हिन्दी के नारीवादी कथा-लेखन में मैत्रेयी पुष्पा प्रमुख और लोकप्रिय लेखिका रही है| उनका जन्म 30 नवम्बर 1944, अलीगढ़ ज़िले के सिकुर्रा गाँव में हुआ| बुन्देलखंड कॉलेज, झाँसी से हिंदी साहित्य में एम.ए किया| मैत्रेयी पुष्पा हिन्दी अकादमी, दिल्ली की उपाध्यक्ष (2015-2018) रहीं| मैत्रेयी पुष्पा जी का नारीवादी चिन्तन कई विद्याओं में फैला हुआ है उन्होंने लगभग सभी साहित्यिक विद्याओ उपन्यास, कहानी, आत्मकथा, रिपोतार्ज, संस्मरण, नाटक भी लिखे| चिन्हार, गोमा हँसती है, ललमनियाँ तथा कई प्रतिनिधि कहानियाँ के कहानी संग्रह है| उनका पहला उपन्यास स्म्रतिदंश (1990) उपन्यास है| उनके प्रमुख उपन्यासों में बेतवा बहती रही (1993), इदन्नम्म (1994), चाक (1997), झूला नट (1999), अल्मा-कबूतरी (2000), अगनपाखी (2003), विजन (2002), कहीं ईसुरी फ़ाग (2004), त्रियाहठ (2005), गुनाह-बेगुनाह (2011), फ़रिश्ते निकले (2014) आदि है| हाल ही में उनका नवीनतम उपन्यास नमस्ते समथर (2021) प्रकाशित हुआ| उनकी आत्मकथा कस्तूरी कुंडल बसै, गुड़िया भीतर गुड़िया हिंदी की प्रमुख आत्मकथाओ में शुमार है| मैत्रेयी पुष्पा सर्जनात्मक लेखन के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया| स्त्री विर्मश पर कई पुस्तके लिखी जिनमें खुली खिड़कियाँ, सुनो मालिक सुनो, चर्चा हमारा, तब्दील निगाहें प्रमुख है|
मैत्रेयी पुष्पा जी का समस्त लेखन पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री प्रश्नों और उनकी समस्याओ पर केन्द्रित रहा है| उपन्यास, कहानियाँ, स्त्री विमर्श की पुस्तके स्त्री प्रश्नों को विश्लेषित करते है|
इनकी फैसला कहानी पर टेलीफिल्म वसुमती की चिठ्ठी और इदन्नम्म उपन्यास पर मंदा हर युग में धारावाहिक का प्रसारण भी हुआ|
मैत्रेयी पुष्पा अपने विस्तृत कथा-साहित्य और रचनाओ के लिए कई पुरस्कारों से भी सम्मानित है| हिन्दी अकादमी द्वारा साहित्य कृति सम्मान, बेतवा बहती रही पर ‘प्रेमचन्द सम्मान’ 1995, इदन्नम्म उपन्यास को नंजनागुड्डु तिरुमालम्बा, सार्क लिटरेरी अवार्ड, सरोजनी नायडू पुरस्कार, मंगला प्रसाद पारितोषिक, कथाक्रम सम्मान, शाश्वती सम्मान, महात्मा गाँधी सम्मान आदि| हाल ही में उन्हें 2021 के ‘कथा शिखर सम्मान’ देने की घोषणा की गई है|
हिन्दी के कथा-साहित्य में मैत्रेयी पुष्पा का महत्व
आंठ्वे दशक के नारीवादी लेखिकाओ में मैत्रेयी पुष्पा महत्वपूर्ण नारीवादी लेखिका रही है| अन्य स्त्री लेखिकाओ की तुलना में मैत्रेयी पुष्पा की पहचान तेजी से उभरी| उनका समस्त नारीवादी चिन्तन पितृसत्तात्मक समाज की जटिलताओ और स्त्री संघर्ष, ‘मुक्ति’ के प्रश्न पर केन्द्रित रहा है|
हिन्दी कथा साहित्य में ग्रामीण स्त्रियों को नायिका के रूप में प्रस्तुत कर सामन्ती, पितृसत्तात्मक समाज को समझने का प्रयास उन्हें अन्य लेखक-लेखिकाओ से अलग और विशिष्ठ बनाता है| ‘चाक’ की सारंग, ‘अल्मा-कबूतरी’ की अल्मा, ‘झूला नट’ की शीलो, ‘इद्न्न्नम्म’ की मंदा आदि स्त्रियों के माध्यम से स्त्री प्रश्न, उसके शोषण और संघर्ष को बेबाकी से रखा है| उनके उपन्यासो की स्त्रियाँ समाज की बनी बनाई धारणाओं को तोड़ती नजर आती है| वह किसी भी तरह के लगाये गये बन्धनों को नकारती है| प्राय: उनकी नायिकाएं देहिक स्वतन्त्रता, विवाहेतत्तर सम्बंध को प्रमुखता देती है| ‘चाक’ की रेशम, सारंग, ‘अल्मा-कबूतरी’ की अल्मा, कदमबाई, भूरी, ‘झूला नट’ की शीलो, ‘इन्द्न्नम्म’ की कुसुमा सभी स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक सरंचनाओ को तोड़ने उन्हें बदलने का साहस करती है| स्त्री-प्रश्नों को सुनो मालिक सुनो, खुली खिड़कियाँ, चर्चा हमारा स्त्री विमर्श की पुस्तको में प्रमुखता से उठाया गया है| किसी भी तरह की झूठी नेतिकता को उनकी स्त्रियाँ नहीं मानती इसके लिए वह विवादित भी रही| लेकिन इन विवादों से दूर मैत्रेयी पुष्पा ने साहित्य में उन मुद्दों को विमर्श का हिस्सा बनाया और साहित्य में एक नई बहस को जन्म दिया|
मैत्रेयी पुष्पा की स्त्री पक्षधरता अक्सर तस्लीमा सी आक्रामकता का आह्वान करने लगती है हालांकि उनकी नायिकाएं तसलीमा की स्त्रियों की तरह न अति संवेदनशील है, न ईमानदार। आवेश को भावुकता, ईमानदारी और टूटे सपनों की किरचों में सान कर आक्रोश का रूप नहीं देती बल्कि अपनी ही विरासत के प्रति नि:संग-निर्मम हो अपनी दैहिक भौतिक ख्वाहिशों से दो-चार होते हैं|”
‘चाक’ की सारंग, ‘अल्मा-कबूतरी’ की अल्मा में वह स्त्री की राजनैतिक चेतना को सामने रखती है| पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री-पुरुष के सम्बंध को वह लोकतान्त्रिक रूप देने उनमें समानता और गैर-बराबरी का भाव देने पर जोर देती है| समाज में स्त्री की दोयम स्थिति और शोषण उत्पीड़न के विविध रूपों को मैत्रेयी पुष्पा अपने उपन्यासों में दिखाती है| वह लिखती है “वैवाहिक संस्था औरत के लिए एक द्वार खोलती है, लेकिन तुरंत ही कपट बंद कर चाबी पुरुष के हाथ में थमाकर निश्चित हो जाती है|” मैत्रेयी पुष्पा स्त्री के लिए प्रेम को उसकी स्वतन्त्रता के रूप में देखती है इसे वह स्त्री का अधिकार मानती है| वह लिखती है “मैने अपनी नायिकाओं को प्रेम के मामले में पूरी छुट दी है, क्यूंकि प्रेम करना नेसर्गिक प्रवर्ती में आता है|” “मैं अक्सर लड़कियों से कहा करती हूँ की, जिससे प्रेम उसे पति-वती मत बनाया करो| पति का अर्थ क्या होता है? मालिक ना, तो कोई मालिक अपने गुलाम से प्रेम केसे कर सकता है?”
उनके उपन्यासों में लोकगीतों की उपस्थिति को देखा जा सकता है| लगभग सभी उपन्यासों में स्त्रियों की मौखिक परम्परा, लोकगीतों, काव्य, किस्से कहानियों के जरिये स्त्री के सामाजिक-सांस्क्रतिक परिवेश को सामने रखती है| कहीं ईसुरी फ़ाग उपन्यास बुन्देली कवि ईसुरी के गाये फागो को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है| हिन्दी की लोकप्रिय लेखिका और आत्मकथाकार के रूप में मैत्रेयी पुष्पा निरंतर ज्वलंत मुद्दों अपनी बात रखती है| इतनी रचनाओ, पुस्तके लिखने और कई पुरस्कार से सम्मानित मैत्रेयी पुष्पा जी की लेखन में सक्रियता इसी बात से मालूम पड़ती है की हाल ही में उनका नवीनतम उपन्यास नमस्ते समथर प्रकाशित हुआ है जो पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के दोहरे संघर्ष और सामाजिक जटिलताओ को दिखाता है|
राजेन्द्र यादव मैत्रेयी पुष्पा के लेखन के बारे में बिलकुल सही लिखा है “मैत्रेयी ने महिला लेखन को ड्राइंग-बैडरूम-दफ्तरों से निकाल कर उन गांवों कस्बों में पहुंचा दिया है जो अब तक पिकनिकियों या प्रतिबद्ध समाज-सेविकाओं के माध्यम से ही हम तक पहुंचता था। अनछुई भाषा, अनचाहे लोग, अपरिचित समाज और वहां जीवन की दुरह में स्थितियो में जूझती औरत की कहानियां सुरक्षित शहरी सुवासित महिलाओं में ठीक वही बेचैनी पैदा करती है जो उमा भारती, फूलन देवी के साथ बैठकर वसुंधरा राजे सिंधिया वैजयंती माला महसूस करती होंगी।”
मैत्रेयी पुष्पा का समस्त लेखन और चिन्तन सामाजिक बदलाव और लोकतान्त्रिक व्यवस्था की समर्थक है| परिवार, विवाह सम्बंध, प्रेम, देह विमर्श, स्त्री-पुरुष सम्बंध तक स्त्री मुद्दों पर बेबाकी से लिखा और कहा| उनके उपन्यास, कहानियाँ और संस्मरण, आत्म-कथा, स्त्री विमर्श पर लिखी पुस्तके हिंदी के स्त्रीवादी लेखन को समर्द्ध करता है| मैत्रेयी पुष्पा का चिन्तन और उनका समस्त कथा-साहित्य हिंदी के स्त्रीवादी लेखन को गति प्रदान करता रहा है| सर्जनात्मक और आलोचनात्मक लेखन दोनों ही रूपों में मैत्रेयी पुष्पा का योगदान अविस्मरणीय है|