मेरी सांस घुटने लगी थी। बिलखती हुई मैं छटपटा रही थी। उन तीनों युवकों में से किसी एक के हाथ का सिर्फ स्पर्श याद है मुझे।
मेरी आंखों के सामने यह दृश्य जीवंत हो उठा था। और मैं जैसे रेत के दलदल में फंसी हूं। इसके बाद मुझे अपनी सिर्फ चीख याद है। बस उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ नहीं याद, जब होश आया तो मैं अस्पताल में थी। ‘आई’, ‘बाबा’, रिश्तेदार सब थे मेरे सामने…फिर भी मैं महासागर के अथाह जल राशि में निर्जन एकाकी बेसहारा डूबी जा रही थी।
अभिधा ने ज़ोर से लंबी उसांस भरी तो उसके गालों पर ठहरे आंसू की बूंदों कण हवा में उड़ गए। बारिश की बूंदें भी मंद हवा का साथ पाकर चारों ओर उड़ने लगीं। मौसम का रंग निखर आया है लेकिन उनके मन के मौसम में अभी काली घटाएं घिरी हैं। आज भी वे यही मानती हैं कि राघव को लहरें नहीं ले गईं। वो दुनिया में कहीं है—वे अपने मन में आज भी राघव के इंतज़ार का चिराग़ जलाए हुए हैं।
हथेली पर पिघलता चाँद
बड़ा मुश्किल होता है ख़ुद की ईमानदारी और इंसानियत के बारे में कैफ़ियत देना। अपनी नस्ल और रंग का प्रमाणपत्र भला कोई कैसे दे सकता है….पर देना पड़ता है। उसे अपनी लियाकत और वतनपरस्ती का सर्टिफिकेट हर वक़्त झोले में टाँगे रहना पड़ता है, इसलिए ये शहर कई बार अजूबा लगता है।
अपना प्रदेश छोड़ कर जब अल्ताफ़ वानी ने तबादले के बाद बनारस की ओर रुख़ किया तो साथ में ख़्वाबों की बड़ी-सी पोटली थी और कुछ नया कर डालने का जज्बा …। सुंदर पहाड़ी क़स्बे से एक बड़े शहर की चकाचौंध में खुद को एकाकार करना था। पहलगाम की ख़ूबसूरत वादियाँ, लिद्दर नदी का ठंडा पानी, चक्करदार खेत, हरियाली का कारवां छूट जाने की पीड़ा थी पर प्रमोशन का लालच भी था। लालच या छोटे सपने से बड़े सपने को पाने की चाहत…चाहता तो प्रमोशन ठुकरा कर उस ठहरे हुए क़स्बे में ताज़िंदगी ठहरा रहता। कुदरत की हरियाली के साथ दिल भी हरा और आबाद रहता।
एक रोज़ नीली बस में सवार हुए और ख़ूबसूरत फ़िज़ाओं की नरमी छूट गई, ठंडी, सुकूनदेह जिंदगी लू के थपेड़ों से भरी, चिलचिलाती धूप भरी और तेज़ रफ़्तार हो गई।
नए शहर में अपने पैर जमाने के लिए अपनी चाल-ढाल बदलनी पड़ती है, पर अल्ताफ़ वानी के भीतर की कश्मीरी बर्फ़ उत्तर प्रदेश की गर्मी से न पिघलती…..। सीधी-सपाट सड़कों पर चलते हुए पहलगाम की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी याद आती और बीते दिनों की याद हरारत की तरह महसूस करते
अल्ताफ़ वानी ने स्टाफ़-रूम में घुसने से पहले गर्मी और पसीने से सांवले पड़ते अपने लाल टमाटर सरीखे चेहरे को हरे रंग की रुमाल से पोंछा। पहलगाम से आते समय ये रुमाल उनकी शरीके-हयात अदीबा ने अपने हाथों से कशीदे काढ़ कर दिया था। कशीदे वाले रुमाल का फ़ैशन कब का पुराना हो गया, लेकिन अदीबा ने मुहब्बत के रूह-अफ्ज़ा से तर-बतर करके दिया है, सो ये हर वक़्त वो अपने पास रखते हैं।
स्टाफ़ रूम की आयताकार लम्बे मीटिंग-टेबल पर पंखे की हवा से दो-तीन पन्नों का एक आदेश पत्र फड़फड़ा रहा था, उसने उठाया देखा तो ये आदेश-पत्र उसी के नाम था। सरकारी भाषा में लिखे उस लम्बे दस्तावेज़ में उनके काम की बात इतनी ही थी कि दिल्ली में आयोजित 5 दिन के बाल महोत्सव में उन्हें अपने स्कूल की नाटक-टोली लेकर जाना है। बाल महोत्सव में
देश के कई प्रान्तों के स्टूडेंट्स आयेंगे।
ओह…बरस बीत गया, पिछले बरस इन्हीं दिनों तो हुआ था बाल-महोत्सव। आँखों की पुतलियों में बसा है वो लम्हा और ये गुफ़्तगू…..
-‘मुबारक हो वानी जी आखिरकार जीत ही गया कश्मीरी’ …समोसे और लड्डू की ट्रे सामने बढ़ाते हुए अमरप्रीत बोला था।
-‘उसका नाम है -साहिल बख़्शी’
-कुछ भी हो, है तो कश्मीरी न …और आप भी वहीं के मूल निवासी हैं…आपको तो ज़्यादा ही प्रसन्नता होगी।
अल्ताफ़ वानी के विचलन और दिमाग़ झनझना उठने के लिए ये वाक्य काफी था। सेन्ट्रल स्कूल के बड़े फलक पर बौद्धिक-जामे के पीछे विचारों की तंगदिली उन्हें यहाँ ख़ूब दिखाई दे रही थी।
-मुझे साहिल बख़्शी की जीत की ख़ुशी से ज्यादा मोनिका खुराना के हारने का दुःख है, क्योंकि उसने जो कहानी लिखी थी उसकी तरकीब मैंने बताई थी और उसने बेइन्तिहा मेहनत की थी।
नाटक और अदाकारी की बेहतरीन समझ तो फ़हीम और साहिल बख़्शी में ही है, श्वेता भी अच्छा निभा लेती है। पर इस बार भी तोहमत ही लगेगी…. फ़हीम या साहिल को अहम किरदार दिया तो ये तोहमत कि ये कश्मीरी हैं, श्वेता को दिया तो कहा जाएगा ‘देखा … खुद को पाक साफ़ साबित करने के लिए श्वेता को चुना’ …. ख़ैर …किसी की बेबुनियाद तोहमत से बचने के लिए वो अपने स्कूल का नाम रोशन करने से पीछे नहीं हटेगा।
कोलकाता में ऐसा ही तो हुआ था….वहां वानी की पोस्टिंग से बखेड़ा खड़ा हो गया था, तीन चार लोगों ने हड़ताल कर दी थी–‘हमारा हक़ एक कश्मीरी ले रहा है’ …..संस्कृत तो कोई विद्वान ही सिखा सकता है, ऐसा व्यक्ति जिसमें भाषा का संस्कार हो, जिसे उपनिषद, वेद, पुराणों का ज्ञान हो। चाँद की इबादत करने वाला भला क्या जाने सूरज का तेज….! आख़िरकार अल्ताफ़ वानी का तबादला कश्मीर कर दिया गया था।
ख़यालों के तूफ़ान से बचने के लिए अल्ताफ़ वानी ने किताब के पन्नों में ख़ुद को उलझा लिया।
रवि चौबे किसी से फ़ोन पर बतियाते हुए स्टाफ़ रूम में आकर आराम कुर्सी पर बैठ गये। ‘तुष्टिकरण की नीति के चक्कर में कई बार हमारा हक़ छिन जाता है। कभी अल्प-संख्यक कभी आरक्षण के फेर में हम पीछे धकेल दिए जाते हैं…। आख़िर कब तक हम अपने अधिकारों से वंचित किये जाते रहेंगे।
रवि चौबे के इन अल्फ़ाज़ से अल्ताफ़ वानी के दिल में हलचल मची पर चेहरा झील का शांत पानी बना रहा।
-वानी साहेब नाटक का रिहर्सल शुरू हो गया…?
-किस नाटक की बात आप कर रहे हैं ?
-ज्यादा बनिये मत… सामने छप्पन भोग रखा है औ आप भूखे बईठे हैं… हो हो करके हंसते हुए चौबे जी पान मसाले की पीक पिच्च से कचरे के डब्बे में थूक दिए।
– आप यूथ फ़ेस्टिवल वाले नाटक की बात कर रहे हैं..?
-जी हाँ, आदेश-पत्र तो आपको मिल ही गया न…? ऊ क्या रखा है सामने…।
-वैसे…आपकी ज़्यादा दिलचस्पी हो तो आप ही ले लीजिये ये ज़िम्मेदारी…अल्ताफ़ वानी खीझते हुए बोले।
-कऊन नहीं इच्छुक होगा…हवाई जहाज़ की यात्रा, फ़ाइव स्टार होटल में निवास…लेकिन जब तक चयनकर्ता की टीम में जनाब इक़बाल अहमद हैं, तब तक कश्मीर का नाम रोशन होता रहेगा….। हम सब का पत्ता साफ़ ही रहेगा। पिछली प्रतियोगिता में भी आप ही गये थे। ईर्ष्या और पीड़ा का भाव चौबे के चेहरे पर साफ़ झलक रहा था।
-जी….छात्रों की टीम के साथ।
-चौबे जी! आप मेरी लियाक़त पर सवाल उठा रहे हैं…
-अरे वानी जी! आप त बुरा मान गए, हम त आपके मित्र हैं… दरअसल ये बात सेन्ट्रल स्कूल की हवा में उड़ रही है, और इसी बात का घंटा बज रहा है।
-इस बात को स्कूल की घंटी में बजाने वाले या तो आप हैं या फिर अमरप्रीत खुराना …
-देखिये वानी जी हमने तो इन सबों को कितना समझाया कि धारा 370 हटाये जाने के बाद कश्मीर भी हमारा हो गया है। अब तो लगन-वगन करके बिरादरी भी एकै हो जायेगी, इस तरह आप हमारे अपने हुए भाई ….. कहते हुए चौबे जी मुंह में पान का बीड़ा ठूंस कर चप-चप करने लगे।
अल्ताफ़ वानी की आँखों के आगे वो दृश्य ठहर गया जब रेडियो-टेलीविज़न में खबर आई थी कि कश्मीर से धारा 370 हटा दी गयी है। स्टाफ़ रूम में चाय-समोसे की पार्टी हुई थी…आठवीं क्लास के छात्रों को बरामदे में एकत्रित कर यू ट्यूब पर गाना ‘कितनी ख़ूबसूरत ये तस्वीर है, ये कश्मीर है’ बजा कर, कुछ महिला टीचर्स ने डांस भी किया था।
‘आप अपना दिल न छोटा कीजिये’ कहते हुए मधु शर्मा ने स्टाफ़ रूम के कोने में बैठे अल्ताफ़ वानी के सामने समोसे की प्लेट बढ़ा दी थी……’लीजिये चाय भी लीजिये आज तो जश्न का दिन है’…।
मधु जी, दिल को समझने के लिए तंगदिल दिमाग़ नहीं बल्कि आसमान जैसा खुला दिल चाहिए।
‘हुंह …हमेशा शायराना अंदाज़ में ही चाँटा मारता है’….सैंडल खट-खट करती हुईं मधु शर्मा स्टाफ़ रूम से निकल कर बरामदे में छात्रों के बीच गुम हो गईं।
इनमें से किसी को नहीं मालूम कि अल्ताफ़ वानी बचपन में अमन पंडित अंकल के घर रोज़ शाम पूजा की आरती करते और माता के जगराता में ‘जय माता दी’ का जयकारा लगाते हुए प्रभात-फेरियां करते थे। उनके घर में जब पण्डित अंकल और रैना आंटी पूजा पर बैठते तो हवन के लिये अम्मी-जान समिधा तैयार करतीं और 21 आहुतियाँ ख़ुद भी हवन कुण्ड में डालतीं। रैना आंटी बड़े प्यार से सबको प्रसाद खिलातीं। अम्मी जान रोज़ क़ुरान पढ़तीं और अपने बच्चों से यही कहतीं दुनिया में एक ही मज़हब है, इंसानियत का…जब भी इबादत करो दुनिया में अमन-चैन की दुआ करो…कभी-कभी वे उपनिषद और महाभारत के क़िस्से भी सुनातीं। उन्हें संस्कृत का भी इल्म था। अल्ताफ़ वानी को जितना नमाज़ पढ़ कर सुकून मिलता उतना ही पूजा-आरती करके।
किसी के भीतर गहराई से धँसी बात को काटना या बदल पाना बरसाती नदी पार करने जैसा मुश्किल है और इस मुश्किल का सामना अल्ताफ़ वानी को रोज़ करना पड़ता है, उन्हें ख़ुद की इंसानियत और वफ़ादारी का इम्तिहान रोज़ देना पड़ता है। लोगों के शक की धुंध से ख़ुद को बचा पाना कितना मुश्किल है, ये वही समझ सकता है, जो दिन-रात इससे गुज़रता रहा हो।
और तो और…स्कूल के प्रिंसिपल को भी लगता कि अल्ताफ़ वानी किसी रोज़ बखेड़ा खड़ा करेगा…. नाहक इसने किसी एक टीचर की जगह हड़प ली है …।
उस रोज़ नाटक की रिहर्सल के दौरान प्रिंसिपल राठौड़ साहब ने प्यून से सन्देश भेजा ‘साहेब ने अर्जेंट बुलाया है’
‘चाय पियोगे या कॉफ़ी ? राठौड़ साहब ने मुस्कुरा कर पूछा।
जी कॉफ़ी।
ओ हाँ आपके यहाँ तो कहवा पिया जाता है न ..?
जी, चाय और कॉफ़ी भी….
कॉफ़ी आई… एक मग काला, एक सफ़ेद चित्तीदार। काला मग वानी के सामने बढ़ा कर राठौड़ साहब ख़ुद खिड़की के पास खड़े हो कर कॉफ़ी पीने लगे।
राठौड़ साहब ने घंटी बजाई और चपरासी हाज़िर हुआ।
‘ये वाला मग धो कर बाहर की अलमारी में अलग से रख देना। वानी जी के लिए ये ख़ास कश्मीरी है’……कहते हुए मुस्कुरा दिए।
-देखिये वानी जी हम कितना भी समता और समन्वय की पालकी सज़ा लें पर दो प्रदेशों को….दो संस्कृतियों को एक करना बड़ा मुश्किल है। आप खाने के बाद नमाज़ पढ़ते हैं, हम खाने से पहले पूजा करते हैं। आप तर्जनी उँगली से माला जपते हैं, हम अनामिका से।
-जी, पर मक़सद दोनों का एक ही है, इबादत….नेकी का पैग़ाम। रब का शुक्रिया अदा करना।
ये देखिये आप ‘इबादत’ कहते हैं, हम ‘पूजा’ …। भई, हमारे हिसाब से सारी नदियों का पानी एक जैसा कैसे हो सकता है..। ख़ैर, आपकी सलाहियत के हम क़ायल हैं। ये शब्द हम सही बोले न?
-जी। …सर! आपने हमें बुलाया था…
अरे हाँ….नाटक मंडली में छात्रों का चयन ज़रा समझदारी से कीजियेगा, क्योंकि प्रतियोगिता जहाँ आयोजित है वहां भी गंगा-जमनी तहज़ीब तो है पर दोनों नदियों की महत्ता अलग-अलग है। दो नदियों के मिलन से सारा पानी एक नहीं हो जाता। आब-ए-ज़मज़म और गंगाजल को एक नहीं किया जा सकता। ज़मज़म मक्का-मदीना का पवित्र पानी है हमारे देश का नहीं…हमारी गंगा नदी माँ सामान हैं। हमारे यहाँ गंगाजल से शुद्धीकरण होता है। इसलिए छात्रों के चयन में नाम-वाम का विशेष ख़याल रखियेगा। साहिल बख़्शी पिछली बार भी आपके मुख्य कलाकार थे। बाक़ी आप खुदै समझदार हैं।
बोझिल मन से अल्ताफ़ वानी प्रिंसिपल राठौड़ साहब के कमरे से निकले तो उनके भीतर ऊहापोह का तूफ़ान था। छात्रों को उनकी काबलियत के मुताबिक़ नाटक के रोल दे दिए हैं, फ़हीम, साहिल बख़्शी और श्वेता इन तीनों छात्रों को नाटक के अहम किरदार दिए हैं….अब रोल बदल कर नए सिरे से रिहर्सल करवाने का वक़्त भी नहीं, लेकिन प्रिंसिपल साहब का इशारा साफ़ था। फ़हीम या साहिल दोनों में से एक को ही शामिल किया जाए। वो भी इन्हें अहम किरदार न दिया जाए।
आख़िरकार अल्ताफ़ वानी को अपने दिल पर पत्थर रख कर साहिल बख़्शी को नाटक टोली से निकालना पड़ा।
-सर हमसे क्या ख़ता हुई?
-प्रिंसिपल साहेब का आदेश है।
-सर..
साहिल की पलकें झुकीं थीं लेकिन उसकी पलकों में टूटे ख्वाब की पंखुडियां साफ़ दीख रही थीं।
-कुछ कहना चाहते हो?
-सर! सिर्फ मेरे लिए ही क्यों…. श्वेता, आरुषि पाण्डे…? मेरी जगह पर नीलाभ को रखा गया, उसने तो कभी नाटक किया ही नहीं। सब समझ गया सर…कहते हुए साहिल का चेहरा तमतमा गया था, वो तेज़ क़दमों से बाहर हो गया। साहिल कमरे से बाहर चला गया लेकिन अल्ताफ़ वानी के लिए मायूसी और दर्द का सागर छोड़ गया। अल्ताफ़ वानी उसे क्या समझाएं कि साहिल को टीम में वो खुद रखना कहते हैं।
-मानी साहिल को भी पता है नीलाभ शहर के सांसद का बेटा है….निश्चय ही साहिल के भीतर अफ़सोस का ग्लेशियर पिघला होगा। उसकी ख़्वाहिश की किरचियां बिखरी होंगी, वो मन से टूटा होगा।
अलताफ़ वानी को बचपन के वे दिन याद आ गये जब हर घर की दीवारें अपनी थीं, हर रसोई मुहब्बत की चाशनी से पकती थी। जब अम्मीजान सर पर दुपट्टा ओढ़ जॉब करने जातीं तो अल्ताफ़ और उसकी बहन को अमन पण्डित अंकल के घर छोड़ देतीं। उनके यहाँ दिन गुलज़ार रहता…वो पढ़ाई-लिखाई से ले कर खेल कूद सब करवाते। कश्मीर के पहाड़ों और नदियों के क़िस्से सुनाते, वो सब एक फ़िल्म की तरह लगते। जब वो घाटी के टेंशन की ख़ौफ़नाक घटनाएँ बताते तो थोड़े उदास हो जाते। उनकी उदासी के माने अल्ताफ़ को अब समझ में आए हैं।
अम्मीजान शाम को लौटतीं तो रैना आंटी के साथ मन्दिर जातीं, शाम की आरती और प्रसाद ले कर आतीं हम सबको देतीं फिर अपने घर आ कर शाम की नमाज़ अदा करतीं। अल्ताफ़ वानी और उनके भाई-बहनों को पूजा और नमाज़ में कोई फ़र्क़ नहीं नज़र आता था। ये बातें अल्ताफ़ वानी को विरसे में मिली थीं। रैना आंटी भी अपने बच्चे और अल्ताफ़ वानी में कोई फर्क न करतीं, कई बार तो एक ही थाली में खाना दे देतीं।
अल्ताफ़ वानी ने ख़ुद को बचपन की यादों के बियाबान से बाहर निकाला। नाटक की स्क्रिप्ट ले कर तयशुदा किरदारों में रद्दोबदल करने लगा। साहिल की जगह नीलाभ का नाम लिखा। उसके पूरे के पूरे संवाद कई जगह बदलने पड़े, क्योंकि नीलाभ उर्दू ज़बान बोलने में एकदम कच्चा है। उसके तलफ़्फ़ुज़ ठीक नहीं हैं, नुक्ते तक नहीं निभा पाता, जबकि नीलाभ का किरदार उर्दूदां¬¬¬ है।
स्क्रिप्ट से मशक्कत कर ही रहा था तभी ‘वुमानी कश्मीर कॉलिंग’ टेबल के बीचों-बीच रखे मोबाइल के स्क्रीन पर चमका। ‘बछस्से ख़ान मोज़कूर’……रिंग टोन बज उठी……मधु शर्मा उचक कर मोबाइल में झाँकने लगीं। जब तक अल्ताफ़ वानी मोबाइल हाथ में लें तब तक मधु सक्सेना ने स्क्रीन में पढ़ा –‘वूमन कश्मीर कॉलिंग’….. मधु जी के कान खड़े हो गए। सोचने के लिए मसाला मिल गया… ‘वूमन कश्मीर’… आख़िर किसी औरत के नाम की बजाय ‘वूमन’ के नाम से नम्बर क्यों सेव किया इसने…? लगता है इसका किसी से नाजायज़ रिश्ता है, सोचते हुए वे अल्ताफ़ को मोबाइल पर बात करते अपलक देखती रहीं। अल्ताफ़ वानी कश्मीरी ज़बान बोल रहे थे। मधु शर्मा अल्ताफ़ के चेहरे के उतार-चढ़ाव को देख कर भाँपने की कोशिश कर रही थीं। ‘पश्तो मुशी पुशी…आख़िर ये बातें क्या कर रहा है, कोई रुमानियत का भाव तो चेहरे पर नज़र नहीं आ रहा….आख़िर इस औरत से इसके किस तरह के रिश्ते होंगे….लाख कान और दिमाग़ लगाने पर भी मधु शर्मा को समझ में कुछ नहीं आया।
“दुआओं में याद रखियेगा” कहते हुए अल्ताफ़ ने फ़ोन रख दिया।
‘हो गया राज़फ़ाश…..एक मर्द हमेशा औरत से दुआओं की उम्मीद करता है’। प्रपंच की इस मरीचिका में मधु शर्मा ये भी भूल गईं कि 12 बजे उन्हें 8वीं की क्लास लेनी थी। दीवार पर टंगी घड़ी ने टन्न का घंटा बजाया तो मधु अपनी आँखों में तजस्सुस (जिज्ञासा) का दरिया लिए, टेबल पर बिखरे काग़ज़ों का बंडल हाथ में उठा कर, साड़ी का पल्लू संभालती हुई क्लास रूम रूम की ओर भागीं।
मधु शर्मा क्लास ले कर लौटीं तो उन्हें चाय की बेहद तलब लगी हुई थी, उन्होंने अल्ताफ़ वानी से भी औपचारिकता में पूछ लिया। समय के पाबंद अल्ताफ़ का ये लंच का समय था, सो उन्होंने बैग से थोड़ा आड़ की और लंच बॉक्स खोल लिया। दोनों हथेली जोड़ कर अल्लाह से गुफ़्तगू की, दुआ पढ़ कर खाने लगे।
मधु अपनी चाय का प्याला ले कर बहाने से अल्ताफ़ की टेबल की ओर झाँकने लगीं…
‘लगता है ये नॉनवेज खा रहा है, जबकि स्कूल में अलाउड नहीं है’…..
-‘बड़ी जल्दी लंच ले रहे हैं…..सुना है आपके यहाँ त्योहारों पर भी नॉनवेज बनता है..? वाज़वान और जाने क्या-क्या? हमारे यहाँ तो भगवान वाले दिन जैसे मंगल, शनि और गुरु को नॉन-वेज तो क्या अंडा भी नहीं बनता’….खुले हुए टिफ़िन बॉक्स की तरफ़ आँखें गड़ाती हुई मधु शर्मा बोलीं…
-‘जी बिलकुल बनता है, पर मैं नॉनवेज नहीं खाता। एक बता बताईये, आपके हसबैंड और बच्चे तो नॉनवेज खाते ही होंगे ना? आपको आता है बनाना?’….कहते हुए अल्ताफ़ वानी मन ही मन भगवान वाले दिन के मानी खोजने लगे, गो कि भगवान वाले दिन सात में तीन ही कैसे?
-‘झूठा कहीं का’….हिक़ारत से देखते हुए, जिस बैग से अल्ताफ़ वानी ने आड़ किया था, झटके से उसे दूर हटा दिया। टिफ़िन में बची हुई पूरी थी, आलू-गोभी की सब्ज़ी और खीर…मधु शर्मा की आंखें अचरज से इतनी चौड़ी हो गईं कि देखने वाला उनकी आँखों में पूरी दुनिया देख ले…। मधु शर्मा अपने इन्हीं प्रपंचों की वजह से कूप-मंडूक कहलातीं। पर अगर उनके सामने इस तरह की बात का जो इज़हार-ए-हाल कर दे तो बस सीधा वूमन सेल में शिकायत की धमकी से भाग खड़ा हो…। अल्ताफ़ वानी ने मोबाइल में तारीख देखीं-‘नाटक के रिहर्सल के लिए वक़्त बहुत कम है।
श्वेता, आरुषि पाण्डे, फ़हीम और नीलाभ…..नाटक की इस टीम में सबसे कच्चा कलाकार नीलाभ था, वो भी देर से शामिल हुआ। उसे एक-एक नाटक की एक-एक लाइन बोल बोल कर रिहर्सल करवानी पड़ रही थी। सांसद का बेटा होने का एक सुपीरिऑरिटी कॉम्पलेक्स वो हमेशा साथ लिए रहता….
नीलाभ के लिए अल्ताफ़ वानी ने कई डायलॉग बदल दिए। रातों को ख़्वाब में भी अल्ताफ़ अपनी टीम के साथ नाटक तैयार कर रहे होते ….।
-‘मैंने कितनी बार तुम्हें मना किया है, ज़रूरत से ज्यादा चीजों से घर मत भरो…टेक्नोलॉजी से इतना ज्यादा जुड़ोगे तो ख़ुद एक मशीन में तब्दील हो जाओगे’….आरुषि पाण्डे ने अपना संवाद बोला।
-‘इंसान को मशीन तो बनना ही पड़ेगा, अब सांस भी नकली है। यानी सिलेंडर से मिल रही है….दुनिया तेज रफ़्तार भाग रही है’।
नीलाभ के इस डायलॉग पर अल्ताफ़ वानी ने तल्ख़ी से देखा और बोले ‘तेज’ नहीं ‘तेज़’…नुक्ता लगेगा। नीलाभ को भी अंदाज़ा लग रहा था कि उसका परफ़ॉर्मेंस एक्सेलेंट नहीं है और सर को अब खीझ हो रही है। सर एक चान्स और दीजिये …।
असल में सिफ़ारिश के बल पर किसी के भीतर कला का बीज नहीं रोपा जा सकता। आसमान से कई बार ज़मीन पर पटके गये अल्ताफ़ वानी बेचारे करें क्या……उन्हें तो ख़ामोश रह कर बहती हवा में, बिना मिट्टी के फूल खिलाना है, बीज में चाहे दम हो या न हो..। उन्हें नीलाभ को बेस्ट ऑफ़ दि बेस्ट दिलवाना है और नाटक प्रतियोगिता में तमग़ा भी लाना है।
प्रिंसिपल साहब की ये बात याद है….‘भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां को मिला, इसका ये मतलब नहीं कि देश में और किसी कलाकार के पास इतनी प्रतिभा नहीं है…..मतलब पर ज़रा ग़ौर कीजियेगा—ज़रूरी नहीं कि साहिल बख़्शी के बल पर ही हर प्रतियोगिता जीती जाए। मानता हूँ वो खरा सोना है पर आप अपनी ऊर्जा भी तो लगाइए। अरे, पीतल को सोना बनाईये तब जानें।
इस तरह की बाध्यता का बोझ लिए अल्ताफ़ वानी रोज़ रिहर्सल में जी-जान से जुटे थे। अगर इस बार प्रतियोगिता में टीम अव्वल नहीं आई तो तोहमत भी मढ़ दी जाएगी।
साहिल बख़्शी से अल्ताफ़ का ख़ासा नाता था, नाटक से हटाये जाने के बाद उसने प्रतियोगिता में दिलचस्पी नहीं ली…..अल्ताफ़ वानी के लिए वो रात सबसे लम्बी रात थी जिसकी अगली शाम प्रतियोगिता के लिए निकलना था। उन्होंने स्कूल के लिए रवाना होने से पहले ही अपना बैग तैयार करके रख लिया, क्योंकि स्कूल में फ़ाइनल रिहर्सल के कारण देर हो सकती थी। स्कूल जाते समय अल्ताफ़ वानी ने खुद को बड़ा हल्का और सुकून से भरा पाया।
ऊंची पहाड़ी के करीब आते ही इंसान की थकान कम होने लगती है। कच्ची मिट्टी को ख़ूबसूरत सांचे में ढाल कर कुम्हार को सुकून मिलता है और ये सुकून मिला अल्ताफ़ वानी को नीलाभ को नाटक का उम्दा किरदार बना कर। आरुषि, फ़हीम और श्वेता तो पहले से ही बेस्ट परफ़ॉर्म ही
कर रहे थे। अब नीलाभ भी तकरीबन मंझा हुआ कलाकार बन गया था। स्टाफ रूम से लगे बरामदे में ये चारों कलाकार अपने अल्ताफ़ सर का इंतज़ार कर रहे थे। उन्हें देखते ही उत्साह और ख़ुशी से उछल पड़े… ‘सर ये आपके लिए..’।
फूलों से सजे एक गुलदस्ते में रंगीन ग्रीटिंग कार्ड अटकाया हुआ था, जिस पर लिखे हुए अक्षर देखने के लिए उन्हें कार्ड गुलदस्ते से निकालने की ज़रूरत नहीं पड़ी…“चाँद को हम हथेली पर सजायेंगे, सूरज को हम अपने माथे पर चमकाएंगे…”।
-आमीन…जिस मेहनत और लगन से तुम लोग सफ़ीने पर सवार हुए हो, सागर पार ज़रूर करोगे। हमारी जानिब से तुम लोग अलाएं-बालाएं भगा कर नज़र उतरवा लेना….कामयाबी तुम लोगों के क़दम चूमे।
अल्ताफ़ वानी की आँखों में उस वक़्त ख़ूबसूरत ख़्वाब पूरा होने की चमक है। वे रेशम की डोरियों वाले झूले में झूल रहे हैं…हॉल में बैठे कुछ लोगों की आवाज़ें आ रही हैं- ‘आसमां कैसे कैसे’ नाटक को प्रथम पुरस्कार मिलना चाहिए। और फिर…मंच पर उद्घोषणा होती है- ‘राही’ ग्रुप को मिला सर्वश्रेष्ठ नाटक का प्रथम पुरस्कार। आरुषि, श्वेता, फ़हीम और नीलाभ डांस करते हुए अल्ताफ़ वानी की ओर आ रहे हैं….‘राही’ समूह को मंत्री जी के हाथों अवार्ड से नवाज़ा जा रहा है। मंत्री जी रेशमी कुर्ते -पाजामे में माशाअल्लाह ख़ूब जंच रहे हैं…..। तभी टन-टन-टन स्कूल का तेज़ घंटा बज उठा। रीसेस हो गयी…..अल्ताफ़ वानी ख़्यालों के पहाड़ से धम्म से नीचे आ गिरे और तभी प्रिंसिपल साहब के बुलावे का पैग़ाम लिए चपरासी खड़ा था।
-“वानी जी! कॉफ़ी पियेंगे न? हम जान गये हैं आपकी पसंद”…..कहते हुए प्रिंसिपल साहब ने चपरासी को इशारा किया, उसने काले वाले कप में कॉफ़ी वानी जी के सामने रख दी।
…. ‘शुक्रिया सर’!
-‘आप बड़े अदब वाले हैं भाई। कई बार हमें लगता है हम आपसे आपका अदब सीख लें’..
-‘सर! ये आपकी ज़र्रा-नवाज़ी है’।
-‘आप हमारे स्कूल के बहुत मेहनती और प्रतिभाशाली टीचर हैं। आज तक किसी छात्र की ओर से आपके लिए कोई शिकायत नहीं आई लेकिन’…
-‘सर, लेकिन क्या’? ….अल्ताफ़ वानी समझने की कोशिश कर रहे थे कि प्रिंसिपल साहब आख़िर कहना क्या चाहते हैं…
-‘एक बड़ी समस्या आन पड़ी है। ऊपर से आदेश आया है, हमें भी अचरज हो रहा है…नाटक की टीम के साथ आपकी जगह पर चौबे जी को भेजा जायेगा। आपका नाम निरस्त कर दिया गया है…..’
प्रिंसिपल साहब अल्ताफ़ वानी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करते हुए बोले—‘हम समझ सकते हैं आपका दर्द। आपने इतनी मेहनत की है नाटक की तैयारी में। छात्रों से ज़्यादा आपने लगन और परिश्रम दिखाया है।
-‘लेकिन सर आप अपनी तरफ़ से कह सकते हैं’…
-‘भई हमने कहा न, आदेश ऊपर से है…हमारे हाथ बंधे हैं। चौबे जी इंचार्ज होंगे पर हम आपके लिए इतना ज़रूर कर सकते हैं कि आप टीम के साथ जाइए, मौज-मस्ती कीजिये। एक ठीक-ठाक होटल में ठहरने की व्यवस्था करवा देंगे। स्कूल के लिए तो फ़ाइव-स्टार होटल में रुकने का प्रबन्ध हो चुका है। बच्चों को आपका मोरल-सपोर्ट भी मिल जाएगा’।
‘सर! क्या हमसे कोई चूक हुई है…? हमने नाटक की तैयारी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है, बच्चों की लगन और लियाक़त देख कर हम हैरतज़दा हैं। हम ममनून हैं कि हमें इतना बड़ा मौक़ा आपने दिया…आखिर फिर हुआ क्या जो हमें प्रतियोगिता से महरूम किया जा रहा है….?’ वानी जी ने नफ़ीस होते हुए आख़िरी कोशिश की।
‘देखिये वानी जी…हमने पहले ही कह दिया हमारे हाथ में कुछ नहीं है। विशेष बात यह है कि इकबाल अहमद जी भी कुछ नहीं कर सके, जबकि हम तो आपको पहले ही बोले थे कि हर किसी को मौक़ा मिलना चाहिए’।
अल्ताफ़ वानी प्रिंसिपल साहब के कमरे से उठे और बोझिल क़दमों से चल पड़े। उन्हें पता नहीं था वे किधर जा रहे हैं…जैसे किसी ने उन्हें अचानक धक्का देकर ऊँची पहाड़ी से खाई में धकेल दिया हो…बेख़्याली में चलते-चलते वे मैदान तक जा पहुंचे और हरी घास पर निढाल होकर बिखर गये। अनगिनत सवाल अल्ताफ़ वानी का पीछा कर रहे हैं…’क्या ये प्री-प्लान्ड था’?…. ‘क्या प्रिंसिपल साहब जो कह रहे थे वही सच था या इस प्लान में वे ख़ुद शामिल थे’……‘किसी को आसमान से गिराना ही फ़र्ज़-शिनासी है…?’……‘कश्मीर को जन्नत मान कर लोग घूमने जाते हैं पर वहां के इंसान के लिए दिल में इतनी सारी दरारें…?’…… ‘नाम और प्रदेश इंसान से ज्यादा अहम है ये मैंने पहले क्यों नहीं समझ लिया। मैंने स्कूल हर टीचर से घुलने मिलने की कोशिश की लेकिन सबने एक दूरी बना कर रखी…’।
अल्ताफ़ वानी की आँखों के आगे वो दिन तैर गया जब ईद के अगले दिन सभी टीचर्स के लिए बड़े प्यार से सिवैंयां, ज़र्दा और वेज बिरयानी ले कर गया। नितिन और पद्मा को छोड़ कर सबने कोई न कोई बहाना बना दिया न खाने का। कश्मीर की ईद उस रोज़ ख़ूब याद आई थी, जब पण्डित अंकल और रैना आंटी सुबह से घर में आ जाते। रसोई की ज़िम्मेदारी रैना आंटी संभालतीं। अम्मीजान मेहमानों की आवभगत में लगी रहतीं। मेहमानों में हर मज़हब के लोग आते। मेहमानों की गुफ़्तगू और ठहाकों में सिर्फ़ इख़लाक का राग होता। सबसे मजेदार बात तो ये थी कि मोहिन्दर अंकल.. अब्बू जान को पण्डित जी बोलते और अब्बू जान उन्हें हाजी साहब कहते। मोहिन्दर अंकल अब्बू जान के इतने क़रीब थे कि बहुत बड़े होने के बाद अल्ताफ़ वानी ने जाना कि वे पंजाबी हिन्दू थे। अल्ताफ़ वानी की आँखों के आगे वो काला कप घूम गया।
….‘ये वाला कप वानी जी के लिए स्पेशल रख दो’। जब भी उनके कमरे में वानी जी गये उन्हें एक ही कप में हर बार चाय मिली।
आँखों में धुंध…चौबे जी, मधु शर्मा, मैनेजर…सभी के चेहरे आँखों के सामने पहेली की तरह ठहर गए हैं। अल्ताफ़ को इस वक़्त साहिल बख़्शी के दर्द का एहसास फिर से बड़ी शिद्दत से हुआ। अल्ताफ़ वानी की हथेली पर पेड़ से एक सूखा पत्ता गिरता है, उसे हाथ से चौड़ा करके देखते हैं।
पेड़ से टूटे हुए पत्ते की नियति सूखना ही है। अल्ताफ़ वानी एक झरते हुए चिनार में तब्दील हो गए हैं। कभी जहां लाल पत्तों की आग दहकती थी—वहां अब बस ठूंठ बचे रह गए हैं। और रह गया है अगली बहार का इंतज़ार। उन्हें पहलगाम के पहाड़ी रास्ते और क़तारबद्ध देवदार, चिनार के पेड़, फूलों वाली घाटी याद आती है। अल्ताफ़ वानी को ख़बर ही नहीं लगी कि वो तेज़ बारिश में पूरी तरह भीग चुके हैं।
ममता सिंह
मुंबई
नंबर 8369051596
परिचय
ममता सिंह।
शिक्षा: इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. एवं रूसी भाषा में डिप्लोमा।
प्रयाग संगीत समिति से शास्त्रीय संगीत में प्रभाकर।
तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां संस्मरण और लेख प्रकाशित।
‘राग मारवा’ प्रथम कहानी संग्रह। राजपाल एन्ड संस से प्रकाशित और “महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी से पुरस्कृत”
—–राग मारवा कहानी संग्रह को -म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान प्राप्त।
—–आकाशवाणी की बेस्ट announcer/ सर्वश्रेष्ठ उद्घोषिका का पुरस्कार प्राप्त।
संप्रति: देश के सबसे लोकप्रिय रेडियो चैनल विविध भारती में उद्घोषिका।
ऑडियो ब्लॉग कॉफ़ी हाउस के ज़रिये तमाम मशहूर लेखकों और अपनी कहानियों का वाचन
ब्लॉग “बतकही”