उस स्त्री के रक्त में प्रेम था
नसों में बहता गुनगुना प्रेम
सुर्ख लाल गहरा गाढ़ा
कभी टपक जाता कहीं एक बूंद तो प्रेम के दरिया बहने लगते आसपास
लोक लाज संभालती वह स्त्री झटपट अपने पल्लू से पोंछ डालती उस दरिया को
अपनी आँखों में समेट लेती
फिर देर तक घर बाहर के कामों से सिर न उठाती
मेरे भीतर हरदम सुलगता है प्रेम
जलाता है मुझे
मेरा इतना नाश किसी दुश्मन ने भी नहीं किया जितना इस प्रेम ने
एक दिन असहनीय पीड़ा में कह जाती है वह
ये स्त्री शादीशुदा है
ये स्त्री शादीशुदा पुरूष से प्रेम करती है
ये जानते हुए भी कि कभी मिल नहीं पाएगी उससे
पास नहीं बैठ पाएगी दो पल
उसका हाथ अपने हाथ में ले
उसे तसल्ली के दो बोल नहीं बोल पाएगी
दो चार कदम साथ चलना तो दूर
कभी बहुत दूर से भी उसे नजर भर देखना नसीब न होगा
फिर भी ये स्त्री प्रेम में भीगी है
इसकी नसों में दौड़ता प्रेम इसे जिलाए रखता है
ये सुलगती
हरदम बेचैन रहती
तिल तिल जीती मरती स्त्री
पता नहीं अभी तक कैसे बची हुई है ?
बता क्यों नहीं देती ?
किसे ?
जिसे प्रेम करती हो उसे और किसे ?
जानता है वो ,
कुछ कहता नहीं ?
तुम्हें डाँटता नहीं ?
कहता है न , अपना ख्याल रखो
तुम्हारे दो बच्चे हैं और मेरे दो , उनके बारे में सोचो
अपने पति और मेरी पत्नी के बारे में सोचो !!
वो कुछ नहीं कर सकता सिवाए इस बात से खुश होने के
कि उसकी पत्नी के अलावा भी कोई स्त्री उससे इतना प्रेम करती है
उसके कहने से दे देगी अपनी जान
मुझे भी कौन सा सुख चाहिए उस निर्मोही से
बस इतना कि कभी कभार सुन लूँ उसकी आवाज
जान लूँ राजी खुशी
पता है सखी , इस प्रेम के बारे में किसी से कुछ कहूँगी न , तो
उसी पल बिना आगे पीछे सोचे चरित्रहीन साबित हो जाऊँगी
कुलटा , घरतोड़ू , दूसरे का पति छीनने वाली हो जाऊँगी
मेरे सारे काम , अभी तक मेरे परिवार और दुनिया के लिए किए काम सब बेकार हो जाएंगे
मेरे पति तो पति , बच्चे तक मेरा चेहरा नहीं देखना चाहेंगे
मैं कैसे किसी को यह समझाऊँ कि सारे रिश्तों में गणित नहीं चलती
प्रेम से कई गुना बड़ी है नफरत
इसीलिए कुछ न चाहते हुए भी सिर्फ यह कहने से रह जाती हूँ
मैं प्रेम में हूँ
इसमें किसी का कोई दोष नहीं
किसी ने मुझे बहलाया फुसलाया नहीं
मेरी किसी से कोई चाहना नहीं
मैं तो बस सहज जीते हुए प्रेम में रहना चाहती हूँ
प्रेम को जीना चाहती हूँ
बिना आत्मग्लानि महसूस किए
प्रेम मेरा चयन है
इसकी तमाम सुलगन तमाम बेचैनियाँ मेरी चाहतें हैं
मैं इसके बिना नहीं जी सकती
इन सबके बाबजूद मैं अपने पति , बच्चों , घर , समाज , काम से भी प्रेम करती हूँ
क्या ये अनोखी बात है ?
अब तुम भी मुझे समझाने न लगना
कुछ बातें अपने वश में नहीं रहतीं
अच्छा लगने की कोई वजह नहीं होती
वजह ही पूछनी है तो जाकर उनसे पूछो
जो दिन रात दुनिया को खराब करने में लगे हुए हैं
उन्हें पहचानो
जिसके भीतर जो होगा वही जियेगा
मेरे प्रेम से भला दुनिया का क्या फायदा क्या नुकसान ?
अब तुम भी मुझे चरित्रहीन स्त्री कहती हो तो कहो ।।
रेखा चमोली
असिस्टेंट प्रोफेसर शिक्षाशास्त्र
रा0 स्ना0 महा0 मालदेवता , रायपुर
देहरादून
उत्तराखण्ड