Friday, August 15, 2025

बिहार के हथुआ (जिला-गोपालगंज) में जन्म। हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट में स्नातक और ह्यूमन रिसोर्स में परास्नातक।
5 वर्षों का मीडिया और कॉरपोरेट अनुभव, 5 वर्षों का अध्यापन का अनुभव
सम्प्रति समस्तीपुर कॉलेज में हिंदी की अतिथि शिक्षक। शमशेर पर पीएचडी जारी।
फोटोग्राफी, साहित्य और लोक-कलाओं में गहरी रुचि। तद्भव, पूर्वग्रह, सदानीरा, कथन आदि पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित। कवितायें, अनुवाद, कहानियाँ और आलेख पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में प्रकाशित

…………………………

कवितायें

जमाई-पूजन

जिन हाथों ने मारा तुम्हारी बेटियों को 
उन हाथों में भर-भर कर देते रहे मिठाई और फलों की तश्तरियाँ
जिन क्रूरताओं ने तुम्हारी बेटी के मान को खंडित किया उन्हें श्रीविष्णु की तरह पीतांबर अर्पित करते रहे तुम
जिस मुँह से फूटी अश्लील गालियों की सहस्त्रधारा में नहाते रहे तुम्हारे मृतक पूर्वजों से लेकर गोदी के बच्चे तक 
उस मुँह से आदेश पाकर कैसे मुदित होते हो तुम
कैसे विनत होकर पीठ तुम्हारी धनुषाकार हो जाती है
 
‘बेटी के बाप को झुकना ही पड़ता है
बेटी की माँ को सुनना ही पड़ता है
बेटी को सहना ही पड़ता है’ 
ये मंत्र कौन पढ़ा जाता है तुम्हें बेटी के जन्मते ही!
 
हर पर्व-त्यौहार और शुभ कार्यक्रमों में 
विशिष्ट निमंत्रण किये गए उनके 
और वे हर बार आकर शुभ को अशुभ में तब्दील करते रहे
तुम्हारे ही घर आकर तुम्हें ही करते रहे वे पगदलित
जिनसे पूछा जाना था उनकी क्रूरताओं का हिसाब 
उन्हें देवताओं की तरह प्रतिष्ठा दी गयी 
सच ही तो है 
तुम्हारे देवताओं को मानव-रक्त की प्यास लगती रही है

फाँस गड़ी है करेजवा में

चूल्हे में लकड़ियाँ और अपना जीवन झोंकती किसी भी औरत को बेर-कुबेर घर-दालान के बाहर
ओसारे के पीछे
हवा-बयार में कौन सी डाकिन इन्हें कब कैसे ग्रस लेती है
कोई नहीं जानता
बंसबाड़ियों से न जाने कितनी कथाएँ हवा में तेज टिटकारी मारती चीलों सी उठती हैं
तेज तीख़ी आवाज़ में अट्टाहास करती ये औरतें गाँव भर की चटखारेदार गप्पों का केंद्र बनी रहती हैं
कैसे फलना-बहु देह उघाड़ कर ठाकुरबाड़ी पर लोट गयी
कैसे फलना की पुतोहु अपनी कोठड़ी बन्द कर टिहुक पार रोती रही
गाँव की कुलदेवी, ब्रह्म देवता और ओझा-भगतों की महिमा कुछ और बढ़ जाती है
ये बेसुध पीले मुखों वाली औरतें, ये बिखरे केशों धूल सनी औरतें
ये कभी बड़बड़ाती कभी सोती कभी रोती औरतें
ये कलही-कुटनी कही जाने वाली औरतें
ये गुम पड़ी गूँगी हुई औरतें
ये शून्य में निहारती औरतें
करूण आवाज़ में बटगमनी गाती ये औरतें
ये सदियों से मार खाती औरतें
ये तरुणाई में ब्याही गयी औरतें
ये साल दर साल बच्चे जनती औरतें
ये भूत-प्रेत-पिचाश ग्रस्त, रक्तहीन, वयसक्षीण औरतें
इन्हें ओझा-वैदाई, पूजा-बलि, मंत्र-तंत्र नहीं
माथे पर रखा ममत्व सना एक हाथ चाहिए और सुनने वाला गहरा हृदय
ये बिलख-बिलख कह जायेंगी कि कौन सी
फाँस गड़ी है करेजवा में

छाया उपासना

उपासना झा केवल कवयित्री ही नहीं हैं बल्कि वह एक सुंदर फोटोग्राफर भी हैं।उन्होंने अपने मोबाइल से ये सुंदर फोटो लिए हैं।

प्रेमिका

चिट्ठी की वह पँक्ति है प्रेमिका 
जो अनावश्यक मान हटाई जा सकती है
दराज़ में रखी गैर-जरूरी चीजों की तरह, कभी भी
 
तुम्हारे जीवन-संगीत में 
कोमल स्वर है वह
जिसकी जगह बदलकर कर सकते हो
शुद्ध से विकृत
वह स्वरभंग है प्रेमिका 
जिसकी नहीं होती आवृत्ति
 
‘प्रिया’ से ‘तुम जैसी स्त्री’ हो जाना
घटनाओं में सामान्य है
प्रेमिका नहीं होती तुम्हारे त्यौहारों में, उत्सवों में 
तुम्हारी वसीयतों में
 
प्रेमिका वह रहस्य है
जिसका अस्तित्व गोपन है
प्रेमिका वह अभिलाषा है
जो रह गयी अमूर्त्त
 
प्रेमिका वह स्त्री है जिसने 
तुम्हें सब दिया 
जिसे तुम नहीं दे सके
अलगाव का भी गौरव…

रोना

रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार 
हथियार नहीं उठ सकता था
 
रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार 
क्रांति नहीं हो सकती थी
 
**
रोना सुनकर 
निश्चिन्तिता उतर आई थी
प्रसव में तड़पती काया में 
 
रोना सुनकर 
चौका लीपती सद्यप्रसूता की
छातियों में उतर आया था दूध 
 
*
 
रोना था साक्षी 
संयोग-वियोग का
जीवन-मरण का
मान-अपमान का
दुःख-सुख का 
ग्लानि-पश्चाताप का
करुणा-क्षमा का
व्यष्टि-समष्टि का
प्रारब्ध और अंत का
 
** 
 
रोकर
 
नदी बनी पुण्यसलिला
आकाश बना दयानिधि
बादल बने अमृत 
पृथ्वी बनी उर्वरा 
वृक्षों पर उतरा नया जीवन
पुष्पों को मिले रंग
 
***
 
रोना भूलकर
 
बनते रहे पत्थर
मनुष्यों के हृदय 
उनमें जमती रही कालिख
उपजती रही हिंसा 
उठता रहा चीत्कार 
काँपती रही सृष्टि 
 
**
 
रोना 
बनाये रखेगा स्निग्ध
देता रहेगा ढाढ़स 
उपजायेगा साहस 
बोयेगा अंकुर क्षमा का
इतिहास ने बचा लिया है 
शवों के ढेर पर रोते राजाओं को
 
***
 
स्त्री को सुनाई कल्पित मिथकों में
वह कथा सबसे करुण है
जिसमें उसके रोने से 
आँसू बनते थे मोती 
उनकी माला
आजतक गूँथकर पहना रही है स्त्री
पुरुष ‘नकली है’ कह कर रहा 
और मालाओं की इच्छा
 
****
 
रोना है 
सबसे सुंदर विधा 
अपने आँसुओं से धुलती है
अपनी ही आत्मा 
 
रोना 
इसलिए भी जरूरी था
कि मर जाने की इच्छा 
टुकड़ो में जीती रहे.

…………………………

किताबें

…………………………

error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200