Wednesday, December 4, 2024
प्रेमा झा 
 
जन्म: २१ नवंबर, मुजफ्फरपुर (बिहार)
 
विशेषज्ञता / शिक्षा: एमबीए+पीजीपीबीएम (मीडिया एंड एचआर) एवं पीजीपीबीएम (पत्रकारिता और  जनसंचार) 
 
वर्तमान में कार्यभार: हेड ऑफ़ कंटेंट, बॉडी बाइ कैटजेन (डॉ. जे. टिमोथी कैटजेन के साथ कैलिफ़ोर्निया, यूएसए में कार्यरत)
 
ई-मेल: [email protected]
 
पता: 604, A-विंग, वेसावा-मांगेला मच्छीमार बिल्डिंग, जुहू-वर्सोवा लिंक रोड, अँधेरी वेस्ट, मुंबई. पिन: ४०००५३ 
 
     प्रथम काव्य संग्रह “हरे पत्ते पर बैठी चिड़ियाँ” वर्ष २००९ में जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना से प्रकाशित।
 दूसरा काव्य-संग्रह, “किले की दीवार और चिड़ियाँ का तिनका” भारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष २०२२ में प्रकाशित हुआ है. कहानियां भी लिखती है 
हंस में  “मिस लैला झूठ में क्यों जीती हैं?” प्रकाशित।
 
फ़िलवक्त अपने एक उपन्यास को लेकर शोधरत हैं. 
 
 समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, परिकथा, पाखी, हंस,  बया, जनपथ, संवदिया, बिंदिया, , लोक प्रसंग, कालजयी, माटी, युद्धरत आम आदमी, मुक्त विचारधारा, दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित।
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कविताएं

मुहब्बत से हूँ

मैंने सोचा पुराने किसी वरक़ पर 

इश्क़ लिक्खूँ – ‘नया इश्क़’ लिक्खूँ

और कलम मुझसे पूछे बिना ही 

काग़ज़ के दिल पर रक़्स करने लगा  

हिज़्र, अश्क़ और बदनामियाँ लिखने लगा

मैंने  बदला वरक़, फिर से स्याही भरी 

रंग तब्दील शब्दों के होने लगे 

और फिर यूँ हुआ 

वस्ल और चुम्बन के हर वाक्य पर 

यह क़लम 

ढीठ, ज़िद्दी अकड़कर खड़ा हो गया  

मैंने चाहा कि कविता मुकम्मल करूँ  

दूसरे इश्क़ का कुछ फ़साना लिखूँ 

यह क़लम कितना गुस्ताख़ है!

लिख दिया इसने पूरा का पूरा ‘इश्क़-शहर’

यहाँ हिज़्र की भोगते हैं सज़ा इश्क़ज़ादे सभी

वक़्त की जेल में 

नज़्म तेरी ज़मानत मिले आज अगर

तो लिख दूं 

चाँद पूरा और आधी शब 

और मय से भरी चंद रूबाइयां 

अभी  इश्क़ परवान चढ़ने को है

सुनो, मैंने तहकर के रक्खा हुआ है अभी 

पुराना तुम्हारा रूमाल छूटा हुआ 

वो बातें अधूरी जो थीं रह गई

उसके आगे कहानी में लिखूंगी मैं

रौशनाई के रंग बदलते हुए सारे क़िस्से 

मैं एक बार फिर से मुहब्बत के हमराह नाज़िल हुई हूँ 

मेरे इश्क़ की मुक़द्द्स किताब

सहीफ़े की सूरत पढ़ी जाएगी

जो कुछ भी मुहब्बत में तेरी लिखा है 

वो सब आयतें बनके महका करेंगी 

घटा बन के ये मौसमे-हिज़्र में ख़ूब बरसा करेंगी 

इश्क़ और ख़ुदा में न कुछ फ़र्क़ होगा 

न मंदिर, न मस्जिद, न होगा कलीसा

न नफ़रत, न दिल में हसद का सबब कुछ

सियासत न मज़हब, 

फ़क़त दिल मुहब्बत से लबरेज़ होगा

वही आशिक़ों का मुहब्बत-कदा भी बनेगा

और इश्क़ की सब नमाज़ें 

भरोसे की छत पर पढ़ी जाएंगी 

मैं सुरीली अज़ाँ सुन रही हूँ 

मुझे जाने दो 

मेरा यार आया है!

बरी कर दो मुझे 

मैं मुहब्बत से हूँ

पिछली शब ख़्वाब में बावुज़ू  

पाक़ उसने किया है मुझे!

पिरामिड

वो सीधा रास्ता जनता है 

उल्टी गली को जाता 

जहाँ का कोई पता जीवित नहीं है 

अपरिवर्तनीय मुद्रा में 

वो देर तक बैठ सकता है 

बिना बात किए हुए

उसका होना पृथ्वी पर 

एक लुप्त होती जनजाति के 

प्रभाव जैसा कुछ है 

उसके भौगोलिक गुणों में 

नाक-नक़्शे और केश का रंग 

बताता है कि वो शायद 

मेसोपोटामिया या बेबिलोनिया 

सभ्यता काल का होगा 

रानी नेफरतिती के वंशज-सा कुछ!

क्योंकि उसकी चुप्पी में 

विशालकाय पिरामिड जैसा कुछ था 

वो चुप रहा तब भी जब 

दुनिया को यह पता चला कि 

पिरामिड सात आश्चर्यों में से एक है|

इश्क़ उर्दू है

सुनने के लिए तुम्हारे पास वक़्त नहीं था 

तुम इश्क़ नहीं पढ़ना चाहते थे 

तुमने कई सनद हासिल की थीं

और एक लब्ध-प्रतिष्ठित शख्स थे 

जिनके घर रोटियाँ भटियारी पकाती 

और बीवियां 

भड़कीले कपड़ों में अपनी बूढ़ी त्वचा छिपाती 

जिन्हें रश्क़ रहता हर सुंदर लड़की से 

तुम भूखे थे कई दिनों से 

इसलिए प्यास भूल चुके थे 

तुम्हारे लिए प्रेम किसी मुशायरागाह की तरह था 

जहाँ तुम मर्सिए को ग़ज़ल की तरह पढ़ते थे 

रूह की ज़बान उर्दू थी 

जो तुम्हारी भाषा नहीं थी 

तुम खो गए थे उस बाज़ार में 

जहाँ मांस के लोथरे के सिवा कुछ न था 

नमक तुम्हारी ज़िद नहीं थी 

क्योंकि तुम बेज़ायक़ा खाने के आदी हो चुके थे

इंसान और जानवरों में एक ही फ़र्क़ होता है

इंसान प्यासा 

और 

जानवर भूखा 

बीवियों और लड़कियों में त्वचा का फ़र्क़ होता है

जबकि पुरूषों और प्रेमियों में एक बड़ा फर्क होता है 

पुरुष शक्तिवर्धक दवाई के सेवन के बावजूद जल्दी मर जाते हैं 

और 

प्रेमी लाइलाज बीमारी होने पर भी सदैव जिन्दा रहते हैं!

गुमनाम शाम हूँ

तुम चाहो तो मेरा इस्तेमाल करो 

बेकार, बेवजह, बेवक्त 

नींद की तख़य्युल में गुमनाम ख्यालों-सी हूँ 

पेशानियों पर पड़े बल और माथे की लकीरें 

जो मुझे छूते ही रफूचक्कर हो जाते हैं तुमसे 

तुम्हारा हँसता चेहरा जिसके लिए मैं कुछ भी कर दूं 

जो छू दो तुम मुहब्बत समझूँगी मैं 

मेरे गालों की  सुर्खी 

अब बस कुछ बरस के लिए है 

इससे पहले की मुर्झा जाऊं तुम तोड़ लेना

मैं बेइंतहा हस्सास लड़की जिसे पूरा ख्याल है

तुमको मुहब्बत से लबरेज़ रखने का 

इसलिए जब कल मैं उम्रदराज़ हो जाऊंगी 

तुम्हारे लिए नई लड़की तलाशूंगी 

तुम तब तक मुझसे इश्क़ करो 

और एक आसमानी वस्ल से 

नीम चढ़ी ख़ामोशी के सब तारों को 

मुहब्बत की धूप में सूखा दो 

जब शाम होगी 

मैं शबे-लौ जला दूँगी 

और दरिया के पार मीलों दूर चली जाऊंगी 

मगर चाहती हूँ कि तुम मुहब्बत में रहना हमेशा 

एक लड़की 

जो युवावस्था में कवितायेँ लिखने लग गई हो 

तुम उससे प्यार कर लेना 

मैं उम्र की कहानी में अब उपन्यास हो गई हूँ 

तुम मुझे पढ़ कर रद्दी में बेच सकते हो 

मगर मैं चाहती हूँ 

तुम कवितायेँ पढ़ते रहो 

और 

उस स्वप्निली लड़की की आँखों में फंसे रहो 

मैं इश्क़ सहर की गुमनाम शाम हुई हूँ अब! 

कश्मीर-पुरुष

हे कश्मीर-पुरुष!

मैं देहलवी तुम्हारे रूप से 

मोहित होकर 

तुम्हारी खूबसूरत वादियों में आ गई हूँ

मुझे संभालो न!

देखो न, अन्ना केरेनिना की तरह 

मेरे वस्त्रों की सिलवटें 

सब तुम्हारे आलिंगन और चुम्बन के लिए 

तरसने लगी है 

तुम बेहद सुंदर पुरुष हो 

धरती के सबसे सुंदर पुरुष 

स्त्री से पुरुष का आकर्षण 

इससे पहले कईयों ने दोहराया होगा 

मगर एक पुरुष से स्त्री के आकर्षण पर 

अब इतिहास लिखा जाएगा 

मैं उसी तरह तुम्हारे पास 

जैसे हद्दे नज़र तक सुंदर घाटियाँ 

और 

घाटी में घुसे हुए घुसपैठिये

की तरह देखो न! 

अब षड़यंत्र भी रचने लगी हूँ 

किसी हारी प्रेमिका की तरह!

मैं देहलवी, तुम पर दावा ठोकूंगी 

तुम्हें गिरफ्त में करूंगी 

अपनी कुछ जटिल योजनाओं के तहत 

और 

सुर्ख प्रेम-लिपियों में 

तुम पर ग्रन्थ भी लिखूंगी 

मैं, मेरे अंगरक्षक जो मेरे 

बाप और भाई होने का दावा करते हैं 

उनसे तुम्हारे लिए प्रस्ताव भेजूंगी!

तुम मेरे हो सिर्फ मेरे 

हे कश्मीर-पुरुष!

जब कश्मीरियों पर जुल्म 

ढाया गया था-

मैंने ही चुपके से 

अभिसारी मेनका को 

तुम्हारा तप भंग करने को भेजा था

हे कश्मीर-पुरुष!

मैं दोषी हूँ देहलवी 

मेनका ने रूप बदलकर 

भागकर स्वर्ग से दूर 

बारूदी-सुरंगों में शरण ले ली!

हे कश्मीर-पुरुष!

मैं दोषी हूँ 

उन सब असंस्कारी संततियों की 

जिसने बारूद के गोले से 

रेत पर लिखे अक्षरों जैसे   

घर, घर की दीवारें और चौखट बना दिए

मैंने उन्हें सँभालने की बहुत कोशिश की 

मगर 

बारूदी घरों ने धीरे-धीरे 

संतति पैदा करते हुए 

एक पूरा क़स्बा, शहर 

और फिर मुल्क बना लिए 

बुरहान वानी मेरी ही षड्यंत्रों का साजिश था 

हे कश्मीर-पुरुष!

मैं, तुमसे मगर मुआफ़ी नहीं मांगूंगी 

क्योंकि मैं तुमको जीतना चाहती हूँ 

और हाँ; बारूद बने मुल्क और उनकी स्त्रियों का कहना है कि

तुम उनके हो?

मैं, तुमको बाँट नहीं सकती कश्मीर-पुरुष 

नहीं चाहती सौतनें अपने लिए!

इस तरह 

तुम्हारी नाजायज़ संतानें भी मुझे शिरोधार्य होंगी

मेरे अंगरक्षकों और मेरे सैनिकों का कहना है 

मेरी प्यारी देहलवी 

तेरी हर मुराद मैं पूरी करूँगा 

तुझसे इर्ष्या करने वाली हर स्त्रियों का वही हाल होगा

जो बड़े महल के मुख्य-द्वार पर काँटों में फंसी 

उस मकड़ी का हुआ है

मकड़ी जो घर तो बना लेती है 

मगर उसे पता नहीं होता 

वो काँटों के बिना पर खड़ी है 

हे कश्मीर-पुरुष!

मैं देहलवी तेरे लिए जान दे भी दूंगी

और ले भी लूंगी 

सच बताऊँ; सैनिकों का जो जखीरा 

कश्मीरियों पर हमला बोला था 

उसको मैंने गुरु-मंत्र में 

धर्म, असहिष्णुता, हिंसा, गोले-बारूद 

और नफ़रत दे दी!

मेरे अंगरक्षक आज बदल गए है 

लेकिन, मैंने गुरु मंत्र नहीं बदले  

हे कश्मीर-पुरुष!

फिर भी मैं चिंतित हूँ 

तुम्हारे चौड़े सीने पर उगे बाल 

जो स्त्री से पुरुष की आसक्ति दर्शाती है 

उसमें धीरे-धीरे 

बारूद की ज्वाला भड़कने लगी है 

घाटी जल रही है 

अंगरक्षक, सैनिक, सौतनें और प्रेमिका 

मुझे इंतज़ार है किस दिन 

दावेदारी छोड़कर 

सच में प्रेम करने लगेंगे 

मैं बदल रही हूँ कश्मीर-पुरुष 

बदलने लगी हूँ 

फिर भी तुमसे मेरा मोह नहीं छूटता 

अब बोलो तुम क्या कहना चाहोगे? 

तभी घाटी के 

पुरअसरार, सुनसान रास्ते से 

एक गीत निकलता है 

और वह जन-गण-मन होता है!

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किताबें

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