Friday, November 29, 2024
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गीता गैरोला
 
जन्म,, भट्टीगांव, जिला पौड़ी गढ़वाल
 
सम्मान-जन कवि गिर्दा सम्मान,अमर उजाला ,दिव्य ज्योति जागृति संस्थान,हिंदुस्तान एच टी सम्मान,बिगुल सस्था द्वारा गार्गी सम्मान।
 
संप्रति- स्वतंत्र लेखन के साथ विभिन्न समाजों उनकी संस्कृति को समझने हेतु निरंतर यात्राएं।
 
विशेषज्ञता- साहित्य की विभिन्न विधाओं कविता,कहानी,संस्मरण, ट्रैवलॉग,लोक कथाओं की जेंडर संवेदन शीलता को समझना,उस पर महिलाओं के साथ काम करना।
 रचनाओं का प्रकाशन,, समूहों से नेतृत्व में उभरी महिलाओं  संघर्ष को बोल कि लब आजाद हैं तेरे नाम से लेखन,संकलन तथा संपादन।
कविता संग्रह नूपीलान की मायरा पायवी(स्त्री संघर्ष की जलती मशालें) का अंतिका से प्रकाशन
मल्यो की डार नाम से संस्मरणों का समय साक्ष्य से प्रकाशन।
प्रसिद्ध लेखक विद्या सागर नौटियाल जी लिखित महिला केंद्रित कहानियों का संकलन कर प्रकाशन
मोहन थपलियाल जी की संपूर्ण कहानियों का संकलन,संपादन।
छायाकार कमल जोशी के ट्रैब्लॉग का संकलन संपादन
विभिन्न पत्रिकाओं,अखबारों में कविता,कहानी, ट्रैब्लॉग,लेख,लोक कथाएं प्रकाशित।
  ये मन बंजारा रे यात्रा वृतांत
कैंसर ,,,,डायरी गूंजे अनहद नाद
समकाल की आवाज के अंतर्गत कविता संग्रह।का प्रकाशन
 
ई-मेल[email protected]
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कविताएं

अनंत

जिस दिन भी चाहेगा कोई
दे दूंगी उसको
चौखंभा के पीछे से निकला
पूर्णिमा का चांद
आडू के बैंगनी फूल
मोनॉल के रंगीन परों के साथ
रूपिन के बर्फीले पानी में बहा दूंगी
वापसी करूंगी
हेमंत में झरी पत्तियों के रिक्त स्थान में
दोनो के मिला कर
दस तत्वों के साथ
कहीं खिलेंगे
इसी वसंत में
एक प्योंली
एक बुरांश बनकर

मोह

रिश्ते नातो से जुड़े
मोह के अनदेखे धागों का सच
जीवन राह में अधूरा ही छूट जाता है
ये सच्चाई नही होता
सच्चाई इसकी अंतहीन पीड़ा होती है
चांद सच्चाई नही होता
चांदनी सच्चाई होती है
भूख अकेले सच नही होती
रोटी सच्चाई होती है
तृष्णा प्यास से सच्ची होती है
ये प्यास को नदियों तक ले जाती है
दर्दों की दुनिया अंतहीन है
आंसू उनकी सच्चाई है
लंबी राहों पर अनवरत अधूरा चलते रहना
सच नही होता
सच्ची केवल मृत्यु होती है

वैदेही

देह में रह कर विदेह होना
स्त्री सूत्र है हृदय का
इसका विस्तार अनंत आकाश तक है
देह के अंतर से
देह के अंतरस्थ तक
विस्तृत मुखर मौन में
व्याप्त
जीवन मृत्यु के राग में
छह ऋतुओं के बारह मौसम
शेष होते हैं
अनंत दिगंत तक
निशेष होते हुए
गोधूली बेला के आगमन में
बहती मंद पवन के साथ
अशेष हो जाना
वैदेही

घर

लाल छत वाला
जिसकी खिड़कियां खुलती हों
घने बांज के जंगल में
गुच्छे बुरांस के
आनंद से देहरी पर झूमते हों
हवाएं आराम करती हों
आकाश के दाह में
पृथ्वी के एक छोर पर
हिम जल से भरा गदेरा आकुलता से बहता हो
धूप को चुराने को
बारिश से लिखें प्रेम
किताबों से भरा हो एक कमरा
जिसमे लिपटा हो समय
किसी उजले कोने की जमीन पर
बिछा हो एक बिस्तर
जो मन के कोलाहल को मौन से जोड़ दे
दरवाजों पर स्वप्न खड़े हो
बसंत मालती की महक लिए
रसोई के किनारों पर ठहरी हो मेरे नाम की बूंद
बेपरवाह पत्तियां करवटें बदलती रहे
दूर सामने वाले खेत में फूलो से भरा रहे पदम वृक्ष
उसकी छाया में मेरी सुबहें कोमल ऋषभ में
गाती रहे राग भैरव
दूर अनंत से एक फाख्ता किताबों के मध्य
सेवती रहे अपनी आने वाली संतति
और बसंत अपनी नमी को सहेज कर
बेपरवाह नंगे पैरों से चलती जिंदगी को
एक दरवेश की तरह सहलाता रहे
घर की देह में
एक घर बनाना था

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किताब

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