नाम : अमनदीप गुजराल ” विम्मी “
शिक्षा : एम.कॉम., ICWAI
Mail : [email protected]
उत्तरप्रदेश (शाहजहाँपुर ) में जन्मीं अमनदीप गुजराल ” विम्मी ” वर्तमान में नवी-मुंबई में निवासरत हैं। छत्तीसगढ़ के एक छोटे शहर बालको में छात्र जीवन से ही विद्यालय (केंद्रीय विद्यालय), महाविद्यालय पत्रिकाओं तथा विभिन्न पत्रिकाओं के माध्यम से लिखने का शौक जागृत हुआ। ततपश्चात उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं जैसे कि साप्ताहिक हिंदुस्तान एवम अन्य पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से उत्साह वर्धन हुआ। कविताओं के माध्यम अपनी जमीन तलाशने में लगीं अमनदीप सहज, सरल व अन्तर्मुखी स्वभाव की हैं। पढ़ना , पढ़ाना, लिखना व संगीत सुनना इनकी रुचियों में शामिल है। पोषम पा, हिंदीनामा, आगमन समूह की “विहंगिनी” ( साझा काव्य संकलन ) एवम काव्य-दस्तक की पहल – “प्रारम्भ” में प्रकाशन के अतिरिक्त ” मैं और मेरी कविता ” (Main Aur Meri Kavita ) नामक पोर्टल पर लिखती हैं। कविताओं की पहली पुस्तक “ठहरना ज़रूरी है प्रेम में”, बोधि प्रकाशन से अभी हाल में ही प्रकाशित हुई है।
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कविताएं
दूसरी तरफ़ हरी है धरती
जब तक इस घर को वारिस नहीं दे देती
तब तक हर अधिकार से वंचित हो तुम
कह कर दुत्कारी गई औरतें
भावनाओं से भी हो जाती हैं बाँझ
निःशब्द और खानाबदोश…..
खानाबदोश सी ढूँढती हैं एक कोना
जहाँ तिरोहित कर सकें
आँखों के कोरों तक पँहुचा नमक
उकेर सकें अपने जज़्बात
किसी कागज के कोने पर …
काम के बीच कुछ वक्त उधार माँग
झाँकती है बाहर
ढूँढने अपना खिड़की भर आसमान…
देखती हैं चिड़िया
और दोहराती हैं अपने आप में
किसी ने बताया नहीं तुम्हें
कितनी सुंदर हो तुम
नील चिरैया !
चहचहाती, फुदकती
कितनी प्यारी लगती हो !
तुम आसमान में ही बनाना आशियाना अपना
पँखों को देना मज़बूती और नाप लेना सारा आकाश….
तुम्हें आभास नहीं शायद
कि खिड़की भर आसमान ढूँढते कैदियों के जज़्बात
नदी बनने के पहले ही रेगिस्तान में तब्दील हो जाते हैं…
कुछ दानों का लालच
तुम्हारी स्वतंत्रता में सेंध है
पता है तुम्हें
सिर्फ़ दूसरी तरफ़ ही हरी है धरती…..
अच्छे लगते हो तुम
ज्ञात है मुझे
रोका गया है तुम्हें रोने से, हमेशा!
बचपन यह सुनने में बीता
छी: लड़का होकर रोता है
इस तरह रोने पर लगा दिया गया अंकुश….
तुम्हारे कानों में ब्रह्मवाक्य की तरह पिरोया गया
बहादुर आदमी रोते नहीं हैं
और तुम्हें दुःखी होने और खुश होने के
भाव से कर दिया गया दूर
ताकि तुम रह सको पुरुष …..
तुम्हें लोगों की नज़रों में कमजोर नहीं होना था
सो तुमने अश्रुओं के वेग को
कभी हावी नहीं होने दिया बहादुर आदमी होने पर
लकीर, जो खींच दी गई
स्री और पुरुष के आँखों के मध्य
उसे पार करने में हिचकिचाहट महसूस हुई तुम्हें……
पर, सच कहूँ तो
तुम मुझे रोते हुए बहुत अच्छे लगते हो
चार चाँद लग जाते हैं
तुम्हारे पौरुष पर
क्योंकि जिन आँसुओं को
स्त्रियोचित मान कर
तुम्हें विमुख कर दिया गया उसके भाव से
उन आँसुओं को बहा
नारी का अद्भुत गुण समाहित कर लेते हो
मिल जाता है तुम्हें शक्ति का साथ…..
बन जाते हो अर्धनारीश्वर
और चाँद सुशोभित हो जाता है
तुम्हारे कपाल पर।
आशा, उम्मीद और लय के साथ उदासियों को लिखे खत कविता है
उदासियों का रंग मिलता है ढलते सूरज के रंग से
कई बार लगा ऐसा जब किसी / खबर के आने की उम्मीद ख़त्म हुई सहसा……
कई बार ऐसा भी लगा कि
उदासियों के चेहरे नहीं होते न ही कोई रंग….
जैसे श्याम और श्वेत रंग नहीं है
काले से शुरू होकर सफेद पर खत्म हो जाती रंग पट्टिकाओं के बीच
भरे हैं अनगिनत रंग…….
काला रंग नहीं है वो है जज़्ब करना उदासियों को
और सफेद है रंगों का परावर्तन……
तो मैं लगा देना चाहती हूँ
उदासी की आँखों में आशा का काजल
कजरारी आँखें देख ठहर जाएँ सपने शायद
जो उदासियों के बुदबुदाते ओठों को
दे सकें वजह मुस्कुराने की…
कर देना चाहती हूँ
उम्मीदों के रंग से सराबोर उनका लिबास
और कर देना चाहती हूँ श्रृंगार ऐसा
कि उदासी के पैरों में बंधी हो तहजीब की पायल
आशा, उम्मीद और लय के साथ उदासियों को लिखे खत
कविता है……
पुल और छत रंग भरते हैं
पुल का होना
आवागमन का जरिया हो सकता है, पर
इस बात की तसल्ली नहीं
कि वह जोड़े रखेगा
दोनों किनारों पर बसे लोगों के मन
या उन के जज़्बात….
एक छत चार लोगों के रहने की जगह तो हो सकती है
पर, इस बात का यकीन नहीं
कि एक छत के अंदर
न हों सबकी अपनी-अपनी छतें….
शादी रिश्ते की वैधता की मुहर तो हो सकती है
पर, प्रेम करने की वजह नहीं
न ही इस बात की तसल्ली
कि दो लोगों के मध्य
पाट दी गई किसी तीसरे की होने की जगह……
प्यार करना हो तो करना पुल को पार
छतों को सजाना एक रंग से
और उस रंग से उगाना
तीसरा सबसे खूबसूरत रंग….
नदी और हवा सी अनवरत यात्रा है प्रेम
प्रेम को पहाड़ सा नहीं होना चाहिए
पहाड़ से तो दुःख होते हैं
उसे तो होना चाहिए नदी के मीठे जल सा निर्मल
पवन सा चलायमान….
कितना सम्मोहन होता है
पवन के प्रेम में लहराते पत्तों, बल खाती बेलों, झूमती लटों में
जिनमें उलझ उलझ जाता है मन…..
नदी की अनवरत यात्रा में खुरदुरे से थे जो
मुलायम और चमकदार हुए वो पत्थर
वो बहाती रही लोगों के पैरों में सनी मिट्टी, उनकी थकान,
और अपना अस्तित्व भी
समंदर हो जाने तक ……
अपने हृदय से तुम्हारे हृदय तक
मुझे भी करनी है एक यात्रा निर्विघ्न
नदी से थोड़ी आर्द्रता,
पवन से कुछ मुलायमियत और पारदर्शिता लिए आ रही हूँ मैं …
कि तुम भी पोंछ लेना गर्द, मिटा देना खरोंचे, खत्म कर देना सिलवटें …
तुम भी नदी और पवन को यूँ ही महसूस करना
तुम भी करना प्रेम …..
प्रेम को महसूस करने के लिए रुकना पल दो पल
कि ठहरना बहुत जरूरी है प्रेम में…..
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किताबें
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