कहानियां
काकी की करामात
बहेरा के रोजनामचे में ऐसी भिन्नता अब तक दर्ज नहीं हुई। भिनसारे जब दिवाकर लालिमा बिखेर रहा था, एक खबर फैली ……….. किरणों के प्रचण्ड होने तक दूसरी खबर फैल गई। पहली खबर मामूली लेकिन वांछित थी। दूसरी खबर में ऐसा अतिरेक कि बहेरा खबरों का गढ़ बन गया। बुढ़िया-पुरनिया बताते हैं ऐसा होता नहीं है लेकिन हुआ है। होने को देखा और सुना है। पर अपने गॉंव बहेरा में ………आँखों के सामने ………..इतने नजदीक ऐसा हाँरर शो ………. बप्पा रे। अब तक न हुआ। इस विशाल कच्चे ऑंगन वाले घर, जिसके अब चार हिस्से हैं, में तीन पीढ़ियाँ अपनी-अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार वास कर रही हैं। अस्सी की हुई काकी गवाह हैं यह घर आर्थिक दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं रहा। लेकिन मामखोर शुक्ल जैसे श्रेष्ठ ब्राम्हण वाली प्रतिष्ठा खूब मिली। अब चारों हिस्से के मेम्बरानों के पास बाइक और मोबाइल है, अपने-अपने हिस्से को मजबूत करा लिये हैं पर प्रतिष्ठा धूमिल होती जा रही है। काकी की माने तो ऑंगन जरूर लाज राखे है।
विशाल कच्चा ऑंगन।
हिस्सा बाँट में घर चार भागों में विभक्त हो गया है पर ऑंगन साँझा है। ऑंगन में चारों घरों के शुभ-अशुभ संस्कार सम्पन्न होते हैं। ऑंगन ने शुक्ल परिवार की कई पीढ़ियों की मौतें देखी हैं। वर्तमान पीढ़ियों में काकी वरिष्ठतम सदस्य हैं। काकी की बहू सोहाग, काकी को आफत की तरह देखती है लेकिन शेष तीन परिवारों के सदस्य आश्वासन के तौर पर देखते हैं कि अभी तो ये जीवित हैं, हम इनसे पहले नहीं मरेंगे। आम धारणा है दुर्घटना या व्याधि से ग्रस्त न हो तो आम तौर पर जो जिस क्रम में जन्म लेता है उसी क्रम में इस असार संसार से रुखसत होता है। लेकिन काकी से छोटे दो-चार सदस्य राम को प्यारे क्या हो गये, सदस्यों की आश्वस्ति चली गई। रुखसत होने का क्रम गड़बड़ा भी सकता है। प्रत्येक मौत पर काकी अपराध बोध से शर्मसार हुई अपनी कोठरी में सिकुड़ जाती है। लगता हर चेहरे की दो आँखों में धिक्कार है – जवान-पट्ठे मर रहे हैं, तुम तन्दरुस्त हो। कितनी मौतें देखोगी ? ठीक अभी दो माह पहले काकी के देवर नारद का अच्छा मेहनती पचास साल का पुत्र दयालु नहीं रहा। नारद की पत्नी सती जब मरी तीन बेटियाँ बड़ी और दयालु पन्द्रह का था। चार साल हुये नारद नहीं रहे। अब दयालु ………..। लाड़-लोलार के कारण दयालु दसवीं के बाद नहीं पढ़ा लेकिन खेती-काश्तकारी में चित्त लगाकर हैसियत को थोड़ा बढ़ा लिया था। जब दयालु की पत्नी छोेटकी लाल साड़ी पहन कर पूजा का थाल सजा कर हरतालिका व्रत के पूजन की तैयारी कर रही थी, कस्बे से बहेरा लौट रहे दयालु की बाइक ओवर लोडेड ट्रक की चपेट में आ गई। दयालु के पढ़ाई पूरी कर रहे दो बेटे, विवाह योग्य हुई बेटी और छोटकी ने कलेजा निचोड़ कर रख देने वाली ऐसी गोहार मारी कि ऑंगन में खुलने वाले अपने-अपने द्वार से निकल कर सदस्य ऑंगन में जुहा गये। क्रंदन मिश्रित प्रतिक्रिया से ऑंगन झनझना गया –
‘‘फगुआ (होली), रक्षाबन्धन पहले ही खुनहाई थी, तीजा भी हो गया। अब तीजा में कबहूँ पूजा न होई।’’
‘‘हमसे पहिले,, हमसे छोटे मरें, इससे बड़ा कलेस नहीं है।’’
‘‘भगवान अच्छे लोगों को जल्दी बुला लेता है।’’
इन बातों का काकी पर कैसा असर होगा, वे किस ग्लानि से गुजर रही होंगी इस ओर किसी का रुझान नहीं था। काकी से दयालु की अकाल मृत्यु नहीं सही जा रही थी। दयालु वक्त जरूरत मदद कर देता था बाकी तो पूरा बहेरा जानता है दोनों पूत रिपुदमन और अरिमर्दन, काकी को कितना नापसंद करते हैं। छोटा अरिमर्दन नहीं पूँछता कि
बाहर नौकरी करता है, कैसे पूँछे। पढ़ने में ढपोर रहा, बहेरा में खेती-किसानी करता बड़ा रिपुदमन नहीं पूँछता कि खा-पहन रही हैं, और कैसे पूँछे ? छोटी बहू उचट कर अरिमर्दन के साथ परदेस चली गई। बड़ी बहू सोहाग, काकी की प्राचार्य बनी फिरती है। सोहाग की धारणा घातक है – काकी कभी सुदर्शन रही होंगी पर अब काया सिकुड़ कर ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी हो गई है कि आज मरीं कि अभी मरीं, पर न मरने की कौन बूटी गटक ली कि मर नहीं रही हैं।’ वैसे बड़ी बहू का नाम प्रवीण कुमारी और उसके गॉंव का नाम सोहग है। सोहग वाली कहते-कहते काकी उसे न जाने कब सोहाग पुकारने लगीं।
दयालु की तन्दरुस्त आयु और उल्लेखनीय मदद के मद्देनजर काकी व्याकुल थीं लेकिन उनकी क्षीण काया में खुल कर फुल फ्लैजेड रोने की ताकत नहीं थी। ताकत भर रोने का प्रयास संताप कम कोहराम अधिक लगता था। दयालु के शुद्ध (दशगात्र) में बने हथेली से बड़े आकार के बरा (शुद्ध में अनिवार्यतः बनाये जाने वाले उड़द दाल के बड़े) प्रिय होने के बावजूद उनकी भोजन नली में न उतर रहे थे
सोहाग ने अलग किरकिरी कर दी –
‘‘काकी, बरा बहुत न खाओ। फिर तुम्हारा पेट बहुत चलता है।’’
काकी के थोड़े से दाँत वाले मुँह में बरा अटका रह गया। कैसे दिन आ गये ? दिन में दो बार मैदान जाने को सोहाग पेट चलना कहती है –
‘‘पेट त नहीं चलय, प्रान चले जायें त हम सुत्तई (फुर्सत) होइ। लागत है पंख निकल अइहैं तब मरब।’’
बहेरा की मान्यता है साँप यदि सौ साल पूरे कर ले, उसके पंख निकल आते हैं। रात में खुले में सोये व्यक्ति पर उड़ते हुये सर्प की परछाईं पड़ जाये तो लकवा (पक्षाघात) मार देता है। दयालु के न रहने पर निराश हो चली काकी, कोठरी में वक्त बितातीं। वहीं से रिपुदमन को कहते सुना –
‘‘काकी, कमजोर हो गई हैं। ऊपर से बुलावा आ सकता है। अनाज का संचय कर रखो। शुद्ध और तेरही में कम न पड़े।’’
शिष्टाचार न सोहाग के स्वर में है, न व्यवहार में। मसमसा कर बोली ‘‘किसान के घर में अनाज कम न पड़ेगा। मौका तो मिले। जान लो, कुछ लोगों को जीवन से बहुत मोह होता है। प्राण आसानी से चोला (देह) नहीं छोड़ते। लोग जोर-जोर से मरने वाले के कान में नेरियाते (चिल्लाते) हैं, जाओ माया-मोह छोड़ो। तुम्हारे प्राण कष्ट में हैं। काकी को जीवन से बहुत मोह है। नैनी (सोहाग की मझली बहू) आई थी तब काकी ने उसकी कोल्ड क्रीम धरा ली थी कि चमड़ी फट गई है। बप्पा रे ………. हाथों की खलरी (चमड़ी) हड्डी छोड़कर लटक रही है पर चोचला देखो।’’
काकी को सोहाग की घातक धारणा का अंदाज है। अंदाज है यह कुलक्षिणी उनके मरने पर समुचित दान-पुण्य नहीं करेगी। दान-पुण्य के बिना वैतरणी पार नहीं होती। काकी ने कुछ पैसा जोड़ रखा था। दयालु से सलाह कर, उसके सहयोग से छाता, रस्सी, सूप, बर्तन, बिछावन, बछिया आदि खरीद कर महा बाम्हन (महापात्र) को यही कोई दस बरस पहले गुप्त रूप से दान कर वैतरणी पार करने का पुख्ता बंदोबस्त कर लिया है। प्रलोभी महापात्र ने रौरव नर्क का भय दिखा कर काकी की भलमनसाहत को खूब भुनाया था –
‘‘काकी, बछिया नहीं, तगड़ी गाय दो। तभी उसकी पूँछ पकड़ कर वैतरणी पार करोगी। बछिया कमजोर है। डूब जायेगी। कैसे पार लगोगी ? साँप, बिच्छू, जोंक से कटवाती पड़ी रहोगी।’’
सदमा खाई काकी ने संचित कर रखे अपने रजत आभूषण दयालु के सुपुर्द किये। उन्हें बेंच पर दयालु ने तगड़ी गाय का प्रबंध किया।
काकी का दिल भरा रहता है। अपना बंदोबस्त किया था, दयालु चला गया। उनका वश चलता तो दयालु को अलग कर खुद अर्थी पर सवार हो जातीं। लेकिन सोहाग की निष्ठुरता देखो। उन्हें आरोपी की तरह देखती है। किसी दिन सोई परी रात गला न मसक दे। बंसी बजइया कैसे उमिर कटेगी ? करूणा पाने के लिये युक्ति लगानी होगी। काकी आँखें मूँद कर पूरी चेतना में यूँ बर्राने (बड़बड़ाने) लगीं जैसे नींद में बर्रा रही हैं ‘‘……….तैयारी करा ……… हरबी (जल्दी) बियारी (डिनर) कइल्या …….. विमान हमको लेने आ रहा है ……बंसी बजइया के गोकुल धाम जा रहे हैं ……….।’’
काकी का बर्राना सुनकर उनकी आखिरी साँस के फिराक में रहने वाली सोहाग को तसल्ली मिलती। काकी ‘राधे-राधे भजो, चले आयेंगे मुरारी ………। अच्छी लय से गाती हैं। हो सकता है सपने में कृष्ण ने दर्शन दिये हों। कुछ लोगों को मृत्यु का पूर्वाभास हो जाता है। लेकिन सुबह पूरी तरह स्वस्थ भाव में काकी को जोर-जोर से खखार कर दातून करते देख सोहाग को लगता बंसी बजइया को काकी के अरमानों की जानकारी नहीं है। अगले सप्ताह काकी बर्रा रही थीं –
‘‘हमारी पूज आई है (उम्र पूरी हुई) नारद हमको बोलाते (बुलाते) हैं ……..
सोहाग की इच्छा हुई ऑंगन में समाचार फैला दे – काकी की बेवकूफी सुनो। पति को देखने को नहीं, देवर को देखने को नयन तरसते हैं। समाचार सुनकर ऑंगन को अचरज न होगा। दोनों के अनुराग का हल्ला इसी अॅंगन में खूब उड़ा था।
नारद ने काकी को विलक्षण रुतबा दिया।
काकी के पति, शारद दहेज में साइकिल पाने के कारण बहेरा के नायक हो गये थे। भाग्य में दीर्घकालीन साइकिल सुख नहीं था। काकी सत्ताइस की, नौ और सात साल के रिपुदमन और अरिमर्दन। चार भाइयों में सबसे बड़े शारद पता नहीं किस आयु के थे कि छाती की साधारण जलन में चल बसे। लोक लाज के कारण काकी, पति के लिये खुले आम नहीं रोती थी लेकिन बिजलीविहीन कोठरी की अॅंधेरी रातों में दोनों पुत्रों को अगल-बगल सहेज कर सोतीं, तब आँखें खूब बरसतीं। वक्त आने पर दूसरे क्रम के नारद घर के मालिक बने। नारद की पत्नी होने के नाते नियमानुसार सती को मालकिन होना चाहिये था पर नारद ने काकी को मालकिन बना कर गजब की सूझ-बूझ और पारदर्शिता प्रस्तुत की –
‘‘बड़ा भाई (शारद) होते त मालिक बनते। भउजी मालकिन बनतीं। बड़ा भाई नहीं रहे पै भउजी हैं। मालकिन बनेंगी।’’
ऑंगन फुसफसाहटों से भर गया – विधवा को नदी तीरे बाल मुड़वा कर सांसारिक प्रपंच से मुक्त कर देना चाहिये लेकिन नारद पैंतरा लगाना चाहते हैं। और काकी की चाल बाजी को का कहें ? मेन्सेरुआ (पति) नहीं रहा लेकिन पदवी चाहिये। आरम्भिक काम चलाऊ एतराज करने वाली काकी को मालकिन बनने में दरअसल एतराज जैसा
कुछ नजर नहीं आ रहा था। मालकिन का मतलब दुधारू पशुओं की देख-रेख, घी-दूध की निगरानी, खाने में जो और जितना बनना है उस अनुसार भंडार से सामग्री निकालना, शक्कर, बताशा, सत्तू, जीरा, अचार वाले पिटारे में ताला लगा कर उघन्नी (चाबी) को मजबूत धागे में पिरो कर अपनी नटई में डाले रखना मात्र है। लेकिन जिसका मेन्सेरुआ नहीं रहा वह साम्राज्य फैलाये, जिनके जीवित हैं वे काकी का अदब मानें जैसी व्यवस्था घर की स्त्रियों को अंधेर की तरह लग रही थी। सती को उत्प्रेरित किया गया –
‘‘जिज्जी, दादा भाई (नारद) बड़ी जिज्जी से जब तक मूड़ जोड़ के सलाह न कइ लें, कउनो फइसला नहीं करते।’’
‘‘बड़ी जिज्जी का सासन जबर है। एक खोरिया (कटोरी) चीनी मॉंगो त आध खोरिया देती हैं। विधवा हुई। जंजाल से दूर रहॅंय। तुम मालकिन बना त नीक लागय।’’
दोनों देवरानियों की बात सुन सती का मुख कुम्हला गया –
‘‘हम तुम्हारे जेठ (नारद) से जब-जब कहे बड़ी जिज्जी का एतना कहा मानते हो, हमारा एक्कौ नहीं मानते। एकय बात कहते हैं भउजी हमारे लिये मातवत (मातृवत) हैं।’’
‘‘माता (काकी) दादा भाई को मोह ली है। सुंदर त हइये हैं। मेन्सेरुआ नहीं रहा पें न गोराई (गोरापन) कम भा, न फेस कट कुम्हलान।’’
पता नहीं किस विदुषी ने बहेरा में फेस कट जैसा शब्द रोपा कि चेहरे को आज भी फेस कट कहा जाता है। स्त्रियों के आशय को काकी और नारद ने भाँप लिया। व्यवस्था के व्यवहारिक पक्ष पर अडिग नारद ने चित्त न दिया जबकि काकी ने उघन्नी गले से उतार कर नारद के सम्मुख उछाल दी –
‘‘हमसे मलकाना न सम्भरी।’’
नारद कद्रदान बने रहे ‘‘भउजी, उघन्नी हमारे कपार में दइ मारो पै मलकाना तुहिन सम्भारोगी।’’
नारद का अटल फैसला।
काकी मालिकाना सम्भलने में ऐसी दत्त हो गईं कि बहेरा पहाड़ चढ़ कर पहाड़ के उस पार बसे गॉंव बबुनी (मायके) न जातीं। निनार (हिस्सा बाँट के साथ अलग होना) होने पर बहुत कुछ छूटा लेकिन मालकिन वाला बोध न छूटा। कल्पना नहीं थी ऐसा वक्त आयेगा जब बेटे-बहू उन्हें मालकिन नहीं दिक्कत की तरह देखेंगे। इतना नापसंद करेंगे, इतना गलत समझेंगे, मरने की राह देखेंगे। काकी को सुबह दातून करते देख सोहाग सोचती है पाप का घड़ा अभी नहीं भरा है, इसलिये जमराज नहीं पूँछ रहे हैं। जो पूँछ लेंगे तब भी काकी के प्राण आसानी से चोला नहीं छोड़ेंगे। कनपटी में चिल्लाना पड़ेगा – जाओ। माया-मोह छोड़ो। तुम्हारे प्राण कष्ट में हैं।
जमराज ने पूँछ लिया।
सोहाग सुबह काकी के कमरे में आई। काकी बिछावन पर उतान पड़ी थीं। क्या बिना हड़कम्प-हड़बड़ी के देवर के पास चली गई ? सोहाग ने थोड़ा छुआ। थोड़ा हिलाया। इनका तो पाप का घड़ा भर गया। जमराज ने पूँछ लिया। शिष्टाचार सोहाग के न व्यवहार में है, न स्वर में लेकिन पूर्ण हुई मनोकामना के मद्देनजर उसने ऑंगन में आकर विनयपूर्वक गोहार मारी –
‘‘काकी हमको अनाथ कर गई हो ………।’’
मरने-मरने में फर्क होता है।
मरने वाले की आयु और आवश्यकता के अनुपात में संताप वास्तविक और अवास्तविक होता है। दयालु की मृत्यु पर ऑंगन करुणा और चीत्कार से थरथरा रहा था। काकी के निधन पर संतुलित सी हड़बड़ी का प्रदर्शन करते हुये परिजन अपने-अपने हिस्से से निकल कर ऑंगन में जुहा गये। प्रतिक्रिया में संताप नहीं संतोष था –
‘‘खूब जी। कुटुम्ब की खूब बरक्कत देखी।’’
‘‘अच्छी लम्बी, अच्छी सुंदर रही। अब जर्जर हो गई रहीं।’’
सोहाग को सराहना न जॅंची ‘‘जर्जर हो गई रहीं पै पकड़ मजबूत रही। सुबह जब मैं सहारा देकर उठाती थी मेरी हथेली एतनी जोर से खींचती रहीं के लगे मुझे गिरा देंगी। अउर मुँह पिचक गया रहा पै आँख के जोत बहुत साफ रही। वहौ देख लेत रहीं जो दूसर न देख पाता रहा।’’
सब जानते थे सोहाग, काकी को सहारा देकर कभी नहीं उठाती थी पर अवसर झूठ की ओर ध्यान दिलाने का नहीं था। किसी ने संदेह व्यक्त किया –
‘‘दयालु का गये सिरफ तीन महीना हुआ, काकी चली गईं। दयालु पंचक मा त नहीं मरा ?’’
बहेरा की मान्यता है कोई पंचक में मरे तो साल के भीतर टोला या कुटुम्ब के पाँच लोग मर जाते हैं।
‘‘दयालु एकादसी का मरा है। सीधे सरग (स्वर्ग) गा होई।’’
‘‘तैयारी करो। जर्जर देह है। मिट्टी खराब न करो। नात-रिस्तेदार आते रहेंगे।’’
रिपुदमन मोबाइल पर नातेदारों को सूचित करने लगा। सोहाग जरूरी व्यवस्था बनाने लगी। सोहाग में इस तरह बला की स्फूर्ति कम ही देखी गई है। आनन-फानन अर्थी निकासी की तैयारी यूँ हो गई, जैसे मौत का नहीं मुक्ति का मौका है। मौत वाले घर में काम बढ़ जाता है। पुरुष चिटकाने (मरघट) चल दिये। इधर महिलाओं को तालाब जाकर नहाना-पखारना है। लौट कर चूल्हा सुलगाना है। दाल-भात बनेगा। चिटकाने से लौट कर लोग पत्तल में दाल-भात खाकर पत्तल फाड़ेंगे। समझदार और व्यवहारिक लोग तेरही के दूसरे दिन बरखी (बरसी) कर देते हैं। अग्नि देने वाला अब वर्ष भर नेम-धेम नहीं चला पाता। सोहाग, अरिमर्दन को सहमत करेगी काकी की सेवा हमने की, पैसा तुम लगा दो। तेरही, बरखी एक साथ हो जाये।
लेकिन यह दूसरी खबर ……….
ऑंगन में ऐसा इत्मीनान कि लगता न था यहाँ ठीक अभी मौत हुई है। तालाब से लौट कर सोहाग खाने का इंतजाम कर रही थी। चैगान में कुछ औरतें सभा कर रही थीं। साइकिल से पूरे बहेरा में निठल्ले बागने वाले दो-चार किशोर साइकिल सरसराते हुये चिटकाने से लौटे। एक स्त्री ने पूँछा –
‘‘का रे, लकड़ी-ओकड़ी के परबंध होइ गा ?’’
किशोर उन्मादी लग रहे थे ……..
‘‘काकी जिंदा हैं। सब लोग वापस आ रहे हैं।’’
किशोरों को लग रहा था घटना महत्वपूर्ण है। सोहाग को बताने के लिये एक किशोर रफ्तार से ऑंगन में आ गया। सोहाग सुलग रहे चूल्हे के पास बैठी थी। किशोर चिल्लाया –
‘‘काकी जिंदा हैं। सब लोग वापस आ रहे हैं।’’
भर्रेशाही पर सोहाग ने किशोर को दुत्कार दिया –
‘‘दुर। काहू के मरने पर बिंग (व्यंग्य) नहीं करते।’’
किशोर की उत्तेजना में गिरावट न आई –
‘‘कुछ लोग काकी को भूत समझ लिये। आ रही हैं।’’
इतना कह कर किशोर इस तरह बाहर भागा जैसे काकी का स्वागत वही करेगा।
प्रसंग फर्जी लग रहा था लेकिन सबने देखा अर्थी में गई काकी, बाइक में क्रॉस लेग में बैठी चली आ रही हैं। बाइक में पहली बार बैठी हैं, कमजोर हैं, घबराई हैं, उचट कर गिर सकती हैं जैसे संदर्भों पर विचार करता हुआ काकी के पीछे बैठा रिपुदमन उन्हें प्रयत्नपूर्वक जकड़े हुये है। क्रॉस लेग में बैठने की लज्जा, चिटकाने से जीवित लौटने की खता के कारण काकी के चेहरे में जो सकपकाहट, यातना और थकान है, उनका विन्यास भूत जैसा लग रहा है। टिकटी में चित्त पड़ी काकी को जब चेत आया, समझ न पाईं कहाँ ले जाई जा रही हैं। अरे बप्पा, अर्थी में पड़ी हैं। अर्थी को उठाने वाले कितना धचक कर चल रहे हैं। धक्के लग रहे हैं। क्या वे मर चुकी हैं ? मर कर जीवित हो गई हैं ? इच्छा हुई गोहार मारकर अपने जीवित होने की सूचना दें पर सूख रहे कंठ से स्वर न उपजा। सोहाग कहेगी लो जमराज ने अब भी नहीं पूँछा। पाप का घड़ा अभी नहीं भरा। काकी आरोपी की तरह चित्त पड़ी रहीं।
सोहाग ने बहुत अचम्भे झेले पर यह अचम्भा जबर है। काकी को जीवित देख लगा उसे किसी ने पूरी तरह ठग लिया है। किसी अगोचर ने सिर पर आसमान पटक दिया है। अरे बप्पा ……काकी की वज्र की छाती है। बड़ा विषाद मनाती थीं जिंदा नहीं रहना चाहतीं पै भगवान नहीं पूँछ रहा है। लो, मरने पर भी नहीं पूँछा। नाचीज, बाइक में पैर फॅंसाये बहुर आईं। पता नहीं प्राण काहे में अटके हैं। उस पिटारे में जिसमें सत्तू, शक्कर रखती थीं। महाबाम्हन को पिटारा दान कर दी होतीं तो ऊपर मिल जाता। किस्मत का खोट। सबकी सासें भर गईं। ये मर कर लौट आईं। काकी के न रहने की सूचना उतावली में कहाँ-कहाँ तो भेज दी। इन्हें जीवित देख लोग क्या कहेंगे ? काकी के सिर में काग बैठ गया था क्या, जो तुम लोगों ने उनके मरने का झूठा संदेश दिया ? नाक गई समझो। सोचती थी काकी को बरा पसंद है। शुद्ध में खूब बरा बनायेगी पर यह तो चिटकाने से बहुर आईं। इनके कारण सास की तरह दमदार होकर कभी नहीं रह पाती। वैसे काकी को निर्वासित किये रहती है पर जब कभी उसकी तीनों मोबाइलधारी बहुयें बहेरा आती हैं, उनके सामने काकी को दिलासा देना पड़ता है। न देगी तो मौका ढूँढ़ कर बहुयें कह देंगी अम्मा तुमने कौन सा काकी के चरण दाबे थे जो हम तुम्हारे दाबेंगे।
अफसोस में डूबी सोहाग ने देखा रिपुदमन और एक युवक काकी को अगल-बगल से थाम कर ऑंगन में ला रहे हैं। रिपुदमन ने यथार्थ कहा –
‘‘……… चिटकाने पहुँच कर देखते हैं काकी टकर-टकर निहार रही हैं। हमको लगा केतना जल्दी भूत बन गईं। सुनते हैं बबुनी मं बहुत भूत हैं।’’
युवक बोला ‘‘काकी का मॅुंह सूख रहा है। पानी पिबाओ। खिचड़ी खबाओ। कुछ खा लें तो ताकत मिले। फिर जो बतायंेगी तुम लोगन की कॅंपकॅंपी छूट जायेगी।’’
रिपुदमन ने भेद कहा ‘‘जमराज जी से भेंट कर आई हैं।’’
जबरदस्त खबर।
काकी जमराज के दरबार से वापस लौटी हैं।
देखते-देखते बहेरा खबरों का गढ़ बन गया। काकी परलोक के रहस्य देख आई हैं। सबको परलोक की सम्यक जानकारी चाहिये। काकी के मरने पर ऑंगन नहीं भरा था। जो कि अब भर गया। पर काकी पहले पानी पियेंगी, खिचड़ी खायेंगी फिर यथार्थ बतायेंगी। खिचड़ी खाकर कुछ देर नयन मूँद कर समाधिस्थ सी बैठी रहीं। फिर नयन उघारे। वेधती नजर से सोहाग को निहारा। मुस्कुराई। सोहाग की कनपटी में चुनचनाहट होने लगी। जान पड़ता है जमराज जी से ही नहीं, देवर से भी भेंट कर आई हैं। देवर को देख कर ही इस तरह मुस्कुराती थीं। वे नहीं रहे, काकी की मुस्कान नहीं रही।
किसी ने आकर कहा –
‘‘लोग, काकी को देखने आये हैं।’’
काकी दो-तीन लोगों के घेरे में इस तरह ऑंगन में आईं मानो परिमार्जित हो गई हैं। देवीस्वरूपा समझ कर लोग उनके चरण छूने को आतुर हैं। काकी को आदर का अभ्यास नहीं। नयन भर आये। छिपाने के लिये उन्होंने नयन मॅूद लिये। कुछ देर बैठी रहीं। मानो परलोक में विचर रही हैं। फिर उसी चतुराई से चेहरे के भाव और स्वर में उतार-चढ़ाव लाकर कुशल किस्सागो की तरह प्रसंग कहने लगीं जिस तरह कभी इसी ऑंगन में बच्चों को कहानी सुनाती थीं।
काकी कुशल किस्सागो। साँझ ढलते ही परिवार के बच्चे ही नहीं टोला के बच्चे जुहा जाते। राजा, रानी, जानवर, भूत, डाकिनी, पिशाचिनी आदि की कहानियाँ इस तरह सुनाती कि बच्चे कभी प्रभावित, कभी उत्तेजित होते।
‘‘……….पहाड़ के उस पार बबुनी है। वहाँ हमारे बापा (पिता) रहते थे। खूब जाड़ा पड़ता था। बापा फसल ताकने के लिये रात को खेत में सोते। एक चुड़ैल उनके पैर दबाती थी। एक दिन बापा ने कोयला जला कर उस जगह को खूब गरम कर दिया जहाँ चुड़ैल बैठती थीं। उसके आने से पहले कोयला अलग कर दिया। चुड़ैल गरम जगह में बैठी और चिल्लाने लगी जन गयन, जन गयन (जल गई, जल गई)। चुड़ैल नाक से बोलती है इसलिये ल को न कहती है ………
‘‘काकी फिर ?’’
‘‘फेर का। चुड़ैल अइसन भागी कि कबहॅंू नहीं आई।’’
‘‘काकी, बबुनी में बहुत चुड़ैल हैं ?’’
‘‘चुड़ैल का किस्सा त एकय है। भूत बहुत हैं।’’
‘‘तुमने भूत को देखा है ?’’
‘‘हाँ। हम आमातरी (अमराई) चले जा रहे थे। एक भूत अपनी धुँधली सफेद झलक दिखा कर हमसे रास्ता माँगा। हम एक तरफ सरक गये रहे। भूत आगे चला गया।’’
इसी दक्षता से काकी यमराज के दरबार की सूचना देने लगीं –
‘‘…….. हमार देह बहुत छोट होय गय रही। पुतरिया (पुतली) जइसी। जमराज के दूत के साथ हम चिरैया जइसे उड़त रहे ….. अरे सरग (स्वर्ग) के सीढ़ी नहीं होय। उड़ कर ऊपर जाते हैं। हम उड़त रहे। चारौ तरफी (तरफ) सांति रही। उजास रहा। ठंड बयार चलत रही। उज्जर (चमकीले) बादल रहे। जमराज के दरबार बहुत दूर नहीं है। हम बहुतय जल्दी पहुँच गये। बहुत बड़े दुआर (द्वार) से भीतर गये। जमराज खूब मोट-डाँट (मोटे-ताजे) रहे। सुपेद दाढ़ी-मोंछ। मूड़ मा टोपा। टोपा मा दुइ सींग। बहुत बड़े आसन मा बइठ रहे। भइॅंसा (भैंसा) ठाढ़ रहा। का नाम हय उनका ……… हौ, चित्रगुप्त। चित्रगुप्त के सामने बहुत बड़ी पोथी (पुस्तक) धरी रही। एतनी बड़ी पोथी हम कबहूँ नहीं देखे। चित्रगुप्त पोथी देख के कहिन ‘दूत तुम गलत आतिमा को ले आये हो।’ दूत घबड़ान (घबरा गया)। कहिस ‘बहेरा के जउन (जिस) ऑंगन मा जाने के आदेस मिला वहॅंय से लाये हैं।’ जमराज गुस्सा गये ‘ऑंगन मा भेजे रहे पै गलत आतिमा को लइ आये हो।’ दूत हाथ जोड़ के ठाढ़ रहा ‘गलत आतिमा का लइ आयें, अइसी गलती हमसे कबहॅू न भय। अब कइसे होइ गय ?’ जमराज कहिन ‘तुम इस माता को पकड़ लाये हो। हम वह आतिमा को लेने भेजे थे जिसको हाट (हार्ट) केर बीमारी है।’’
जन मानस में अंधविश्वास की मजबूत पैंठ है। टोना, टोटका, भूत, पिशाच से शिक्षित भी डरते हैं। अल्पशिक्षित सोहाग का तो रक्त जम गया। हाट की बीमारी माने वह स्वयं ? उसकी धुकधकी (हृदय गति)गलत (अनियमित) है। चिकित्सक कहते हैं बाहर ले जाकर बड़े अस्पताल में इलाज कराओ। अधरमी रिपुदमन नहीं ले जाता। अब तो बी0पी0 भी बढ़ा रहता है। साठ पूरा कर रही है। यह उम्र मरने के लिये अधिक नहीं तो कम भी नहीं है।
काकी ने कथन रोक कर सोहाग को निहारा – प्राचार्य बनी फिरती थी। एकदम पिटी हुई लग रही है। सोहग ने काकी को निहारा – मौत को मात दे आईं। चेहरे में बड़ा फक्र दिख रहा है।
किसी उतावले ने कहा ‘‘फेर का हुआ काकी ?’’
‘‘हम जमराज से कहे, आ गये हैं त हमको हिंया रहने दो। केतनी सांति है। नारद से मुलाकात होगी। बंसी बजइया के चरनन (चरणों) का चरनामृत लेंगे।’ जमराज गुस्सा गये ‘अबे तुम्हारा समय पूरा नहीं हुआ। तुम हिंया नहीं रह सकती। कउनों दिन दूत को हाटवाली को लेने भजेंगे।’’
‘‘सरग देखी काकी ?’’
‘‘कइसे देखते ? हमको जमराज अपने दरबार से लौटा दिये। दूत के साथ हम फेर उड़ने लगे। दूत दूर से सरग अउर नरक देखाया था। सरग में बहुत बड़ा हवन कुंड रहा। तपसी हवन करत रहे। सुद्ध घी के खुसबू आबत रही। नरक के दसा (दशा) बहुतय खराब। कड़ाह मा तेल बलकत (उबल रहा था) रहा।
जमराज के दूत पापी मनइयों (मनुष्यों) को गुलगुला की नाईं तेल मा सेरा (तल) रहे थे। वैतरणी मा कइअक (अनेक) गइया देखात रहीं। पापी उनकर पूँछ पकड़े रहें।’’
‘‘अउर का देख आई काकी ?’’
‘‘बहुत नहीं देखे। बताये न जमराज के दरबार बहुत दूर नहीं है। हम बहुत जल्दी धरती मा आ गये। ‘देखो तुम्हार देह अर्थी मा धरी हय। तुमको चिटकाने लइ जा रहे हैं। कह कर दूत हमको फेंक दिया। हम झटका खाकर देह के भीतर चले गये। जिंदा होइ गय।’’
सन्नाटा।
काकी सब कुछ सटीक बता रही हैं। शुक्ल परिवार के सदस्य चकित से अधिक भयभीत थे। यम के दूत ने घर देख लिया है। सोहाग नहीं तो कोई न कोई तो जायेगा। न भी जाये पर काकी ने बड़ा नुकसान किया। मौत वाले घर में रौनक रहे, न रहे, गहमा-गहमी रहती है। लोग जुहाते, इधर-उधर का किस्सा-समाचार सुनाते। शुद्ध और तेरही में तर माल खाने को मिलता। दस-पन्द्रह दिन अच्छे बती जाते। सोहग की दारुण दशा। काकी कितनी बड़ी करतब बाज निकली। जब देह में रौनक थी, काज-बियाह में आगे-आगे होकर जिंदबा (जिस दिन घर से बारात जाती है, घर की रखवाली करते हुये स्त्रियाँ रात भर जाग कर, पुरुष वेश धारण कर मनोरंजक स्वांग करती हैं।) खेलती थीं पर नहीं मालूम था सिद्ध कलाकार हैं। कितनी बार इच्छा हुई डोक्कर और डोक्कर की खाँसी से छुटकारा पाने के लिये डोक्कर के खाने में माहुर (एक किस्म का विष) मिला दे। ठीक हुआ जो न मिलाया। पुलिस भले न जान पाती, जमराज जान लेते। पुलिस हथकड़ी न पहनाती पै जमराज कड़ाह में गुलगुले की तरह ………..। प्रभु क्षमा। साठ की उमिर मरने जैसी नहीं है। दूसरा ऑंगन देखो। डोक्कर जब तक जियेंगी, बरा खिलाऊॅंगी। दिलासा दूँगी। ……. सोहाग उचित प्रण कर रही थी पर उसकी विपरीत बुद्धि बाज नहीं आ रही थी – यह तो सास न हुई सांसत हो गईं। रिपुदमन सदा के आलसी। सुस्त । कोई काम उचित वक्त पर नहीं करते। हरबरी (शीघ्रता) कर काकी को जो चिता में बार (जला) दिये होते, देह को न पाकर आत्मा हवा में पगलान उड़ती रहती। भूत बनती या जमराज के दरबार में लौटती। जमराज कहते बार-बार आ रही है, तलो कड़ाह में। अरे बप्पा ……।
काकी चर्चित हो गईं।
कुछ लोग उन्हें पूज्यनीय मान रहे हैं, कुछ अजूबा, कुछ अलौकिक, कुछ भयावह। एक से दो, दो से तीन, तीन से अनेक ……..। बहेरा और समीपवर्ती गाँवों में खबर प्रसारित होने लगी। अखबारों के स्थानीय संस्करण में खबर छपी। जनपद का स्थानीय टी0वी0 चैनल, प्रादेशिक चैनल, आखिर एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल तक खबर की जानकारी पहॅुंच गई – काकी, जमराज से भेंट – मुलाकात कर लौटी हैं। होश-हवास में पूरा किस्सा बता रही हैं। काकी के दर्शनार्थियों की एक संख्या खड़ी हो गई। महिला सरपंच और महिला जिला पंचायत उपाध्यक्ष मिलने आईं। राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने प्रसंग को आइटम न्यूज की तरह प्रस्तुत कर बहेरा को चमत्कृत कर दिया। बहेरा को ऐसा प्रताप कभी न मिला जो काकी ने दिलाया। चैनल वालों ने बहेरा में कैमरे के फ्लैश खूब चमकाये। बहेरा की भौगोलिक स्थिति, पहुँच मार्ग, काकी का घर, काकी का साक्षात्कार, सोहाग और कुछ ग्रामीणों की प्रतिक्रिया ली। टी0वी0 में दिखने के लिये बहेरा वासी उचक-उचक कर कैमरे की जद में आने का प्रयास कर रहे थे। सीक्वेन्स ऑफ आइटम तैयार किया गिया। स्टूडियो में विशेषज्ञ के तौर पर एक चिकित्सक, एक समाजशास्त्री, एक धार्मिक गुरू को बुलाया गया कि अच्छी डिबेट तैयार हो। चिकित्सक का मंतव्य –
‘‘मैं किसी की सामाजिक और धार्मिक भावना को चोट नहीं पहुँचाना चाहता लेकिन वैज्ञानिक सोच और तरीके का समर्थन करता हूँ। पूर्व जन्म,, पुनर्जन्म, मृत्यु के बाद होने वाले अनुभव, भूत, प्रेत, टोने, टोटके को मेडिकल साइंस स्वीकार नहीं करता है।’’
एंकर ने दखल दिया ‘‘काकी ने जो देखा-सुना उसे आप क्या कहेंगे ?’’
‘‘लोग धार्मिक किताबों, गरुण पुराण, कथा वाचकों से नर्क, स्वर्ग, यमराज की जो कथा सुनते हैं, मन-मस्तिष्क पर उसका स्थायी प्रभाव बन जाता है। काकी वही सब बता रही हैं जो बचपन से सुनती आई हैं। उन्होंने ऐसा कोई प्रमाण नहीं दिया है जो यमराज से मुलाकात की पुष्टि करता हो। हो सकता है काकी मरी न हों, गहन मूर्छा ………
धार्मिक गुरू ने चिकित्सक की बात पूरी नहीं होने दी –
‘‘डाँक्टर साहब, आपका चिकित्सा विज्ञान यदि पूर्व जन्म, पुनर्जन्म को नहीं मानता तो इसके ठोस कारण बताइये कि क्यों नहीं मानता। प्रमाणित कीजिये स्वर्ग, नर्क नहीं होता। यदि हम इनके होने को प्रमाणित नही कर सकते, तो न होने को भी प्रमाणित नहीं कर पाये हैं। ईश्वर, राक्षस, यमराज, स्वर्ग, नर्क का अस्तित्व नहीं है, इसे प्रमाणित किये बिना आप तर्क से पुरानी मान्यताओं को गलत साबित नहीं कर सकते। और यह कोई पहला प्रकरण नहीं है। काकी के पहले कई लोग मर कर वापस लौटे हैं। ऊपर का हाल कहा है। उनमें से एक तो आज भी मेरे गॉंव में जीवित है। मैं चिकित्सा विज्ञान …………
धार्मिक गुरू को उत्तेजित होते देख एंकर ने कुशलता पूर्वक दखल देते हुये समाजशास्त्री का मत माँगा। समाजशास्त्री संतुलित मुद्रा में बोले ‘‘कुछ लौकिक-अलौकिक रहस्य होते हैं जिन्हें बहस या तर्क से उद्घाटित नहीं किया जा सकता। हम कितना ही तर्क करें, कुछ रहस्य ऐसे होते हैं जिन्हें प्रमाणित नहीं कर सकेंगे। न ही वहाँ तक हमारा हस्तक्षेप पहुँच सकता है। पक्ष और विपक्ष पर जितना भी कहा जाये, किसी एक संगत नतीजे पर बात नहीं पहुँच सकती। हमारे देश में धार्मिक भावना का बहुत महत्व है। इसलिये जिसकी जैसी आस्था है उसे अपनी आस्था को बनाये रखने का पूरा अधिकार है।’’
धार्मिक गुरू भड़क गये ‘‘बात सिर्फ आस्था की नहीं है। यह सर्वमान्य सच है कि ईश्वर है। वह चमत्कार कर अपने होने का प्रमाण भी देता रहता है। जैसे कि काकी के साथ घटी घटना को मैं ईश्वरीय चमत्कार के तौर पर देखता हूँ। रही चिकित्सा विज्ञान की बात तो वह अभी ब्रम्हाण्ड के कई रहस्यों तक नहीं पहुँच सका है। ईश्वर तक पहुँच ही नहीं सकता।’’
एंकर ने चिकित्सक की ओर देखा ‘‘डाँक्टर साहब ?’’
चिकित्सक के भाव में असहमति दिखी ‘‘सम्भव है काकी, मरी न हों, गहन मूर्छा में चली गई हों। यदि ऐसा हुआ है और वे बिना चिकित्सा के मूर्छा से बाहर आ गई हैं, मैं इसे जरूर चमत्कार कहूँगा। रही बात ईश्वर तक पहुँचने और ब्रम्हाण्ड के रहस्यों को जानने की, तो हाँ कुछ प्रश्नों के उत्तर चिकित्सा विज्ञान के पास नहीं हैं। कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनका एनसर नहीं मिलता।’’
पूर्वविदित था बहस किसी ठोस बिंदु तक नहीं पहुँचेगी। चैनल को आइटम न्यूज बनाने का जो अवसर मिला था उसे उसने हाथ से न जाने देकर खूब वाह-वाही लूटी। अंत में एंकर ने सबका आभार मानते हुये अपना काम पूरा किया ‘‘मुद्दा विचारणीय हैं, सवाल बहुत हैं, तर्क बहुत हैं पर हमारे पास वक्त की कमी है। ……. आप सब हामरे स्टूडियो में आये ……… बहुत-बहुत धन्यवाद ………….।’
स्वर्ग – नर्क की अवधारणा पुष्ट न हुई तथापि काकी की पारिवारिक स्थिति में कुछ सुधार देखा गया। जमराज का आशीर्वाद लेकर लौटी काकी की उपेक्षा करने में सोहाग को डर लगने लगा। अरिमर्दन की पत्नी प्रकाश रानी ने समझाया काकी को सताओगी तो गुलगुले की तरह तली जाओगी या नहीं तली जाओगी पर जेल जा सकती हो। शिष्टाचार सोहाग की वृत्ति में नहीं था फिर भी उसने दो-तीन बार बरा बना कर काकी को खिलाये। घटना के ठीक एक माह बाद जिस रात बिना हड़कम्प-हड़बड़ी के काकी ने प्राण त्यागे उस दिन काकी ने बरे खाये थे। काकी की मृत्यु पर सोहाग ने खुद से कहा – लगता है प्राण बरा में अटके थे।
………………….
सुषमा मुनीन्द्र
द्वारा श्री एम. के. मिश्र
एडवोकेट
फण्डा यह है कि —
तीस वर्ष का समय बहुत होता है किसी युवा के स्नायुओं को ढीला और नजर को कमजोर कर बूढ़ा बना देने के लिये। इसीलिये अब खिलाड़ी की धसकती कमर में वह पुष्टता नहीं दिखाई देती जो मूर्तियों की साज-सज्जा करते हुये घण्टों खड़े रहने के लिये लाजिमी होती है। हॉं, ऊॅंगलियों में बहुत तराश बाकी है। लेकिन लोगों, खास कर यह जो नई पीढ़ी भरपूर युवा होकर भरपूर नयेपन के साथ ठीक सामने है, की आस्था को कुछ हो गया है। इन्हें मूर्तियों में —- क्या तो कह गये वे चार युवक —- इन्नोवेशन, वेरियेशन और डिफरेन्ट जैसा कुछ चाहिये। अर्थ बूझते खिलाड़ी को लगा समय-समय पर संग्राम यह जो कहता रहता है ‘बाबा तुम न मानो पर समय बहुत बदल गया है —-। तो समय सचमुच बदल गया है। अपने काम की लिप्तता में खिलाड़ी बदलाव की टोह न ले पाया इसलिये उसे अनुमान नहीं है बदलाव धीरे-धीरे, सहज गति से अपनी वास्तविकता में हुआ है या आकस्मिक रूप से।
दंग है खिलाड़ी।
बाह्य जगत में हुये परिवर्तन ने परिदृश्य इतना बदल दिया है कि लगता नहीं यह वही नगरी है जहॉं वह तीस साल पहले बसने आया था। नयापन बहुत अधिक नया होकर चैगिर्द इस कार शुमार है कि पुरानापन उतना अधिक पुराना जान पड़ता है जितना पुराना है नहीं। और अन्तर्जगत में हुये बदलाव की क्या मिसाल दे ? नयापन, विविधता, डिफरेन्ट जैसे शब्दों को फण्डे का नाम देती युवा पीढ़ी के भीतर से होकर गुजरे परिवर्तन ने भावनात्मक रूप से ऐसा दिवालिया कर दिया है कि यह पढ़ी आस्था को मस्ती और मजाक समझती है।
खिलाड़ी खुद को साफ तौर पर छला हुआ पाता है।
उसके बाबा (पिता) से होकर उस तक पहॅंुचा परिवर्तन इतना बलवान नहीं था कि बाबा की धारणा को अपनी धारणा बनाने में वह तकलीफ या विद्रोह से गुजरता। बाबा की धारणा को उसने प्रतिरोध किये बिना पूरी रुचि से अपना लिया था लेकिन उससे होकर संग्राम तक पहॅंुचा परिवर्तन स्तब्धकारी है। संग्राम रुचि नहीं प्रतिरोध दिखता है –
‘‘बाबा, मैं तुम्हारी तरह मूर्तियॉं बनाऊॅंगा यदि तुम ऐसा सोचते हो तो यह अन्याय जैसी बात है। मुझे अच्छा जॉब चाहिये। अधिक से अधिक डिग्रियॉं चाहिये। तुम्हारे धंधे में बरक्कत नहीं है।’’
खिलाड़ी की बरौनियाँ झपक जाती हैं। उसने बाबा के व्यवसाय को हमारा धंधा कहा। संग्राम तुम्हारा धंधा कह कर खुद को अलग कर लेता है। तकनीकि शिक्षा ग्रहण करने वाली इस पीढ़ी को सचमुच किसी को सान्त्वना पहुँचाने जैसा ख्याल नहीं आता।
‘‘शौंग्राम, बरक्कत को लेकर तुम्हारे दादा कभी परेशान नहीं रहे। मैं भी। बरक्कत से अधिक उन्हें अपने हुनर का गौरव रहा। मुझे भी।’’
‘‘अरे बाबा, बरक्कत न हो तो हुनर का असर खत्म हो जाता है।’’
‘‘शौंग्राम, तुम्हारे दादा कहते थे हाथ पर भरोसा करने वाला मूर्तिकार बड़ा व्यवसायी कभी नहीं बन सकता। मेरा भी यही मानना है। इसीलिये मैं अपने काम को रोजगार कम, साधना ओैर उपासना बल्कि पुण्य मानता हूँ। बरक्कत न सही बस इतना काम जरूर मिलता रहे कि हाथ खाली न रहे।’’
‘‘काम कोई भी बुरा नहीं होता यदि प्राफिट दे। तुम्हीं कहते हो मूर्तियॉं बनाना अब घाटे का सौदा हो गया है। कई बार तो लागत मूल्य पर मूर्तियॉं बेंचनी पड़ती हैं। बाबा, अब तुम्हारी कला के पारखी नहीं रहे।’’
पारखी सचमुच नहीं रहे।
लेकिन मूर्तियों के चेहरों में सुख-दुःख के भाव भरते हुये खिलाड़ी इस कला से इतना जुड़ गया है कि उसे लगता है मूर्तियॉं नहीं बनायेगा तो पर्व पूरा नहीं होगा। न गणेश उत्सव न शारदेय नौरात्र। अब तो लगता है मृतिका (प्रतिमा बनाने के लिये तैयार की गई मिट्टी) ही उसकी पहचान है। मृतिका से अलग होकर व्यक्तित्व खो देगा। छुटपन से देखता रहा है बाबा ने भिन्न ऊॅंचाई के आधारभूत ढाँचे तैयार कर रखे हैं। क्या-क्या गढ़ कर सूखने के लिये रखा है। चूँकि सम्पूर्ण उत्सव-आयोजन दुर्गा के निमित्त होता है, इसलिये दुर्गा की मूर्तियॉं खास ध्यान रख कर बनाते थे। काम्बीनेशन के लिये बनती हैं लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश,कार्तिकेय, असुरों की मूर्तियॉं। महिषासुर मर्दिनी का माला होता है भूलुण्ठित असुर की छाती पर। मूर्तियों के लिये सवारियॉं बनाई जाती हैं। शेर, उल्लू, हंस, चूहा मोर। असुर की सवारी भैंसा। तब उसे देवी-देवताओं की मूर्तियों से अधिक उनकी सवारियॉं पसंद थीं। चूहा बहुत लुभावना और मासूम लगता।
‘‘बाबा, मैं इस चूहे को खेलने के लिये ले लूँगा।’’
बाबा सावधान करते ‘‘न छूना। टूट जायेगा। तुम्हारे लिये छोटा चूहा बना दूँगा।’’
‘‘बाबा, मुझे चूहा बनाना सिखाओ’’
‘‘सिखाऊॅंगा। यह हमारा पारिवारिक काम है।’’
बाबा की कार्यशाला खिलाड़ी का क्रीड़ास्थल।
मिट्टी, मिट्टी में मिश्रित की जाने वाली सन की रस्सी (शेर के बाल), शंख, सिक्के, माचिस की तीलियाँ, मछली की हड्डियाँ, मसूर दाल, रंग, पोषाक, जेवरात तमाम सामग्री अचरज जगाती थी। खिलाड़ी कार्यशाला में काफी वक्त बिताता। माँ बाँह पकड़ कर खींचने लगती –
‘‘खिलाड़ी बस्ता उठाओ। पढ़ते नहीं हो।’’
बाबा हॅंसते ‘‘पढ़ेगा। थोड़ा काम सीखने दो। बचपन में लगन लग जाती है, फिर नहीं लगती।’’
माँ अरुचि का प्रदर्शन करती ‘‘यही पढ़ाई का है। अभी लगन नहीं लगेगी तो नहीं लगेगी।’’
बाबा हॅंसते ‘‘लगन कहॉं लगेगी, खिलाड़ी पर छोड़ दो।’’
बाबा पढ़ाई से अधिक मूर्तियॉं बनाने के लिये प्रेरित करते थे इसलिये खिलाड़ी के नायक थे। तपाक से कहता –
‘‘बाबा मैं तुम्हारे साथ काम सीखूँगा।’’
बाबा हॅंस देते। वे कम बोलते थे। हॅंस कर अधिक अभिव्क्ति देते थे।
इसी तरह जब संग्राम छोटा और उसकी बहन सुब्रता बहुत छोटी थी तब दोनों को खिलाड़ी की कार्यशाला जादुई लगती थी। संग्राम पूँछता ‘‘बाबा, यह किरोसिन क्यों रखे हो ?’’
‘‘मूर्ति बनाते समय मिट्टी को सुखाने के लिये इसकी जरूरत पड़ती है।’’
‘‘बाबा, मेरे लिये छोटा भैंसा बना दो। इस बड़े भैंसे की तरह।’’
खिलाड़ी ठीक अपने बाबा की तरह हॅंसता ‘‘बना दूँगा। और शुब्रोता तुम्हारे लिये ?’’
सुब्रता को देवी पसंद थी ‘‘बाबा, मेरे लिये छोटी सी दुर्गा बना दो।’’
खिलाड़ी की पत्नी बानी दोनों को घसीट ले जाती ‘‘बस्ता पकड़ो। खेल बहुत हुआ।’’
खिलाड़ी प्रेरित करता ‘‘खेलने दो। खेल-खेल में कुछ सीख लेंगे।’’
बानी जिद पकड़ लेती ‘‘नहीं। शौंग्राम पढ़ाई में कितना तेज है। पढ़ेगा।’’
‘‘पढ़ेगा। अपना पारिवारिक काम भी सीखेगा। अपने काम के हम मालिक। मैं अपने बाबा की कितनी मदद करता था।’’
‘‘क्योंकि तुमसे मैट्रिक से आगे पढ़ा न गया। कितनी बार फेल हुये। मूर्तियॉं न बनाते तो कौन सो ओहदा सम्भालते ?’’
सुब्रता हैरान होती ‘‘बाबा, तुम फेल हो जाते थे ? मैं इतने अच्छे नम्बर लाती हॅूं।’’
अपने अतीत पर खिलाड़ी हॅंस देता ‘‘तीन बार फेल हुआ लेकिन मैट्रिक पूरा किया।’’
मैट्रिक पूरा करने तक खिलाड़ी ने मिट्टी तैयार करना, एकसार कर ऐसा बनाना कि चाहे जैसे मोड़ लो, कटाव दे दो, सीख लिया। बाबा कहते ‘‘खिलाड़ी, माटी ही एक चीज है जो रौंदे जाने पर और सुंदर हो जाती है। जितना रौंदो उतनी मुलायम। उतनी लचीली। देखते-देखते ऐसी आकृति ले लेती है कि फिर उससे सुंदर कुछ नहीं होता।’’
‘‘सचमुच बाबा। जब हम रंग भर कर मूर्तियों को तैयार कर लेते हैं कैसी जीवित लगने लगती हैं।’’
खिलाड़ी बहुत एकाग्र होकर मूर्ति को आकार देता है। जैसे मूर्ति को अपने रक्त-मज्जा से जन्म दे रहा हो। उसकी तेज नजर जाँच लेती है कहॉं कमी रह गई और सिद्ध ऊॅंगलियाँ तत्काल दुरुस्त कर देती हैं। मूर्ति बनाते हुये बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। मोटाई, लम्बाई का अनुपात ऐसा हो कि मूर्ति छरहरी, प्रलम्ब, संतुलित काया ग्रहण करे। गणेश के अलावा मूर्तियों के चेहरों के भाव सम्भालने में कठिनाई होती है। गणेशजी के मुख की भंगिमा नहीं बदलती। उनका एक ही मन मोहक रूप होता है। जबकि अन्य मूर्तियों के चेहरे में क्रोध, स्मिति, ममता, दया जैसे भाव भरने होते हैं। भाव से मेल खाती आँखें, ओंठ, कपोल की बनावट होती है। आँखों में कृपा हो, अधरों में दिव्य मुस्कान (मूर्तियॉं हॅंसती नहीं, मुस्कुराती हैं)। और जब मूर्ति अंतिम रूप से तैयार हो जाती है वह मुग्ध हो जाता है। उसकी तराश उत्कृष्ट है। बाबा की तरह।
फिर एक समय आया जब बाबा ने भाँप पर कहा ‘‘खिलाड़ी अब हमारे धंधे में फायदा नहीं होता।’’
‘‘फिर बाबा ?’’
‘‘यहॉं कलकत्ते (अब कोलकाता) में बहुत मूर्तिकार हैं। बहुत बार होता है हमारी मूर्तियॉं नहीं बिकती। बाहरी प्रान्तों में मूर्तियॉं सप्लाई न हों तो हम बैठ जायें।’’
‘‘फिर बाबा ?’’
बाबा ने थोड़ी खोज-बीन कर रखी थी ‘‘दूसरे प्रान्तों में मेहनताना दूना है। ठेका पहले ही मिल जाता है। शायद वहॉं अच्छे मूर्तिकार नहीं होंगे। मैं बूढ़ा हुआ। अपना देस-गाँव छोड़कर कहॉं जाऊॅं। कुछ लोग मध्यप्रदेश जा रहे हैं। तुम जाओ। काम न जमेगा तो लौट आना।’’
बाबा की बात ब्रम्ह वाक्य।
खिलाड़ी जत्थे के साथ रेल गाड़ी में सवार हो मध्यप्रदेश के जिस छोटे नगर में उतरा वह विन्ध्य प्रदेश का औद्योगिक क्षेत्र है। तब दो सीमेन्ट फैक्टरी थीं आज छः हैं और नगर पालिका से नगर निगम बना यह शहर सीमेन्ट हब के लिये चिन्हित किया जाने लगा है। जत्थे के लोग परिवार लेकर नहीं आये थे। वह भी बानी और दो साल के संग्राम को बाबा के सुपुर्द छोड़ आया था। सुब्रता यहॉं पैदा हुई। जत्था सप्ताह भर रेल्वे स्टेशन में पड़ा
रहा। सभी लोग पैदल चलते हुये दिन भर शहर घूमते और जानकारी एकत्र करते। खोज-बीन कर मुख्तियारगंज वाले काली बाड़ी मंदिर पहुँचे। नौकरी के लिये इस नगर में आ बसे बंगालियों से भेंट-मुलाकात की। पहल यहॉं दुर्गा पूजा को उत्सव जैसा व्यापक रूप नहीं मिला था। श्रद्धालु प्रमुखतः स्त्रियाँ चैत्र और शारदेय नौ रात्र पर देवी के मंदिरों में जल ढारतीं, पूजा-अर्चना करतीं और कन्याओं को भोजन कराती थीं। सार्वजनिक स्थलों में प्रतिमा स्थापना का चलन कदाचित बंगालियों ने शुरू किया। एक प्रान्त की संस्कृति, कला, सोच इसी तरह दूसरे प्रान्त तक पहुँच कर स्थानीय स्वरूप ले लेती हैं। खिलाड़ी को याद है जब वह यहॉं बसने आया था गणेश उत्सव सार्वजनिक रूप से सम्पन्न नहीं होता था। महाराष्ट्रियन परिवार घरों में गणेश स्थापना करते थे। महाराष्ट्र की धूम देख अब यहॉं भी सार्वंजनिक स्थलों में गणेश स्थापना होती है। खिलाड़ी को पहली नजर में इस अनचीन्हीं जगह ने निराश किया था लेकिन बंगालियों ने उत्साह दिया और उपाय बताया –
‘‘रावणा टोला से लगे विशाल मैदान में कुछ स्थानीय और बाहरी शिल्पकार बसे हैं। मिट्टी के कलात्मक खिलौने, गमले, दीये और छोटी-मोटी मूर्तियॉं बनाते हैं। इनकी तराश अच्छी नहीं है इसलिये आर्डर देकर बाहर से मूर्तियॉं मॅंगवाई जाती हैं। तुम लोग कलकत्ते से आये हो। मेहनत करोगे तो काम जमा लोगे —-।’’
खिलाड़ी ने जत्थे के साथ मैदान में जगह बना ली। तब न जमीन का मोल था न जमीन को लेकर लोग इतने जागरुक बल्कि प्रलोभी हुये थे। लोगों को कल्पना नहीं थी कोलगवाँ और कबाड़ी टोला जैसे शहर से सुदूर निर्जन क्षेत्र, जहॉं लारी-मोटर से पहुँचने के लिये टिकिट लेना पड़ता था, एक दिन शहर इन क्षेत्रों को अपनी गिरफ्त में ले लेगा और ये क्षेत्र पाँश कालोनी की सुनियोजित बुनावट और गठन लेकर सिद्धार्थ नगर और कृष्ण नगर जैसे चमकीले नाम से जाने जायेंगे। खिलाड़ी नगर के विस्तार को देख कर अकबकाया रहता है। किस तरह फैलता-पसरता जाता है शहर। कैसे बढ़ जाती है लोगों की तादाद और कहॉं से इतना पैसा आ जाता है कि चाहे जिस कीमत पर लेकिन लोगों को पाँश कालोनी में मकान चाहिये।
भाषायी समस्या और तमाम भिन्नताओं से ऊब कर जत्थे के कई लोग कोलकाता लौट गये लेकिन खिलाड़ी ने थोड़ी जमा-पूँजी, थोड़ा डेरा-सामान और पारम्परिक हुनर के साथ इस औद्योगिक नगरी को अपनी आबोहवा बना लिया। बानी और संग्राम को लेने गया तब बाबा पूँछने लगे –
‘‘खिलाड़ी, कैसा क्या है ?’’
‘‘बाबा, वहॉं दुर्गा पूजा का जबर्दस्त माहौल बनता है। अच्छा काम मिलेगा लेकिन बोली-भाषा की समस्या है।’’
बाबा का मुख चमकने लगा था ‘‘बोली-भाषा कोई समस्या नहीं होती। हुनर अपनी राह बना लेता है।’’
बाबा ने ठीक कहा था बोली-भाषा समस्या नहीं होती।
संग्राम और सुब्रता ने मध्यप्रदेश का सब कुछ सीख लिया है। बोली-भाषा तो क्या वे टोन से भी बंगाली नहीं लगते।
हुनर की बात पर खिलाड़ी ने बाबा को आश्वस्त किया था ‘‘हॉं, बाबा, मुझे उम्मीद है, अच्छा काम मिलेगा।’’
‘‘जगह कैसी है ?’’
‘‘शान्त है।’’
जगह शान्त है। आतंकी हमले हों, बाबरी मस्जिद ध्वंस, जम्मू-कश्मीर का मामला —— एहतियात के तौर पर रेड एलर्ट होता है लेकिन एक छोर पर आबाद नजीराबाद से लेकर अंतिम छोर वाले कुली नगर तक शान्ति कभी भंग नहीं होती।
खिलाड़ी आज हैरान होता है। कैसे उसने इस जगह को अपना कार्य क्षेत्र बनाया और किस तरह हिंदी और स्थानीय बघेली बोली को समझना-जानना सीखा। दुर्गा पूजा पर बानी कोलकाता जाना चाहती थी। खिलाड़ी ने रोक लिया –
‘‘अबकी बार यहॉं का धूम-धमाल देखो।’’
जयकारे वाले दिन और चहल-पहल वाली नौ रातें। स्वर्ग धरती पर उतरा था। बिजली से जगर-मगर करता शहर, बाजार, बस्तियाँ, सड़कें, चैराहे, प्रतिष्ठान, सदन। विशाल पण्डालों में तेज प्रकाश, भव्य सजावट, धूप, लोबान, अगरबत्ती की सुगंधि, ढोल, मंजीरे की धुन के बीच बिराजी दुर्गा के विविध रूप।
बानी कौतुक के से भाव में थी ‘‘झाँकिया ऐसी बढ़िया सजी हैं कि आँख नहीं ठहरती है।’’
खिलाड़ी ने मूर्ति की ओर संकेत किया ‘‘मूर्ति को भी देखो। पण्डाल की जान हमारी मूर्तियॉं होती हैं।’’
‘‘तुम्हारी मूर्ति ? तुमने गिनती की मूर्तियॉं बनाई, वह भी नहीं बिकीं। छोटी झाँकियों वाले जरूर दो-चार खरीद ले गये।’’
खिलाड़ी ने पहले साल कम मूर्तियॉं बनाई। उनमें कुछ बिना बिके पड़ी रहीं। लोग बाहर से मूर्तियॉं मॅंगाना श्रेयस्कर मानते थे। खिलाड़ी की तराश अच्छी थी या तकदीर। बेउली मोहल्ला में स्थापित उसकी बनाई मूर्ति को दशहरा उत्सव प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला। प्रतिभा के इस प्रमाण पर खिलाड़ी का मुख चमकने लगा था।
‘‘बानी अब हमारी मूर्तियों की माँग बढ़ेगी।’’
खिलाड़ी की कला को निर्णायकों ने सराहा तो लोग भी आकृष्ट हुये। खिलाड़ी ने निर्माण बढ़़ा दिया। स्थानीय शिल्पकार गमले, दीये, खिलौने बनाते थे लेकिन बिक्री इतनी नहीं होती थी कि साल भर व्यस्तता बनी रहे। सीजन में खिलाड़ी उन्हें सहायक के तौर पर अपने साथ लगा लेता। स्वयं आधारभूत ढाँचे तैयार करता। सहायकों से आवश्यकतानुसार काम लेता। लेकिन सहायकों में वह बात नहीं थी जो खिलाड़ी में थी। खिलाड़ी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती। कुछ लोग तैयार माल से मूर्ति पसंद करते। कुछ लोग ढाँचा पसंद कर एडवांस दे जाते। मूर्ति की ऊॅंचाई और भव्यता के आधार पर मूल्य बनता है लेकिन लोग भाव-ताव कर निर्धारित मूल्य को कम करने के लिये अड़ जाते। खिलाड़ी उन्हें काम की बारीकियाँ समझाता –
‘‘बाबू, नोक-पलक तक सॅंवार कर बनानी पड़ती है। रंगों का मेल देखो। काम की तराश देखो।’’
‘‘देखते हैं और इसीलिये तुम्हारे पास आते हैं। कीमत बहुत बताते हो।’’
‘‘कीमत वाजिब है। सीजन तक इतनी मूर्तियॉं अकेले नहीं बना लेता हूँ। कारीगर रखता हूँ। उन्हें मेहनताना देता हूँ।’’
‘‘ठीक कहो, तो फाइनल करें।’’
‘‘पण्डाल, लाइट, झाँकी, देवी जागरण, आर्केस्ट्रा, भण्डारा में आप लोग इतना खर्च कर देते हो और मूर्ति का इतना मोल भाव। सारा ताम-झाम मूर्ति बिराजने के लिये होता है न। हम मूर्तिकारों को मेहनताना न मिले तो धंधा कैसे होगा बाबू ? दूसरा काम जानते नहीं।’’
‘‘चलो, फाइनल बात करो।’’
बहस के बाद सौदा पटता।
सौदेबाजी पर बानी विक्षुब्ध होती –
‘‘इसीलिये कहते हो शौंग्राम मूर्ति बनाना सीखे ? कोई सुख नहीं इस काम में।’’
खिलाड़ी पर जुनून सवार ‘‘जो सुख है तुम न समझोगी।’’
सुन कर संग्राम हीनता से भर जाता ‘‘बाबा, तुम्हारे काम में दम नहीं है। मुझे पढ़ना है। यह मेरा स्कूल का आखिरी साल है। मेरे दोस्त पढ़ाई की कितनी बातें करते हैं। मैं उनसे कहूँ आगे नहीं पढूँगा, मूर्तियॉं बनाऊॅंगा ?’’
खिलाड़ी ने समझ लिया है शिल्पी विरासत का वह अंतिम शिल्पकार है। एक दिन सुब्रता ब्याह कर चली जायेगी और संग्राम जॉब लेकर किसी महानगर में बसेगा। खिलाड़ी शिथिल हो जाता है। लेकिन वक्त शांत बैठने नहीं देता। सीजन शुरू हो रहा है। भादौं और क्वॉंर खास हुल्लड़ वाले माह होते हैं। पहले गणेश उत्सव फिर पितृ पक्ष के ठीक बाद शारदेय नौरात्र। इसके बाद एक लम्बा विश्राम मिलेगा। गणेशजी की छोटी मूर्तियों की माँग अधिक है। इसलिये तादाद में बनाना पड़ता है। महाराष्ट्रियन परिवार घरों में स्थापना के लिये खरीद ले जाते हैं। बड़ी मूर्तियॉं पण्डालों में सजती हैं कुछ लोग गणेश के साथ शंकर और पार्वती की मूर्तियों की मॉंग करते हैं।
खिलाड़ी के लिये यह खुशी का मौका है।
उसकी सबसे विशाल गणेश प्रतिमा अच्छे दाम पर बिक गई। स्कूल से लौटी सुब्रता ने बताया ‘‘बाबा, वह बड़ी मूर्ति बस स्टैण्ड के बगल वाले मैदान में रखी गई है। मैंने स्कूल से आते समय देखा।’’
‘‘मूर्ति कैसी लग रही थी ?’’
‘‘बहुत सुंदर, लेकिन रात में देखने का अलग मजा है।
दादा (संग्राम) पढ़ने मुम्बई चला गया वरना मुझे झॉंकी दिखाने जरूर ले जाता था।’’
‘‘शाम को तैयार रहना। दिखा लाऊॅंगा।’’
साँयंकाल खिलाड़ी, बानी और सुब्रता को उत्सव दिखाने ले गया। खिलाड़ी को पण्डाल में बिराजी मूर्तियों की साज-सज्जा लुभाती है। बाहर से मॅगाई गई प्रतिमाओं की बारीकियॉं देखता-परखता है। अमल करता है अपनी मूर्तियों में क्या सुधार करे कि मूर्ति की गरिमा बढ़े। बस स्टैण्ड के मैदान वाले पण्डाल में बिराजी अपनी मूर्ति को देख कर उसे उत्कृष्ट मूर्तिकार होने का गौरव हुआ।
सुब्रता कहने लगी ‘‘है न बाबा हमारी मूर्ति ? पण्डाल से लेकर मूर्ति तक सब कुछ सफेद है। पण्डाल सजाने वालों ने बड़ा दिमाक लगाया है।’’
सुब्रता की टिप्पणी पर खिलाड़ी, बानी की ओर देख कर मुस्कुराया ‘‘अच्छा, अच्छा। तुम कला को समझने लगी हो।’’
लेकिन अर्जित उत्साह सगमनिया मोहल्ले की झॉंकी को देख कर चूर हो गया। मध्यम ऊॅंचाई के मसल का प्रदर्शन करते सिक्स पैक एब्स वाले गणेश गौरव के साथ खड़े हैं। बाजार रोज बदल कर नया हो रहा है और बाजार से मेल खाते गणेशजी। खिलाड़ी मूर्ति को आपाद मस्तक देखता रह गया। कैसा मसखरापन है। यह कौन शिल्पकार है जो देवी-देवताओं को बेहूदा बना रहा है ? लोगों की आस्था से खिलवाड़ कर रहा है ? और ये जमघट लगाये हुये लोग कितने कौतुक से गणेशजी को देख रहे हैं। तभी किसी किशोर ने कहा –
‘‘धाँसू गणेशजी।’’
सुनकर ठहाका लगा और ठहाके के बीच आवाज उभरी ‘‘मूर्तिकार ने एकदम अलग कल्पना की है।’’
मसखरेपन को लोग कल्पना कह रहे हैं। खिलाड़ी का दिल टूट गया। जबकि टोकरे में भरा मुरमुरा-बूँदी प्रसाद रूप में वितरित करता युवक स्टाइल से बताने लगा –
‘‘हमारा आइडिया है। पैसे अधिक देने पड़े लेकिन मूर्तिकार ने ठीक वैसा बना दिया जैसा हम चाहते थे। सिक्स पैक एब्स एकदम लेटेस्ट है। लोग पसंद कर रहे हैं। बच्चे तो देखते रह जाते हैं।’’
खिलाड़ी का हौसला जाता रहा।
‘‘बानी, घर चलो। बड़ा शोर है। मेरे सिर में दर्द हो गया।’’
खिलाड़ी बिछौने पर सुस्त पड़ा रहा। सेल फोन पर संग्राम का चैथा कॉल लेकिन नहीं सुना। तब सुब्रता ने कॉल रिसीव किया। हैलो कहने से पहले संग्राम झल्लाकर कहने लगा –
‘‘बाबा, तब से लगा रहा हूँ, तुम सुनते नहीं हो।’’
‘‘दादा, बाबा के सिर में दर्द है।’’
‘‘तबियत ठीक नहीं है क्या ?’’
‘‘हम लोग झॉंकी देखने गये थे। एक झॉंकी में गणेशजी के सिक्स पैक एब्स हैं। वह देख कर बाबा को अच्छा नहीं लगा।’’
‘‘बाबा को सेल दो। मैं बात करूँगा।’’
खिलाड़ी की आवाज बहुत बदली हुई थी ‘‘गणेशजी को लोग फिल्मी बना रहे हैं। यह कैसा मसखरापन शौंग्राम ?’’
‘‘बाबा इसे बिजनेस का फण्डा कहते हैं। लोग जैसी डिमाण्ड करेंगे, मूर्तिकार बनायेंगे।’’
‘‘देवी-देवताओं का मजाक बनायेंगे ?’’
‘‘बाबा अब मूर्तियॉं बनाना श्रद्धा, आस्था और तुम्हारी माँनू तो पुण्य का काम नहीं रहा। बिजनेस बन गया है। भगवान को अब हाईटेक बनना पड़ेगा। जो बाजार की नब्ज पकड़ना जानता है, वही बिजनेस कर पाता है, यह आजकल का फण्डा है।’’
‘‘ऐसा होता तो बेटा मेरे हाथ खाली हो जाते।’’
‘‘हो जायेंगे। अब लोग मिट्टी की नहीं फाइबर और प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियॉं पसंद करते हैं। सस्ती, सुंदर और वजन में हल्की होती हैं। बाबा तुम देखना नहीं चाहते लेकिन सब कुछ बदल गया है। पान वाले अब पान कम गुटखा पाउच अधिक बेंचने लगे हैं। कोल्ड ड्रिंक ने गन्ने के रस और लस्सी की बिक्री घटा दी। घड़े कम बिकते हैं। फ्रीज है, वाटर कूलर है। लोग अब सुराही लेकर सफर नहीं करते। बोतल बंद पानी तमाम मिलता है। पत्तल-दोना बनाने वाले भूखों मर रहे हैं। प्लास्टिक और कागज के बर्तनों ने उनका काम छीन लिया है। श्रद्धा, आस्था, उपासना सब कुछ रेडीमेड हो गया है। और बाबा तुमने कभी विसर्जन के बाद का सीन देखा है ?’’
खिलाड़ी ने एक-दो बार विजया दशमी का चल समारोह देखा है पर विसर्जन देखने नहीं गया। दशहरे के दिन शहर भर की मूर्तियॉं पण्डालों से उठा कर दशहरा मैदान ले जायी जाती हैं। रावण वध के बाद राम, लक्ष्मण,
सीता की सवारी निकलती है। उनके पीछे ट्रक और ट्रैक्टर ट्रालियों में झाँकियाँ होती हैं। जुलूस मुख्य पथ से होता हुआ शहर से आठ किलोमीटर दूर विसर्जन के लिये जब टमस नदी पहुँचता है, भिनसार होने लगता है। मूर्ति खरीदने वालों के लिये स्थापना की तरह विसर्जन भी एक उत्सव है पर खिलाड़ी अपनी मूर्तियों से जुड़ जाता है इसलिये विसर्जन दर्द देता है।
‘‘विसर्जन क्यों पूँछ रहे हो ?’’
‘‘पिछले साल गणेश विसर्जन के बाद मैं समुद्र तट पर गया था। बाबा समुद्र तट एकदम खराब था। इतनी गंदगी थी। जहॉं-तहॉं मूर्तियों के टुकड़े, कपड़े क्या-क्या पड़ा था और लोग रौंद रहे थे। मूर्तियों को सुंदर बनाने के लिये अब यह जो डिस्टेम्पर, ऑइल, पेंट, पोस्टर कलर, क्ले केमिकल का प्रयोग किया जाता है न पानी को इतना जहरीला बना दे रहे हैं कि विसर्जन के बाद हर साल कितनी मछलियाँ मर जाती हैं। बाबा, कभी टमस नदी जाकर विसर्जन देखना —–।’’
विसर्जन दर्द देता है लेकिन विसर्जन के बाद की गति-स्थिति देखने खिलाड़ी टमस नदी गया। गंदा रेतीला तट। औंधी पड़ी एक मूर्ति का चेहरा पानी में डूबा था और शेष ढाँचा उपेक्षित सा इस तरह पानी के बाहर था मानो विसर्जित करने की चेष्टा भर की गई है। खिलाड़ी विचलित हुआ। दुख की बात है, लोग विसर्जन तक ठीक से नहीं करते। मूर्ति से ध्यान अलग कर उसने देखा आस-पास की बस्ती से आये कुछ लोग नहा रहे हैं, कुछ साइकिलें धो रहे हैं। एक ओर समूह में खड़े चार-छः लोग शोक सूचक बातें कर रहे हैं। खिलाड़ी समूह में जाकर खड़ा हुआ –
‘‘कोई हादसा हो गया ?’’
एक ने बताया ‘‘मूर्ति सिराते समय दो लड़के डूब कर मर गये। सत्रह-अठारह साल के रहे होंगे। लाश देख कलेजा मुँह को आता था।’’
खिलाड़ी का विचलन बढ़ गया ‘‘कैसे हो गया यह सब ?’’
‘‘लड़के शराब पिये थे। मस्ती में पानी में उतरे और गहरे चले गये।’’
विचलित हुआ खिलाड़ी-युवाओं के लिये यह आस्था का नहीं शराब पीने का मौका है।
‘‘इतने छोटे लड़के शराब पीते हैं ? यह उम्र न शराब पीने की है न मरने की।’’
खिलाड़ी ने कहा तो समूह ने उसे अचरज से निहारा। यह कौन नाजानकार है, जिसे दुनिया की खबर नहीं है ? लोग खिलाड़ी को सुनाकर टिप्पणी देने लगे –
‘‘आप इस शहर में नये हो क्या ?’ त्योहारों, उत्सव में जो कुछ बड़े शहरों में होता है यहॉं भी होने लगा है। लड़के-लड़कियाँ रात भर घर से बाहर रह कर मौज-मस्ती करने का मानो परमिट पा जाते हैं। गरबा —- डांडिया
क्या कहते हैं उसकी आड़ में लड़के-लड़कियाँ रात भर घर से गायब रहते हैं और होटलों में रूम बुक कर मौज-मस्ती करते हैं। न माँ-बाप को फिक्र है न इन जवानों को शर्म-लिहाज।’’
खिलाड़ी से कुछ कहते नहीं बना।
अन्य ने टिप्पणी दी ‘‘भक्ति के नाम पर मस्ती। पूरे शहर में फिल्मी तर्ज वाले भक्ति गीत रात भर इतने तेज वाल्यूम में बजते हैं कि आदमी सो नहीं पाता। देवी जागरण के नाम पर फूहड़ नाच-गाना होता है या गंदे डांस और फूहड़ चुटकुलों वाली आर्केस्ट्रा बुला ली जाती है। अब आस्था और भक्ति की बात न पूँछो।’’
विचलित है खिलाड़ी।
सचमुच समय इतना बदल गया है कि सब कुछ बदल गया है। बाजार बदल गया है। लोग बदल गये हैं।
कला को परखने, त्योहारों पर आस्था रखने वाले लोग पुराने होकर पीछे कहीं छुपते हुये निष्क्रीय हो गये हैं। सक्रिय होकर उनके स्थान पर आ खड़े हुये नये लोग बाजार से संचालित हो रहे हैं। मूर्ति बनाना अब सचमुच घाटे का सौदा हो गया है। न लोग कला का मूल्य समझते हैं न सरकार कला को बचाये रखने में मदद करती है। कितने ही मूर्तिकार हैं जो सीजन के अलावा खाली बैठे रहते हैं। सीजन में इतनी कमाई नहीं हो पाती कि साल भर काम चले। विवश होकर लाइट डेकोरेशन जैसे दूसरे काम पकड़ लेते हैं।
खिलाड़ी को लगता है अब उसके हाथों में वह क्षमता नहीं बची जो मृतिका को आकृति में बदलती है। नोंक-पलक सॅंवारने का चाव अब अपने भीतर उत्पन्न न कर पायेगा।
खिलाड़ी माह भर सुस्त पड़ा रहा। लेकिन कला से जुड़ाव खत्म नहीं होता। मृतिका के बिना मोक्ष नहीं। बैठ जायेगा तो जी नहीं पायेगा। मूर्तियॉं नहीं बनायेगा तो पर्व पूरा नहीं होगा। विश्राम में शांति नहीं। पारखी न बचें पर वह कला को मरने नहीं देगा। हाथों को खाली रहने की आदत नहीं।
खिलाड़ी कार्यशाला में आ गया।
एक दिन चार युवक आये।
‘‘मूर्ति चाहिये।’’
खिलाड़ी उन्हें तैयार ढाँचे और पिछले सीजन में न बिक सकी मूर्तियॉं दिखाने लगा ‘‘कोई पसंद है ?’’
लड़कों ने तैयार मूर्तियों में रुचि नहीं ली लेकिन एक ढाँचे को पसंद किया ‘‘यह अच्छा है।’’
‘‘फाइनल न ?’’
‘‘हॉं।’’
‘‘कुछ एडवांस दे दो। बाकी जब मूर्ति ले जाओ दे देना।’’ खिलाड़ी ने अनुमानित मूल्य बता दिया।
‘‘कीमत बहुत बताते हो।’’
‘‘बाबू, मिट्टी अब हजार रुपिया ट्राली मिलती है। रंग, भूसा हर चीज के दाम बढ़ गये हैं।’’
‘‘मिट्टी की मूर्तियॉं मॅंहगी हो गयी हैं इसीलिये लोग फाइबर की मूर्तियॉं पसंद करने लगे हैं।’’
‘‘मिट्टी की मूर्ति पवित्र होती है। विसर्जन के बाद मिट्टी, मिट्टी में मिल जाती है। और यह जो मूर्तियॉं आप लोग बता रहे हो इनके कारण पानी में रहने वाले जीव-जन्तु मरते हैं।’’
लड़के आपस में इस तरह मुस्कुराये मानो कहना चाहते हों बुड्ढा बहुत जानकारी रखता है।
‘‘अंकल, ढाँचा हमने पसंद कर लिया। हम आपके पास एक आइडिया लेकर आये हैं। वैसी मूर्ति बना दो तो आप जो कास्ट बता रहे हो, देंगे। हम लोग थोड़ा डिफरेन्ट चाहते हैं।’’ कहते हुये लम्बे लड़के ने गोल लपेटा पोस्टर साइज चित्र खोल कर दिखाया।
सुंदर बाला का हाफ पोज चित्र। लेकिन खिलाड़ी अल्पज्ञ है।
‘‘यह कौन है ?’’
दूसरा लड़का बोला ‘‘फिल्मी हीरोइन कैटरीना कैफ है। मूर्ति का चेहरा कैफ के चेहरे की तरह हो। हमारी झॉंकी की शहर में चर्चा होनी चाहिये।’’
खिलाड़ी टेलीविजन कम देखता है। सिने तारिकाओं के नाम नहीं जानता। यह कौन कैफ है ? महिषासुर मर्दिनी इसके चेहरे वाली होगी ?
असहज हो गया ‘‘मूर्ति का चेहरा, देवी का चेहरा होता है।’’
‘‘चेहरा देवी जैसा ही तो है। मूर्ति के चेहरे पर ठीक यही मुस्कान आनी चाहिये।’’
‘‘आप लोग आस्था का मजाक बना रहे हो।’’
‘‘यह एक प्रयोग होगा। हमें इन्नोवेशन चाहिये, वेरियेशन चाहिये। समथिंग डिफरेन्ट —– चलो अंकल, आप जो कीमत माँगोगे, देंगे। डन।’’
‘‘मैं इस चेहरे को देवी का स्वरूप नहीं दे सकता।’’
‘‘पैसा बोलो।’’
‘‘मैं अपना काम पैसे के लिये कम आस्था के लिये अधिक करता हूँ।’’
‘‘एडवांस बोलो अंकल। आपका काम बहुत अच्छा है, इसीलिये आपके पास आये हैं।’’
खिलाड़ी के हाव-भाव में शर्मिन्दगी है। मानो कला को बचाते-बचाते अब इतना थक चला है कि नहीं बचा पायेगा।
‘‘सुनो बच्चों, तुम लोगों को न कला को बचाने की बेचैनी है, न देवी के रूप में आस्था है। दुर्गा पूजा के नाम पर तुम लोग रात भर घर से बाहर रह मौज-मस्ती करते हो। शराब पीकर विसर्जन करते हो। पलट कर नहीं देखते विसर्जन ठीक से हुआ कि नहीं। मिट्टी को मिट्टी में मिलने के लिये भरपूर पानी चाहिये —–।’’
खिलाड़ी नहीं जानता लड़कों को नसीहत दे रहा है या दम तोड़ती कला का शून्य होता भविष्य देख रहा है।
लड़के असमंजस में। ऐसा क्या कह दिया जो शर्मिन्दगी जैसी बात हो गई। यही तो चाहते हैं ऐसी मूर्ति बने जो इस नगरी में अब तक नहीं बनी। इन्नोवेशन — वेरियेशन — समथिंग डिफरेंट —।
‘‘अंकल, आप फण्डा समझो। अब वही चलता है जो डिफरेंट हो।’’
‘‘जाओ बच्चो। मैं बाजार की नब्ज पकड़ कर बिजनेस नहीं करता।’’
‘‘सुनो तो —-।’’
‘‘जाओ।’’
लड़के थोड़ी देर खड़े रहे फिर पोस्टर को गोल लपेट कर असमंजस लिये चले गये।
खिलाड़ी समीप पड़े ऊॅंचे स्टूल में बैठ गया। सभ्यतायें खत्म हुईं, साम्राज्य खत्म हुये। नये विकास सामने आये। अब वह दिन आने को है जब कला मर रही होगी, वह बचा नहीं पायेगा।
_________________
सुषमा मुनीन्द्र
द्वारा श्री एम. के. मिश्र