Wednesday, December 4, 2024

अल्पना सिंह

जन्म उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में हुआ । वह वर्तमान समय की प्रखर युवा आलोचक है । हंस, पहल, पाखी, लमही, बनासजन, समकालीन भारतीय साहित्य, समालोचन, जनसत्ता, दैनिक जागरण, जनसंदेश टाइम्स समेत अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख निरन्तर प्रकाशित होते रहते हैं । उनके लेखन के केंद्र में स्त्री प्रश्न हैं साथ ही वह समकालीन विमर्श और मुद्दों पर बेबाक राय रखती हैं । 2 वर्ष से अधिक बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्विद्यालय में अतिथि सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्य करने के उपरांत अल्पना सिंह वर्तमान समय में धामपुर, बिजनौर में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत ।

सम्पर्क- [email protected]

……………………………

अतीत और वर्तमान से मुक्त निरे भविष्य की महागाथा

अल्पना सिंह

हिंदी साहित्य के मिथकीय लेखन पर बात की जाए तो वहाँ पुरुषों का आधिपत्य नहीं एकाधिकार है | या तो स्त्रियों ने इतना साहस नहीं दिखाया या उन्हें चिन्हित नहीं किया गया | चूँकि इस क्षेत्र में चुनौतियां अधिक हैं क्योंकि पौराणिक आख्यान हमारी रग-रग में इस कदर रचे बसे हैं कि उन्हें जन-जीवन से अलग किया जाना सम्भव नहीं है | एक समस्या यह भी है कि वह हमारे सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़े हुए हैं | पौराणिक मिथकों के साथ छेड़-छाड़ करना बहुत चुनौतीपूर्ण रहा है क्योंकि इनकी जड़ें जन-मानस के भीतर तक पैठी हुयी हैं | भारतीय वांग्मय के कुछ ऐसे मिथकीय पात्र हैं जो राई-रत्ती भर परिवर्तन किये जाने भर को सहन नहीं कर सकते मानों कथा या चरित्र में परिवर्तन मात्र से ही संस्कृति की चूलें हिल जायेंगी | चुनौती यह भी है कि इस विषय पर या तो लकीर का फ़कीर बने रहा जाए याकि जोखिम उठाया जाए | साहित्य में जोखिम उठाना क्या है? लेखकीय साहस क्या है ? यह किस तरह के खतरे साथ ले कर आता है ? पहला तो यह कि आप ‘लाइम लाईट’ में आ जाते हैं और आप पर जुमलों और फतवों टाइप वाक्यों की बौछार होने लगती है जैसा फ्रांस में वाल्टेयर या बांग्लादेश में तसलीमा नसरीन या सलमान रुश्दी के साथ हुआ और दूसरा यह कि आपको एकदम इग्नोर कर दिया जाता है | सब आपको देखते/सुनते और पढ़ते हैं लेकिन  बिल्ली की भांति आँखें मूँद कर यह मान लेना चाहते है मानो कुछ हुआ ही न हो, जैसा अक्सर अपने यहाँ होता है | किरण सिंह के उपन्यास ‘शिलावहा’ के साथ भी कुछ वही बर्ताव दिखाई दिया | आलोचकों की चुप्पी कुछ न कह कर भी बहुत कुछ कह रही है | इस अपने तरह की क्रांतिकारी स्थापनाओं वाली कहानी पर चर्चाओं/विमर्शों/वाद-विवादों का एक तूफ़ान सा उठ खड़ा हो जाना चाहिए था | लेकिन कहीं कुछ ऐसा नहीं हुआ | इसका कारण है हिंदी साहित्य में यह मान लिया गया है कि- सबसे अच्छी स्त्री सबसे खराब पुरुष से भी कमतर होती है | इस कहानी की पृष्ठभूमि में ‘अहल्या’ है | अहल्या कौन हैं ? जन-जन को यह पता है कि अहल्या वह स्त्री है जिसने अपने पति (गौतम) की अनुपस्थिति में अन्य पुरुष (इंद्र) के सम्बन्ध स्थापित किया इसके दंड स्वरुप उसे पाषाण हो जाने का शाप मिला। इस छोटी सी कथा की विशेष बात यह है कि अब तक इसके कारणों की पड़ताल करने पर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया ? क्या कारण है कि सीता, राधा, उर्वशी आदि तो बार-बार रची गयी किन्तु अब तक ‘अहल्या’ पर हाथ डालने का साहस कोई क्यों नहीं कर सका | क्यों किसी ने अब तक यह नहीं देखा कि पन्द्रह वर्ष की बालिका अहल्या पर, जो गौतमी को माता-माता कहती नहीं अघाती थी, पैंसठ वर्षीय गौतम किस कदर लार टपकाते हैं ? और जब इस कथा को परत-दर-परत उधेड़ कर सामने लाया गया तो निम्न से निम्न स्तरीय कहानी पर भी वाह-वाह की झड़ी लगाने वाले वर्ग नें अपनें आँख और कान दोनों बंद कर लिए | वर्जिनिया वुल्फ ने अपनी पुस्तक ‘ए रूम आव वन्ज़ ओन’ में लिखा है कि ‘किसी स्त्री ने असाधारण साहित्य का एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा ? या सच कहें तो उन्हें लिखने ही नहीं दिया गया |’ इसी के साथ वह एक कल्पना करती हैं कि यदि शेक्सपियर की बहन जूडिथ को वही सब सुविधाएं दी जाती, जो कि उनके भाई को मिली थीं, तो संभव है वह उस सदी का श्रेष्ठ साहित्य सृजित कर सकती थी | सामाजिक संरचना किसी के भी लेखन को प्रभावित करती है | वही प्रश्न समान संदर्भों में यहाँ भी उठाया जा सकता है कि आखिर वह कौन से कारण थे ‘किसी भी स्त्री नें मिथक पर कलम उठाने का साहस क्यों नहीं किया ?’ और यह भी कि वह कौन से कारण थे जिनकी वजह से शताब्दी के लेखन में लेखक/लेखिका किसी के भी द्वारा ‘अहल्या’ के साथ अछूत जैसा व्यवहार किया गया | वाल्मीकि के बाद सृजित हर अहल्या नें अपना मूल अस्तित्व ही खो दिया | उसकी स्वातंत्र्य चेतना को विकृत कर के सामने लाया गया | कहीं इसका कारण पितृसत्ता का वही षड्यंत्र तो नहीं कि कहीं अहल्या के दुस्साहस की कथा के पुनर्पाठ से उनके दवारा निर्मित सामाजिक संरचना की चूलें न हिल जायें | पुराख्यानों पर बात करने का मतलब उन्हें विमर्श में लाना है | इनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है, हर कथा का समय सापेक्ष पुनर्पाठ किया जाना आवश्यक है | यह पीछे की ओर देखना भर नहीं है बल्कि वर्तमान के गढ़े जाने की पृष्ठभूमि की वैज्ञानिक सोच के साथ पड़ताल करना है और भविष्य को नयी द्रष्टि देनें का प्रयास है | एक तरह से यह ज़रूरी भी है कि वर्तमान वैज्ञानिक चेतना के साथ इनका पुनर्पाठ भी किया जाए कि हमारे पुराख्यान आज भी प्रासंगिक हैं | जिस तरह आज से लगभग सौ वर्ष पहले हरिऔध ने राधा को पौराणिक धर्म ग्रंथों से निकाल पर समाज सेविका के रूप में स्थापित कर साहित्य जगत को एक नयी द्रष्टि दी थी | हमें भूलना नहीं चाहिए यह वही राधा है जो विद्यापति से होती हुयी रीतिकाल तक प्रेम के कभी आलंबन तो कभी उद्दीपन का स्वरुप बनी रही | फिर एक वह द्रष्टि भी हमारे सामने आई जिससे राजेन्द्र यादव नें सीता और हनुमान को देखकर नए संदर्भों में व्याख्यायित कर बड़ा भारी विवाद खड़ा कर दिया | हरिऔध ने राधा (प्रिय प्रवास), दिनकर ने उर्वशी (उर्वशी), दूधनाथ सिंह ने उर्वशी (यमगाथा), नरेश मेहता ने शबरी के द्वारा इन्हें पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया | संस्कृत में ऋग्वेद से लेकर पुराणों के साथ ही कालिदास ने अपने नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम’, हिन्दी में रामधारी सिंह दिनकर ने अपने खंडकाव्य ‘उर्वशी’ में उर्वशी के नए स्वरूप में प्रस्तुत किया । रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘उर्वशी’ भी उल्लेखनीय है जिसमें उर्वशी मात्र एक सुंदर स्त्री है | वह न माँ है, न पुत्री है, न बहन है और न ही वधू है | वह बस सुंदर है | श्रीमद्भागवद की कथा के अनुसार उर्वशी इन्द्र के सभा की सबसे सुंदर अप्सरा थी | एक बार सभा में नृत्य करते हुये वह पुरू को देखकर उन पर आसक्त हो जाती है, इस कारण उसके नृत्य की गति में अवरोध उत्पन्न हो जाता है | इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उसे मृत्युलोक में रहने का शाप दे दिया था | तब उर्वशी ने पुरू का चयन कर मृत्युलोक में रहना वरण किया | कालिदास ने ‘विक्रमोर्वशीयम’ और दिनकर ने ‘उर्वशी’ में इसी प्रसंग को अपनी कथा का आधार बनाया है | प्रसाद ने भी उर्वशी और पुरुरवा के सम्बन्धों को नवीन भाव-बोध के साथ सृजित करते हुये अपना ‘उर्वशी’ चंपू काव्य लिखा है | उसी उर्वशी की चरित्र योजना में दूधनाथ सिंह पूर्वाग्रह से पूरी तरह से मुक्त हो गए हैं| उन्होने उर्वशी के चरित्र में भारी और बुनियादी परिवर्तन किया है । वह मानवीय संवेदनाओं से युक्त अंततः अप्सरा न हो कर एक बहुत साधारण स्त्री हो जाती है | काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास ‘उपसंहार’ में राधा का द्वारिका में कृष्ण से पुनः मिलन दिखाने का साहस तो किया है लेकिन कुछ सीमाओं के साथ ही वह ऐसा कर सके हैं | यह राधा अपनी पौराणिक छवि को तोड़ती है | वह अपना अब तक का बचाया हुआ सर्वस्व कृष्ण को इस शर्त के साथ अर्पित करना चाहती है कि कृष्ण को उसे ग्रहण करने के लिए जमुना के कछारों में जाना होगा | कृष्ण का असमंजस देख कर आजीवन बरसानें में इंतज़ार करने का वादा कर राधा लौट जाती है | इससे आगे की कल्पना करने का साहस करने पर मिथकीय मर्यादा खंडित हो जाने का भय हो सकता है, सम्भव है इसलिए इस प्रसंग को यहीं विराम दे दिया गया | प्रतिभा राय ने उड़िया भाषा में ‘याज्ञसेनी’ उपन्यास लिखा है | (जो हिंदी में अनुदित हो कर ‘द्रौपदी’ के नाम से प्रकाशित हुआ है) द्रौपदी भारतीय सांस्कृतिक विरासत का एक महत्त्वपूर्ण चरित्र हैं| द्रौपदी पर व्यंग्य कर, उसे ‘चरित्र मिथक’ के रूप में उद्घृत कर हंसने वाले समय में यह उपन्यास एक साहसिक पहल है जिसने द्रौपदी के संशयग्रस्त मन को मानवीय संवेदनात्मक धरातल पर ला खड़ा किया जहां वह कदम कदम पर स्त्री-पुरुष के सनातन सम्बन्ध पर न केवल निर्मम तरीके से प्रश्न उठाती है बल्कि इस व्यवस्था पर कुठाराघात भी करती है | यह अपने आप में एक घोर आश्चर्य का विषय है कि इस पात्र को भी अब तक हिंदी साहित्य से बेदखल रखा गया है | अहल्या की ही भांति याज्ञसेनी का जन्म भी पिता के औरस से नहीं बल्कि प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए रची यज्ञ की वेदी से हुआ | ‘शिलावहा’ और ‘द्रौपदी’ में सामान रूप से यह प्रश्न उठाया गया है कि ‘..क्या युग युग में धर्मरक्षा और दुष्ट दलन के लिए नारी को ही माध्यम होना पडेगा ?’ प्रसंग है किरण सिंह और उनके उपन्यास ‘शिलावहा’ का | यह उपन्यास पहले लम्बी कहानी के रूप में पिछले वर्ष ‘हंस’ पत्रिका के अगस्त और सितम्बर महीनों के दो अंकों में लगातार छपा था | मुझे ठीक-ठीक याद है कि हंस में प्रकाशित होनें के कुछेक महीने बाद ही लखनऊ में प्रलेस द्वारा इस कहानी के पाठ का आयोजन हुआ था | कहानी के कुछ अंशों के पाठ के बाद आलोचकीय प्रतिक्रियाएं ध्यान देने वाली थीं | तीस वक्ताओं में से लगभग पच्चीस नें इस कहानी के प्रति उदासीनता दिखाते हुए इसे खारिज कर दिया | कारण बहुत बड़े नहीं थे, बेहद मामूली से ही थे | कुछ का मत ऐसा था कि यह एक जटिल संरचना वाली कहानी है याकि अहल्या को कुछ अधिक एक्सपोज़ किया गया है याकि कथा में विस्तार बहुत अधिक है याकि यह बहुत अधिक लम्बी या उबाऊ कथा है, अपठनीय है | सत्य को स्वीकारने का साहस किसी में नहीं था कि चोट बहुत तेज लगी है और दर्द बहुत दिन तक रहने वाला है| ब्राह्मणवाद, वर्ण व्यवस्था, पितृसत्ता को डंके की चोट पर चुनौती देती इस कथा का व्यवस्था के पोषितों को जटिल, उबाऊ, अपठनीय लगना बहुत स्वाभाविक है | यह कहाँ का मानक है कि साहित्य को सरल/आसान/ग्राह्य होना चाहिए ? क्या एक स्त्री नें यह कथा लिखी है इसलिए इसे और आसान होना चाहिए था ? साहित्य के सरल/जटिल होने के मापक अलग नहीं होनें चाहिए | हर व्यक्ति के पैमाने अलग हैं | दुनिया के जितने बड़े साहित्यकार हुए हैं उनमें कोई सरल नहीं कहा जा सकता | काफ्का के साहित्य को पढ़ना कब सरल रहा है और उदय प्रकाश के साहित्य को समझना कब आसान रहा है | निर्मल वर्मा का लेखन भी जग ज़ाहिर है | ऐसे नामों की लम्बी फेहरिस्त है | साहित्य अब अपने पुरातन प्रयोजनों से बहुत आगे आ चुका है | उसका एक प्रयोजन समाज की मान्यताओं के बरक्स एक बड़ा प्रश्न उठाना भी है, फिर उससे सरल संरचना की अपेक्षा करना बेमानी है | कालान्तर में इससत्तर पृष्ठ के उपन्यास की इकतालीस पृष्ठ की जटिल संरचना वाली भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न उठ खड़े होना स्वाभाविक है | यह अलग बात है कि जैसे जैसे दोनों की परतें खुलती जाती हैं वैसे वैसे उसके भीतर से नए-नए रेशे खुलते चले जाते हैं | अपने कलेवर में लगभग पचास वर्षों लम्बे वितान में फैली यह कथा अहल्या के जन्म से लेकर परिणति तक फैली है | आकार की दृष्टि से इसे लघु उपन्यास भी कह दिया जाए तो गलत नहीं होगा | जिन संदर्भों में दूधनाथ सिंह के ‘नमो अन्धकारम’ और ‘निष्कासन’ को अथवा उदय प्रकाश की ‘पीली छतरी वाली लड़की’ या ‘मोहनदास’ को लघु उपन्यास या उपन्यास कहा जाता है उन सन्दर्भों में यह कहानी इन्हीं के समतुल्य ठहरती है बल्कि यह उनसे कुछ बीस ही होगी | हंस में तो यह ‘लम्बी कहानी’ के टैग के साथ दो भागों में प्रकाशित हुयी थी लेकिन इसे लम्बी कहानी न कह कर लघु उपन्यास अथवा उपन्यास कहना इसके साथ कहीं ज्यादा न्याय करना होगा | इस कहानी का आधार वाल्मीकि कृत रामायण हैं किन्तु इस कथा में जो नवीन स्थापनाएं की गयी हैं और जो प्रश्न उठाये गयें हैं वह अपने पूरे कलेवर में पूर्णतः मौलिक है | रोहिणी अग्रवाल नें भूमिका में लिखा है कि – ‘शिलावहा’ स्त्री को पत्थर बना देने की मंशा रखने वाली व्यवस्था पर करारा तमाचा है | यह उपन्यास कथा के प्रवाह से छिटक कर विचार करने का स्पेस देता है कि सजा के कठोर कानूनी प्रावधान होते हुए भी क्यों यौन हिंसा के जघन्यतम अपराधी दंड की हदबंदियों से मुक्त हो समाज (और राजनीति में भी) बाहुबली की बढ़ी-चढ़ी हैसियत के साथ घूमते हैं |’ यह कथन कथा के विस्तृत फलक के आवरण को हटाता है | अहल्या के बहाने से पितृसत्ता और समाज के नीति नियंता ब्राह्मणों की कुटिल चालों को तार-तार करती यह महागाथा हमारी पूरी व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़े करती है | धर्मग्रथों की पड़ताल कर प्रत्येक सामाजिक नियम की साजिश तक पहुँच कर निकाले गए निष्कर्ष चमत्कृत कर देते हैं | इस कथा के संवादों से, हमारा समाज जिन बने-बनायें आदर्शों और नियमों की नींव पर स्थापित है, उसकी एक-एक ईट हिल जाती है| प्रजापति ब्रह्म ऋषि से कहते हैं- ‘अप्सराएं तो रंडी हैं.. किन्तु घरेलू स्त्रियाँ आपसे नहीं संभल रहीं.. मेरे पुत्र विष्णु से सीखिए... बहू लक्ष्मी पांव दबाती रहती है.. हिलने नहीं देते हैं विष्णु |’ एक तरफ ब्रह्मर्षि गौतम की देख रेख में नए समाज का संविधान बनाने का उद्यम चल रहा है जिसका परिणाम इस कथन के रूप में सामने आता है कि- ‘हमें ऐसी व्यवस्था तैयार करनी है कि एक-एक माँ, स्वयं अपनी बेटी को दूध के साथ यह पिलाए कि वह बेटों से हीन है | स्त्री के मुख से अनायास निकले कि स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु होती है | ..जब रक्त-मज्जा, हवा-पानी, पत्ती-पत्ती यह मान ले कि स्त्री नीच होती है.. तब वह व्यवस्था जिसे क्रान्ति कहते हैं, वह आ जाये तो भी रसातल में पहुँच चुकी स्त्री, कितना भी ऊपर चढ़े, दोयम श्रेणी की ही बनी रहेगी |’ इतना भर ही नहीं करना है योजना तो यह भी है कि ‘सभी मिल कर कहें-नारी नरक का द्वार.. स्त्री योनि पाप का मूल...’ और यह भी कि लगातार ‘उन्हें स्मरण कराते रहकर कि तुम सिर्फ दो सूत योनि हो । न बुद्धि, न मन|’ परिणाम यह है कि न केवल वह ऐसा करनें में सक्षम भी होते है बल्कि उनका बनाया विधान अभी तक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में समाज को संचालित कर रहा है | जगत पितामह का यह कथन- ‘समाज को यही बताना है कि स्त्री किसी की पुत्री नहीं है.. किसी की भगिनी नहीं.. और हम अपनी पुत्रीवत से विवाह करें तो भी देवता हैं-संत हैं |’ शास्त्रों के इस षड्यंत्र को, जो आज तक उसी विधान से कायम है, को प्याज़ के छिलकों की तरह परत-दर-परत उधेड़ कर रख दिया गया है | आज इक्कीसवीं सदी में भी स्त्री जिस दोहरे तिहरे शोषण में जीवन यापन करने के लिए बाध्य है, वह उस षड्यंत्र जो सदियों पूर्व पितृसत्ता और समाज के नीति नियंता ब्राह्मणों द्वारा रचा गया था, का परिणाम है | इस कथा में अहल्या स्त्री मुक्ति चेतना से संपृक्त और स्त्री अधिकारों में प्रति किसी भी हद तक जा कर संघर्ष करने वाली साहसी, निडर और क्रांतिकार स्त्री के रूप में चित्रित हुयी है | भरे समाज में वह घोषित कर देती है कि उसकी संतानें गौतम की न होकर इंद्र के प्रेम के परिणामस्वरुप उत्पन्न हुयी हैं | क्या अब से पहले साहित्य में इस साहस की कल्पना भी की जा सकती थी ? अहल्या चुनौती देती हुयी कहती है- ‘‘ब्रह्मर्षि गौतम! मैंने असत्य नहीं कहा...आपके नियम से यह शरीर मिथ्या है, अधम है। आत्मा सर्वोपरि है...मेरे नियम से मन सत्य है। तो उस आत्मा और मन दोनों में इन्द्र रहते हैं। मेरे जीवन में आप एक पल भी कहीं नहीं थे। एक रजस्वला से दूसरी रजस्वला तक...प्रत्येक रात्रि...मेरी बन्द आँखों में आपके स्थान पर इन्द्र रहते थे। तो ये मेरी और इन्द्र की संतानें हुईं।’’ वह रो कर विलाप नहीं करती, अवसादग्रस्त होकर खुद को एकान्तवासिनी नहीं बना लेती, बल्कि स्वाभिमान के साथ आँख में आँख डालकर हंसती हुयी कहती है- ‘आप मुझे धर्म ध्वजा थमाने चले थे। मैंने धर्म की धज्जी उड़ा दी। सम्मान और संतान दोनों से हार गए श्रेष्ठ नस्ल के उत्पादक!’ इस कथा में थोड़ी विसंगति भी दिखाई देती है | जबकि अहल्या भरी सभा में यह कहने का साहस कर लेती है कि वह इंद्र से प्रेम करती है याकि यह संतति गौतम की न होकर इंद्र की है वही अहल्या गौतम के विवाह के प्रस्ताव को दो शर्तों के साथ (कि वह कभी भी बाहर जा सके और देवभाषा, जोकि स्त्रियों के लिए वर्जित है, पढ़ सके |) स्वीकार क्यों कर लेती है ? वह नकार का साहस क्यों नहीं कर पाती ? इतने साहस और इंद्र के प्रेम में आपाद मस्तक निमग्न होकर भी वह, एक बार ही सही, विवाह प्रस्ताव का विरोध क्यों नही कर सकी ? और परिणाम वही कि ‘आर्या गौतमी के पास सिर्फ पूर्णमासी और अमावस्या को आने वाले ब्रह्मर्षि अहल्या के पास अब एक रजस्वला से दूसरी रजस्वला तक नियम से आने लगे’ क्योंकि स्वयं ब्रहमा नें उनसे कहा है ‘उसकी जवानी सोख लीजिये और उसमें अपना बुढ़ापा उलीच दीजिये | मैंने, दशरथ नें, हम सभी नें यही किया है | राष्ट्र हित में हमारी ऊर्जा बनाए रखने के लिए स्त्रियाँ इस तरह सहयोग करें |’ कारण शायद सीमाओं का है | मिथकीय सीमाएं अप्रत्यक्ष रूप में ही सही, उपस्थित तो रहती ही हैं | इसके साथ ही इस कथा पर सबसे बड़ी आपत्ति इसके ‘एक्सपोज़र’ को लेकर भी उठाई जा सकती है | साहस कभी-कभी दुस्साहस भी बन जाता है | कथा से गुज़रते हुए यह लगता है कि बार-बार अहल्या के शरीर को नग्न किया जाना बहुत आवश्यक नहीं था | अहल्या और अन्य द्वारा बार-बार ‘योनि’ को जिस तरह व्याख्यायित करती है, कहीं-कहीं वह अतिवादी लगता है | कुछ प्रसंग हैं जैसे-   ‘आपका कौन सा समाज मुझे यौनानंद से रोकता है ! मेरी भग को संतानोत्पत्ति और मूत्र विसर्जन का साधन भर कहता है ! दिखाइये कहाँ लिखा है | ·        ‘आपका नया समाज स्त्री की योनि पर ठिप्पी की तरह टिका है... मानों स्त्री योनि ज्वालामुखी का मुहाना हो जिसमें से लावा निकला तो समाज भस्म हो जाएगा |’ ·        नपुंसक समाज ही स्त्री की यौनेच्छा से डरता है | मानों हमारी यौनिकता न मिटी तो आपकी पहचान मिट जाएगी |’ ·        ‘योनि के लिए तुम इतनी प्रताड़ित की जाओ कि तुम्हें अपनी योनि से वितृष्णा हो जाए.... डर और घृणा के बीच तुम कभी यौनानंद न ले पाओ’ और भी कई बार ऐसे प्रसंग आये हैं | इन प्रसंग से उलझते हुए अनायास याद आती है तसलीमा नसरीन की एक कविता | यह कविता ‘हंस’ के नवम्बर 2013 अंक में प्रकाशित हुयी थी जिसका शीर्षक था ‘मैं रंडी हूँ’ | कविता कहती है कि जिस दिन पुरुष नें यह जान लिया कि स्त्री नें उसके ब्रह्मास्त्र ‘चरित्रहीनता के आरोप’ से डरना बंद कर दिया है और उसनें इस आरोप को स्वीकार करने का साहस भी पैदा कर लिया है उसी दिन से वह डर जाएगा और उसका वर्चस्व स्वतः ख़त्म होने लगेगा | इस कहानी में कुछ वैसा ही घटित हो रहा है | कहना यह है कि पुरुष आपको नि:वस्त्र न कर सके इसलिए स्वयं ही अपने वस्त्र उतार कर फेंक देना और यह चुनौती देना कि ‘अब जो कर सको वो कर लो’ कहाँ तक जायज़ है ?  रोहिणी अग्रवाल ने एक बार कहा था कि- ‘स्त्री विमर्श देह का राग नहीं, सामाजिक मुक्ति के लिए शुरू किया गया सांस्कृतिक आन्दोलन है |’ अगर इस सूत्र वाक्य को स्त्री मुक्ति आन्दोलन की कसौटी मान लिया जाए तो फिर अहल्या के साथ यह देह-राग क्यों ? चित्रा मुद्गल ने ‘एक ज़मीन अपनी’ में एक बहुत ज़रूरी बात इन शब्दों में लिखी है- ‘पुरुष विरोध करते हुए पुरुष की तरह निरंकुश हो जाना नारी मुक्ति नहीं है |’ तो क्या अहल्या की मुक्ति के लिए इतनी निरंकुशता को हमारा कथित सभ्य समाज स्वीकार करने का साहस रखता है | और फिर बार-बार स्त्री शरीर को नग्न कर वीभत्स रूप में कलम से परोसना तो बहुत कुछ पुरुषसत्ता को तृप्त करने का ही काम हुआ न ? कहना यह है कि अहल्या की योनि और माहवारी/रजस्वला तक जाए बिना भी इस मिथक के साथ न्याय किया जा सकता था क्योंकि मिथकों के मानसिक द्वंद और संघर्षों से अभी बहुत से नवीन निष्कर्ष सामने आने बाकी हैं |   यह भी कोई छुपी हुयी बात नहीं है कि किरण सिंह के मन में राम कथा को लेकर एक दुराग्रह हमेशा से रहा है, जो उनकी कहानियों में यथास्थान दिखाई देता रहता है | इससे पहले भी वह अपनी कहानी ‘द्रौपदी पीक’ में राम जन्म की छठी का सोहर गाकर इसके कुछ संकेत दे चुकी हैं | ‘शिलावहा’ में तो खुल कर यह दिखाई देता है | पूर्वाग्रह से हट हर दुराग्रह पर आ जाने में समय नहीं लगता है | कह सकते हैं कि ‘शिलावहा’ में यही हुआ है | उनकी द्रष्टि भले ही प्रकारांतर से कौशल्या, सुमित्रा और कैकेई पर थी, और जिस मर्म को छूने में वह कुछ हद तक न केवल सफल भी रहीं बल्कि उन्होंने कुछ बड़े प्रश्न भी उठाये लेकिन ‘दशरथ की फटी झालरों वाली जांघियों’ जैसे प्रसंग का बहुत औचित्य नहीं था | विरोध करने के लिए विरोध करना कभी-कभी निष्प्रभावी हो जाता है | इस कथा को पढ़ते हुए बार-बार मन में यही प्रश्न उठता है कि यदि किसी पुरुष रचनाकार के द्वारा अहल्या की कथा रची जाती तो क्या उस कथा की अहल्या भी इतना तीव्र प्रतिरोध/प्रतिकार कर समाज के नियमों का बहिष्कार करनें में सक्षम हो पाती ? जितना मुखर होकर किरण सिंह की अहल्या गौतम से यह कहनें का साहस करती है कि- ‘मेरे जीवन में आप एक पल भी कहीं नहीं थे। एक रजस्वला से दूसरी रजस्वला तक...प्रत्येक रात्रि...मेरी बन्द आँखों में आपके स्थान पर इन्द्र रहते थे। तो ये मेरी और इन्द्र की संतानें हुईं।’ उत्तर है कदापि नहीं | पुरुष लेखन में अहल्या बहुत हद तक हरिऔध की राधा की तरह जन कल्याण का मार्ग अपना लेती अथवा दूधनाथ सिंह की उर्वशी की तरह भावुक हो कुछ समय आत्मचिंतन या विलाप में बिता देती अथवा काशीनाथ सिंह की राधा की तरह आजन्म प्रतीक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहती | इस कथा के वाक्य विन्यास पर भी बहुत बातें की जा सकती है | जो वर्ग आज तक यह मान कर चल रहा था कि स्त्री, काल्पनिक दुनिया की सतरंगी कल्पनाओं में ही जीती है याकि बहुत हुआ तो सरल शब्दों में कटु यथार्थ रचने भर तक सीमित है, उसकी कलम आंसुओं से भीगी हुयी है, यह कहानी उनकी सोच को निश्चित रूप से परिवर्तित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगी | पहली बार मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘महाभोज’ नें इस धारणा को तोड़ा था कि ‘महिलाएं या तो घर परिवार के बारे में लिखती हैं याकि अपनी भावनाओं की दुनिया में ही जीती-मरती हैं |’ जिस तरह उसकी भाषा नें बहुत सी रुढियों को तोड़ा था उसी तरह इस इसकी भाषा भी बनी-बनायी परिपाटी को तोड़ती है | इस बहुत लम्बी कहानी के बस कुछेक वाक्य विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं | जब मिथकों को संदर्भित करती हुयी ऐसी पंक्ति ‘इस राष्ट्र की नींव में स्त्रियाँ ही प्रस्तर शिला है’ सामने आती है तो यह अकेले अहल्या को ही रेखांकित नहीं करती बल्कि मिथकीय परम्परा का एक पूरा वर्ग आँख के सामने आ खड़ा होता है जिसे एक निश्चित षड्यंत्र के तहत प्रस्तर की भूमिका निभाने को बाध्य किया गया | इसके बाद क्रांतिकारी अहल्या के प्रेम में होनें को इतनी सुन्दरता से रेखांकित किया जाना कि ‘प्रेम में डूबी स्त्रियों के चेहरे संसार के सबसे सुन्दर चेहरे हैं|’ किसी भी सहृदयी को रोमांच से भर देता है, वह पुलक से भर-भर उठता है | याकि अहल्या का कायर इंद्र को यह सन्देश देती पंक्ति ‘लडाइयां भुजाओं से नहीं कलेजे से लड़ी जाती हैं|’ किसी को भी आंदोलित और आक्रोशित कर सकती है | यह बस एक बानगी मात्र हैं बाकी तो पूरी कथा सामने है ही | याद आता है एक बार किरण सिंह नें अपनें वक्तव्य में कहा था कि- ‘ मेरी कहानियाँ, सामंती सोच वाले समाज से, मेरा रचनात्मक प्रतिशोध हैं | ..विकटतम स्थितियों में भी मेरी नायिकाएं न हारेंगी, न मरेंगी| वे डरेंगी पर वे लड़ेंगी |’ उनकी अधिकांश कहानियों में यही हुआ है | उनकी नायिकाएं संझा, रेनू, सुमन, भारती आदि रोती हैं, जूझती हैं, सहन करती हैं और बराबर सामर्थ्यानुसार संघर्ष भी करती हैं लेकिन वह हार नहीं मानती अंत तक लड़ती हैं | ‘अहल्या’ इस सबका प्रतिनिधित्व करती है | वह न केवल पौराणिक छवि तोडती है बल्कि समाज के बरक्स खड़ी होकर, उनकी आँख में आँख डालकर संवाद का साहस भी करती है| वह देहरी के भीतर रो-रो कर प्राण त्यागने के लिए नहीं जन्मी बल्कि सत्ता और समाज के नियंताओं को चुनौती देने के लिए हर नियम कानून की धज्जियां उड़ाने में तत्पर है | किरण सिंह जिस तैयारी और गहन शोध के साथ विषय का चयन करती हैं और अंत तक उसका निर्वहन करती है वह उनकी कहानियों को विशिष्ट बनाता है | रही लेखकीय साहस और खतरे उठाने की बात तो वह उनकी हर कहानी के साथ चलता है | जिस समय हिंदी साहित्य में कोई ‘तीसरी सत्ता’ के अस्तित्व के बारे में सोचने की कल्पना भी नहीं कर सकता था, उस समय उनकी कलम ने संझा को सृजित कर सबकी संवेदना को झकझोर दिया था | यह वही साहस है, जबकि समूचा हिंदी साहित्य आज तक जिस अहिल्या पर कलम उठाने का साहस नहीं कर सका, उस अहल्या को किरण सिंह नें न केवल नयी पहचान दिलाई है बल्कि मिथकों को विमर्शीय दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है | इस कथा से गुजरते हुए, बल्कि कहा जा सकता है कि किरण सिंह के लेखन-कर्म से गुजरते हुए अनायास ही मीरा की ये पंक्तियाँ अपने सुर लय ताल समेत मन में उठ खड़ी होती हैं-  ‘म्हाने या बदनामी लागे मीठी / कोई निंदौ कोई बिन्दौ मैं तो चलूंगी चाल अपूठी’ मानों उन्होंनें कोई जिद ही ठान राखी हो मन में कि चाहे कोई निंदा करे या वंदना | मुझे समझौता नहीं करना | यदि मेरी चाल लोगों को उलटी लगती है तो वही सही | जब विष का प्याला पीने की ठान ही ली है तो बदनामी से क्या डरना | आने वाला समय इसका ठीक-ठीक न्याय करेगा कि यह प्याला विष का ही है याकि अमरत्व का |

……………………………

किताबें

……………………………

error: Content is protected !!