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कविताएं
इक्कीसवीं सदी में
वे दाल की फलियां,
भीतर कमरे में टंगी घड़ियां,
कपड़ों व रूई की गठरियां,
जिव्हा होती बकरियां नही थी
पर मैने चौक पर पसरी दाल की फलियों को जब भी दनादन कुटते देखा,
दिन रात कमरे के बंद अंधेरों उजालों में खटती चलती घड़ियों और मशीनों को देखा,
रूई को धुनकते, कपड़ों के ढेर को पटक पटक कर धुलते और
बकरियों को मिमियाते देखा ,
मुझे कपड़ों की गठरियाँ बनी
कराहती बिलमाती चौराहों पर कोड़े खाती
पर कटे पंक्षी सी तड़पती
स्त्रियां याद आई।
कब होगा उनका भी चेहरा ?
कब होगी उनकी आवाज?
कब भरेंगी वे परवाज?
बेटियां एकल यात्राओं में
कल ही जरा सी बड़ी हुई बेटियां
जब बात करती है
सोलो ट्रेकिंग की
कि चाहती है वो
एकल यात्राओं में दुनियाँ को
अपनी नज़रों से महसूस करना
और टुकड़ा टुकड़ा हर यात्रा को जोड़ कर अपनी पूरी दुनियां बनाना।
उन्हें भरोसा है दुनियां का
उन्हें भरोसा है खुद का।
।
मां पसीने से भीग जाती है।
कैसे कहे ये दुनियाँ भरोसे के काबिल नहीं है मेरी बच्ची
पर माँ उस का भरोसा तोड़ कर
उसे किसी अयाचित भय से आक्रांत कर
उसके पंख नहीं कुतरना चाहती।
।
फिर भी कैसे कहे मां कि
उसके सपनो में
सैकड़ों बाघ मुंह फाड़
कच्चा खाने को आतुर,
सांप मौका मिलते ही विष वमन को व्याकुल रहते हैं।
।
कैसे कहे मां बेटी को
कि
सपने इर्दगिर्द घटती घटनाओं का
प्रतिबिंब है
और
यह पूरी दुनियां एक
छलावे का जंगल भी है
यहां मानव की खाल में
मीठी मुस्कानो के पीछे
अपने दांत पंजे छुपाए
रहते पैशाचिक जंगली जीव भी।
।
और मेरी प्यारी बच्चियां
खरगोश सी नाजुक
जंगली प्रवृति से अनभिज्ञ
बेफिक्र
इस जंगल में
खुशियों को बाँटना चाहती हैं।
।
माँ हूँ न
माँ देती है आशीर्वाद-
जाओ मेरी बच्चियों
अपनी दुनियाँ को जानो
हर स्पर्श और आहट को पहचानों
ठिठको और सुनो अपने अंतर्मन को,
सीखो पुकारना और पुकार पर होना गोलबंद।
हर खतरे पर
बदलो पैंतरे, बदलो रंग
अपने में भरो तड़ित की ऊष्मा वेग
जंगल की ताकत
युद्ध की कलाएं
और
अपना मार्ग प्रशस्त करो।
जाओ मेरी बच्चियों दुनियाँ की यात्रा पर.
प्रेम बनाम भय
मैं प्रेम लिखना चाहती हूं
मैं रचना चाहती, बसना चाहती हूं
मैं सुकून भरे लम्हों की तलाश में
भटकती हूं कि
शायद प्रेम शब्द मेरे लिए भी बना हो।
।
पर दुनियां के राग में मैं बे राग, बैरागी सी।
इन दिनों संसार के भय, अनिश्चिततायें, संशय, पलायन, अकेलेपन, बेगारी, बीमारी, भूख, हत्याएं, आत्महत्याए, युद्ध और आंधियों
के कोलाहल ही डटे पड़े हैं मेरे सम्मुख
।
मुझको शर्म आती है कि ऐसे में
मैं केवल प्रेम लिखना चाहती हूँ।
पर इस अँधेरे वक्त में यही इक जरूरी शर्म लिखना चाहती हूँ।
।
जबकि
जीवन के नैपथ्य से मौत के उद्दात स्वर गूंजते है
मैं आंख बंद कर लेना चाहती हूं इन सब से
फिर भी
इस शोर के सैलाब में डूब डूब जाती हूँ मैं।
माफ करना मुझे,
आप कहेंगे मुझ में हिम्मत की कमी है
पर संवेदनाओं का अतिशय संसार मेरे भीतर हिलोरे भरता है
और सुनामी की भयावहता के साथ
मुझ पर टूट पड़ता है।
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बेशक मुस्कुराती हूँ मैं
पर भीतर भीतर टूटी जाती हूँ मैं
।
ऐसे में जब भी मैं प्रेम पर लिखना चाहती हूं
मेरी कविताएं, कहानियां रह जाती है अधूरी
जैसे इन एकांतों में रह गई हूं अधूरी।
तुम जाना जरूर
ये जो पहाड़ की धार है
उस जगह से / मैं तुम्हें
लौटने को न कहूँगी |
जानती हूं पगडंडियाँ और रास्ते
जो गाँव को जाते थे – नहीं मिलेंगे
स्खलित होते पहाड़ का
मलबा रोड़ा रगड़ा – होगा जहां
होंगे जहां – बेतरतीबी से उग आए जंगल
कि रास्ते अब भूली सभ्यता का हिस्सा भर हो गए जहां |
तुम अपने पद चिन्हों को बनाते हुए
रगड़ों जंगलों को पार कर/ जा सको / तो जाना।
कि वहाँ जंगल में इंसानी आवाज को तरसती
नीम उदासियों मे डूबी वनकन्याओं का
असफुष्ट विलाप सुनाई देगा
पुरखों की छायाएं शोकाकुल प्रतीक्षा में एकटक निहारती लगेंगी
सिहरना नहीं’
धूप में भी जहां उतर आता है घनघोर अंधेरा
सरसराती हैं हवाएं ।
खड़केंगे पत्ते जहां सर पर चरमरायेंगे पैरों पर
भय से तुम रपट मत जाना अंधी ढलानों पर।
कि पदचापों से आकृष्ट हो कर
बादलों के रथ पर सवार होकर आती हैं वन कन्याएं
अपदस्थ कर ले जाती हैं शब्दभेदी बाण पर ।
फिर भी मै तुम्हें रोकूँगी नहीं
संभल कर रखना कदम
तुम जाना, जाना जरूर
तोड़ देना वहाँ बरसो से व्याप्त घुप्प सन्नाटे को,
तोड़ देना सदियों से व्याप्त उन मिथकों को और उन भ्रमो को |
तभी मिलेगा तुम्हें वह अपना पुरखों का गाँव
– जहाँ नहीं आएंगे कोई ओजी ढोली / स्वागत गीत गाते/ ढोल ताछे बजाते / तुम्हें लेने
– न मिलेंगी स्त्रियाँ, समवेत स्वरों मे, जागर माँगल गाती/ दराँती छमकाती/ घास लकड़ी काटती
– न कुत्ते बिल्ली होंगे वहां न गाए बैल और उनके गले के खांकरे खड़मड़ाते होंगे
– न बच्चों की किलकारियाँ होंगी न मंदिरों में पूजा न स्कूलों में प्रार्थनाएं होंगी ।
तुम उस काल को जानोगे तो पाओगे
– पीठ पर विशाल पहाड़ उठाए सदियों से
दिन रात खटती स्त्रियाँ
जिनके सुकुमार पैर बुरांस से नहीं
गोबर मिट्टी के थापे से
दर्दभरी विवाइयों का बिछौना हो गए हैं
जहां से फूट रहा होगा लहू का जलजला |
तुम्हें दिखेंगी दावानल मे फंसी जलती हुई घसियारियाँ
तमाम वनस्पतियों और जानवरों के साथ जलती हुई
– तुम्हें सुनाई देगी प्रसव वेदना की आदिम चीख
रक्त के ताल मे डूबी , छटपटाती हुई नवयोवनाएं
जो वात्सल्य से ही नहीं अपने जीवन से भी असमय चूक गई|
भी असमय चूक गई|
– दिखेंगे तुम्हें व्याधियों के जंजाल से मुक्ति का रास्ता ढूंढते हुए लोग
लोहे के अंगार से खुद को जलाते असहनीय दर्द भुलाते
और जंगल में जड़ी बूटियों मे किसी अमृतरस को तलाशते लोग
– तुम्हें दिखेगा रात की काली छायाओं मे धँसता शाम का धुंधलका
और मीलों दूर विध्यालयों से बस्ता पाटी थामे
रीछ बाघ को ठेंगा दिखाते
पहाड़ियों को पार करते
घर लौटते थके हारे बच्चे |
और अब उस जगह
बस खंडहर घरों के/ मंदिरों के/ मंगरों के,
कि एक भुतहा गाँव मे और होगा भी क्या ?
ढूँढना तुम – कहाँ गए गाँव के ग्राम देवता, रक्षा का वचन देते भैरव देवता , भू देव
कुल देवी कुल देवता।
मिलेंगे वे उन्हीं खंडरो में शक्तिविहीन
कि उनकी शक्तियां उनके आराधक, विस्थापित हो कर बिखर चुके।
तुम उनकी टूटी दहलिजों पर मंदिरों पर कामना के फूल चढ़ा आना।
चाहे मुश्किल ही हो विपरीत पलायन के
अपनी जड़ों तक जाना।
तुम गाँव की ओर जाना जरूर
क्यूंकी तुम वह नदी नहीं जो अपने मुहाने की ओर मुड़ न सके |
तुम जाना ।
तुम जरूर जाना।
युद्ध के बीच
वे जो मारे जा रहे हैं
और वे जो मार रहे है
हथियारबंद या निहत्थे
दोनों मर रहे हैं
मारते मरते वे खुद को मरने से बचाते
मार रहे है क्यूंकी वे मरना नहीं चाहते।
उन्हें झोक दिया गया है युद्ध के मैदान में
जो नफ़रतों के लिए नही
प्रेम के लिए जीते रहे हैं |
वे युद्ध भूमि से अपनी आवाज पहुंचाना चाहते है
अपनी माँ, पिता, भाई, बहन, प्रेमिका के पास
उनकी सुरक्षित गोद में एक झपकी लेना चाहते हैं
जानते हैं वे कि उन लोगों को भी नींद न आई होगी।
वे गोलीबारी के बीच से
कहना चाहते हैं अपनो को
कि उनकी फिक्र मत करना ।
पर वे अपनी बात दिल मे दबाए धमाके के बाद चुप्पे से रक्तपुंज मे ढल जाते हैं|
वहां किसी को नहीं पता जो मारे गए वो कौन थे, बस मार दिए गए।
नहीं पता किसी को कि चिरनिंद्रा को प्राप्त उनकी देह किधर गई?
न उम्मीदी में भी उन्हें खोजती अपनो की आंखें एकटक तस्वीरों को निहारती हैं।
कब रुकेगा युद्ध
कब लौटेंगे सैनिक अपने घरों को?
पहाड़ और प्रश्न
पहाड़ से जितनी नीचे जाती हैं ढलाने
पहाड़ उतना ही ऊंचा होता है
और जब तक कोई खाई नही होती
पहाड़ पहाड़ नहीं बनता।
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वो जो बात बेबात पे हंसते है
पहाड़ सा अडिग हो रहना सिखाते हैं
वे दबाते होते है अपने दुखों को
सीने पर पत्थर नहीं, रख कर पहाड़।
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विपदा, विकलता, और अकेलेपन में
रातें अजगर सी लंबी, अंतविहीन और
दिन पहाड़ सा भारी और बोझिल हो जाता है।
भार और लंबाई का ऐसा भी, कैसा पैमाना ?
गर सुख के पांव भारी जाए
तो मन पर पड़ा पहाड़ सा बोझा उतर जाए मन हल्का हो फुर्र उड़ जाए।
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पहाड़ अपनी अपरंपार विशालता में
दबोचे नही रहता अपने जल को।
युवा नदियां
पहाड़ की ओट से निकल पड़ती है
यात्राओं पर
जैसे पंख उग आने पर पंछी के बच्चे।
यूं भी पहाड़ में कहा जाता है
पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी
कब पहाड़ की रही?
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आवाज एक लोक है
अपनी स्थानीकता के साथ
तारी रहती हैं कितनी ही आवाजे
हम में समाई ..
पूर्वार्ध, उत्तरार्ध और संधिप्रकाश का भान लिए
मैं कहीं भी रहूं किसी भी वक्त
मुझमें अपनी तमाम आवाजों के साथ गूंजता है
मेरा घर, मेरा पहाड़
गूंजते हैं मुझसे छूटे लोग
पूरे लोक को लिए।
क्या तुममें भी गूंजता है दरिया, रेत, चांद, सूरज और तुम्हारा घर ?
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किताबें
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