Sunday, September 14, 2025
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ऋचा पाठक
ई- मेल – dr.richapathak5@gmail.com 
वर्तमान निवास – काशीपुर (उत्तराखंड)
स्थाई निवास – ग्राम – आसफपुर (बदांयूँ
उपन्यास- घूँघटपट: स्त्री शिक्षा की दारुण दास्तान 
कहानी संग्रह- एक दिन की उम्र 
शोध ग्रंथ – अम्बेडकर आज भी
अन्य साहित्यिक कार्य –
सम्पादन – साहित्यिक पत्रिका, विविधा। काव्य संग्रह-     मानसी । अक्षर ज्योति (मुखपत्र, जिला साक्षरता समिति)
 
प्रकाशित कहानियाँ- पाँच बीघे @ दो रुपये(वर्तमान साहित्य), दूसरा पंक्ति पावन,  जयघोष (आधारशिला) मित्र-मैत्री-मैत्रेयी ( हेमन्ती सांध्यमित्रा,कलकत्ता)सन्नाटे की झील (कथाक्रम )
 
प्रकाशित लेख – डाॅ. सुभाष मुखोपाध्याय : प्रथम परखनली शिशु जनक(शैलसूत्र) साक्षरता: समस्या और समाधान,  अभी कुछ और बाकी है ( अक्षर ज्योति), राजा विक्रमादित्य: इतिहास को जिसकी भनक तक नहीं (शैलसूत्र)राजा विक्रमादित्य: अभिलेख एवं  साक्ष्य (लखनऊ विश्वविद्यालय के सहयोग से प्रकाशित नवचेतना पत्रिका  )
 
 
सम्मान  – राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उ प्र द्वारा राज्य स्तरीय पुरस्कार 
भारतीय पत्रकारिता संस्थान, बरेली द्वारा सारस्वत सम्मान
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कहानी

अस्तित्व के लिए संघर्ष
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मेरी नज़र में बहुत दिनों से यह बात थी कि कक्षा उपस्थिति के समय पुष्पा और रानी में से एक ही उपस्थित होती थी । कभी पहली तो कभी दूसरी। दोनों बहनें कभी साथ नहीं आती थीं। कई बार मैंने टोका पर बात यूँ ही गुज़र गई । आखिर छमाही फीस का वक्त आ गया । महीने की तीन तारीखें 15 जनवरी 25 जनवरीऔर 30 जनवरी इसके लिए नियत थीं। मैं रोज सभी बच्चों को फीस के लिए टोकती। आखिर 30 जनवरी भी आ गई ।
उस दिन मैैं हमेशा की तरह हँसती – मुस्कुराती नहीं थी । वक्त के सितारों में से किसी ने शरारत की थी । सुबह से एक के बाद एक मिले कड़वे अनुभवों ने मुझे अपने बच्चों से थोड़ा दूर, थोड़ा सा व्यावसायिक कर दिया था। स्टाफ रूम में गाँव वालों पर हो रहे कमेंट पर आज मैं विरोध नहीं कर रही थी ।
कान में एक तल्ख स्वर पड़ा – ये गांव वाले भी..! 25 रुपये रोज़ का पौवा पी लेंगे लेकिन सरकारी स्कूल की 6 महीने की ना मालूम सी 75 रुपये की फीस देने में इतने बहाने बना देंगे कि अच्छे से अच्छे कहानीकार की कल्पना भी हार जाए।
चाय देती माया को पौवे की बात खल गई या यूँ कहें कि बाहर बैठे अपने पति चौकीदार रामबाबू के पीने की बदनामी को थोड़ा सा ढकने की कोशिश और थोड़ा पति के कानों में पहुंची इस बात से लगी ठेस को कम करने के अंदाज में, एक नज़र पति पर डाल कर बोली – बहन जी ! आदमी दिन भर हाथ तोड़ मेहनत करता है। अब हम लोगन के पास दूध दही मेवे जैसी चीजें तो है नहीं ..तो आदमी पौवा पीकर थकान उतार अगले दिन काम के लिए तैयार तो हो जाता है।
अब मैंने कलम रोक दी और भौं चढ़ाकर थोड़ा तेज आवाज में बोली – क्यों माया ! इस रामबाबू से ज्यादा काम तो तू करती है । स्कूल में पूरे टाइम दौड़ती भागती नजर आती है। घर का चूल्हा चौका करती है। बच्चे संभालती है। थोड़ी बहुत साग सब्जी भी उगा लेती है। तू तो इससे ज्यादा थक जाती होगी ! तू कितना पीती है !
फिस्स से हंसती हुई माया मुंह में आँचल दबाकर भाग गई । स्टाफ रूम में ठहाका लग गया और खिसिआया सा रामबाबू स्टाफ रूम के आगे से उठ गया।
मैं भी रजिस्टर उठाकर क्लास में चल दी। फीस जमा करने की आखिरी तारीख़ होने की वजह से पूरी क्लास की फीस बच्चों से लेकर कार्यालय में जमा जो करनी थी।
रजिस्टर खोलकर उपस्थिति लेने के बजाय मैंने पहले फीस का कॉलम देखना शुरू किया कि फीस किस-किस ने नहीं दी ! कुछ सयाने बच्चे स्कूल ही नहीं आ रहे थे । आगे बढ़ते हुए जब पुष्पा और रानी के नाम पर मैंने नजर उठाई तो पुष्पा को बैठे पाया ।
उद्वेलित मन से मैंने व्यंग्य किया – हूँ..! तो आज आपका नंबर है।
पुष्पा ने सिर झुका लिया
– फीस कहाँ है? मेरे स्वर में कड़वाहट घुल गई थी। सहमी हुई पुष्पा ने धीरे से उठकर कसकर दवाई हुई मुट्ठी खोल दी और एक-एक नोट को खोलकर फैलाकर मेज पर रखा जैसे कोई खजाना रख रही हो । दस-दस के आठ नोट देखकर मेरा पारा सातवें आसमान से भी शायद एक माला ऊपर चढ़ गया था।
– क्या… क्या ? समझते क्या हो तुम लोग ! बाजार में दुकान खोलकर बैठे हुए हैं कि ठीक ठीक दाम लगा लो। रजिस्टर में तुम दोनों का नाम दर्ज हुआ है। एक दिन में एक ही के स्कूल आने से एक ही की फीस में काम चल जाएगा, यह महान विचार आया कैसे आपके दिमाग में ! एक तो दोनों कभी साथ स्कूल नहीं आतीं और ऊपर से आज आखिरी दिन फीस दी भी तो पूरी नहीं ..!
– दी… दीदी ! आज रजिस्टर फीस जमा कर लीजिए। संचायिका और अभिभावक संघ की फीस भी कुछ दिनों में दे देंगे।, पुष्पा की आवाज कांप रही थी ।
– क्यों ! कुछ दिनों में छप्पर फटने वाला है क्या ! मैं भी अपने आपे में नहीं थी । गुस्से ने विवेक को नष्ट कर दिया था । अपराध बोध से सर झुका पुष्पा चोर निगाह से कभी मुझे देख लेती कभी दाएँ बाएँ बैठे सहपाठियों को ।
पता नहीं उस दिन मुझे क्या हो गया था। बच्चों के साथ इतना गंदा व्यवहार मैंने कभी नहीं किया था। मैं अपनी ग़लती समझ भी रही थी पर आहत स्वाभिमान की प्रतिक्रिया में और कहीं से मेरे अंदर आकर बैठा अहं का राक्षस मुझे सामान्य नहीं होने दे रहा था और सामान्य मानवीय वृत्ति के अनुरूप अपने से कमजोर पर उसका प्रयोग कर रहा था ।
पहली बार मेरे बच्चे मुझसे आतंकित लग रहे थे उनके भय ने गांधी जी की तस्वीर को भी हिला दिया । मैंने रुक कर नाहिद को उसे ठीक करने को कहा और रजिस्टर लेकर बाहर पेड़ के नीचे टेबल चेयर लेकर फीस का हिसाब लगाने लगी। तभी नाहिद, क्लास की टॉपर और पुष्पा रानी की बेस्ट फ्रेंड वहां आई ।
– हां ,बोलो नाहिद ! मैंने निगाह चुराते हुए कहा।
– दीदी ! आप नाराज मत हुआ करो। आप नाराज़ अच्छी नहीं लगतीं।
उसके अधिकार पूर्ण प्यार से मैं अपने ऊपर थोड़ी शर्मिंदा होकर कुछ बोलने को हुई कि उसने आगे कहा ..
– दरअसल दीदी ! पुष्पा के घर में अभी कुछ समय पहले ही बँटवारा हुआ है । इकट्ठे में जो जमीन 100 बीघे थी वो पाँच भाइयों में बँटकर 20-20 बीघे रह गई । इनके पापा ने कहा – अभी तंगी है इस बार छोटे भैया को ही पढ़ लेने दो । तुम्हें बाद में प्राइवेट फॉर्म भरवा देंगे । इस पर इन दोनों ने अपने पढ़ने की जिम्मेदारी खुद उठा ली । इसलिए एक दिन पुष्पा किसी के खेत में मजदूरी करने जाती है दूसरे दिन रानी …
मैं हक्की बक्की रह गई….! मेरे कानों में सीटियां बोलने लगीं । आगे का मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था । अपराध बोध से साँस तेज चलने लगी। आंखों में पानी आ गया । पैर कांपने लगे। इतनी बुरी कैसे हो गई मैं ! अपने ही बच्चों को नहीं समझ पाई ?
यह घटना न घटती तो मुझे कभी एहसास ना होता कि आजादी के साठ साल बाद भी हमारी बच्चियां अस्तित्व के लिए संघर्ष की अवस्था से गुजर रही हैं। मैंने रजिस्टर और पैसे बटोरे और सीधे ऑफिस की ओर चल दी पूरी क्लास की फीस जमा करने…. 

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किताबें

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