अनुपम सिंह –
जन्म उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जनपद में। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक, परास्नातक की पढ़ाई। तथा पी-एच.डी. की उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से। कविताएँ हिंदी की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। महिला संगठन-‘आल इण्डिया प्रोग्रेसिव विमेन एसोसिएशन’(ऐपवा) तथा सांस्कृतिक संगठन- जन संस्कृति मंच (जसम) से जुड़ाव। वर्तमान में दिल्ली विधानसभा, दिल्ली में ‘एसोसिएट फ़ेलो’।
इमेल – anupamdu131@gmail.com
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कविताएं
शर्तों पर प्रेम
मुझसे प्रेम करने के लिए
तुम्हें शुरू से शुरू करना होगा
पैदा होना होगा एक स्त्री की कोख से
उसकी और तुम्हारी धड़कन
धड़कनी होगी एक साथ
मुझसे प्रेम करने के लिए
संभलकर चलना होगा हरी घास पर
उड़ते हुए टिड्डे को पहले उड़ने देना होगा
पेड़ों के पत्ते बहुत ज़रुरत पर ही तोड़ने होंगे
कि जैसे आदिवासी लड़के तोड़ते हैं
फूलों को नोच
कभी मत चढ़ाना देवताओं की मूर्तियों पर
मुझसे प्रेम करने के लिए
तोड़ने होंगें नदियों के सारे बाँध
एक्वेरियम की मछलियों को मुक्त कर
मछुआरे के बच्चे से प्रेम करना होगा
करना होगा पहाड़ों पर रात्रि-विश्राम
मुझसे प्रेम करने के लिए
छाना होगा मेरा टपकता हुआ छप्पर
उस पर लौकियों की बेलें चढ़ानी होंगी
मेरे लिए लगाना होगा एक पेड़
अपने भीतर भरना होगा जंगल का हरापन
और किसी को सड़क पार कराना होगा
मुझसे प्रेम करने के लिए
भटकी हुई चिठ्ठियों को
पहुँचाना होगा उनके ठीक पते पर
मेरे साथ खेतों में काम करना होगा
रसोई में खड़े रहना होगा
मेरी ही तरह
बिस्तर पर तुम्हें पुरुष नहीं
मेरा प्रेमी होना होगा
हाँ, शर्तों पर टिका है मेरा प्रेम
मुझसे प्रेम करने के लिए
अलग से नहीं करना होगा तुम्हें
मुझसे प्रेम ।
हमारा इतिहास
एक औरत की पीठ पर नील पड़ा है
वह अभी-अभी सूरज को अर्घ्य देकर लौटी है
देवताओं और राजाओं के कपड़े धोते-पछीटते
झुकी हुई एक पीठ
एक पीठ की बिसात पर फेंकी गई पासे की गोटियाँ
एक शापित शिलाखंड
जिसके लिए एड़ियाँ रगड़ रही हैं हम
इतिहास का एक पन्ना
जिसके कोने में दर्ज हैं विषकन्याएँ
वे चीख़ रही हैं भरी अदालतों में
झूठ…झूठ…झूठ
अमृत घट थी हमारी देह
विष तो धीरे-धीरे उतारा गया शिराओं में
झूठे स्वाभिमान
और स्वार्थों के लिए औरतें
युद्ध में कभी शामिल नहीं रहीं
और न औरतों के लिए कोई युद्ध
लड़ा गया इतिहास में
वे एक स्वर में कहती हैं –
इतिहास से बेदख़ल औरतें
चुड़ैल बन भटक रही हैं पीपल के पुराने पेड़ों
वीरान खंडहरों में
हमीं जंगलों से निकल
उनकी ख़ूनी बावड़ी का पानी पीतीं
और अपनी काली छाया से डरा करतीं
जलती आँखों पर गीली रेत लेपतीं
बावड़ी के किनारे
ऐन चूल्हे के नीचे
जहाँ धधकती है आग
हमारे ही अवशेष मिले हैं
जो अहरे की तरह सुलगाई गयीं
खौलते तेल में जो छान दी गयीं
मछलियों की तरह
जो एक साथ कूद गईं थीं चिताओं में
जौहर करने
खड़ी दोपहर की आँधियों सी-चलतीं हैं
मातम मनाते हुए
हम जो इतिहास की सबसे कमज़ोर निर्मितियाँ थीं
सबसे अधिक रूठा करतीं
कूद जातीं कुओं में
और फूल बन उगतीं
कुओं से लौटती प्रतिध्वनि
हमारा ही अधूरा गान है
अनगिनत मुद्राओं में हमें
कील दिया स्थापत्यों में
जब दिखने लगे नंगी देहों के हरे कटे घाव
पहनाए गये आभूषण
आभूषणों से ढकी हुई देह अँधेरों का रहस्य लगी
फिर तो उस राह का हर राहगीर
हमारी टेढ़ी-कमर पर हाथ फेर लेता है
धर्मग्रंथों और इतिहास की स्याह पाण्डुलिपियों को
अपनी पीठ पर लादे
हम यक्षणियों को क़ैद हुए
लंबा अरसा गुज़र गया है
धनकुबेर के तहख़ानों
इतिहास के पन्नों
और तुम्हारी कलाओं में
अब छटपटा रही हैं हमारी आत्माएँ।
सफ़ेद दूब-सी तुम
सपनों की दुनिया में
सीखों की गठरी
साथ लाई थीं लड़कियाँ
उम्र की दहलीज़ पर
मचल रही थीं
देह की अनचीन्हीं इच्छाएँ
प्रशाखाओं से फूट रही थीं
सप्तपर्णी की कोपलें
लड़कियाँ औरतें बन रही थीं
उन्हें आकर्षित करते थे उनकी उम्र के लड़के
वे एक दूसरे की चिंता करतीं
ईर्ष्या करतीं एक दूसरे से
खेतों-मेंड़ों से होकर
उड़ा जा रहा था मेरा भी मन
बवंडर-सा तुम तक
बज रहा था
झिल्लियों का अनवरत संगीत
हम बंजारों की तरह
बार-बार मिलन की जगह बदल रही थीं
छोड़ती रहीं अपने घायल पैरों की छाप
कितनी बार छीली गई वह घास
उसकी जंग थी
अपनी हार के खिलाफ़
उस सफ़ेद दूब-सी तुम
मन-कोटरों में उग आई थीं
उमस भरी रात
हलचलों से पटी जगहें
फिर भी बंद था एक दरवाज़ा
कम डर नहीं था उस समय
दरवाज़ा खटखटाए जाने का
इच्छाओं ने डर से डरते हुए भी
उसे परे ढकेल दिया था
लिल्ली घोड़ियों की तरह
एक दूसरे को पीठ पर
लाद लिया था हमने
एक जोड़ी साँप की तरह
एक दूसरे में गुंथी रात
बूँद-बूँद पिघल रही थी हमारे बीच
हमने पहली बार महसूस की
होंठों की मुलायमियत
तुम्हारे हाथ मेरे स्तनों को
ओह ! कितना तो अपनापा था
न पीठ पर खरोंच
न दांत के निशान
आहत स्वाभिमान के घमंड से
उपजी बदले की भावना भी नहीं
एक दूसरे की देह को
अपनी-अपनी आत्मा-सी
बरत रहीं थीं हम
हमारे बीच महक रही थी
सप्तपर्णी की कच्ची कोपलें
देह के एक-एक अंग को हमने
साझे में पहचाना था उस रात
रात बीतती रही
छंटती रही रात की उमस
हलचलों से पटी जगहों में
पसर गया अंतिम पहर का सन्नाटा
रात बीत गयी
अँधेरा चिपका रहा चेहरे पर
चेहरे की शिनाख्त में छोड़े गए हैं
कई जोड़ी खोजी कुत्ते
परित्यक्त जगहों की तलाश में
भटक रही हूँ
मैं बदहवास
अपना ही वधस्थल खोज रही हूँ
सूखे हुए कुँए
उखड़ी हुई पटरियाँ
खचाखच भरी जगहें
छुपने का ठौर नहीं इस शहर में
सर्च लाइटें बेध रही हैं
आँखों की पुतलियाँ
ब्रह्माण्ड का शोर
सुन्न कर रहा है कानों को
बेआवाज़ चीख़ती मैं
देवताओं की क़समें खाती
लौट रही हूँ
मेरे साथ-साथ घिसटती रात
फिर-फिर भर रही है भीतर
रात और दिन का यह घमासान
हुआ और-और गहरा अपराधबोध
ताक़तवर रात पछीट रही है दिन को
पछाड़े खाता दिन
हर रात थोड़ा कमज़ोर दिखा
दिन की सारी क़समें तोड़
हमने हर बार रात चुनी
हमने थोड़े सपने जिए
थोड़ी सीखें छोड़ीं
थोड़ा गुमान किया एक दूसरे पर
जब शब्द नहीं थे हमारे पास
तब भी थे कुछ मुलायम भाव
भाषा की नई दुनिया में
जब स्थाई महत्व हो रात का
तो हिचक कैसी
कैसा अपराधबोध
हाँ ! प्रेम में थीं हम दो लड़कियाँ…
ज़हरबाद
एक औरत की पीठ पर नील पड़ा है
वह अभी-अभी सूरज को अर्घ्य देकर लौटी है
देवताओं और राजाओं के कपड़े धोते-पछीटते
झुकी हुई एक पीठ
एक पीठ की बिसात पर फेंकी गई पासे की गोटियाँ
एक शापित शिलाखंड
जिसके लिए एड़ियाँ रगड़ रही हैं हम
इतिहास का एक पन्ना
जिसके कोने में दर्ज हैं विषकन्याएँ
वे चीख़ रही हैं भरी अदालतों में
झूठ…झूठ…झूठ
अमृत घट थी हमारी देह
विष तो धीरे-धीरे उतारा गया शिराओं में
झूठे स्वाभिमान
और स्वार्थों के लिए औरतें
युद्ध में कभी शामिल नहीं रहीं
और न औरतों के लिए कोई युद्ध
लड़ा गया इतिहास में
वे एक स्वर में कहती हैं –
इतिहास से बेदख़ल औरतें
चुड़ैल बन भटक रही हैं पीपल के पुराने पेड़ों
वीरान खंडहरों में
हमीं जंगलों से निकल
उनकी ख़ूनी बावड़ी का पानी पीतीं
और अपनी काली छाया से डरा करतीं
जलती आँखों पर गीली रेत लेपतीं
बावड़ी के किनारे
ऐन चूल्हे के नीचे
जहाँ धधकती है आग
हमारे ही अवशेष मिले हैं
जो अहरे की तरह सुलगाई गयीं
खौलते तेल में जो छान दी गयीं
मछलियों की तरह
जो एक साथ कूद गईं थीं चिताओं में
जौहर करने
खड़ी दोपहर की आँधियों सी-चलतीं हैं
मातम मनाते हुए
हम जो इतिहास की सबसे कमज़ोर निर्मितियाँ थीं
सबसे अधिक रूठा करतीं
कूद जातीं कुओं में
और फूल बन उगतीं
कुओं से लौटती प्रतिध्वनि
हमारा ही अधूरा गान है
अनगिनत मुद्राओं में हमें
कील दिया स्थापत्यों में
जब दिखने लगे नंगी देहों के हरे कटे घाव
पहनाए गये आभूषण
आभूषणों से ढकी हुई देह अँधेरों का रहस्य लगी
फिर तो उस राह का हर राहगीर
हमारी टेढ़ी-कमर पर हाथ फेर लेता है
धर्मग्रंथों और इतिहास की स्याह पाण्डुलिपियों को
अपनी पीठ पर लादे
हम यक्षणियों को क़ैद हुए
लंबा अरसा गुज़र गया है
धनकुबेर के तहख़ानों
इतिहास के पन्नों
और तुम्हारी कलाओं में
अब छटपटा रही हैं हमारी आत्माएँ।
दर्द की लहर
दर्द की लहर दौड़ रही है देह में
आधी रात डस गई है कोई नागिन
अपना ही रक्त बन रहा है थक्का
विष का
अपना ही हाथ पसारे नहीं सूझता
ऐसा आदिम अंधेरा फैला है इस कमरे में
कभी थरथराहट, कभी झुनझुनाहट
कभी सुन्न पड़ गए हैं पाँव
साँसे उलझ गई हैं मंझों में
काट ली गई हैं पतंगे
कभी बादलों की टकराहट
कभी सुरंग का बजता सन्नाटा
कानों से ठीक-ठीक
कुछ सुनाई नहीं देता
भय से भरी आँखों में नाचती हैं
दुनिया की प्रसवरत सभी चीज़ें
खूंटे में बंधी
ब्याती हुई एक गाय
जिसकी जीभ बार-बार
बाहर निकल रही है
और उलट गयी हैं आँखें
मेरे दांत हलस गए हैं
अपनी जड़ों से
हलस गया है कोई बिरवा
पेड़ क़लम किए जा रहे हैं
नई शाख़ों और
नई उपजों के लिए
कटी बाहों से चुहचुहाता है ख़ून
पसीने में डूबी है मेरी देह
जैसे डूबने को हो मेरी नाव
तड़प किसी मछली की
जिसके कण-कण में घुला
पानी और नमक सूख रहा है
यह दर्द किसी भटके यात्री-सा आश्रय पा
सदियों से यहीं बैठा है
हर तरफ़ से आती आवाज़
सोते हुए को जगाने की चुहल है
डाक्टरनी कहती है- ‘और ज़ोर
और ज़ोर से
हाँ ! और ज़ोर’
नसों में काँपता है पानी
जैसे कहीं कोई जहाजा पेड़ गिर रहा हो
या कोई पहाड़
धीरे-धीरे टूट रहा हो कोई बांध
हर तरफ़ से फट रही है यह धरती
पौ फट रही है
यह लय है !
यह प्रलय है!
यह मेरा नाश है !
या फिर कोई सृजन!
नींद और जागरण के बीच तिलिस्मी युद्ध
मेरे जागरण में
सफ़ेद चादर में लिपटी
फैली है मरघट की शांति
मेरी नींद में कोई छोड़ गया है
हाथ-कटी औरतों की लाश
मैं उतर गई हूँ नींद में
इस युद्ध के ख़िलाफ़
मेरे हाथ में उनकी मर्दानी मज़बूती नहीं
जो जंग खाए ख़ंजरों को धर लें
जूतों से बाहर निकली हैं मेरी अंगुलियाँ
उनकी अक्षौहिणी सेनाओं के
क़दम ताल से बने कीचड़ में
गिर गई है मेरी आँख
मैं बिना आँख वाली औरत
रेत पर उतार दी है मैंने
अपनी जर्जर नाँव
अबतक शांति के लिए पूजती रही जिन देवताओं को
वे युद्ध के पैरोकार निकले
फिर भी समझौते के लिए प्रस्तुत थी मैं
एक तीर आकर लगा मेरे पाँव में
पसलियों में फंस गई दोमुही कमानियाँ
यह कहते लौटा बख़्तरधारी
युद्ध में समझौते के लिए नहीं है कोई प्रावधान
महान देश की महान सेनाएँ
उसके सब मंत्री खड़े हैं मेरे ख़िलाफ़
चाहते हैं ले जाना अपने देश
वे मेरी जीभ में कील ठोककर
मेरा सच जानना चाहते हैं
समय से पहले पीली पड़ गई हैं फ़सलें
डर से पीली पड़ गई है बुद्धि मेरी
जितनी यातनाएँ दी गईं
उतना नहीं था कसूर मेरा
हाज़िर होती है मेरी पुरखिन
गर्म सलाखों से दागी गई हैं उसकी आँखें
तोड़ दी गई हैं उसकी हड्डियाँ
पपड़ाए होंठों से कहती है –
‘सबको बतलाओ हमारा सच’
काँपते हाथों से युद्ध-विजयी का आशीर्वाद देती है
कहती है – जाओ !
धरती पर फैले विषैलेपन को
अपनी बेड़ियों में गूँथ लो
अकेले नहीं हो तुम
वे हाथ-कटी औरतें हैं साथ मोर्चे पर
नींद से बाहर निकलो
स्वप्न में नहीं हक़ीक़त में चल रहा है यह युद्ध
अब उनींदे देवताओं के भरोसे
नहीं छोड़ी जा सकती यह धरा
अवसाद में डूबे प्रेम से उबरो
नींद से जागो
तुम किसी की प्रतीक्षा मत करो
अब बुद्ध नहीं आएँगे ज्ञान बाँटने
शांति बाँटने
दृढ़ करो एकता अपनी
इकठ्ठा करो सभी बच्चों को
वे बढ़ाएंगे तुम्हारा उत्साह
और शक्ति को भी
अब वरदान के लिए मत भटको
वे दाख़िल हो गए हैं हमारी नींद में
हमारे बच्चों के स्वप्न में
पड़ गया है पहरा
जंगल से निकलकर भाग रही हैं हिरनियाँ
फूलों का पराग छोड़
उड़ी जा रही हैं मधुमक्खियाँ
इसके पहले कि शहद में न बचे मीठापन
बच्चों के स्वप्न में कोई जड़ दे सांकल
जाओ रोशनी की नदियाँ तैर जाओ
अचानक ओझल होती है वह
जैसे कोई टूटा हुआ तारा
टूट गया है नींद का तिलिस्मी युद्ध
मैं अपनी जीभ छूती हूँ
नींद में घायल अपने पाँव देखती हूँ
कि इस युद्ध ने बदल दी है
एक कवि की दिशा…
आसान है मनोरोगी कहना
सपने रात के कालाजार हैं
खोद रहे हैं माथे में कुआ
पूछ रही हूँ तुमसे और सबसे
आख़िर ! क्या मतलब है
पश्चिम दिशा में उगे साँप का
जो डसने को लपलपाता है जीभ
गाँव के सपने इस शहर की अनिद्रा में भी आते हैं
फलवती नहीं हुईं इच्छाएँ
सात ब्राह्मण सात फ़कीर को जिमाना
उस गुसाईं की सेवा जो रात की पीठ पर
चाकुओं से स्वास्तिक बनाता था
अँधेरे में डूबी बेदियों पर देर तक अभुआना
पत्तों को काँटे से बींधकर सिवान के कुँए में फेंक आना
एक आदमकाय
आधा जानवर आधा मानुस
जाड़े की रातों में दौड़ाता है
पैर में बड़े-बड़े पत्थर बाँध देता है कोई
पैर घसीटते मैं घुस गई हूँ ढाक के जंगलों में
वह जंगल जंगल नहीं एक सूनी सड़क है
जिसके दोनों ओर हड्डियां बिखरी हैं
मैंने चिल्लाकर कहना चाहा- फिर से लौट आए हैं …
किन्हीं हाथों ने जकड़ लिया मेरा मुँह
मैं उस साँय-साँय करती सड़क पर भाग रही हूँ …
रात सोने से पहले धुल लेती हूँ पाँव
फिर भी दिन चक्र की तरह घूम जाता है
आज फिर दूर वाले फूफा जी आए हैं
उनकी टॉफियाँ इच्छाओं का बिसखोपड़ा हैं
शुभेच्छा एक शातिर अभिनय
पाँव छूती बहनों के पीठ पर
ताउम्र धरा रह गया है हाथ उनका
वह डॉक्टरनुमा व्यक्ति !
मेरे गाँव की सभी औरतों का इलाज करता है
एक प्रश्न उछालकर रातभर उन औरतों का हाथ
रखे रहता है अपने शिश्न पर
फिर सपने में आते हैं मुँहनोचवे
वे स्कूल जाती लड़कियों को भर ले जाते हैं बसों में
उस रात पता नहीं कब ! कहाँ ! कैसे !
निर्वस्त्र ही चली गयी हूँ
वे मेरी देह पर कई चीरे लगाते हैं
मुझे किसी गहरी खाई में फेंक देते हैं वे
डर से रेघती है आवाज़ टूटती जाती है सांस
करवट बदलने से बदलता ही नहीं दृश्य
बग़ल में सोई माँ पूछ रही है -फिर कोई सपना देखा तुमने
मैं सोच रही हूँ – कितना आसान है कहना कि
यह मनोरोग है!
एक औरत का अंत
मेरे पैर इतना काँप क्यों रहे हैं
क्या होने वाला है आज
कहाँ हैं मेरे लोग
मेरे अपने सगे लोग
मैं पिछले कितने महीनों से मिली नहीं उनसे
मेरी बूढ़ी विधवा माँ कहाँ है
क्या ! अब उसे कुछ नहीं सूझता
मेरा जवान भाई
वह तो नौकरीपेशा है
उसको तो कुछ नहीं होना चाहिये
आखिर ! दो छोटे-छोटे बच्चे हैं उसके
खूबसूरत बीबी है जो पति की डांट पर भी हंसती है
क्या हो रहा है
क्यों काँप रहे हैं पैर
हाथ से क्यों छूट रही है कलम
कोई मेरी डिग्रियां क्यों छीन रहा है मुझसे
जिस पर मेरा और मेरे मृत पिता का नाम लिखा है
क्या कहा!
आज के बाद सब निरस्त मानी जायेंगी
मेरी बहने कहाँ हैं
उनका जीवन इस तरह नष्ट नहीं होना था
लेकिन तुम कह रहे हो वे नहीं रहीं
जिन्होंने बेटी की तरह पाला था
फिर उनसे किए मेरे वादे का क्या होगा
मेरा बच्चा किस अनाथालय में छोड़ आये
वे सारे बच्चे मेरे हैं!
जो पल रहे हैं अनाथ की तरह
सबको अभी नाम देना है अपना
क्षमा मांगनी है उनसे
कब से महसूस नहीं की उनके कोमल हाथों की छुअन
मेरा प्रेमी कहाँ है
कहाँ है रातों का एकांत
क्या कहा!
वह मेरा प्रेमी नहीं रहा!
मेरी डायरी कहाँ है ?
सब कुछ नष्ट होने से पहले
दर्ज किया जाना जरुरी है
एक औरत का अंत
क्या कहा!
मैंने कोई डायरी नहीं लिखी
लिखी ही नहीं कभी!
फिर क्यों लग रहा है कि उसके सारे पन्ने उड़ रहे हैं
मेरी आँखों के सामने
यह चिड़िया रात भर नहीं सोयी!
कोई तो बताओ
क्या किसी जंगल में आग लगी है
जो रातभर आसमान में मंडराती रही है
इतना उद्विग्न कोई चिड़िया कब होती है
इतना अँधेरा क्यों बरस रहा है
इतनी राख कहाँ से आई
यह कसकी खाक है
किसकी तड़प
इतना बादल क्यों उमड़ रहा है
यहाँ तो किसी को पानी की चाह नहीं
इन पहाड़ो पर किसके खून के दाग हैं
नदियों में किसका शव प्रवाहित है
इन्हें क्यों इस तरह क़त्ल किया गया
जब थे मारने के आसान तरीके
इतनी क्रूर दस्तक कौन देता है भला !
कोई टहल रहा है पर्दे के पीछे
मारने आया है या सावधान करने
कौन है जो अँधेरे की चूड़ी कस रहा है
बिना पूरा दृश्य ख़त्म हुए ही
भर रहा है आँखों में अधेरा मेरे
कौन दुह रहा है मेरी सांसे
हलक से खींचकर
रबड़-सी तान रहा है मेरी जीभ
मेरे भागने की खबर से
कौन काट ले गया यह सड़क
कहीं से लाओ विलुप्त हो रहे जुगनुओं को
बचा कर
इन बुझती आँखों में अब वही
भर सकते हैं थोड़ी चमक।
जलदस्यु
एक दूसरे के साथ तैराकी के लिए हम उतर गए थे
खारे से खारे जल में
हमें जल का अवगाहन प्रिय था जलदस्यु
हमने डुबो दीं अपनी-अपनी नौकाएँ
फेक दिए चप्पू अपने
हमने एक दूसरे की पीठ पर तैराकी सीखी
जल बिंदु ,स्वेद बिंदु और देह का वह अमर कण
हमने सभी को प्रणम्य मानकर
एक दूसरे को अधिक कामार्त किया
वे सभी बूंदे और तुम्हारा प्रेम जलदस्यु
मेरे ललाट पर चमक रहा है
जल-सी शीतल किरण फूट रही है मेरे आंखों से
और तृप्ति से प्रफुल्लित मेरी यह देह देखो!
एक दूसरे का जल चुराते और चखते हुए
हमने जल के बीज बोए
अब उस जल के अंखुए उगे हैं
देखों तो कैसे-कैसे तरंगित हो रहे हैं
जल की इस सम्मिलित धारा में
न अहम था न इदम
फिर भी था जल का अलग-अलग स्वाद
दूर तक के इस उत्ताल तरंग में
हमारा ही तो जल है जलदस्यु
वही एक जल!
एक ही आग थी जो हमें ले आयी थी जल तक
एक ही मिट्टी जो मेड़ों को तोड़
मिल रही है जल में
हे जलदस्यु!
इस जल की कीमत हम अदा करेंगे।
धरती पर हजार चीजें थीं काली और खूबसूरत
उनके मुँह का स्वाद
मेरा ही रंग देख बिगड़ता था
वे मुझे अपने दरवाजे से ऐसे पुकारते
जैसे किसी अनहोनी को पुकार रहे हों
उनके हजार मुहावरे मुँह चिढ़ाते थे
काली करतूतें काली दाल काला दिल
काले कारनामे
बिल्लियों के बहाने से दी गई गालियां सुन
मैं खुद को बिसूरती जाती थी
और अकेले में छिपकर रोती थी
पहली बार जब मेरे प्रेम की खबरें उड़ीं
तो माँ ओरहन लेकर गयी
उन्होंने झिड़क दिया उसे
कि मेरे बेटे को यही मिली हैं प्रेम करने को
मुझे प्रेम में बदनाम होने से अधिक
यह बात खल गयी थी
उन्होंने कच्ची पेंसिलों-सा
तोड़ दिया था मेरे प्रेम करने का पहला विश्वास
मैंने मन्नतें उस चौखट पर माँगी
जहाँ पहले ही नहीं था इंसाफ़
कई -कई फिल्मों के दृश्य
जिसमें फिल्माई गयीं थीं काली लड़कियाँ
सिर्फ मजाक बनाने के लिए
अभी भी भर आँख देख नहीं पाती हूँ
तस्वीर खिंचाती हूँ
तो बचपन की कोई बात अनमना कर जाती है
सोचती हूँ
कितनी जल्दी बाहर निकल जाऊँ दृश्य से
काला कपड़ा तो जिद्द में पहनना शुरू किया था
हाथ जोड़ लेते पिता
बिटिया! मत पहना करो काली कमीज
वैसे तो काजल और बिंदी यही दो श्रृंगार प्रिय थे
अब लगता है कि काजल भी जिद्द का ही भरा है
उनको कई दफे यह कहते सुना था
कि काजल फबता नहीं तुम पर
देवी देवताओं और सज्जनों ने मिलकर
कई बार तोड़ा मुझे
मैं थी उस टूटे पत्ते-सी
जिससे जड़ें फूटती हैं।
………………….