Wednesday, December 4, 2024
शीला सिद्धांतकर
जन्म : 5 अप्रैल 1944 कानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत।
मृत्यु : 25 अप्रैल 2005, नई दिल्ली।
शिक्षा : कानपुर विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. और प्रयाग संगीत समिति से सितार में विशारद।
अध्यापन – अपनी आजीविका की शुरुआत सितार लेक्चरर से की थी। सरकारी कर्मचारी संगठनों के अलावा AIPWA और जन संस्कृति मंच से भी कभी संबद्ध थीं।
संप्रति : केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, में अनुवाद प्रशिक्षण अधिकारी थीं और 30 अप्रैल 2004 में सेवा निवृत्त हुई।
कविता संग्रह : जेल कविताएं (अनुवाद), 1978; औरत सुलगती हुई, 2003; कहो कुछ अपनी बात, 2003; कविता की तीसरी किताब, 2005; कविता की आखिरी किताब, 2006; परचम बनें महिलाएं : 152 चुनी हुई कविताएं, 2009 ।
शीला सिद्धांतकर के बारे में तीन साल के अंदर 25 प्रसिद्ध आलोचकों ने जितना कुछ कहा है, उनमें से करीब 150 पृष्ठों की एक पुस्तक ‘शीला की स्त्री-विमर्शकारी कविता पर आलोचकों की आंखें प्रकाशित है। इसी तरह की एक दूसरी किताब अधिकरण प्रकाशन ने शीला सिद्धांतकर की कविताओं पर ‘आलोचकों की तीसरी आंख’ भी छापी है जो शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान के दौरान उपलब्ध वक्तव्यों का संकलन है।
राग विराग कला केंद्र की वे संस्थापक अध्यक्ष थीं। यह कला के क्षेत्र में योगदान के लिए उनका आखिरी स्वप्न है। इस संस्थान ने शीला सिद्धांतकर स्मृति पुरस्कार देना शुरू किया है। नीलेश रघुवंशी, पवन करण, निर्मला पुतुल के बाद चौथा पुरस्कार मंजरी दुबे को 2009 में दिया गया। रजनी अनुरागी, सुधा उपाध्याय और अनुराधा सिंह को भी यह पुरस्कार मिला। यह अखिल भारतीय सर्वभाषा युवा कविता पुरस्कार है।
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शीला सिद्धांतकर की कवितायें

कहो कुछ अपनी बात

तुम्हारी कसम
आज तुम्हें
तुम्हारी कसम
आज तुम्हें
मेरी कसम
मेरी अजीजो
मेरी सहधर्मियो
मेरी कसम
आंख खुलते ही
सुबह-सुबह
बर्तन मत मांजो
पड़ा रहने दो
दूध से सना भगोना
दाल सब्जी से सने पतीले
प्लेटों थालियों में
साहबजादों के खाए-छितराए
दाल चावल कण
यहीं बैठो
अपने पास
कहो कुछ अपनी बात
कागज के पन्नों पर
इसके अलावा
इससे बेहतर
नहीं हो सकता
तुम्हारा अपना कोई साथी
आज
छोड़ दो सभी पुराने
काम काज
थाम लो
कलम और कागज
आज तुम्हें
तुम्हारी कसम
आज तुम्हें
मेरी कसम
मत धोओ कपड़े
हट्ठे कट्ठे पति और
जवान बेटों के
तुमसे दुगना
खाना खाने वाले
ताकतवर जानवर से
मुकाबला करो
उसे ज्यादा और अच्छा अच्छा
खिलाकर
तुम कम खाकर
रूखी सूखी पर
मत गुजारो अपनी जिन्दगी
आज तुम्हें
तुम्हारी कसम
आज तुम्हें
मेरी कसम
पड़े रहने दो
गन्दे धूल
कूड़े से भरे कमरे
मत संवारो
ड्राइंग रूम
सोफों-मेजों से
मत झाड़ो धूल-धक्कड़
बैठ जाओ आज
बस आज
यहीं चौकड़ी मार
कुछ अपने पर सोचो
अपने पर लिखो
चीखो-चिल्लाओ
हंसो और गाओ
आज तुम्हें
तुम्हारी कसम
आज तुम्हें
मेरी कसम
आज कर दो एलान
सार्वजनिक और राष्ट्रीय
उपवास का
चारों दिशाओं में, बजा दो डंका
आज मत जलाओ चूल्हा
जवान पति और
जवान बेटों के लिए
मत जलाओ चूल्हा सुबह सुबह
नाश्ता और खाने का
इन्तजाम मत देखा आज
कर दो हड़ताल आज
अपने लिए
जियो आज
तन को संवारने की
बात भूल जाओ आज
मन से कुछ
बातें करो
सोचो दिमाग से
आज तुम्हें
तुम्हारी कसम
आज तुम्हें
मेरी कसम |
(28.01.1997)

बर्तन बासन औरत

महिलाओ,
कब तक तुम बच्चे
जनती रहोगी
और इससे जुड़ी भावनाओं
के बहाव में बहती
स्तनदान से लेकर
तेल-मालिश करती
झबला- लंगोटी
साफ करती रहोगी
दौड़कर रसोई में खाना बनाती
झपट कर बर्तन मांजती
फिर स्नान घर में
कपड़े धोती रहोगी
आखिर कब तक
घर का कोना-कोना
झाड़ती बुहारती रहोगी
इसकी खातिर तुम्हें
क्या मिलता है
लांछना और कोड़े
एक धोती और दो रोटी
अपने स्वास्थ्य को
गृहस्थी के अग्निकुण्ड
में डाल
पूरे परिवार के
स्वास्थ्य पर
कब तक निछावर
होती रहोगी
कब तक तुम ममतामयी
त्याग की प्रतिमूर्ति
बनी रहोगी ।
सोचो कुछ देर रुक कर
मां बनने से पहले ।
(09.10.1989)

इक्कीसवीं की सीढ़ियां

अब लोग भावुक नहीं रहे हैं
कोई भी बात उन्हें
झकझोरती नहीं
आखिर लोग सभ्य हो गए हैं
एक दूसरे को पहचानते नहीं
पहचान कर होगा भी क्या
एक दूसरे को पहचानते हुए
क्या हम आगे बढ़ पाएंगे?
सभ्यता की सीढ़िया चढ़ पाएंगे?
इक्कीसवीं सदी में पहुंचना
कोई हंसी मजाक नहीं
हम सब कुछ कुचलते रौंदते
आगे बढ़ जाएंगे ।
जहां सिर्फ खुद को पाएंगे
दूसरे के बारे में सोचना
एक पिछड़ेपन की निशानी है
और फिर सत्ता के
सुर में सुर मिलाना
क्या समझदारी नहीं है?
रात को दिन और दिन को रात
बतलाना ही होगा तुम्हें
अब तुम्हें अपने
दिमाग का इस्तेमाल
बंद कर देना होगा
ऊपर लोग बैठे हुए हैं
उनके पास ऐसे यंत्र हैं
जो तुम्हारे हाथ पैर हिलाते रहेंगे
अपनी इच्छानुकूल ।
अब तुम्हें कोई कष्ट
नहीं होगा ।
तमाम ऊलजलूल
बातों से तुम्हे क्या लेना देना ।
तुम सिर्फ हां में हां
मिलाना सीख लो
इतनी छोटी सी बात
भी तुम्हारे भेजे में
नहीं घुसती ।
लोग सभ्य हो गए हैं ।
तुम्हें पता भी नहीं चला
दुनिया कहां से कहां पहुंच गई
और तुम गिनेचुने
चार शब्दों पर ही
सोचते रहे ।
(11.03.1986)

बड़े साहब

बड़े साहब का कमरा
बड़ा तो होना ही चाहिए
विस्थापित हो जाते हैं
छोटे मोटे बाबू
चपरासी तो क्या
गिरती है दीवार
किसी के सर पर तो क्या
छोटे बाबू
छोटे कमरे में रहें
कोने अतरे में रहें
बड़े साहब को इससे
है लेना देना भी क्या
बड़े साहब कैसे बने हैं
बड़े साहब
कितने बड़े साहबों से
झाड़ खाई है
जिन्दगी भर बने रहे
भिंगी बिल्ली
(26.02.1999 )

प्रतिक्रिया

अनचाहे गर्भ की तरह
पालती पोसती रही हूं
कविताएं
बलात्कार
समय ने जो किया
हमारे साथ
हम सह गए
उस दारुण दुख को
दुनिया की नजरों में
हम जिन्दा हैं
लाश में तब्दील जिन्दगी को
घसीटते
थके हारे
मौत के दरवाजे खटखटाते
बदहवास
हम कहां जाते हैं
हमें खुद पता नहीं होता
ऐसे अनचाहे क्षणों के दर्द को
तुम कविता कह कर
महिमा मंडित करते हो
जबकि सच यह है
कि मैंने भी चाहा था जीना
आजाद होना
चहकना महकना
जिन्दगी के अनन्त आकाश में खो जाना
इसलिए
तुम्हारी कविता – कहानी
तुम्हारा मंच
तुम्हारी व्यवस्था
तुम्हीं को मुबारक
हमें जिन्दगी से कमतर
कुछ भी नहीं चाहिए ।
(10.06.2000)
(नव सर्वहारा सांस्कृतिक मंच की गोष्ठी में कविता सुनाने के आग्रह किए जाने पर प्रतिक्रिया)

होली

हम चूल्हा नहीं जलाएंगे
ऐसे त्यौहार मनाएंगे
अन्दर से रोते जाएंगे
बाहर से मौज उड़ाएंगे
दिन रात साथ रहते रहते
हम इतनी दूर हो जाएंगे
तुम हमको बूझ न पाओगे
हम तुमको बूझ न पाएंगे
तुम अपनी कहते जाओगे
हम अपनी कहते जाएंगे
तुम हमको समझ न पाओगे
हम तुमको समझ न पाएंगे ।
(13.03.1998)

गोरख के नाम

हर शहर हर गांव में
हजारों हजार गोरख
बदहवास विक्षिप्त
व्यवस्था के शिकार
जीवन की लय
टूट जाने के बाद
अभी भी जीवन ढोने के लिए
अभिशप्त हैं
जीवन संगीत की सुर लहरी पर
नाचना गाना और थिरकना
भूल गए हैं
ताल सुर खो गए हैं
सचमुच, वे तुम्हारी व्यवस्था
के शिकार हो गए हैं
अपनी ही लाश को
कंधों पर ढो पाने की ताकत का
न महसूस करना
घसीटते घसीटते थक जाना
सांस की लय का
टूट टूट कर चलना
आखिर उखड़ी सांस से
कब तक जिएंगे गोरख
आत्महत्या का नाम देने वालो
शायद तुम्हें पता नहीं
कि आदमी
लड़ते लड़ते थक जाता है
कि आदमी को
खाना भी चाहिए
कि आदमी को पानी भी चाहिए
जीने के लिए
इतना ही नहीं
इन सबसे ज्यादा जरूरी
आदमी को चाहिए प्यार
और जीवन का उत्साह
गोरख थक गया है
गोरख सो गया है
गोरख फिर जागेगा।
तुम इसे आत्महत्या का
नाम नहीं दे सकते ।
(27.01.1990)

इराकी औरत की आवाज

सद्दाम,
तुम डटे रहो
मादरे वतन के लिए
अपनी जनता के लिए
अल्लाह के बन्दों के लिए
क्लिंटन और टोनी
रोज पैदा होते हैं
सद्दाम कभी-कभी।
रमजान के पवित्र महीने से पहले
कौन बमबारी करता है
कौन करता है
लहूलुहान
हताहत
खुदा के बन्दों के खून का
कौन प्यासा है।
इस हद तक
कि
खुदा की इबादत में
मशगूल बन्दों पर
कहर ढा सकता है
बेशर्म क्लिंटन और टोनी
चुल्लू भर पानी में
डूब मरो !
(25/12/1998)

परचम बनें महिलाएं

परचम बनें कविताएं
परचम बनें महिलाएं
घर-घर
अलख जगाएं
औरत पर उठे
हाथों को
आगे बढ़कर
रोक दें
पंजा मरोड़ दें
जीने की खातिर
सभी रस्मो रिवाज
तोड़ दें
(07-02-2003)

शब्द मरते नहीं

हमारे बाद
हमारे शब्द लड़ेंगे
हमें पता था कि
शब्द कभी मरते नहीं हैं
हम जानते थे कि
शब्दों को जन्म देना
आसान नहीं है
फिर भी हमने
अपनी कोख से
शब्दों को जन्म दिया
जन्म देने की पीड़ा को
तुम नहीं जान सकते
नहीं जान सकते तुम
जन्म के बाद
पालने-पोसने की
पीड़ा को
तुम नहीं जानते
तिल-तिल जिन्दगी
हवन कर देने की
मर्मातक पीड़ा को
कि
शब्दों को गर्भ में
पालना कितना
मुश्किल होता है।
इसीलिए
हमने शब्दों को चुना था
अपना साथी
हम कभी भी अकेले नहीं हैं।
तुम जब कहते हो
कि अकेले कब तक
लड़ोगे तुम
तब तुम्हें शायद
पता नहीं होता
कि हम अकेले
कभी भी नहीं होते
हमारे साथ
शब्द होते हैं ।
(29.01.1990)
…………………

किताबें

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