डॉ चंद्रकला
शिक्षा : एम. ए., एम. फिल., पी. एच. डी.
रचनाएँ : 4 किताबें, लेख, संस्मरण, शोधपत्र, लघु कथा, कविताएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित
सम्मान : हिन्दी अकादमी दिल्ली से नवोदित कहानी लेखिका
कार्यरत : भीम राव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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लेख
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कविताएं
क्या बदल गया
घुटनों पर हाथ रख कर उठने के बाद भी मेरे मुँह से आह निकल ही गई. बेटे ने पलट कर देखते हुए कहा क्या मम्मी अभी से आप आह ऊह करने लगी.
मै भी उसी टोन में बोली क्या करें बुढापा आ रहा है अब. सब दिन जवान ही थोड़े रहेंगे.
अभी से. इतनी फालतू बातें मत करो. ध्यान रखो अपना.
अरे ठीक है कुछ ऐसे ही कट जायेगी. कुछ तुम लोग बड़े हो कर संभाल लोगे.
अब करना क्या है जो छुट गया वो सारे शौक तब पूरे करूँगी मै हँस कर बोली.
अच्छा आप अभी से सोच रही हो कि बहु आ जायेगी जो आपके सारे काम संभाल लेगी. यानि आपको बहु नहीं बाई चाहिए.
जब तक मै समझ पाती कि उसने ये क्या कहा तब तक वो धड़ाम से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर चुका था.
तो क्या मै जो इस घर के सारे काम पिछले तीस सालों से करती आ रही हूँ. बिना कुछ कहे, सारी जिम्मेदारियां निभा रही हूँ मै बाई हूँ. मन बड़ा कड़वा सा हो गया. अपनी अपनी सोच है. जिसे हमने अपनी जिम्मेदारियां समझा वो इन्हे बोझ लग रहा है. हमने तो कभी ऐसे सोचा भी नहीं जो इसने तपाक से कह दिया. वक्त वक्त की बात है. समय बदल गया है.
कुछ दिन तक बेटा मुझसे आँखे चुराता हुआ सामने पड़ने की बजाय इधर उधर हो जाता. कुछ मैंने भी अनदेखी की.
एक दिन अपने कमरे से चिल्ला कर बोला मम्मी आपने मेरी आई पैड चलाने वाली पेंसिल देखी क्या. बहुत ढूंढ लिया लेकिन मिल नहीं रही है. जरा देख दो न कॉलेज को देर हो रही है.
अनसुनी करने की आदत नहीं है तो चली गई उसके कमरे तक.
बिस्तर से लेकर स्टडी टेबल तक सब कुछ फैला हुआ था, कि मुझसे कहे बिना रहा नहीं. ये क्या रहने की जगह है कबाड़ घर बना रखा है. सब कुछ अपना सेप्रेट चाहिए तो इसकी साफ सफाई कौन करेगा. ये किसके लिए छोड़ रखा है.
प्रेस किए हुए साफ़ और गन्दे कपड़े सब उसके सिरहाने एक साथ रखे हुए थे.कुर्सी पर गीला तौलिया और उतरे हुए कपड़े नीचे ऊपर पड़े हैं.
ये क्या है? इसमें पेंसिल तो क्या पूरा आदमी ही खो जाए.
कैसे तुम इतने गन्दगी फैला कर रह रहे हो.
अपनी चीजे तक सम्भाल कर नहीं रख सकते हो. सब चीजें अपनी जगह हो तो कुछ खोयेगा कैसे.
अरे ठीक है आपको जो कहा है आप वही करों न. कर लूंगा जब टाईम मिलेगा.
हाँ बस इसी के लिए टाईम नहीं है. कैसे कोई तुम्हारे साथ रहेगा. क्या सोचते होंगे तुम्हारे दोस्त कि मां ने कुछ सिखाया ही नहीं है.
क्यों सब कुछ मुझे ही सीखने की जरूरत है जो आयेगी वो कुछ नहीं करेगी क्या.
अच्छा! तुम्हें बीबी नहीं बाई चाहिए.
और उस दिन की तरह जोर से दरवाजा बंद करके मैं बाहर निकल आई.
चंद्रकला
रोटी
बहुत ही संकोच के साथ मां ने पापा के सामने खाने की थाली और पानी का गिलास रखा।
अपनी आदत के अनुसार वो उनके सामने न बैठ एक ओर खड़ी हो मुझसे भी खाने को पूछ बैठीं कि तेरा भी खाना अभी दे दूं कि तू बाद में खाएगी।
मैं कुछ कहती इससे पहले पापा ने जो बोला उससे न सिर्फ मम्मी ही सिटपिटा गयीं, बल्कि मैं भी अचकचा कर उनकी ओर देखने लगी।
मैं क्या पूछ रहा हूँ ? ये उसी आटे की रोटी है जिससे बहू रोटी बनाती है?
अब तो माँ के साथ मेरा भी हलक सूख गया। इतने समय के बाद आज मां ने रसोई बनाई है फिर भी पापा बिना कुछ सुनाए नहीं मानेंगे।
अरे जवाब नहीं दिया क्या पूछ रहा हूँ मैं।
जी हैं तो उसी आटे की। वो क्या है की अब तो अभ्यास छूट गया है न। तो हाथ चल नहीं रह था आज रसोई में । हो जाएगा ठीक एक दो दिन और बनाउंगी तो। माँ ने घबराहट को छिपाते हुए कहा।
कितना स्वाद है इन रोटियों में। आज कितने दिन बाद थाली में रखी सारी रोटी खाने की इच्छा हो रही है। बहू तो बेमन से ऐसे पाथ कर रख देती है कि खाना देखते ही भूख मर जाती है।
लगा आज तो मां की मेहनत सध गयी, लेकिन ये क्या?
मां तो और डर गई।
आज मेरे सामने कह दिया तो कह दिया। उसके आने के बाद कभी गलती से ये बात दोहरा मत देना। जो दो रोटी सुकून से मिल रही है वो भी नहीं मिलेगी। भूल गये अब ये रसोई बहू की है।
मैंने और पापा ने एक दूसरे को देख मुँह नीचे कर लिया।
चंद्रकला
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