Friday, November 29, 2024

गुंजन उपध्याय पाठक
पटना बिहार
पीएचडी (इलेक्ट्रॉनिक्स)मगध विश्वविद्यालय से
दो किताबें:
१. अधखुली आंखों के ख़्वाब(2020)
२. दो तिहाई चांद(2022)
(बोधि प्रकाशन से प्रकाशित)

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कविताएं

आकारहीन

संभावनाओं की रंग-बिरंगी तितलियां
उदासियों की दीवारों पर
 
लिखती है तुम्हारा नाम 
और महक उठती है मेरी छत
वसंत के दूब खिल उठते हैं
मेरी हथेलियों में
 
मेरे सिरहाने रखकर ठंडे चाँद की लालटेन 
तुम पढ़ते हो कोई कविता 
 
वर्षों के टूटे-फूटे /आधे-अधूरे 
ख्वाहिशों की नील पड़े पीठ पर
हम इक साथ करते हैं हस्ताक्षर|

.मैं जीना चाहती हूं

तेरे संग 
छुटपन वाली 
छुप्पम छुपाई
इक लम्हा
तुम ढूंढना मुझे 
दूसरे में
 
लम्हें ..
ढूंढा करेंगे हमें ।

इक तरफा बातें

जो कभी कहनी थी ख़ुद से 
तुमसे सुनना चाहती है 
 
कहने सुनने के बीच सिमटी 
अपने आंचल पर टांकते हुए ख्वाहिशों की लड़ी 
लालायित नजरों से तकती कि पुकार लोगे कभी
दो तिहाई जीवन में प्रीत रहा मुठ्ठी भर 
 
उस खुशनुमा रौशनी में “मै”सजी लाखो रंग 
मेरे अंदर करवट लेती हुई ना जाने कितने रंग अजनबियत की ओढ़नी में हैरान हो तकती है
दोहरा तिहरा कितनी “मैं”को 
संभलती/ संभालती हुई ,
इक “मैं”!!!

कितना संतुलित हो प्रेम की

कितना संतुलित हो प्रेम की 
छलके भी ना और रिते भी ना
ना मूंदी पलकों से बहे , 
ना कोई बेवजह ही हंसे कि उसका आना 
शर्बत घोल दे नस नस में , 
और जाने पर कोई टिस ना उठे
 
कितना हो गुणनफल 
धमनियों के संवेदन का की हृदय के स्पंदन को फ़र्क ना पड़े 
कितनी खूबसूरती से 
“कृपया दूरी बनाए रखे” की टांगी जाए तख्ती 
 
वो सामने हो और गला भी ना रुंधे
कितना हो क्रमचय और संचयन का फार्मूला की 
जान सके अंतर उसकी 
शरारती अंदाज और सहजता का या फिर 
 
मुए प्रेम को धरकर ताक पर 
बने रहे कठपुतली
और सूजी आंखो को देते रहे भाप 
 कंठ में रुके हुए हिचकियों का।

धूप की सीढ़ियां

धूप की सीढ़ियां 
जब उतर जाती हैं शामें
और छिले घुटनों पर
ओस के फाहे रखता है अम्बर
 
जब मन्नत के दीये 
खाते है हिचकोले नदियों में
जब कुछ और गहरी होती जाती है
अंधेरे की काया
 
तब मैं 
सोचती हूं तुम्हें
और तुम्हारे नाम को 
प्रवाहित करती हूं आकाश गंगा में 
और ब्रह्मांड का स्पंदन बांध लेती हूं 
अपने दुप्पटे की कोर से…

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किताबें

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