संवेदना
हिन्दी कवि/लेखक एवं स्टोरीटेलर
कहानीपुर (स्टोरीटेलिंग उपक्रम) की संस्थापक
दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान टाइम्स , टाइम्स ऑफ इंडिया, में पत्रकारिता एवं ईटीवी भोपाल में कार्यक्रम प्रभारी – (छह वर्ष के लिए)
सोफिया कॉलेज मुंबई में बतौर गेस्ट फैकल्टी कम्यूनिकेशन स्किल्स का अध्यापन – (चार वर्ष)
संप्रति में :
व्यावसायिक स्टोरीटेलर और ट्रेनर (मुंबई, महाराष्ट्र के जनजातीय क्षेत्रों में, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के गाँव और शहर के कई स्कूलों, बालिका गृह, अनाथाश्रम, एवं पुस्तकालयों, एन जी ओ के साथ मिलकर बच्चों के लिए कहानियों की कार्यशालाएँ, अध्यापकों के लिए कार्यशालाएँ । )
चीन, इंडोनेशिया, पुर्तगाल में कार्यशालाएँ एवं अनुसंधान पत्र प्रस्तुत किए )
शिक्षा:
अंग्रेजी में स्नातकोत्तर
विज्ञापन और जन संपर्क में पी जी डिप्लोमा (मुंबई)
स्टोरीटेलिंग डिप्लोमा (बेंगलुरू)
साहित्यिक उपलब्धि :
प्रथम काव्य संग्रह “लड़कियां जो पल होती हैं” प्रकाशित एवं वागीश्वरी सम्मान (साहित्य सम्मेलन, मध्य प्रदेश) से सम्मानित २००७
हिन्दी के एक काव्यात्मक जिप्सी नाटक की काव्य रचना – जिसका मंचन अभी थमा हुआ है।
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन एवं सेमीनार :
चीन एवं बाली(इंडोनेशिया) में वर्ष २०१६-२०१७ अनुसंधान पत्र प्रस्तुत
अंतर्राष्ट्रीय फेरिटेल सेमीनार, पुर्तगाल में कार्यशाला संचालन एवं प्रतिभागी – लगातार दो वर्षों के लिए ( २०१८ -२०१९ )
जन्म:
२२ नवंबर’१९७४, मैसूर, कर्नाटक
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कविताएं
काजल आँखें
उसकी आँखों में बसा
कोई चेहरा तो ज़रूर था
दिल में क्या था
देखने के लिए तो
काजल भरी
आँखों से ही होकर
गुज़रना था
कालिख़ में डूबी
गहराइयाँ ज़रूर हैं उसकी
पर
तल पर
तो पानी ही पानी है
संवेदना (1998)
संवेदना (1998)
ख़ाली - जगह
हम लगातार बचते रहते हैं सालों – साल
उसी एक अलमारी के कोने में रखी क़िताबों की धूल साफ़ करने से
कई कई साल जानबूझकर नहीं उठाते किताबें
आलमारी के उस ही एक खाने के उस ही एक कोने में रखी हुई कोई किताब
और जिस दिन बहुत रोकने पर भी नहीं रोक पाते
उठा ही लेते हैं ठीक वही क़िताब
और अपने आप से एक बार फिर झूठ बोलते हुए
ठीक वही पन्ना खोल लेते हैं
जैसे वो खुल गया हो ख़ुद – ब – ख़ुद
और फिर उसमें से तड़पता हुआ गिर पड़ता हो कोई जामुनी कार्ड
तो हम लगभग आधा – सा बीतता पूरा दिन बैठे रह जाते हैं उसी आलमारी के सामने
उस कार्ड के अंदर कुछ नहीं लिखा होता सिवाए एक नाम के
ख़ाली छूटी सफ़ेद जगह ऐसे लगने लगती है जैसे हो अथाह समुद्र
जहां अक़्सर सबसे कम लिखा जाता है
कहा जाता है
सबसे कम बोला जाता है
ऐसी ख़ाली छूटी जगहों में ही रहा आता है
सच्चे और गहरे प्रेम का समुद्र
ठहरा हुआ सा
जैसे रहना हो उसे वहाँ हमेशा के लिए
लेकिन वहाँ उँगली रखते ही मानो
हमारे अंदर उसकी सबसे गहरी थाह पा जाते हों हम
जैसे की सच्चे और पहले पहले प्रेम की कोई मरियाना ट्रेन्च
तमाम खोजों से जाना है हमने
इस ट्रेंच में जहां न पहुँचती है सूरज की कोई किरण और न ही ऑक्सीजन
वहाँ भी जीवित रहते ही हैं जीवन के सूक्ष्मजीव रूप
वरना पहाड़ से कटते जीवन के सामने
एक बेहद पुराने कार्ड और उसमें लिखे एक छोटे से नाम की आख़िर क्या बिसात?
– संवेदना, 2016’ मुंबई
ग्यारस का चौक
उज्जवल धुले सफ़ेद पिसे चावलों
और गहरे गेरुआ रंग की खड़िया से
साल में एक बार बहनों ने हमेशा बनाया
वो चौक
कलात्मक हाथों में
खनाखन बोलती रहीं उनकी देहाती चूड़ियाँ
शहरीपन उँगलियों में फंसा ज़रूर दिखता रहा
लेकिन जब मन-आँखों और हृदय से उतरता था
वो सौंदर्यबोध
तब
शहर में घर के बीचोंबीच बना
वो अहाता
समेट लाता था वो सारे कोने
जहाँ-जहाँ से हम अनभिज्ञ ही सही
लेकिन जुड़े ही रहे हमेशा
अपनी बोली बानी
ज्वार-कोदो, घी-महेरी
मटकी, वो टाठी, लोटा
और उस
कांसे के बेला से
जिसे गोद में धर कर
अम्मा खूब आंखें मिचकाती थीं
अँसुआ भर-भर शायद
कंदवां, बीना, झांसी या फिर बमौरी
जाने क्या-क्या याद कर अपनी धोती के कोने से
आँख पोंछती जाती थीं
जिसको याद कर दीदी अब भी कांसे सी बज उठती है
टन् ……न् न् …..
और तभी मैं उसे पकड़ लेती हूँ
क्यूँ कि वो खुद ही अक़्सर कहती है
कोई बर्तन ग़लती से टकरा जाए
तो पकड़ लेना उसे तुरंत
उसकी आवाज़ को मत छोड़ देना
एक निरुत्तर से छूटे प्रश्न की तरह
ब्रह्माण में कांपते-गूंजते हुए यह आवाज़
यूँ ही टकराती रहेगी अनन्त में
शायद आवाज़ से विनाश बन जायेगी
जैसे
किसी बच्चे की रुलाई
या फिर कोई पीर पराई
कुछ छूटे छोर तो कुछ अंत सिरों से
किसी ने कोई पुरानी गणित लगाई
सफ़ेद चार बिंदुओं पर पकड़कर
धर लिए
जीवन के ताने-बाने से
खुले-छूटे, अधूरे,
अधपके, अभागे
सुर, चश्म, और तागे
एक धवल चौकोर बनाया
ऊँगली के पोरों से जब खींचीं लकीरें
चौकोर को कुछ और बढ़ाया
फिर खड़िया के गेरुआ रंग में
एक-एक कंगूरा
पत्ती और सिंघाड़ों का श्रृंगार बनाया
सब कुछ लहका, बहका
लरज़ा-तरसा
हुमक उठी
एक ठुमक भरी मन-आँगन में
जब गन्नों का मंडप छाया
उठो देव बैठो देव
पांवणी चटकाओ देव
कुंवारन को ब्याओ करो
सम्पन्नता-सुख लाओ देव
और हमने गूंथ ही लिए इस ब्रह्माण के
खुले छूटे सिरे
सारे के सारे
और उठा ही दिया आख़िर देवों को
उनकी छः माह की नींद से
सफ़ेद और गेरुआ रंग के इस चौक में एकबद्ध
सारे दुखों-सुखों के हिसाब
दमकते रहे हमेशा हमारी स्मृतियों में
साल दर साल सोते उठते
इन देवों की दुनियाँ में लेकिन
कौन पूरेगा चौक
कौन करेगा एकबद्ध
पृथ्वी पर फैले पसरे
खुले छूटे हुए
वो सीरियाई
फिलिस्तीनी
वो रेफ्यूजी कैम्पों
डूबते द्वीपों के रोते – बिछड़ते बच्चों की
सम्पन्नता और खुशहाली की कामना करते
वो सिरे
ख़ासकर के तब
जब दुनिया सिर्फ दो त्यौहारों सी ही हो
पहले विश्व की दिवाली
तीसरे विश्व की होली हो
एक आर्द्र विश्व ही तो बच जाता है
जिसकी नम धरती पर
सदियों से
ग्यारस का ये चौक
बना है।
– संवेदना, १० फ़रवरी ‘२०१७ मुम्बई
तुमने क्या सोचा था?
तुमने क्या सोचा था ?
कि औरतें सिर्फ़ सब्ज़ी बनाने में मशगूल हैं?
तुमने क्या सोचा था कि औरतें
अपने बुर्के के बटन टांकने और क़सीदे काढ़ने में ही लगी हैं?
तुमने क्या सोचा था कि औरतें आपस में जब बात करती हैं तो
सिर्फ़ साड़ी – फॉल पीको की ही बात करती हैं ?
तुमने क्या सोचा था?
कि औरतें हमेशा सिर्फ़ पहले अपने बच्चों की
फिर अपने बच्चे के बच्चों की
नाक ही पोंछती रहेंगी?
तुमने क्या सोचा था कि पढ़कर लिखकर घर में दो पैसे लाकर
औरतें नमाज़ पढ़कर
ईसू को याद कर के
कृष्ण और सीता-राम की आरती करने के बाद सो जायेंगी
तुमने क्या सोचा था?
औरतें कार स्कूटर चलाएंगी
बैंकों, कोलेजों, दफ्तरों में काम करेंगी और
अपनी नाक – कान और दिमाग़ पर ताले लगा कर बैठ जायेंगी?
नहीं….दोस्त… तुमने पिछले कुछ समय से ऐसा सोचना छोड़ दिया है
तुम थोड़े लजाए हो
तुम थोड़े
नहीं – नहीं
तुम तो बहुत ज्यादा घबराए हो
तुम भयभीत हो
तुम लजाये हो
घबराए हो
भयभीत हो
पगलाए हो !
और इसीलिए करते हो अभद्र भाषा का प्रयोग
देते हो गालियाँ
डराते हो, धमकाते हो
औरतों के क़िरदार पर सवाल उठाते हो
उनकी बेबसी और लाचारी को बनाए रखना चाहते हो
तुमने क्या सोचा था?
कि तुम जब छिपकर
तिरंगा नहीं कोई और झंडा फहराते हो तो
कोई सलमा
कोई फरहीन
कोई लुबना
कोई शमीम
कोई मेरी
कोई इलियाना
कोई लक्ष्मी
कोई पार्वती
कोई सीता या कोई गीता
आपस में बातें नहीं करतीं?
एक दूसरे का हाथ नहीं थामतीं
वो सअब देखती हैं
और समझती हैं
क़ानून पढने वाली
क़ानून का व्यापार भी
बखूबी समझती हैं
तुमने क्या सोचा था?
इतिहास के कुछ पन्ने फडवा देने से
तुम कुछ नया लिख दोगे?
और बाँटने की सियासत को अंजाम दे दोगे?
तुमने क्या सोचा था?
जो औरतें पढ़ाती हैं इतिहास, साहित्य, भूगोल और विज्ञान
वह क्या सचमुच अब तक कुछ सीख नहीं पाई हैं
तुमने क्या सोचा था?
औरतें जब पढ़ती हैं तुलसीदस, अमीर खुसरो,
रामायण – महाभारत, कुरान, बाइबिल, गुरु-नानक जी का
और कबीर वाणी का ज्ञान
तो क्या ख़ुद लिख नहीं सकतीं
अपनी ही एक नई कविता
अपनी कहानी
कविता उनके अपने जीवन की
उसके आस-पास की
कहानी बहुत छोटी तो कभी बेहद लम्बी
उनके समाज, उनके देश
उनके बच्चों के बड़े होने के परिवेश
इन सब के बारे में जिसमें वह जी रही हैं
सुख और दुःख दोनों के साथ जिसमें वो पी रही हैं
खून के घूँट
जिसमें वो सवालों के जवाब दे रही हैं दो टूक
नहीं….. शायद तुमने इतना तो नहीं ही सोचा था
इसीलिये तो तुम
हमेशा से थे ही भयभीत
लजाये, घबराए
और अब फिरते हो पगलाए?
अब भी वक़्त है…. सम्हाल जाओ
समझ जाओ
क्यूँ कि कौमों को बांटते – बांटते तुमसे कुछ चूक हो गयी है
औरतों की कौम को समझने में ज़रा भूल हो गयी है?
दाल – सब्ज़ी के स्वादानुसार नमक को
सम्हालते उनका संतुलन तेज़ हो चला है –
ईमान की आवाज़ उन्हें दूसरों से ज्यादा साफ़ सुनाई देती है ….
सोच कर समझ कर बोलना
और जो भी करो अब
तुम ज़रा यह सोचकर करना
क्यूँ कि हो सकता है
तुमने बहुत कुछ सोचा था
लेकिन जो तुमने नहीं सोचा कभी
वो तुम्हारे ही घर का एक कोना है
जहाँ ईमान बस्ता है
जहां इंसान रहता है
जहाँ हर रोज़ खाना पकता है
जिसके लिए बाज़ार से खरीदी जाती हैं सब्जियां
और गेहूं पिसवाया जाता है
ऐसा कोना जहां कोई सियासत का क़ानून नहीं चलता
वहाँ कभी भी सच्चाई
किसी भी वक़्त चुचाप आकर बैठ जाएगी
तुमने क्या सोचा था
कि साड़ी दुनिया जहां की औरतें जब सच्चाई की लड़ाई में तेज़ आवाज़ लगाएंगी
तो तुम्हारे घर की खिड़कियाँ भी
क्या बिना खडके रह जायेंगी ?
तुम्हारे घर की ताक़त
कभी तो सच्चाई भांप ही लेगी
और सबके साथ मैदान में उतर ही जायेगी
तुमने क्या सोचा था?
तुम कौन हो
यह नहीं जानतीं अपनी या पराई औरतें ?
तुमने क्या सोचा था?
कि रसोई से निकलकर
इतनी इतनी जमा नहीं हो पाएंगी औरतें कि
देश की गलियों में औरतों का सैलाब
उमड़ जाएगा
तुमने क्या सोचा था कि औरतों की आवाज़ में
इन्कलाब का नारा
कभी भी नहीं गूँज पायेगा?
सुनो तुम सोचना छोड़ दो
एक बड़ा आरामदायक वायुयान बनवाओ
और अपने भाई-बंध
और टीम के सदस्यों को लेकर
सारे विश्व के सबसे महंगे होटलों में ठहरो
और विश्व की कम से कम
दस बारह परिक्रमा तो कर ही आओ
क्या हुआ …?
नहीं सोचा था?….ऐसा?!?!?
तुमने क्या सोचा था?
कोई औरत तुमसे कभी भी यह सब
नहीं कह पाएगी?
कभी भी नहीं
कभी नहीं ही
पूछ पाएगी?
– संवेदना, २६ जनवरी’२०२० मुंबई
ग्लोबल वॉर्मिंग
सुना है पृथ्वी पहले से ज़्यादा
गर्म हो रही है
धीरे धीरे यह गरमाहट
पृथ्वी के अक्ष को कुछ इस तरह
बदल रही है
कि
अपने अक्ष पर घूमने की
उसकी गति और तरीक़े
दोनों बदल सकते हैं
ऐसे में पृथ्वी का स्त्रीलिंग होना
क्या महज़ एक संयोग है ?
– संवेदना, १० अप्रैल’२०१६ मुंबई
सिंडरेला की परी
माँ तुम्हारी चूड़ियाँ
तुम्हारी ही साड़ी
तुम्हारी ही वो मोटी सी पायलें पहनना बचपन से ही
कितना-कितना अच्छा लगता था
पर अब जब तुम्हारा कंगन
अपने हाथों में देखती हूँ माँ
तो मुझे मुझमें तुम ही नज़र आती हो
थम सा जाता है
मेरा हर दुःख
मेरा हर सुख
और सपनों के रंगों को गहरा जाता है
मेरे सपनों के आकाश में आखिर
तुम कब रहने आ गईं?
क्या तुम सचमुच सिंडरेला की परी बन गईं
और चूमकर जाने लगीं चुपचाप
हर रात मेरा माथा?
तभी रोज़ सुबह कुछ नम सी होती है
मेरी आँखों और माथे के बीच वाली वो जगह
मेरे बालों को सहलाकर तुम हर रात
चली जाती हो
अब तो कुछ अजब ही बिखरे-बिखरे से होते हैं
रोज़ सुबह मेरे बाल
और इसीलिए तुम्हें किसी रात
चोरी से पकड़ना चाहती हूँ मैं
एक साल हुआ
बचपन का मेरा
ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पौ फटते ही
चिड़ियाँ देखने का शौक़ भी कुछ कम सा क्यों पड़ गया!?
अब बेचैन सी रातों को जागने लगी हूँ मैं
अजीब-ओ-ग़रीब सपने भी देखने लगी हूँ
तुम्हारी ही तरह कांच की चूड़ियां पहनने का मेरा शौक़
और बढ़ गया
मैं अब पहले से ज़्यादा बालों में फूल लगाती हूँ
बड़ी सी बिंदी लगाना और कभी-कभी ख़ुशबूदार पान खाना चाहती हूँ
माँ अब मैं तुम्हें याद करना नहीं चाहती
मैं तुम ही हो जाना चाहती हूँ
तुम ये सब देख रही हो
छिप कर दूर खड़ी सिंडरेला की परी बन कर
वरना इतनी जल्द
कैसे बदल जाती
मेरे सपनों की बग्घी और हवा से बातें करने लगती
मेरी घड़ी में अभी बारह नहीं बजे हैं माँ
और किसी प्रिंस चार्मिंग के इंतज़ार वाली उम्र भी
मेरी कब की बीत चुकी
लेकिन तुम कितने प्यार से
कोई न कोई ख़्वाब रोज़
आँखों में फूँक जाती हो
अब भी सपने देखने का हौसला दे जाती हो
तुम यादों में कहाँ रहती हो
हाँ माँ! सच है कि अब तुम!
मुझमें ही मुझको दिखती चली जाती हो
लेकिन !
पूरी कविता लिखने के बाद
आखीर में झूठ बोलूँ भी तो कैसे बोलूँ माँ
बिना यादों के कितना भी तलाशूँ चाहे
मैं अपने में तुम्हारा अक्स
पर फिर भी
तुम माँ हो ना
और माँ तुम सचमुच
हर पल
बहुत-बहुत याद आती हो !
– संवेदना, १५ जुलाई’२०१६ मुंबई
……………………………