Friday, November 29, 2024
.................................

डॉ. अनिल प्रभा कुमार जन्म स्थान : दिल्ली , भारत अमेरिका में बसी हिन्दी रचनाकार। कहानी संग्रह “बहता पानी”, “क़तार से कटा घर”, कविता –संग्रह “उजाले की क़सम”, रिश्तों में बुनी हुई औरत (प्रकाशनाधीन) और सद्य प्रकाशित उपन्यास “सितारों में सूराख़”| 2018 में उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा “विदेश हिन्दी प्रसार” पुरस्कार से सम्मानित। 2020 में ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउंडेशन अन्तर्राष्ट्रीय कथा सम्मान, कहानी विधा के लिए “क़तार से कटा घर” कहानी संग्रह को। ईमेल : [email protected]

………………………..

कविताएं

1.
औरत इन्तज़ार करती है
अपने सपनों को
आँचल की तहों में छिपाए
औरत इन्तज़ार करती है
कब उसका अपना घर हो
जहाँ वह अपनी मर्ज़ी से
उसे सजाए
पसन्द का पकाए
घूमें फिरे
अपनी पसन्द के साथी के साथ।
बच्चों, पति, ससुराल
उनकी पसन्द को संभालते
वह भूल जाती है
उसे क्या पसन्द था।
वह फिर इन्तज़ार करती है
बच्चों के बड़े होने का
ज़िम्मेदारियों से फ़ारिग होने का।
उनसे निबट कर
वह ढूँढती है
अपनी पसन्द को
अपने जुनून को।
प्यार से सहलाती है
उस भूली हुई संदूकची को
जिसमें उसके सपने अभी भी
सांसे ले रहे हैं।
वह धीरे से छूती है
अब वक़्त आ गया है
उठो, सपनों
उड़ो खुले आसमान में
वह शिथिल से पड़े हैं
भूल गए हैं सब कुछ
औरत इन्तज़ार करती है
शायद फिर याद आ जाए
उन्हें उड़ने की आदत।

2.
रिश्ते
सिर्फ़ कोर्ट – कचहरी में ही
नहीं ख़त्म होते
बहुत पहले ही
वे मर चुके होते हैं
सजे हुए घरों
खिंची हुई मुस्कानों
ख़त्म हो चुकी बातों
और औपचारिकता की
बर्फ़ीली सिल्ली के नीचे
सांसों को रुक रुक कर खींचते
कोशिश करते
ताकि थोड़ी और खिंच जाए
ज़िन्दगी।
आदत हो जाती है
इन रिश्तों की।
पता ही नहीं चलता
कब सब बातों के
बावजूद
उनकी देह पड़ जाती है नीली
फिर भी छोड़ नहीं पाते
बन्दरिया के मरे बच्चे की तरह।
कोर्ट – कचहरी में रिश्ते
ख़त्म नहीं होते
बहां तो सिर्फ़
उनके
अन्तिम संस्कार होते हैं

3. बधाई
मैने सिर्फ़ सच बोला था
अत्याचार के विरोध में उठी
अपनी पीड़ा हताशा को
आवाज़ दी थी
उन्होंने मेरे कंधे थपथपाए
शाबाशी दी
मेरे बे- खौफ़ और बेबाक़ होने की।
मैं काँप गई
क्या सच बोलना
इतना खौफ़नाक है
कि बोलने पर बधाई मिले।

4. औरत का मरना
आज उसकी मृत्यु पर
एक भीड़ इकट्ठी हुई
शोक करने
संवेदनाएं देने
और करने को उसका
अन्तिम संस्कार।
चुपचाप निस्पन्द पड़ी देह
होठॊं पर
मुस्काहट बिखेरे थी
मूर्ख बनाया तुम सब को
आज थोड़े ही मरी हूँ मैं?
पहली बार तब मरी थी
जब पैदा होने पर
घर में मातम छाया था।
फिर जब किसी से प्रेम किया
चारों ओर क्रन्दन मचा था
यह दिन देखने से पहले
काश मर क्यों न गई
उस प्रेम की चिता फूँक कर
केवल देह लिए भीतर आई थी
किसी पति कहलाने वाले के घर।
ससुराल की स्त्रियों ने
विलाप किए थे
उसके होने, रहने
पाने और खोने को लेकर।
इस आख़िरी सांस से पहले भी
वह कितनी मौतें मरी
कितनी बार जी उठी
फिर मरी
अपनों के दर्द के साथ
हर मौत के साथ वह मरी
चाहे वह बाहर दिखी
या भीतर घटी।
यह एक राज था
जिसे कोई नहीं जान पाया
आज जब वह मौत के चंगुल से
आज़ाद हो गई
तो सभी रोते हैं
ओह, आज वह
सचमुच मर गई।

5. श्रंखलाएं
पीढ़ी दर पीढ़ी
हर मां देती है
अपनी बेटी को
उन जंजीरों के निशान
जो उस के बदन पर हैं
वसीयत में मिलते रहे हैं
एक स्त्री से दूसरी स्त्री को|
वह धीरे से सरका देती है
एक आशा और एक सपना भी
मुक्ति की कुंजी
वह थमाती है
शिक्षा की ओट में
आंख के संकेत से समझा देती है
इन शृंखलाओं से
डोर बना ले
बांध ले अपना सूरज
अपनी मुक्ति के आकाश में |

………………………..

कविताएं

.................................
.................................
.................................
error: Content is protected !!