नाम – नंदा पाण्डेय
जन्म – 19 जनवरी
जन्मस्थान – भागलपुर
शिक्षा- जीव विज्ञान में स्नातक
रुचि – पढ़ना और लिखना
प्रकाशन – एकल कविता संग्रह “बस कह देना कि आऊंगा”
50 साझा संग्रह में कविताओं का प्रकाशन
साहित्यिक पत्रिका- कादम्बिनी, कथादेश, पाखी, आजकल, माटी, विभोम-स्वर,आधुनिक-साहित्य, विश्वगाथा, ककसाड़, किस्सा-कोताह, प्रणाम-पर्यटन, सृजन-सरोकार, उड़ान(झारखंड विधान सभा की पत्रिका), गर्भनाल, रचना-उत्सव, हिंदी चेतना,आदि में कविताओं का प्रकाशन।
ईमेल- [email protected]
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कविताएं
संतुलन
समुद्र!
की नीयत का पता कैसे चलता
जिसकी लहरों को गिनते-गिनते
जाने कब दिशाहीन लहर बन गई थी
मैं !
बनना था नाविक
करना था पार विवशता की नदी को
लिखना था इतिहास
तोड़ कर समाजिक बंधनों को
परखना था उस विश्वास को
जिसको अमूल्य निधि की तरह
संजो कर रखा था
मन के रिक्त कोने में
निश्चय – अनिश्चय के बीच गिरती-उठती उस लहरों के बीच
पता नहीं क्यों
संतुलन हमारा ही बिगड़ गया
उस समुद्र का नहीं
मेरे मन का तूफान
समुद्र में आये तूफान से भी अधिक वेग से बह निकला
और मैं देखती ही रह गई….!
तुम अनुपस्थित रहे
मेरे !
उस अघोषित समय में,
जब मैं !
टूट रही थी
खत्म हो रही थी
भीतर मेरे सब ध्वस्त हो रहा था
धीरे-धीरे बदल रही थी
मेरे देह की भाषा
उस समय
जब मैं
संगसार हो रही थी अपनी मानसिक यंत्रणा से
बटोरने में लगी हुई थी
अपने बिखरे वजूद को
जब
मेरी तकलीफ अपनी अभिव्यक्ति के लिए खोज रही थी प्रेम का आश्रय-स्थल
मेरे हर उस वक्त में
मेरे हर उस लम्हें में
तुम !
जीते-जागते ताज्जुब की तरह
बेसुध रहे अपनी आत्मलीनता में
हाँ !
तुम अनुपस्थित रहे
मेरी जिंदगी के उस अघोषित समय के पन्ने पर से….!
प्रतिशोध
मेरे मन की सीमा रेखा
और
तुम्हारी तिरछी नजरों की प्रत्यंचा के बीच
झूलता मेरा आस्तित्व !
जैसे
सोने पर चढ़ गई हो
कलई ! पीतल की…..
बिना शिकन
बिना उलझन
मेरे दर्ज किए गए
हर सपनों पर
अपना विरोध दर्ज करते रहे तुम,
देकर मेरी आत्मा पर जख्म
और
लेकर हाथों में हल्दी
मेरी हर उपलब्धियों को
विलय के कागार पर पहुंचा कर
मारकर आलथी-पालथी,
खंगालते रहे मेरा
कुल – गोत्र
और
हँसते रहे विदूषक हँसी
मैं!
नहीं समझ सकी कि
प्रतिशोध ! तुम्हारा किससे है
मुझसे या मेरे सपनों से….।
उतरती पगडंडियों वाली उम्र की औरतें
जिंदगी ! की उतरती पगडंडियों वाली उम्र की औरतें
सहेजना जानतीं हैं
सब कुछ
घर-परिवार,
सुख-दुःख
परिवार की परंपराएं, मान्यताएं,
बड़े- बुजुर्गों की दवाईयाँ
अपनों की खुशियाँ और उनकी तकलीफें
सब-कुछ
वे कभी नहीं हारतीं
कभी नहीं थकतीं
उसकी जिंदगी
उस मुरझाए फूलों की तरह होती है
जो सौरभ चूक जाने के बाद भी
समेट लेती है
पूरी सृष्टि को अपने बीजों में
किसी को नहीं पता
कि,
अनगिनत सुमनों को गढ़ने वाली
उसकी खुद की जिंदगी
भरी हरीतिमा में ही कुम्हलाए हुए
फूलों की तरह हो गई है
उसकी जिंदगी में
गहराई होती है सागर की
और अम्बर की ऊंचाई भी
उसके अधूरेपन में भी
उभरता है
एक चमकीला क्षितिज हर सुबह और
गीले लोचनों की लोर से
खिल उठते हैं एक बार फिर
सपनों के वही सुहाने फूल !
उसकी जिंदगी हँसती, रोती, इठलाती, उपेक्षित
इस दुनियाँ में तलाशती है
अपनी परिभाषाओं को….
कौन करेगा परिभाषित
इनके सपनों के कैनवास को…?
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किताबें
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