Sunday, December 22, 2024
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परिचय :
हिन्दी एवं मैथिली में स्वतंत्र लेखन
पुस्तकें : ‘कैदी ,क्रिकेट और कंगारूओं के स्वर्णिम देश में’ (हिंदी यात्रा वृतांत) , ‘उत्तरवाहिनी’ (हिंदी कथा संग्रह) और कुछ हिन्दी कहानियाँ एवं संस्मरण चर्चित पत्रिकाओं में प्रकाशित
‘ मुआवजा ‘ हिन्दी कहानी के लिए शैलेश मटियानी पुरस्कार से सम्मानित
‘प्रकृतिक सुन्दरतम हस्ताक्षर’ (मैथिली कविता संग्रह) और कई कविता- कहानियाँ, लेख तथा अनुवाद चर्चित मैथिली पत्रिकाओं में प्रकाशित
प्रसिद्ध लेखिका उषाकिरण खान के महत्वपूर्ण मैथिली उपन्यास ‘पोखरि रजोखरि’ का हिंदी में ‘कथा रजोखर’ के नाम से अनुवाद ,एक हिन्दी उपन्यास प्रकाशनाधीन ,
संपर्क :
B3A-102, सुशांत एक्वापोलिस,
क्रासिंग रिपब्लिक के सामने,
डुंडाहेड़ा, गाज़ियाबाद-201016 (उ .प्र .)
Email: [email protected]

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लेख

ओ विशाल,कारा तुम्हारे क्षारीय अंध रंध्र की मुझे स्वीकार नहीं 

               शपथ है मुझे मृदुल मधुर मूल आह्वान की, मुड़ चली मैं निर्बाध उत्तरवाहिनी 

            

                         दौड़ती- भागती ,सीढियाँ फलांगती ऊपर छत तक आने में छाती धौंकनी हो गई थी तृष्णा की  | एपल का चमचमाता खुला लैपटॉप हाथ से गिरने-गिरने को था|कोमल कलाइयाँ लैपटॉप सँभालने में भी असमर्थ हो रही थीं|ख़ुशी एवं श्रम के अतिरेक से गौरवर्ण गुलाबी हो रहा था|छत तक भागकर आने की जल्दी में उसने दुपट्टा भी नहीं लिया था|वरना मजाल है कि घर में ममा और नानी के रहते वह दुपट्टा न ले |ये अलग बात है कि पापा की तरफ से उसे पूरी आज़ादी मिली हुई है|मगर नानी?वह तो उसके एक-एक कदम का हिसाब रखती हैं |फिर ममा से ऐसी लगाई-बुझाई होती है कि ममा सर पर आसमान उठा लेती हैं |पहले तो चिल्लाती हैं कि पापा के प्यार- दुलार ने उसे बिगाड़ दिया है और अगर उसने कुछ टका सा जवाब दिया तो बस रो-रोकर ज़माने को कोसना शुरू कर देती हैं| | ममा के बेसुरे राग के इस भोंडेपन से चिढ़ती है तृष्णा |

       आने वाली गर्मियों से पहले संध्या कितनी सुहानी हो जाती है –मंद समीर,ढ़लते सूरज की रोशनियों की लुकाछिपी,शीतल शांत वातावरण!एक आलीशान ,आधुनिक बंगले की सजी-सजायी छत|बड़े- बड़े गमलों में खिले मौसमी फूल,गोल विशाल खम्भों पर लिपटी मनीप्लांट और नील अपराजिता की बेल,बड़े पौधों में लगा विदेशी लैंप ,सबकुछ जैसे स्वप्न संसार रचने को तैयार ! स्वप्न का छद्म, भंग होने के बाद ही पता चलता है|इसी छद्म आवरण के नीचे  एक कोने में टी टेबल के पास बैठे पापा |सफ़ेद झक कुरता –पजामा ,उन्नत ललाट,ऊँची नासिका ,स्वप्न देखती –सी आँखें ,मानो स्वप्न से मुठभेड़ करतीं |तृष्णा को देखते ही एक मासूम- सी मुस्कान तिर गई उनके होटों पर |पचपन साल के पापा इस मुस्कान के साथ पैंतालीस के भी नहीं लगते| पर हांफती तृष्णा को ये सब देखने का अभी  समय नहीं |उसने पापा के पास आकर उद्विग्नता से कहा –

        ‘पापा रिजल्ट आ गया|मेरा सेलेक्शन कोजिकोड के लिए हुआ है|आई हैव डन इट पापा|’उसने लैपटॉप सामने रखी चाय की मेज पर रख दिया|चेहरे पर पड़ती लैपटॉप के एपल की रजतकिरणें खुशियों की झिलमिलाहट को दुगना कर रही थीं |थैंक गॉड ममा नहीं आईं छत पर ,वरना दुपट्टा के लिए एक झिड़की तो मिलनी ही थी|पता नहीं वेल लिटरेट पापा ने अनपढ़ से शादी क्यों की! कैसे निभाते हैं दिनरात पान –गुटका चबाती फूहड़  ममा से!अपने पापा के आभिजात्य और प्रबुद्धता  पर गर्व है उसे|बचपन से ही पापा हीरो हैं उसके लिए  |पापा यानी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आदित्य नारायण मिश्रा ,जिनके साहित्य-कलाप्रेम की प्रतिभा अपने पिता की महत्वाकांक्षाओं की कठोर वेदी पर बलि चढ़ गयी |कार्यक्षेत्र का विशिष्ट परिवेश चुम्बकीय आकर्षण से सामान्य प्रज्ञा को सहस्र हाथों जकड़ धीरे-धीरे धराशायी कर देता है|न चाहते भी मानसिक  कोमल वृत्तिफूल- पत्नी की विपरीत मानसिकता ,शंकित पुलिसिया भेदी दृष्टि और सतत खूंखार अपराधियों के संग रुक्ष कठोर धूप में परितप्त हो रहे थे|कोमलता लघु कंकड़ी सी पद के कठोर  अनुशासन और निर्मम ख़ब्त के गर्त में गिरी जा रही थी|पुत्री पिता के धीरे –धीरे होने वाले आतंरिक परिवर्तन से अनभिज्ञ थी| 

       ‘मुझे पूरी उम्मीद थी ,मेरी तनु कैट क्रेक करेगी|वेल डन माय स्वीटहार्ट !तुमने तो मेरा नाम रौशन कर दिया|’पापा लैपटॉप में परिणाम देखते ही उछल पड़े और उठकर तनु को गले लगा लिया|

        ‘ किस ख़ुशी में चिल्ला रहे हो दोनों बाप-बेटी’-अब ममा भी आ गई थीं |जानकी देवी का सौन्दर्य उनके  मेदबहुल शरीर एवं और उतने ही मेदबहुल ठस्स दिमाग में कहीं खो गया था|कीमती साड़ी,स्वर्णाभूषणों से लदी-फदी ,रंगे होंट ,कंधे तक कटे बाल ,आवाज भी मेदुल| जवानी में शायद सुंदर रही होंगी वह ,किन्तु अब आधुनिका बनने के चक्कर में उपहास का पात्र बन गई थीं|आधा  तीतर आधा बटेर- कुल मिलाकर एक विरक्ति का एहसास होता था उन्हें देखकर | 

        ‘तुम्हारी बेटी बहुत बड़ी बिजनेस मैनेजर बनने वाली है,अब लाखों –करोड़ों में खेलेगी |देखो आज परिणाम आया है|’लेकिन बमुश्किल सातवीं पास ममा को लैपटॉप की क्या समझ है,बेशक लाखों- करोड़ों के गणित में वह माहिर हैं|अपने पिता के सामंती राज में यही तो देखा है उन्होंने –सरस्वती पर लक्ष्मी का वर्चस्व | चाय आ गई थी|बेयरे ने टी-पॉट से प्याली में चाय डाली|खालिस अंग्रेजी शैली की चाय पीते हैं पापा|कभी दूध की या कभी बिना दूध की ब्लैक टी|ममा को  ढ़ेर सारा दूध और अदरक वाली गाढ़ी मीठी चाय पसंद है|तृष्णा चाय नहीं पीती|ममा – पापा की अलग –अलग चाय देखकर बचपन से ही उसे चाय से अरुचि हो गई है|

        ‘पापा कुछ दिनों में तो मुझे जाना पड़ेगा ,फिर देखना आपका घर कितना सूना हो जाएगा |अच्छा अब ये खुशखबरी बाबा  को भी दे दूँ जरा|’चहकती तृष्णा बाबा को फोन लगा ही रही थी कि ममा ने चाय का कप उठाते हुए पूछा-‘ कहाँ जाएगी कुछ दिनों बाद ?’बाबा के नाम से ही उनकी भौहें तन जाती हैं|लेकिन बेटी और पति दोनों से इस मामले में खुलकर नहीं बोल पातीं |

       ‘एमबीए की पढाई करने और कहाँ?’अपनी रोबीली आवाज को सख्त बनाकर पापा ने कहा| उन्हें  अनुमान था कि आगे क्या सवाल पूछा जाएगा ,इसलिए शीघ्र चाय समाप्त कर वह उठ खड़े हुए|

        ‘क्या वह लड़कियों का स्कूल है? कितना पढ़ेगी तनु,बी.ए तो कर लिया|अब उसकी शादी करवाओ ,जितनी पढाई करनी थी ,कर ली |बेटा तो घर छोड़ चुका ,तनु यहीं रहेगी |इसी शहर में ब्याह करवाऊँगी उसका |’पति आई.पी.एस हैं इसलिए बड़ी डिग्री का थोड़ा-सा मतलब समझ आता है उन्हें|फिर क्लब में,पार्टियों में ऊँची  डिग्री की,ऊँची पढाई की चर्चा तो आम है|डिग्री की धौंस समझती हैं वह|

         ‘ममा शादी करके भी तो मैं चली जाऊँगी इस घर से और भाई ने आपकी वजह से घर छोड़ा है|हाँ ,एक बात और लड़के भी पढ़ते हैं उस स्कूल में |’हलकी तमतमाहट थी तनु के चमकते चेहरे पर|

    ‘देखिए क्या कह रही है यह लड़की ,हमने अपने ही कलेजे के टुकड़े को घर से भगाया है!दिनरात रोते हैं ,  उसके लिए ,कितनी तो मन्नतें रखी हैं ,कितने व्रत-उपवास करते हैं ,मगर यह कठकरेज  हमें जलाने से बाज नहीं आती|’

      ‘ आपके पास से जा ही तो रही हूँ,अब कोई नहीं जलाएगा आपको|नानी के साथ मिलकर पंचायत करती रहना| ’माँ-बेटी की तकरार ने पापा के पाँव रोक लिए|

      ‘ जानकी शांत रहो ,वह बच्ची है ,कुछ भी कह देती है ,उसका यह मतलब नहीं..’                                    

     ‘ हाँ, आप तो उसी की बात सुनेंगे’ फिर जैसे जानकी को कुछ याद हो आया-

      ‘तो क्या लड़कों के स्कूल में पढ़ेगी …ऐसा हम हरगिज होने नहीं देंगे|कल को कुछ ऊँच-नीच हो गया तो!हमें अपनी नाक नहीं कटवानी|’वह आगे कुछ बोलतीं ,उससे पहले ही पापा ने बड़े स्नेहिल स्वर में कहा –

       ‘बड़ी ऊँची डिग्री लेने जा रही है हमारी बिटिया और तुम हो कि अपना ही राग अलाप रही हो,बहुत समझदार है तनु ,उसका भरोसा करो|’

         ‘आप करिए भरोसा ,हमें नहीं चाहिए ऊँची डिग्री’

 ‘ डिग्री का मुंह देखा है कभी,आपको कौन देने जा रहा डिग्री ?’उद्धत हो उठी तनु |पापा ने इशारे से बरजा कि ऐसे नहीं बोलते बेटा|तमतमायी  तनु सीढियाँ उतरने लगी|ममा चोट खाए सर्प की भांति फुफकार उठी|जाते- जाते कानो में ममा की आवाज गूंजती रही-‘कहीं का नहीं छोड़ेगी यह चंडाल हमें |लड़की होकर इतना गुमान!’ 

        ग़नीमत थी कि नानी सीढियाँ नहीं चढ़ सकती |वरना नौटंकी का एक अलग रूप होता |एक अच्छी खबर के साथ एक सुहानी शाम यूँ ही मनहूसी में निकल गयी |अक्सर ऐसा होता है इस घर में|तृष्णा का माँ से छत्तीस का आंकड़ा है|वह ज्यों-ज्यों बड़ी हो रही ,माँ के ओछेपन से उसे विरक्ति होती |

                आदित्यनारायण के पिता एक विद्वान राजज्योतिषी थे|संस्कृत साहित्य एवं ज्योतिष पर उनकी पकड़ गहरी थी|संस्कृत व्याकरण एवं ज्योतिष की जितनी पुस्तकें उन्हें कंठस्थ थी,उतनी ही उन्होंने लिख भी डाली थीं |उनके आवास में ज्ञान एवं ऐश्वर्य की गंगा बहती थी |आजतक कोई भी भविष्यवाणी गलत नहीं निकली|सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनों को उन्होंने जैसे अपनी मेधा की सशक्त अदृश्य डोर से बांध रखा था|दानपुण्य में भी पीछे नहीं थे| निर्धन छात्रों को अध्ययन का व्यय देना ,गांव में कुआं –तालाब खुदवाना ,दीनहीन वर्गों की मदद करना उनके स्वभाव में था|गाँव में प्राथमिक बालिका विद्यालय भी उन्होंने बनवाया था|छुआछूत मानते थे ,किन्तु जरुरतमंदों  के लिए उनका दरबार हमेशा खुला रहता |उनकी जमादारिन को जब पति ने गर्भावस्था में आधी रात को मारपीटकर घर से निकाल दिया ,तो वह अपने इसी स्वामी की शरण में रोती-कलपती आयी थी|जब तक बच्चे का जन्म हुआ,उन्होंने जमादारिन को अपने ही घर रखा,अपनी जिम्मेदारी समझ कर |बाद में उसके पति को सख्त हिदायत देकर पत्नी के साथ विदा किया|अपने सारे सेवकों-मातहतों को वह अपना मानते और जरुरत पड़ने पर घर के सदस्य की भांति सहायता किया करते|पत्नी भी उतनी ही सरल,उदार,धर्मपरायण,दयामयी ,मगर अति स्वाभिमानिनी महिला थीं|रामायण,गीता एवं देवी भागवत उन्होंने स्वाध्याय से पारायण किया था|विद्वान पति का सहयोग तो था ही | यह तब की बात है ,जब मिथिला की स्त्रियाँ निरक्षर एवं कूप-मंडूक हुआ करती थीं|धनी वर्ग की महिलाएं खाने-पहनने ,बच्चा जनने के अलावा पत्ते खेलने  और पान चबाने में सिद्धहस्त थीं|तब उच्च वर्ग नहीं था यहाँ,इसलिए क्लब,पार्टी आदि विलासिताओं से अनभिज्ञ थीं ये |मनोरंजन के लिए राजे –रजवाड़ों के रंगमहल में नर्तकियों  एवं गायिकाओं के  नृत्य-गीत हुआ करते ,जिसे आम समाज स्त्रियों के लिए वर्जित समझता|एकबार बनारस की कोई प्रसिद्ध गायिका आयी थी राजमहल में|नृत्य –गीत के  इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए ,महारानी ने राजज्योतिषी की पत्नी को ससम्मान पालकी भेजकर राजमहल में आने का न्योता दिया|किन्तु तेजस्विनी शारदा देवी ने पालकी में एक दुर्गा सप्तशती में विनम्र क्षमायाचना लिख,ऋणभार- सा वापस लौटा दिया |गुणग्राहिणी महारानी की नजर में उनकी इज्जत और बढ़ गयी ,उन्होंने शारदा देवी के न आने का बुरा नहीं माना|

               ऐसे संस्कारी,विद्वान माता- पिता के हाथों पले थे आदित्यनारायण |संस्कारों से बंधे अपना अभिजात्य कभी छोड़ नहीं पाये|पत्नी से स्वभाव का मेल नहीं हुआ, तो अपने बच्चों में और कर्म में अपना खोया संसार ढूंढ लिया| भवेश और तृष्णा दोनों बच्चे उनकी आँखों के तारे थे|बच्चों के जीवन लक्ष्य में अपने पिता की तरह अपनी इच्छा शामिल नहीं की|उन्हें एक खुला संसार दे दिया और मजबूत पंख|बच्चे अपनी मर्जी से अपने पंख पसार कहीं भी उड़ सकते थे|कहीं भी उड़ने और भटकने का फर्क करने का विवेक उनमें डाला उन्होंने |लेकिन उनका एकलौता पुत्र सबसे रूठकर कहीं चला गया था|बहुत ढूंढा,पूरे देश का पुलिस महकमा महीनों खाक छानता रहा , मगर भवेश का पता नहीं लगा पाया|कठिन दुर्दांत अपराधियों-तस्करों का ठिकाना क्षणों में भांपने वाली तीक्ष्ण बुद्धि क्या स्वजात तस्कर का पता भांप नहीं पायी ?भांप भी पायी हो तो भी  नीलकंठ की तरह यह विष उन्होंने पी लिया|

           भवेश और तृष्णा दोनों ने विरासत में मेधाविता ही नहीं जिंदगी की सारी सुविधाएँ भी पायीं |भवेश मेडिकल कॉलेज में ही किसी विजातीय सहपाठिनी के प्रेम में पर गया|उसे जरा भी अंदाजा नहीं हो पाया कि इतना प्यार लुटाने वाली माँ उसकी प्रेमकथा सुनते ही कौशल्या से कैकेयी बन जाएँगी|उनका  पुत्रप्रेम धृतराष्ट्र से भी अँधा था|मगर मंथरा  माँ की कुटिल सीख ने उन्हें पुत्र के विरुद्ध खड़ा कर दिया|पुत्र नहीं उसके विजातीय प्यार के विरुद्ध !जानकी देवी की माँ ने इस बुरी तरह उन्हें भावी पुत्रवधू के खिलाफ भड़काया कि भवेश जब कभी छुट्टियों में घर आता माँ उस लड़की को जलीकटी सुनातीं और दुर्भाग्य का रोना रोतीं|माँ की सिखायी बातें उनके मन में घर कर गयी थीं-जो लड़का एक परायी लड़की के लिए परिवार – खानदान की नहीं सोचता, वह भला अपनी माँ का क्या होगा!देखना यह लड़की तुम्हारे बेटे को तुम से पूरी तरह छीन लेगी,उसके जीवन से दूध की मक्खी की तरह निकाल दी जाओगी|ये बंगाली लड़कियां पति को भेड़ बना कर रखती हैं|एकदम पोसिया कुकुर (पालतू कुत्ता)|वह भी इतनी पढ़ी-लिखी !पति तो तुम्हारा अपना हुआ नहीं ,बेटे से भी हाथ धो बैठोगी|कच्ची और उथली बुद्धि ने उन्हें समझने ही नहीं दिया कि उनका पति उनसे चाहता क्या है!काश कि अपनी कुटिल-अज्ञानी  माँ की बातों में आने के बदले पति-पुत्र को समझने की कोशिश करतीं !

          एम.बी.बी.एस के बाद इंटर्नशिप समाप्त कर भवेश घर आया|उसे कहीं दूर –दराज गाँव में पोस्टिंग मिली थी|जाने से पहले वह विवाह करना चाहता था,आखिर लिपिका बनर्जी से यही वादा जो किया था!पिता दौरे पर थे|रात को खाने के बाद सभी लॉन में बने छोटे- से लोटस पॉन्ड के पास कॉफ़ी पी रहे थे| चारों तरफ शांति और लॉन में लगे फूलों की खुशबू छायी थी|रसोई समेटकर खानसामा ,बटलर अपने –अपने कमरे में सोने चले गये| विशेष कमांडो आवास की सुरक्षा पर नियुक्त थे | पिछले साल राजधानी के एक प्रसिद्ध बाजार में एवं कई स्थानों पर आतंकी हमले हुए ,कई लोग मारे गये | पुलिस महकमे में बुद्धिमान आदित्यनारायण की कर्मठता एवं ईमानदारी की प्रसिद्धी के कारण उन्हें आतंक विरोधी दस्ते का मुख्य अधिकारी नियुक्त किया गया और विशेष सुरक्षा दी गयी |    

          ‘हम कोर्ट मैरेज कर रहे हैं ममा पापा का इंतजार है,वह आ जायें बस !’ कॉफ़ी का मग तिपाई पर रखते हुए भवेश ने सहजता से कहा| ममा और तृष्णा दोनों ही चौंक उठीं |कई बार  तृष्णा ने भवेश को समझाया था कि पहले विवाह हो जाये तब सभी को बतायेंगे|बेशक पापा मान भी जाएँ ,इस विवाह के लिए माँ कभी तैयार नहीं होंगी ,विवाह हो जाने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता| भवेश को माँ के प्यार पर पूरा भरोसा था|उसे जरा भी आभास नहीं था कि माँ आवेश में आकर कुछ गलत भी कर सकती है|अगर कोई था तो बस तृष्णा जिसे माँ का जरा भी भरोसा नहीं था |बचपन से ही उसने माँ को बहुत करीब से जाना था, इसलिए तृष्णा चाहती थी चुपचाप विवाह करके भवेश अपना कार्यभार संभालने चला जाये ,बाद की बाद में देखी जायेगी |उसका चौंकना स्वाभाविक था|माँ इसलिए चौंकी थीं कि उन्हें लगा था अब भवेश उनका कहना मानकर अपना प्यार भूल गया है|

    ‘भवेश ,क्या कह रहे हो ?फिर वही बात !एक बार कह दिये  न कि ब्याह बंगाली से नहीं होगा|अपने कुल-जात की लड़की आयेगी|’

   ‘किसने कह दिया माँ!’भवेश सहज ही था-‘शादी तो लिपिका से ही होगी|वह भी ब्राह्मण है|उसके दादा भी पुरोहितों का काम करते थे|अपने ही कुल-जात की तो है|और कुल-जात क्या ,मन मिलने की बात है!फिर पेशा भी तो हमारा एक ही है|’तृष्णा के चेहरे पर थोड़ी –सी घबराहट आ गयी| भाई की बेवकूफी उसे बेचैन कर रही थी|

  ‘लेकिन हमने तो लड़की लगभग ठीक कर ली है ,मिसेज पाठक की बेटी किरण ..|’माँ की बात बीच में ही काटकर विचलित तृष्णा बोल पड़ी –‘किरण ?उस मोटी भैंस से..इट इज डिस्गस्टिंग ममा!आप पगला गयीं हैं ,कहाँ हैण्डसम भाई और कहाँ वह नेवला आंटी की बच्ची!कभी तो सोच-समझ कर बोला कीजिये !’

         ‘अरे कैसी नासमझ सी बातें करती है,थोड़ी मोटी है तो क्या हुआ ,वो क्या कहते हैं आजकल जहाँ कसरत करते हैं न वहाँ रिमझिम में जाकर देह घटा लेगी और भब्बू के  जनम भर की कमाई भी उसके नाना की संपत्ति के पासंग बराबर नहीं होगी|लक्ष्मी ला रहे हैं बाबू,मान जाओ|’ममा भवेश के सामने गिड़गिड़ाने लगीं|अब तृष्णा जैसे नींद से जागी| विमला आंटी – माँ की बेस्ट फ्रेंड,किटी क्लब की सदस्या,ताश के पत्ते और बात फेरने में माहिर, लगाई-बुझाई में डॉकटरेट|पुलिस महकमे में किसी का घर ऐसा नहीं था,जिसका झूठा- सच्चा कच्चा चिटठा उनके पास नहीं |पान चबाने की लतें भी एक जैसी थीं , इसलिए दोनों सखियों में गाढ़ी छनती |सबसे बड़ी बात थी किरण अपने केन्या निवासी नाना की इकलौती वारिस थी|उसके नाना का वहाँ हीरे का व्यापार था और एक ही पुत्री थी|जाहिर था कि किरण अरबों में खेलती |बस बिना सोचे-समझे भौतिक सुखों की दीवानी माँ ने उस लक्ष्मीस्वरूपा से भाई की शादी तय कर दी-तृष्णा को यह भांपते देर नहीं लगी |वह तिलमिला उठी-‘ममा आप लक्ष्मी नहीं ,उसके वाहन को ला रही हैं|किसी और  पर नहीं कम- से- कम भाई पर तो रहम कीजिये!’

      ‘नहीं ममा असंभव है|’मितभाषी भवेश धीरे से उठकर सोने के कमरे की ओर चला गया|ममा रुआंसी हो गयीं –‘रुको भब्बू सुनो हमरी बात ,तुमरे भले के लिए कहते हैं…|’भवेश जा चुका था|जानकी देवी रोने लगीं |

  ‘कैसा कलजुग आ गया,कोई नहीं सुनता तुमरी बात |जैसे सतबा(सौतेली माँ )हो तुम!’ नानी माला जपते-जपते  बोलीं और उठकर अपने कमरे में चली गयीं|उन्होंने आग भड़काने का काम तो कर ही दिया था |

    ‘हम माहुर खा लेंगे ,तलैया में डूबकर प्राण दे देंगे ,ऐसा कुलच्छन औलाद से तो अच्छा था कि बांझे रहते हमरी छाती पर चक्की चलाने आये हैं दोनों|!’जानकी जोरों से रोने लगी |

      ‘अगले जन्म पूरी होगी तुम्हारी इच्छा,इस जन्म तो छाती पर मूंग दलते ही रहेंगे हमदोनो|इतनी तकलीफ है तो डूब क्यों नहीं जाती तलैया में!’तृष्णा अपने क्रोध पर संयम नहीं रख पायी|वह भी उठकर चल दी |तभी पीछे से छपाक की आवाज आयी |ममा लोटसपॉन्ड में कूद चुकी थीं|तृष्णा जोरों से चीखी|

       दिनरात अपराधियों,आतंकियों से जूझनेवाले सौंदर्यप्रेमी आदित्यनारायण ने मन के सुकून के लिए यह छोटा सा कमल तालाब बनवाया था|गयी रात तक बैठ यहाँ गजल सुना करते|लेकिन दुर्योग से एक मूढ़  अपराध यहाँ भी हुआ|सन्नाटे में लटकते चमगादड़ की तरह जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी|यह तो ग़नीमत हुई कि कमांडोज ने चीख सुनकर तीव्रता से उन्हें तालाब से निकाल लिया|

       ममा के हॉस्पिटल से आने के बाद भवेश बिना किसी को बताये घर से निकल गया |उसने पापा के वापस लौटने की भी प्रतीक्षा नहीं की|दो वर्ष व्यतीत हो गये अबतक उसका कुछ पता नहीं चला| 

      भवेश पढाई के सिलसिले में बचपन से ही बोर्डिंग स्कूलों में रहा|तमाम प्रसिद्ध स्कूल-कॉलेज अपना  द्वार सजाये मानो उसका इंतजार कर रहे थे|बिना खास तैयारी के भी सारी प्रवेश परीक्षाएं पास करता रहा| छुट्टियों में घर आता, तो थोड़े दिनों माता-पिता के साथ रह,बहन के साथ अपने बाबा-दादी के पास गाँव चला जाता |उन्हें रोकने की ममा की सारी कोशिशें नाकाम हो जातीं|पापा तो चाहते ही थे कि उनके बच्चे अधिक से अधिक बाबा-दादी के साथ रह कुछ संस्कार ग्रहण करें और कुछ स्नेह का सत्य समझें|वरना उनकी माँ को इतनी समझ ,इतना अवकाश कहाँ कि बच्चों की परवरिश पर ध्यान दें|वह तो क्लब-रमी-ब्रिज-वाइन के कर्मकांड में ही उलझी रहतीं |कीमती साड़ी की क्रीज पर सिलवट पड़ने के  डर ने बच्चों को कभी माँ की गोद नसीब नहीं होने दिया | भगवान की दया से इस काम के लिए आया –सेवकों कमी नहीं थी घर में|जबतक दादी रहीं उन्होंने बच्चों को बड़े प्यार से पाला|बच्चे स्कूल जाने लगे तो वह गाँव चली गयीं |

       बाहर रहकर भवेश घर के अंदरूनी हालात से अनभिज्ञ था|माँ-नानी का आवश्यकता से अधिक प्यार ,छुट्टियों की मौज-मस्ती से अलग वह कुछ समझ नहीं पाया|किन्तु तृष्णा के साथ ऐसा नहीं था|वह ज्यों-ज्यों बड़ी होती गयी ,उसकी आंखें खुलती गयी |वह धीरे-धीरे ममा की मनमानियां समझने लगी |उनका स्वार्थ,उनकी क्षुद्रताएं ,अवसरवादिता सब समझने लगी वह|सर्वाधिक चिढ़ उसे ममा के झूठ बोलने से थी|पापा के सामने अच्छी बनी रहने के लिए,कई बार उनका झूठ पकड़ा है उसने|उसे बहुत बाद में समझ आया कि छिपे अपमानो –तानो की वजह से ही बाबा-दादी यहाँ नहीं रहते| पापा की तकलीफें उसे समझ आने लगीं|भाई के जाने के बाद तो उसने जैसे कसम खा ली कि माँ की कोई बात नहीं सुननी|उसके व्यवहार में माँ के प्रति जितनी आक्रामकता आती गई, पापा के प्रति उतना ही स्नेह|    

        एम.बी.ए की पढाई के दो वर्षों के दौरान तृष्णा कभी घर नहीं आयी |एक तो श्रमसाध्य सघन अध्ययन,दूसरे घर के माहौल से विरक्ति|ममा से फोन पर औपचारिक बातें कर लेती,नानी से वह भी नहीं|पापा मिलने आते तो फिर से बचपन लौट आता|हाँ बाबा-दादी से फोन पर ढेरों बातें होती | दादी कहती-‘पढाई पूरी कर ले फिर मन के राजकुमार से शादी कर लेना|आँख मूंदने से पहले यही साध रह गई है|’

      ‘मन का राजकुमार कहाँ मिलता है दादी,उसका पता बताना ?’उसे दादी को छेड़ने में आनंद आता |वह खिलखिलाती-‘अब तो राजकुमारियां स्वयं ढूंढने लगी हैं अपना वर ,आपको नहीं पता|’

      ‘ हाँ रे पहले भी स्वयंवर हुआ करते थे|पुराणों में भी यही लिखा है|हर राजपुत्री को अधिकार था अपना वर चुनने का|इसमें बुराई क्या है?तुम्हें कोई पसंद हो तो चुन ले!’समय से आगे चलने वाली बुद्धिमती  दादी कहतीं|  

     ‘ हाँ चुन लूँ और भाई की तरह घर छोड़ दूँ ?मुझे शादी ही नहीं करनी|न भाई की तरह जिंदगी जीनी,न पापा की तरह घुटना है मुझे |’तृष्णा की आवाज में कड़वाहट भर आती|उसकी कड़वाहट महसूस करते दादी की आवाज की स्निग्धता बढ़ जाती |फिर दादी लाड़ से उसे मनाती –समझातीं|

     बालमन कच्चे घड़े के समान निर्माणकर्ता के दिये गये आकार को ही ग्रहण करता है,आग में पकाये जाने तक |पकने के बाद आकार बदलने की कोशिश मूर्खता होती है|वह टूट ही सकता है| नन्ही उम्र की बड़ी और कटु अनुभूतियाँ समय से पूर्व समझदार बना देती हैं|समझ गलत भी हो सकती है,इसका जरा भी एहसास नहीं होता|चाहकर भी कोई इन दुष्प्रभावों के जाल से नहीं निकल सकता|चेतना अचेतन के अँधेरे में भटक कर भूल जाती है कि इसके बाहर कहीं प्रकाश भी हो सकता है| इन्हीं अंधेरों में भटकती तृष्णा अपने जीवन के दूसरे पक्ष से विरक्त थी|विवाह-व्यवस्था उसकी नजरों में एक अर्थहीन व्यवस्था थी|बिना विवाह के अधिक सुखी रहा जा सकता है|उसने निश्चय कर लिया था कि वह विवाह नहीं करेगी| मिटटी और मानव मन में थोड़ी सी भिन्नता तो होती है |यहाँ मन की सजीव मिटटी को ठहर कर प्रकाश ढूंढने का प्रयास करने की ज़रूरत होती है|लेकिन यहाँ ठहरना कौन सिखाये उसे,न तो समय है न समझानेवाला !

        व्यापार के अति शुष्क प्रबंधन के गुर सीखते, अवकाश के क्षणों में बड़ी-बड़ी बहसें हुआ करती दोस्तों- सहपाठियों के बीच|अध्ययन के तनाव इसी तर्क-वितर्क,विचार-विमर्श ,मस्ती-मनोरंजन से दूर किये जाते|सौभाग्य या दुर्भाग्य से,जटिलताओं के पीछे अग्रसर होते मिलेनिअल पीढ़ी के कुछ बच्चों में से हैं ये  बच्चे | अपनी आँखों में स्वर्णधूलि झोंक अपने महत्वाकांक्षी सपने स्वर्णतुला पर तौलते हैं |इन्होने इन्टरनेट और सोशल मीडिया का विस्फोट देखा है|सूचनाओं और आनेवाली सुविधाओं की भरमार है इनके पास |उच्च शिक्षा एवं वैश्विकता ने इन्हें जातीय- नस्लीय भेदभाव से बहुत दूर कर दिया है|वर्गभेद का किताबी ज्ञान है इन्हें, क्योंकि इन्होंने गरीबी करीब से नहीं देखी |सलमान रश्दी से वैश्विक मंदी तक इनके विमर्श के दायरे में हैं| असमानता के एहसास बहुत कम होते जा रहे हैं इनके बीच|विवाह या तो करना नहीं चाहते या देर से करते हैं|यौन शुचिता या मद्यपान की कोई वर्जना नहीं |सबके स्त्री-पुरुष मित्र हैं ,जो साधारण  मतभेद से अलग भी हो जाते हैं|लेकिन तृष्णा इन सबसे अलग है|भौतिकता उसे छूती नहीं ,पुरुष मित्र बनाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता| इन सारी बहसों के बीच जब विवाह या मित्र बनाने की बात होती हो,तो सिरे से नकार देती है|बुजुर्गो के दिये संस्कार या घर के माहौल की वजह से उसे इन बातों में रूचि नहीं |

      ‘ व्हाट इज योर प्रॉब्लम डूड,हमेशा चहकने वाली ब्वॉयफ्रेंड के नाम पर बिदकती क्यों है?मेरेज इज नॉट कम्पलसरी ,बट दोस्त ..यार एक बार जिंदगी तो जी ले !शादी कर या मत कर !’सहपाठिनी लावण्या कहती|

       ‘शी वान्ट्स मोरल परसन,नॉट मिस्टर परफेक्ट..जाने किस दुनिया से आयी है!’कोई और कहता |फिर मोरेलिटी पर बहस छिड़ती|

        ‘ऑनली मोरेलिटी इज परफेक्ट ..बस इसी की तो कमी है इस दुनिया में!’तृष्णा बात हंसी में उड़ा देती|

‘फिर उस नीली आँखों वाले का क्या होगा यार!जिसकी आंखें सागर हो जाती हैं तुझे देखकर |’

          ‘प्यार का नीला समंदर ,सागर नहीं’ 

       ‘तुझे नहीं पता ,प्यार दिल से होता है आँखों से नहीं |इसलिए तो दिल और आँखों के अलग –अलग  डॉक्टर होते हैं ,अंडरस्टैंड ?बी कूल मेरी अम्मा|’ बात लापरवाह हंसी में उड़ जाती|

         नीली आँखों वाले ने कन्वोकेशन के दिन उसे एक छोटा सा मेसेज दिया-हम कुछ ही दिनों में अपने –अपने लक्ष्य पर निकल अलग-अलग दुनिया बसा लेंगे |उससे पहले मैं तुमसे कुछ आवश्यक बातें करना चाहता हूँ|ऐसा नहीं था कि तृष्णा अपने प्रति उसके लगाव  से अनभिज्ञ थी|दिनरात का साथ ,नोट लेने में उसकी मदद करना,उसके खाने-पीने की लापरवाही पर समझाना, हर प्रकार से उसका ध्यान रखना-सभी समझते इस विशिष्ट लगाव को और सबसे अलग इस विदेशी लड़के की कोई गर्लफ्रेंड नहीं थी|यह प्लेटोनिक लव का युग नहीं ,न प्यार में आहें भरने का | प्यार और इजहार के लेनदेन की जेट स्पीड गति का कोई पड़ाव नहीं यहाँ |यह ह्रदय का भाव नहीं मस्तिष्क का कारोबार बन गया है |लेकिन जॉन नीलांजन ने आजतक तृष्णा से किसी प्यार –व्यार का इजहार नहीं किया था| संभवतः प्यार के वर्तमान कारोबार के प्रबंधन में पिछड़ना ही उसके लिए नियति का  वरदान गया |जॉन का मेसेज मिला तो उसे लगा ,मिलकर सारी बातें स्पष्ट कर ही लेनी चाहिए |

       जॉन- हैदराबाद के एन्थोनी नगर का रहनेवाला ,जर्मन माँ और तमिल ईसाई पिता की इकलौती संतान |पिता रिसर्च के लिए जर्मनी गये ,तो वहीँ मीरा से विवाह कर लिया |मीरा का असली नाम कुछ और था ,लेकिन हिन्दी साहित्य और भारतीय लड़के के प्रेम ने उसे मीरा बना दिया|वह भारत आयी ,तो यहीं  की हो कर रह गयी |जॉन पूरी तरह अपनी माँ का प्रतिरूप था|विधाता ने बड़ी उदारता से उसे पाश्चात्य सौंदर्य का स्वामी बनाया था| लम्बा ,चमकता श्वेतवर्ण,गहरी नीली आँखे,जैसे नीला काजल लगा रखा हो | काले घुंघराले केश अवश्य पिता से लिये थे| पुरुष सौन्दर्य का साकार रूप सौष्ठव !नीली आँखों की वजह से माँ ने नीलांजन नाम दिया था|   

     रात के दस बजे खाने के बाद तृष्णा ने हॉस्टल के लॉन में ही कॉफ़ी मंगवा ली |जॉन वही आ गया|कुछ देर दोनों ने अपने-अपने नियोक्ता उद्योगों की सफलता के कारणों की आलोचना–समालोचना की | प्रबंधन कला के अपने-अपने अनुभव साझा किये और अपने मोटे सेलरी पैकेज की बात की|

        ‘हम करेंगे क्या इतने पैसों का?’ दोनों ने हँसते हुए लगभग साथ ही कहा| इस हंसी में एक उदासीनता थी,दुनियावी ऐश्वर्य के प्रति|

        ‘मेरा तो एक ही उद्देश्य है कि मुझे अपनी अलग दुनिया बनानी है ,जहां मै हर विधि-निषेध,सामाजिक बन्धनों से मुक्त रहूँ ,अपनी मर्जी से जियूं ,अपनी मर्जी से कुछ भी करूँ|कोई बंधन नहीं ,न व्यक्ति का ,न भावनाओं का|’तृष्णा ने सहजता से कहा|

        ‘इमोशन इज योर लाइफ,कैसे अलग हो सकती हो इनसे ?’मितभाषी जॉन के होंठों पर सरल- सी स्मित थी ‘आइ  थिंक सोशल वर्क इज गुड फॉर मी|मुझे नाइन टू फाइव की नौकरी नहीं करनी चाहिए |टारगेट ,डेडलाइन…माय गॉड..इट इज बोरिंग,आइ मस्ट ज्वाइन पापाज फार्म ,मम्मी का लिट्ल केयर इज ऑलसो ओके|  ’

        ‘दिस इज गुड ,अच्छा,क्या कहना है बताओ ,शादी की बात तो नहीं करना चाहते?’मुद्दे पर तृष्णा ही आयी |

       ‘एग्जेक्टली , यू गॉट इट !’      

 ‘ नो वे,कभी नहीं ,शादी नहीं करनी मुझे|’

       ‘लेकिन क्यों ? मैं सच  जानना चाहता हूँ|’

  ‘मैं जहां से हूँ ,वहाँ विजातीय शादी संभव नहीं|बहुत दकियानूस है हमारा समाज और हम समाज से अलग नहीं जा सकते|देयर आर सम सोशल साइड इफेक्ट्स |हम एकदूसरे से इतना जुड़े हैं कि एक दूसरे को जरा भी स्पेस नहीं देते|परम्पराएं तोड़ने की कोशिश करें, तो अपना छोटा सा समुदाय खो देंगे|समाज छोड़ भी दूँ ,उसकी परवाह न भी करूँ ,लेकिन इस सबसे जो उलझन होगी, उसे मेरे परिवार को भुगतना होगा|मैं नहीं चाहती कि मेरे बाबा –दादी को कोई परेशानी हो,मेरी ममा इस सबमें गले तक डूबी हैं ,वह तो बिलकुल ही ऐसा नहीं होने देंगी|मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करती हूँ ,उनके खिलाफ नहीं जा सकती|’

        ‘बट उन्हें समझा तो सकती हो|’

         ‘ओ नो, ये तो हर्कुलन टास्क है मेरे लिए|फिर जरुरत ही क्या है विवाह की!अपने जीवन के लक्ष्य से शादी कर ली है|खुश रहने के लिए यही काफी है|करने को ढेरों काम हैं |’

     ‘पर जितना मैं जानता हूँ उत्तर भारत के  कंजरवेटिव सोसाइटी के विषय में ,अविवाहित रहना भी उतना ही कठिन है वहां |’

       ‘वह मैं धीरे- धीरे हैंडल कर लूंगी’

   ‘और विवाह में बुराई क्या है?मैंने अपने मॉम –डैड को बचपन से देखा ,कितना चाहते हैं एक-दूसरे को |दे आर मेड फॉर इच अदर |कहाँ जर्मनी ,कहाँ इण्डिया-डिफरेंट कल्चर,डिफरेंट क्लाइमेट ,डिफरेंट रेश ,लेकिन दोनों इतना घुलमिल गए हैं कि ये बातें मायने नहीं रखती |परहैप्स दिस इज ऑनली ड्यू टू लव|’तृष्णा को समझाने की कोशिश कर रहा था जॉन|

        ‘यू नो मॉम भजन और गज़ल सुनती हैं ,गुनगुनाती भी हैं क्योंकि डैड को पसंद है| इडली –डोसा बनाना,जर्मन डिश की तरह आसान है उनके लिए|डैड के लिए सीखा उन्होंने|मैंने भी सीखा है,तुम्हें बनाकर खिला सकता हूँ|’कितना वाचाल हो गया है यह आज!तृष्णा किसी के माता-पिता के प्यार के विषय में नहीं सुनना चाहती|बिलकुल असहज होकर उसने कहा-‘आवश्यक नहीं सभी प्यार करें!’  अपनी ममा की कड़वी याद के साथ उसके  चेहरे पर एक छाया सी आयी और जबान तिक्त हो उठी – ‘लक डजन्ट फेवर एवरी बडी |’ममा का तो नाम भी लेना नहीं चाहती वह|

                 ‘थिंक पोजिटिव ,क्यों इतनी रिजिड हो तुम?जरुरी  नहीं कि सबके अनुभव एक से हों और तुम्हारे ग्रैंड पैरेंट्स कितने लकी हैं,जिन्हें तुम अपना आइडियल मानती हो|’उसकी नीली आँखें हलकी रौशनी में मुस्कुरा रही थीं-एकबार फिर से सोचो ,एक दोस्त होना चाहिए ,उम्र भर का| तुम्हारे ग्रैंड पैरेंट की तरह |उनके विषय में बताती हो ,तो लगता है कितने एक्टिव,पोजिटिव और रोमांटिक हैं वह इस उम्र में भी|’

          ‘ रोमांटिक?’हंसी तृष्णा, स्नेह मृदुल रूप लेकर दादी उसकी स्मृति में कौंध उठीं|

        ‘आई मीन रोमांटिक टुवर्ड्स  लाइफ ,समझने की कोशिश करो| तुम्हीं बताती हो न वह गांववालों के लिए कितनी हेल्पफुल है| दूसरों के लिए सोचना इतना आसान है क्या | सो डिफिकल्ट…टु केयर फॉर अदर्स ! हाउ रोमांटिक शी इज लिविंग फॉर विलेजर्स ..फ्री सोल … शी मस्ट बी लाइक एन एंजेल फॉर देम!’कितने अलग प्रभावशाली तर्क हैं जॉन के ,चमत्कृत करते हैं | 

        ‘ लेकिन इसके लिए विवाह की क्या जरुरत है?’उसकी ज़िद का कोई  किनारा नहीं था| 

  ‘हर हसबैंड ,योर ग्रैंडपा मस्ट बी हर सोर्स ऑफ़ एनर्जी  ,मैंने पापा का यही रूप देखा है,मॉम के लिए |’एक आश्वस्ति की चमक भी थी जॉन के गौरवर्ण चेहरे पर –‘गीव सेकंड ओपिनियन टू योर स्टबर्न थॉट |’

       ‘ कभी नहीं बदलेगा|‘वह उठ खड़ी हुई|

      ‘मैं इंतजार कर सकता हूँ |’ नीली आँखें अब भी आश्वस्त थीं|

         दोनों देर तक बातें करते रहे |सहपाठी कुछ और समझ रहे थे|लावण्या मोबाइल पर चमकी –‘.. स्टोरी इज गोइंग अहेड ..गुड लक ..!’ साथ में एक बड़ी सी स्टार्री आइज स्माइली |

        ‘ डैम फूल…’ खीझकर उसने  मोबाइल ऑफ़ कर दिया | 

    नौकरी ज्वाइन करने से पहले दादी के पास अपने गांव जाना चाहती है तृष्णा|जब से ममा ने शादी की बात तय करने की बात कही है ,वह दादी से मिलने के लिए बेचैन है|पापा ने कह दिया है कि वह मना कर सकती है, अगर यह लड़का उसे पसंद न आया तो||ममा की नौटंकी और नाराजगी दोनों ही नहीं चाहती वह|दादी के पास कुछ-न-कुछ समाधान होगा|’एंजेल’-जॉन की बात याद आयी |

             जब वह गांव पहुंची भास्कर अस्ताचलगामी हो रहे थे|टैक्सी उसने मुख्य सड़क पर ही छोड़ दी |सरप्राइज देना है बाबा-दादी को| लगभग दस साल बाद आयी है यहाँ| यह रास्ता बचपन से दिल में इस कदर बसा है कि आँखें बंद कर भी तय कर सकती है तृष्णा |भय है तो बस अपरिचित कुत्तों और सांपों का| घर तक पहुँचते हलका  अँधेरा छाने लगा |आम,लीची ,चंपा,कटहल आदि पेड़ों से घिरा बड़ा-सा घर,बांस वन की गोद में और घर के पास दूर –दूर तक लहराते आँचल से खेत,मौसमों के अलग रंगों में |कभी नीले-पीले ,कभी हरे सुनहरे ,फसलों के रंग लिए|बचपन में आनंद आता था,आज एक विशेष शांति की अनुभूति हो रही थी;शहर की  चकाचौंध और मन की उलझनों से भिन्न |  दूर से ही आरती की मधुर आवाज पेड़-पत्तों पर गूंज रही थी-

‘शक्ति-शक्तिधर तू ही नित्य अभेदमयी 

भेद –प्रदर्शिनी वाणी विमले वेदत्रयी …माँ जगजननी ..’दादी देवी की भक्त हैं|उनके पूजा के समय यहाँ उनकी प्रजा की भीड़ अनुपस्थित होती है |प्रजा हैं गाँव की जरूरतमंद महिलाएं,जिनकी मदद वह करती हैं|कभी पैसों से ,कभी देशी जड़ी-बूटी से चिकित्सा द्वारा|हर रोग का आवश्यक उपचार है उनके पास|सबसे ज्यादा आवश्यक है उन अशिक्षिताओं की नासमझी का उपचार,जो वह बखूबी निभा रही हैं|शारीरिक रोग एवं नासमझी दोनों पर उनका प्रयास प्रभावकारी है|इस उम्र में भी थकती नहीं|गाँव के अधिकतर घरों की तरह रात से पहले इस घर के दरवाजे कभी बंद नहीं किये जाते|दबे पांव आकर तृष्णा ने पीछे से दादी की आँखें मूंद लीं|

       ‘आ गई मेरी छुटकी|’दादी ने लाड़ से कहा|अगरबत्ती की सुगंध उसे नोस्टालजिक बना रही थी|

    ‘ आप कैसे समझ गयीं ?’उसने ठुनकते हुए सामने आकर कहा|

     ‘तुझे सूंघ सकती हूँ मैं सोना | एक तो आज भोर से ही कौआ कुचड़ रहा था और जब भी आँखें मुंदूं सामने तेरा चेहरा ..तभी समझ गई तू मुझे याद कर रही है|’जैसे उन्हें आभास हो गया था तृष्णा के आने का|गले लगकर झुर्रियां तक मुस्कुरा रही थीं|

           बैशाख की चतुर्दशी का चंद्रमा गाँव के स्वच्छ असमान को आलोकित करता धीरे –धीरे पश्चिम दिशा की और बढ़ रहा था|अहाते में लगे नीम्बू,बेली-चमेली ,रातरानी के फूल जाने कैसी मदमस्त सुगंध बिखेर रहे थे |खिड़की से आती सुगंधों में लिपटी चांदनी में जैसे कोई नशा-सा था|गर्मी का मौसम इतना सुहाना शहरों में कभी नहीं होता |दादी के बिस्तर पर थककर लेटी तृष्णा को हलकी नीद में किसी ने कहा –‘हाउ ,रोमांटिक!’उसकी आँखें खुल गयीं |दादी अब तक सोने नहीं आयी थीं|वह सोने से पहले बाबा की दवा,मच्छरदानी का इंतजाम देख रही थीं|तृष्णा अकचकाई- किसकी आवाज है!नहीं नींद और थकान का वहम है|थोड़ी देर बाद दादी आयीं|लेटकर उन्होंने पूछा–‘अब बता इत्मिनान से ,अचानक मेरे पास कैसे आई ?’दादी समझ चुकी थी उसके अचानक आने का कारण|

            ‘आपको सब पता है ममा ने शादी तय कर दी है और मुझे करनी नहीं,बताइये क्या करूं?’दादी से लिपटकर उसने कहा|

                  ‘कौन सी बड़ी बात है,कर ले ब्याह ,सभी करते हैं और लड़का अच्छा- खासा पैसे वाला ढूंढा होगा तेरी माँ ने|’दादी ने उसे छेड़ा|

               ‘ठीक है मैं भी भाई की तरह घर छोड़कर चली जाऊँगी,फिर मुझे ढूंढती रहना|’उसने भी नहले पर दहला मारा|

      ‘ऐसे नहीं बोलते बेटा,भाई भी वापस आयेगा |’तृष्णा ने चाँद की रौशनी में भी उनकी हलकी मुस्कान की रौशनी देख ली|दादी कितनी कूल रहती हैं |उन्हें भाई के न आने की भी कोई परेशानी नहीं|

     ‘अच्छा वह आएगा किसने बताया आपको ,बाबा के पंचांग ने ?’

    ‘ यही समझ ले|’ किसी और ने ज्योतिष और पंचांग की बात की होती, तो धज्जी उड़ा देती वह,लेकिन अपने बाबा –दादी पर उसे अगाध विश्वास है,ज्योतिष पर हो- न- हो | 

      ‘ अच्छा बता ब्याह क्यों नहीं करना चाहती?कोई पसंद है ?डरती है?’

      ‘डरती हूँ!माय फुट!आपको लगता है,मैं डरूंगी?’वह उत्तेजित हो, उठकर बैठ गयी,’दादी मैं किसी बंधन में नहीं बंधना चाहती,कई बार आपसे कहा न पापा की तरह एडजस्ट करना चाहती हूँ,न भाई की तरह भागना चाहती हूँ जिंदगी से|मुझे मेरी पूरी आत्मनिर्भर जिंदगी चाहिए ,पूरी स्वतंत्र!पूरी अपनी,जिसमे किसी दूसरे का कोई हस्तक्षेप न हो|रुका हुआ पानी नहीं बनना चाहती मैं |’

       ‘किसने कहा विवाह अवरुद्ध जल है?यह तो अविरल गति की कलकल नदिया है|स्वच्छ ,सरल मधुर  अग्रगामी प्रवाहमय !और तू तो उत्तरवाहिनी नदी है|कभी सागर के क्षारीय जल में नहीं मिलेगी|तुझे कौन बांध सकता है भला !’

       ‘ उत्तरवाहिनी ,वह क्या होती है?’धुंधली सी स्मृति है उसे बचपन में दादी उत्तरवाहिनी गंगा स्नान के लिए ले जाया करती थीं |

       ‘ जो नदियाँ सागर में नहीं ,विपरीत दिशा में मुड़ अपनी मधुरता में मिलना चाहती है|तेरी नियति ने   भी मुड़ना लिख रखा है|’कैसे पता है दादी को मेरी नियति?वह कुछ बोली नहीं बस सुनती रही|  

       ‘आदिम युग में विवाह का नियम नहीं था,तब हम बर्बर थे|तो क्या फिर से उसी युग में लौट चलें?विवाह में अविश्वास या उसके प्रति उदासीनता भागना ही तो है| भाग ही तो रही है जिंदगी से| तेरी तरह सभी विवाह न करने का प्रण ले लें ,तो सभ्य समाज और सृष्टि का क्या होगा?बहुत घातक है यह सोच |’दादी ने तृष्णा का सर अपनी छाती पर रख ,धीरे- धीरे उसके लम्बे रेशमी बालों को सहलाते कहा|

        ‘विवाह के इतने सारे दुष्परिणाम आपकी नजरों के सामने हैं ,फिर भी इसकी हिमायत कर रही हैं आप? रहा आपका समाज और सृष्टि ,तो उसके लिए मैं गुलाम क्यों बनू?’ 

       ‘पीछे जो भी हुआ ,आवश्यक नहीं आगे भी हो|समझ सकती हूँ तुम्हारा द्वन्द | स्वतंत्रता का अर्थ है आत्मबल ,स्वछंदता नहीं|हमारी निर्बल आत्मशक्ति हमें दास बनाती है,लोभ,मोह में फंसकर|इसीलिए तो देश-राष्ट्र भी गुलाम हुए हैं|तू तो कमजोर नहीं ,शक्तिरूपा है ,तुझे कोई गुलाम नहीं बना सकता |’हलकी मुस्कराहट से तृष्णा की दन्त पंक्ति चमक उठी|

    ‘एक अकेला,दो ग्यारह होते हैं बेटे !अकेले तो पशु भी नहीं रहते ,मनुष्य कैसे रह सकता है |एक मनपसंद साथी,एक योग्य सहयोगी की सबको जरुरत होती है|इसलिए विवाह आवश्यक है|कामनाएं अतृप्त हों ,तो जीवन असंतुलित हो जाता है, और इससे किसी का भला हुआ है कभी?विवाह समाज की स्थिरता की धुरी है|’

     ‘पर आपको बता दूँ,मेरी कोई ऐसी कामना नहीं कि मैं जिंदगी गिरवी रखूं |’

          ‘क्यों, साध्वी बनना है? फिर बुढ़ापे में मेरी पोती जैसे प्यारी-प्यारी बच्चियों के सपने देखेगी ?’दादी ने प्यार से छेड़ा| ‘सामंजस्य तो हर जगह ,हर रिश्ते में करना पड़ता है-परिवार ,दोस्त और जहां नौकरी करेगी वहां भी|किन्तु जब दो व्यक्तियों के बीच समभाव हो तो दोनों अधिक मुक्त हो जाते हैं |समभाव मतलब सामंजस्य से उत्पन्न एक जैसी सोच… वह जो तुम कहते हो अंग्रेजी में  कम्पी..टल  ’दादी बता नहीं पा रही थीं तृष्णा की भाषा में|

    ‘कमपिटेबिलिटी ’ 

   ‘ हाँ,वही!दो व्यक्ति एकसाथ मानसिक साम्य से सारे द्वन्द दूर कर सकते हैं|पति-पत्नी के सम्बन्ध उतरोत्तर उन्नत बनाना हो,तो मन,बुद्धि और आत्मा के करीब जाना चाहिए |विवाह में दो व्यक्ति अनुरूप होकर एकदूसरे की धरोहर हो जाते हैं,गिरवी नहीं |लहरें लाख उथल-पुथल मचायें, जिंदगी की नाव आसानी से पार लग जाती है|’

        ‘यू आर जीनियस माय स्वीट दादी !लेकिन वह कैसे?’ 

              ‘प्यार में डूबकर बस –इस सीधी सी बात को तुम्हारी पीढ़ी ने जटिल बना दिया है|देख तेरे सामने उदाहरण हैं – मैं और तू| तीन पीढियों का अंतर है हम में,तू आधुनिक शिक्षा–संस्कारों में पली,मैं पारंपरिक ग्रामीण परिवेश में,तू ने बड़े शहरी समाज में समय बिताया है,मेरी पूरी जिन्दगी इस पिछड़े गाँव में बीती ,ऐसे कई फर्क हैं हमारे बीच ,फिरभी हम एक दूसरे को समझते है,भावनाओं में बंधे हैं क्यों,इसी प्यार की वजह से न |’ वह अचंभित थी ,दादी और उनकी सोच पर |              

          ‘लेकिन ऐसा प्यार,अनबिलीवेबल !’संबंधों के इस कट,पेस्ट और डिलीट के पतझड़ी मौसम में स्थायी प्रेमपत्रों के वसंत की तो कल्पना ही की जा सकती है |कैसे समझाये वह दादी को!

         ’ममा को भी तो प्यार करते हैं हम ,पर वह कहाँ समझती हैं हमें ?’ कहते- कहते किसी और की स्मृति कौंध गई जेहन में| किसी और ने भी तो इस प्यार के एनर्जी की बात की थी |उसने आसमान की ओर देखा|चाँद की रुपहली रौशनी उसे नीलाभ बना रही थी|..नहीं नीलांजन|    

        ‘वह भी चाहती है सबको बेटा,मगर उसकी बुद्धि कहीं जाकर अवरुद्ध हो गयी है|वह जहां से आयी  है वहाँ का असर है|क्यों,तुम्हें अपने बाबा-दादी नहीं दिखते?तुम्हें तो पूरी छूट है मनपसंद साथी चुनने की |माँ भी नहीं रोक पायेगी अब|दूध का जला छाछ भी फूँक कर पीता है|बाबा भी चाहते हैं तू अब ब्याह कर ले|पके आम हैं हम तो ,जाने कब टपक पड़ें!’दादी की लोरी जैसी कोमल, प्यारी बातें सुनते जाने कब नींद के आगोश में समा गयी वह|

           सुबह आठ बजे आँखें खुलीं तो ,बाबा पूजा में और दादी अपनी वानर सेना की सेवा में व्यस्त थीं|जाने कब सोयीं, कब उठ अपने नित्य कर्म में लग गयीं|इस उम्र में भी उम्र को बांध रखा है उन्होंने |कितनी कर्मठ,क्षमाशील,स्नेहिल,उर्जस्वित!बहुत प्यार आता है उसे दादी पर|उस दिन मालती आयी थी दादी से मिलने|उसी की उम्र की मालती गर्भवती है|उसके पिता मिटटी के बर्तन बनाते हैं गाँव में|सरकार की तरफ से जब साइकिल और वजीफा दिया गया  तो लालच में  सारी लड़कियों को माँ –बाप विद्यालय भेजने लगे| तभी उसे पढने भेजा गया था|पढाई में अच्छी थी वह|साथ में बगल के गाँव के रईस जमींदार का बेटा भी पढता था|दोनों में प्यार हो गया|बहुत संघर्ष के बाद शादी हो पायी |अब सुखी हैं दोनों|मालती को बचपन से देखा है उसने ,कितनी सलीकेदार हो गई है|दादी कहती हैं-विवाह में दो व्यक्तियों की मानसिक जाति एक होनी चाहिए ,बाकी और कोई जाति मायने नहीं रखती |कुम्हार की बेटी मालती को देख ,उससे बातें कर दादी की बातें शीशे सी चमक उठीं | 

                 करीब एक सप्ताह रही वह गाँव में|दादी- बाबा के हर कार्य में शामिल |कितना अच्छा लगा गांववालों की सेवा कर |मन उड़ रहा था आकाश में|दादी की बातोँ से एक राह खुलकर सामने आ गयी थी, उसे बुला रही थी|उसने घर पहुंचकर एक मैसेज किया-‘हाय डूड,व्हाट्स अप ?’ 

                  ‘ऑल वर्क ,नो रेस्ट ,एनी थिंग रॉन्ग विथ यू?कैसे याद किया?’हलकी सी टुन्न के बाद मोबाइल चमका |

             ‘कौन सा काम?ज्वाइन कर लिया?’

             ‘नहीं यार मम्मी के साथ उनके पांच सौ बच्चों को संभाल रहा हूँ |देयर इज नो टाइम फॉर जॉब,यहीं रहना है अब |’

            ‘आर यू श्योर ?’

           ‘ फाइनल डिसीजन है मेरा,भटकने का कोई मतलब नहीं|तुम ही कहती हो, जो मन को अच्छा लगे वही करना चाहिए|मन क्या सोल पीसफुल हो रहा है,तुम्हारे शब्दों में डिवाइन फीलिंग आ रही है इस काम में |’

         ‘एक्सेलेंट!गुड ब्यॉय, क्या मैं तुम्हें ज्वाइन कर सकती हूँ?’

        ‘ यू आर मोस्ट वेलकम !इट इज माय प्लेजर !लेकिन मुझे मूर्ख मत बनाओ ,तुम यहाँ नहीं आ सकती|’ सच ही तो कह रहा है,ममा-पापा ऐसे कहीं भी कहाँ जाने देंगे|पापा के भी डबल स्टैण्डर्ड हैं –एक तरफ इतने आजाद ख्याल ,दूसरी तरफ इतनी जकड़बंदी कि दम घुट जाय| दादी का पुष्पकीट बन गई है वह ,जैसे रस-गन्धयुक्त फूलों में जकड़ा- बंधा कीड़ा ! 

           पुष्पकीट को अपनी जकड़न और भी कसी लगी जब रात में उसने पापा से बातें कीं|उसने बताया वह अभी शादी के लिए तैयार नहीं है और अपने मित्र के साथ बच्चों के लिए काम करना चाहती है|पहले तो पापा ने बड़े प्यार से मनाया ,समझाया कि अकेली लड़की को वह कहीं भी नहीं भेज सकते |जाने कितने अपराधों-दुर्घटनाओं के हवाले दिये|वह शादी कर ले फिर जहां मर्जी जाये|फिरभी वह नहीं मानी, तो उन्होंने अपना रुख बदल लिया|वही पेशेगत शख्ती हावी हो गई सर से पांव तक|उन्होंने एक टूक फैसला सुना दिया शादी जहां भी तय हुई है ,वहीँ होगी| लड़का वह देख सकती है,अगर पसंद न आये तो कही और तलाश करेंगे|

            ‘लेकिन मैं लड़का पसंद कर चुकी हूँ |’अंततः उसने कह ही दिया|त्वरित गति से कुछ कौंधा था पापा के मष्तिष्क में| कन्वोकेशन में दोनों कई बार साथ दिखे|तृष्णा ने उनका परिचय भी करवाया था|दिनरात जासूसी ,सफेदपोश प्रच्छन्न अपराधियों को तलाशने वाला पुलिस ऑफिसर |पुलिस ऑफिसर का मस्तिष्क सक्रिय हो उठा और जैसे पापा तो पापा रह ही नहीं गये|पुलिस कमिश्नर आदित्यनारायण बन गये थे|आत्म विवेक के अभाव में नश्वर तत्वों से निर्मित मनुष्य की चेतना अहंकारी अंधेरों में भटकने लगती है|

              ‘कौन वह विदेशी लड़का,जिसकी माँ जर्मन है?’जैसे वह फुफकार उठे|

               ‘हाँ और पिता तमिल क्रिश्चियन|’तृष्णा ने शांत आवाज़ में कहा| घबराहट की विद्युत् धार  नसों में तरंगित होना चाह रही थी;किन्तु उसे वह मन की सशक्त आघातरोधी तरंगों से बांध  रखना चाहती थी|

              ‘असंभव ,यह मुमकिन नहीं|मेरे प्यार और आज़ादी का नाजायज़ फायदा है यह | भूल गयी  हम किस खानदान से हैं?ब्राह्मणों में भी श्रेष्ठ ब्राह्मण,राजपंडितों के खानदान से |हमारा तो हमसे नीच कुल के  ब्राह्मणों में भी विवाह वर्जित है|जिसके न कुल का पता है न खानदान का, उससे तुम्हारा विवाह !आखिर किसान है उसका बाप ,माँ संस्था के बहाने पैसे लूट रही है ,भिखमंगे-कंगले..तुम्हारे भोलेपन का फायदा उठाना चाहते हैं ,तुमसे रिश्ता जोड़कर.. ए शॉर्टकट टू बीकम रिच..बास्टर्ड !’वह गुर्राये|

            ‘कितनी छोटी सोच है आपकी पापा,सभी एक जैसे नहीं होते कि किसी और की संपत्ति से अमीर बनने की सोचें | ऐसे दकियानूस तो नहीं थे आप|आपने धोखा दिया है मुझे|यू आर हिपोक्रेट  पापा! क्यूँ मुझे आधुनिकता ,लिबर्टी ,भीड़ से अलग होने की सीख दी? फिर आप और ममा या नानी में क्या फर्क है? वैसे आप होते कौन हैं मेरी जिंदगी में दखल देनेवाले!इट्स माय लाइफ… ’घाव कहीं गहरे लगा था पुलिस कमिश्नर को|

         ‘ तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस तरह बकने की और तुम्हारी भलाई इसी में है कि जहाँ हम ने तय की वहीं शादी करो वरना……’पापा क्रोध में भूलते जा रहे थे कि सामने उनकी वही प्रिय बेटी है ,जिसके बिना जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकते | दर्प और अहं, अँधेरे का अनादिकालीन पर्दा खींच चुका था पिता और पुत्री के बीच|अहं की इस लड़ाई में वशिष्ठ और विश्वामित्र न्याय भूल, पक्षी बन टकरा रहे थे|

         ‘वरना ,वरना क्या कर लेंगे आप?मेरी जान ले लेंगे? ले लीजिये |यू बिकेम पैरेंट ,सॉरी, बट कान्ट अंडरस्टैंड पैरेंटहुड | यू आर डोमिनेटिंग मी अगेंस्ट द टाइड ऑफ़ टाइम |आप तानाशाह बनने की कोशिश न करें |नो पॉइंट इन दैट कि आप पिता हैं तो आपकी मर्जी से जियूं |आपने पैदा किया थैंक्स ..लेकिन किसने कहा था पैदा करने के लिए ..’वह अधिक से अधिक चोट पहुँचाना चाह रही थी पिता को|जैसे किसी ने आग का गोला सा फेंका हो उनके सीने पर |बड़े से बड़ा दुर्दांत अपराधी भी कभी इस तरह घायल नहीं कर पाया था उन्हें |

       ‘ तड़ाक ..’एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा कोमल गाल पर ,गालों से ज्यादा लाल उंगलियाँ उभर आईं वहाँ|पत्थर दिल है इस शहर का मौसम- हवा,पानी ,सभी हतप्रभ ,शून्य|शुष्क ऊष्मा संवेदनशील वाष्प का कठोर दंड है|सूखी आँखों ने ह्रदय को शुष्क बना दिया|अंदर ही अंदर कुछ राख हो गया था जलकर, धुआँ|

               बहुत शांत हो गई थी वह |सबने बहुत मनाया ममा ने ,नानी ने,दादी भी आईं गांव से |अपना हुक्म चलाना है….किसी से कर दो शादी ,क्या फर्क पड़ता है! मिलना तो दूर ,तस्वीर तक नहीं देखी लड़के की |अंदर कोई ज्वालामुखी तो नहीं रिस रहा!इतनी शांति तूफान के संकेत तो नहीं!पापा आश्वस्त नहीं हो पा रहे  थे|तृष्णा पर भरोसा नहीं कर सकते|एकमात्र पुत्री की शादी और कोई उल्लास नहीं,उत्साह नहीं किसी के मन में|साधनों की तो कमी नहीं थी,सशंकित पिता ने विवाह का सारा कार्यक्रम गांव में रखा|पूरी तरह नजरबन्द ,पुत्री का विद्रोह कुचलने के लिए | 

                अपने होने वाले पति को सर्वप्रथम उसने वरमाल के समय ही देखा|माय गॉड,पापा ने इस गैंडे को पसंद किया है मेरे लिए |तीस वर्ष का कस्टम ऑफिसर – गैंडे सी तोंद, खल्वाट अष्टमी-नवमी का चाँद,परिपथ पर तिनके की मेखला |आवाज में कैशोर्य का कच्चापन !माला कोमल ग्रीवा से फिसल ,स्टेज पर गिरी तो मेमने की तरह हंसा|ओह, तो इसलिए वर परीक्षण के बाद दादी उदास थीं |चुप-चुप तो पहले ही थीं|दूसरी बार उसने गैंडे की खाल में गिद्ध दृष्टि देखी अभिमुख वर-वधु दृष्टि-विनिमय विधि के समय,क्या देखा था उस दृष्टि में?कहाँ है पापा के ब्राह्मण का ब्रह्मतेज !तीव्र सर्वनाशी विद्रोह और क्रोध का तूफान उठा-क्या मंडप छोड़ उठ जाये,विवाह से इनकार कर दे ?लेकिन नहीं ,दादी का उदास चेहरा आँखों के सामने आ गया|इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं|मन में कुछ तो था ,जो आकार नहीं ले पा रहा था | 

              विवाह विधि में सारी रात निकल गयी |सप्तपदी के सारे मंत्र अग्नि में स्वाहा हो गये |धृष्ट ध्रुवतारा नियति पर मुस्कुरा रहा था|दूसरे दिन उसने ममा से सख्ती से कहा कि जब विवाह परम्परागत तरीके से हुई है ,तो सारी परम्पराएं निभायेगी वह|यहाँ चतुर्थी कर्म के बिना  विवाह यज्ञ अधूरा माना जाता है |चतुर्थी कर्म मतलब विवाह के चौथे दिन पुनः रक्त सिन्दूरदान,कंकण-जन्मग्रंथी मोक्ष  इत्यादि विधि विधानों के बाद ही वर-वधु का मिलन| ममा सहर्ष  मान गयीं |सांप भी मर गया ,लाठी भी नहीं टूटी|तनु को परखने- सोचने का समय मिल गया|इन तीन दिनों में साली-सलहजों से घिरा रूप- रस का लोभी भंवरा अपना असली रंग दिखा, स्वयं ही तक़दीर के शिलालेख पर काली स्याही फेर गया |नशे में गैंडे सी मोटी बुद्धि ने आदित्यनारायण की इकलौती पुत्री के कुबेर के ख़जाने का लोभ साकी के सामने ही उगल दिया|नशा और सुंदरियों का संग ऐसा कुत्सित कर्म करवा गया कि चतुर्थी कर्म की नौबत नहीं आयी | झूठ की तरह कुख्याति हवा पर उड़ सबसे पहले तृष्णा के कानों में आयी |  

              तीन दिनों में मौसम बदल गया था|जेठ की गर्मी आषाढ़ की बूंदाबांदी में बदल गयी |रात के बारह बज रहे थे |मेहमानों से घर भरा था|विवाह के बाद आश्वस्त थे पापा ,संकट टल गया था| चतुर्थी कर्म के लिए छूटे –बढे सारे दोस्त-रिश्तेदार बुला लिए थे उन्होंने|सभी सो रहे थे|दादी और ममा सुबह चतुर्थी विवाह विधियों की तैयारी में व्यस्त थीं|तृष्णा अपने कमरे में पलंग पर बैठी फोन देख रही थी|एक आभासी दुनिया उसके अतीत और भविष्य के साथ थी|वर्तमान अर्गला बनकर पैरों में पड़ा था|अचानक एक अनजान नम्बर चमका |कौन हो सकता है की जिज्ञासा के साथ ही उसने फोन उठाया|उधर से आवाज आई –‘मैं भवेश,टैक्सी स्टैंड पर हूँ , आ सकती है तो आजा, तुम्हारी शादी की सारी खबर है मुझे| दादी को मेरे विषय में सब पता है,उनसे पूछ लेना|’ख़ुशी के आघात ने एकसाथ ही अवसाद और वर्तमान की अर्गला तोड़ दी|ममा कब नयी रेशमी साड़ी देकर सुबह तीन बजे सोलह श्रृंगार कर तैयार होने की हिदायत दे गयीं ,उसने कब दादी से भाई के विषय में बात की उसे कुछ याद नहीं|बस इतना याद है कि गैंडे के कमरे में वह गयी थी, तो उसने उसका हाथ पकड़ पलंग पर बैठने का आग्रह किया मदमत्त उन्मीलित आँखों से|झटके से हाथ छुड़ाकर उसने कठोर शब्दों में कहा –‘एक अंधे ने मेरा हाथ दूसरे अंधे के हाथों में देने की कोशिश की है|कुल –परम्पराओं की निर्मम जंजीरों की कैद समय रहते तोड़ देनी चाहिए |अग्नि और ध्रुवतारा साक्षी रहे कि मैंने तुम्हेँ नहीं वरा| सामाजिक-वैधानिक मान्यता भी अभी नहीं मिली हमारी शादी को| मैं अंधकार से निकलना जानती हूँ|डोन्ट डेयर टू टच मी…. मुझे ढूंढने की गलती भी मत करना|’ तृष्णा के झटके से कमरे से निकलते ही गैंडे का नशा भी हिरण हो गया|तृष्णा साधारण जींस –टॉप में थी,श्रृंगार विहीन|

                  घर के पिछवाड़े  से जब वह निकली बरसात होने लगी थी| बांसों की झुरमुट पर हवा का संगीत ,नाचते पीपल के पत्ते ,हाथ हिलाते केले के पत्ते उसे विदा दे रहे थे |उसने शाल से चेहरा ढक लिया|दादी खिड़की पर खड़ी उसे दूर तक जाती देखती रहीं|उन्होंने ही तो कहा था –ह्रदय में उसी विचार,मूर्ति या व्यक्ति को बसाओ,जिसे तुम जल की तरह ग्रहण कर सको | तनु ने छोटा सा मैसेज लिखा –आइ एम कमिंग..टु ज्वाइन योर पोलुशन फ्री एयर…आफ्टर आल इट्स माय लाइफ …’

    ….और उत्तरवाहिनी मुड़कर बह चली|

हिंदी एवं मैथिली की लेखिका मीना झा ने उषा किरण खान को बड़े आत्मीय ढंग से याद किया है और उनके अवदान और व्यक्तित्व को रेखांकित किया है।
मीना जी की भावांजलि हम दे रहे हैं।
“हिंदी और मैथिली साहित्य की उषाकिरण का अवसान”
———
– मीना झा

हिंदी-मैथिली के साहित्य की महिषी हमारी उषाकिरण खान के पार्थिव शरीर का अवसान हो गया |यकीन नहीं होता |उनके न रहने से मैथिली -हिंदी और हम सब चाहनेवालों के हृदयाकाश में जो छाया उतर आयी है ,वह समय के साथ गहरी ही होती जाएगी |अब साहित्याकाश के अनेक नक्षत्रों में स्नेहिल ,आत्मीय ,देदीप्यमान वह नक्षत्र नहीं दिखेगा |किन्तु मैथिली और मिथिला की वह चहेती हमारी चेतना की धारा में अविकल ,अविरल बहती रहेंगी |मिथिला कैसे भूल सकती है अपनी माटी -पानी में लिपटी उस स्नेहिल विदुषी को! वह मिथिला के गाँव की बेटी थीं |गाँव को जीवन में ,समाज में ,साहित्य में और मन में इस तरह बसा लिया कि जीवन भर उसी के गीत गाती रहीं|कितनी गौरवान्वित हुई है वह माटी अपनी इस तेजस्विनी तनया से !तेज इतना प्रभावशाली ,इतना मृदु कि मृण्मय भी चिन्मय बन जाने की ताकत पा ले |
हिंदी और मैथिली साहित्य को उन्होंने सत्रह उपन्यास ,सात कथा- संग्रह,आठ कविता -संग्रह ,एक खण्डकाव्य,तीन कथेतर गद्य,दो चित्रकथा ,पांच बाल साहित्य और चार नाटकों से समृद्ध किया|झोली भर के लिखा और उतने ही झोली भर पुरस्कार पाये |उन्हें पद्मश्री ,साहित्य एकेडमी ,भारत भारती जैसे सर्वोच्च सम्मान भी मिले |फिर भी कोई अभिमान नहीं|अपनी दुनिया को उन्होंने अपने अंदर नियंत्रित किया हुआ था|उनके इर्द-गिर्द सब कुछ बदल जाता था|
लगभग पचास दशकों से लिखित अपने साहित्य में उन्होंने बदलते गाँव और शहर के माध्यम से बदलते भारत की कथा कही है|पूर्व वैदिक काल से वर्तमान तक के विशाल कालखण्ड के सामाजिक,सांस्कृतिक ,ऐतिहासिक उत्थान-पतन का विकासात्मक आकलन किया है|उनकी रचनाओं में स्वतंत्रता की लड़ाई ,स्वतंत्र भारत में गांधीवाद ,वामपंथ ,गरीबी -अमीरी शोषण -शोषित ,जातीयता-मानवता ,स्त्री मुक्ति के संघर्षों की चुनौतियां को गंभीरता से स्थान मिला है|उन्होंने जीवनी परक उपन्यास भी लिखे हैं |मैथिली उपन्यास ‘सिरजनहार’में आदि कवि ‘विद्यापति’ के जीवन और उन परिस्थितियों का विस्तृत वर्णन किया है,जिसने उन्हें विद्यापति बनाया|’अगन हिंडोला’ सूरी साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह सूरी को केंद्र में रख कर लिखा गया उपन्यास है|
मैथिली उपन्यास ‘भामती’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया|इस उपन्यास में मैथिली के उद्भट विद्वान वाचस्पति-भामती के दाम्पत्य प्रेम की दुर्लभ स्थापना के साथ तत्कालीन सामाजिक ,राजनीतिक निर्मम समस्या को कलमबद्ध किया है लेखिका ने | उनके उपन्यास ‘हसीना मंजिल’ का अनुवाद कई भाषाओँ में हुआ और इंडियन क्लासिक धारावाहिक के रूप में दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ |उनके शब्दों में-‘मैं स्त्री की जिजीविषा और श्रम दिखाना चाहती थी…हसीना मंजिल आधुनिक मिथिला का मेरा स्वप्न है|’
उनके मैथिली उपन्यास ‘पोखरि रजोखरि’ का मैं ने हिंदी में ‘कथा रजोखर’ के नाम से अनुवाद किया |घटना एवं चरित्र बहुल इस उपन्यास में लेखिका ने आजादी -पूर्व से अब तक वर्तमान मिथिला की दशा का वर्णन किया है| अनुवाद के कार्यकाल में मैं लगातार उनके संपर्क में रही|मैथिली के कई ऐसे शब्द थे ,जिनके अर्थ उन्होंने मुझे बताये|मैथिली की कितनी लोकोक्तियाँ ,कितने किस्से उन्हें याद थे| मेरा सौभाग्य था कि अनुवाद और भूमिका की भूरि -भूरि प्रशंसा की उन्होंने |
अपने स्वतंत्रता सेनानी गांधीवादी पिता ,हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे उद्भट विद्वान ,नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार के सानिध्य ने उनकी रचनात्मकता को प्रभावित किया | उन्होंने संस्कृत ,पालि ,अंग्रेजी मैथिली एवं हिंदी के प्राचीन साहित्य का गहन अध्ययन किया|उषाकिरण खान पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व विभाग की अध्यक्ष रहीं|आयाम संस्था के माध्यम से सामाजिक-साहित्यिक रूप से कार्यशील रहीं|कई विधाओं में लिखने वाली प्रसिद्ध लेखिका ने सभी रचनाओं में समाज,स्त्री और जीवन के सत्य को ईमानदारी से उकेरा है|
उनके पति आदरणीय रामचंद्र खान बिहार में पुलिस के प्रखर एवं ईमानदार अधिकारी थे |उनके साहित्य का सत्य और व्यक्तित्व की ईमानदारी संभवतः पति से भी प्रभावित रहे हों |सन् 22 में पति के देहावसान के बाद अकेली हो गयी थीं और अस्वस्थ भी|तब हिंदी के प्रसिद्ध कवि कृष्ण कल्पित ने लिखा था – हंस उड़ गया ,हंसिनी अकेली रह गयी …!लेकिन अब पीछे -पीछे हंसिनी भी उड़ गयी|कहाँ मिलेंगी अब पवित्र आत्मा , हंसिनी वह!
उनसे कई बार मिली मैं |वही स्निग्ध तरल स्नेह|कभी यह रूप परिवर्तित नहीं दिखा| वह जब भी दिल्ली आतीं ,तो उनका व्हाट्सएप सन्देश मिलता -मैं दिल्ली आ रही हूँ ,मिलना हो तो आ सकती हो |अधिकतर साहित्य एकेडमी में ही मिलना हुआ|छब्बीस अप्रैल ’23 को साहित्य एकेडमी में उनकी कोई बैठक थी|उन्होंने बुलाया|मैं एकेडमी की लाइब्रेरी में उनकी प्रतीक्षा करती रही|बैठक के बाद वह मिलीं और कहा –“मीना, चित्रा के घर जाना चाहती हूँ|चित्रा बीमार है ,उसे देखना चाहती हूँ|”उषाकिरण दीदी स्वयं स्वस्थ नहीं थीं|जब से जीवन साथी गये वह अस्वस्थ ही रहीं ,मगर क्रियाशीलता की कमी नहीं थी|उस दिन चित्रा मुद्गल से उनका हार्दिक मिलन मैं भूल नहीं सकती |उन्होंने चित्राजी की बहू को कहा था कि मेरे रहते चिंता मत करना |मुझे लगा उनके मन में यह बात भी थी कि शायद चित्रा को फिर मिल न पाएं |अंदेशा इस तरह से सत्य होगा ,यह सोचा न था|
एक दिन उनसे बातें हो रही थीं |मैंने पूछा –“सभी लेखिकाएँ कितनी सजग रहती हैं अपने श्रृंगार को लेकर ,आप क्यों नहीं सज-धज कर रहतीं ?”
वह खिलखिलाकर हंसीं –“अरे ,तुम तो जानती हो न,हम मैथिलों का तुम्हें पता है न !”और उन्होंने मैथिली में प्रचलित एक प्रसिद्ध लोकोक्ति कही –“भल पिया हेता,गुदड़िए लोभेता!”पति प्रेमी हो तो सजने की जरूरत नहीं |कितना विट था उनमें! मिथिला के लोकजीवन की बड़ी गहरी बात है इस लोकोक्ति में|उनके साहित्य में लोक और शास्त्र दोनों का संतुलन है |
अस्वस्थ रहती थीं, तो पूछा मैं ने- ‘दीदी,डाइबिटिक तो नहीं आप?”
उन्होंने मुस्कुरा कर कहा –“दुर जो ,करिया चाय पीते हैं हम|चीनी दूध कुछ भी नहीं|”सच्ची बात ,हमेशा काली या हरी चाय पीती थीं वह|बीमारी नहीं ,कोई उदास छाया उन्हें ले गयी|
चाय इतनी काली पसंद थी ,किन्तु किसी के लिए कटुता नहीं आयी उनकी जिह्वा पर कभी |मन के जीते जीत है|वह कहतीं- ‘किसी ने क्या कहा ,क्या किया उस पर मत जाओ ,तुमने क्या कहा और किया इस पर ध्यान दो|अपनी गलतियों से सीखो ,सफलता मिलेगी या नहीं भूल जाओ|’उनकी यह बात मैंने गाँठ बांध ली |उनकी तरफ से यही पाथेय है मेरा|
फेसबुक का सारा आकाश भरा पड़ा है हमारी दीदी की स्मृतियों से |लेकिन वह कहाँ है!सुबह-सुबह उठकर फेसबुक पर सक्रिय हो जाने वाली उषाकिरण खान की पोस्ट के लिए फेसबुक की दीवाल तरस जाएगी और तरस जाएगा साहित्य संसार |मेरी अन्तःप्रज्ञा कहती है,उनकी वात्सल्य मूर्ति हमारे लिए भी तरसेगी| उषा कहीं भी हों ,हम पर उनकी स्नेहिल किरणें बरसेंगी आशीर्वाद के रूप में |उन्हें अलविदा नहीं कहूंगी|अभी -अभी ममताजी ने उषा दीदीके साथ की उनकी एक तस्वीर माँगी है|गैलरी से तस्वीर निकलते बहुत भावुक हो गयी मैं|ममताजी के लिए भी|कम से कम उनका साथ बना रहे |
24 अक्तूबर ’23 को हमारी उषा दीदी का जन्मदिन था |आयाम संस्था की सखियों ने आयाम के फेसबुक पर उनको शुभकामनाएँ दीं |हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका गीताश्री ने फोन करके कहा-उषा दीदी के जन्मदिन पर ममताजी की हिंदी में और आप अपनी शुभकामनाएँ मैथिली में रिकार्ड करके आयाम के लिए भेजिए | मैं ने मैथिली में उनके लिए दो पंक्तियाँ लिखीं |उस कविता का हिंदी अनुवाद, विनम्र श्रद्धांजलि के साथ उनके लिए –
“ माटी का ममत्व जिनकी विशेषता
हृदय के आइना पर प्रतिबिंबित
दुनिया भर की निर्दोष सुन्दरता,
जैसे मन के नम घाट पर लिखी
सौम्य,शांत, औ’ सजल कविता |
गरिमा ,मर्यादा ,शील की स्नेह मूर्ति
‘जीवेत् वर्ष:शतम्’ हमारी उषा दीदी !
उषा दीदी, ‘वर्ष:शतम्’ तो आप साहित्य में रहेंगी ,चेतना में आजीवन !

 

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किताबें

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