रसोई से उड़कर
रसोई से उड़कर
पोस्टर में अटकी
धरती और आसमान के,
बीच लटकी
भटक गई है स्त्रियाँ
मापदंडों को खटकी
परंपरा से चटकी
सवाल करने लगी
जवाब ढूंढने लगी
समझने लगी, समझाने भी लगी
कौन कर रहा है?
उनके साथ ठगी
भटकी गई है, स्त्रियाँ
अपने घर में
अपने ही स्वर में
अपने शहर में
भरी दोपहर में
देखो तो भला !
क्या-क्या बातें करने लगी ?
आत्मिक सुख संतुष्टि और त्याग नेपथ्य में छिपा हुआ
तिरस्कार और परित्याग
मन में लेकर आग
शारीरिक सुख
अपनी जरूरतों की बात करने लगी
भटक गई है, स्त्रियां
स्वाभिमान, अभिमान के साथ
जीना चाहती है
क्या होना चाहती है अनाथ ?
नहीं चाहती अब किसी का साथ
सोचती है……….
सजग हो चली है
अपने धन अपने मन को लेकर
क्या होगा, सब कुछ देकर?
संवाद में केवल विवाद है
प्रेम पर्याप्त नहीं
संपूर्णता को भी सब कुछ प्राप्त नहीं
फिर भी माँ बनना चाहती है
प्रेम करना और प्रेम पाना चाहती है
अभी भी उतना नहीं भटकी, जितना तुम भटके हो………..
ना जाने कैसे?
बहुत दूर तक भटक कर
लौट आती है
भटकी हुई, स्त्रियां……
लिंग बोध से परे
बलात्कार नहीं करता
हत्याएँ नहीं करता
प्रेम में कभी असफल नहीं होता सफल जंगल……..
विकट सच
निकट झूठ
शोक प्रस्ताव
अभाव ही अभाव
आकलन से कैसा लगाओ
जंगल शान से कहता है
जंगल में किसी के उंगलियों पर चुनाव चिन्ह नहीं है
अरे साहब !!!
अपना रास्ता बदल लो
यहां लड़ाई नहीं होते
हम अपनों को कभी नहीं खोते
हमारी हड्डी से कुर्सी तक्ता सत्ता
तुम्हारे कुदाल तुम्हारे कुल्हाड़ी
सब के पीछे हम हैं
हम कचहरी से नहीं डरते
हम लाचारी से नहीं डरते
हम डरते हैं अक्षरों की चालाकी से
हम जंगल हैं जंगल के रहते हैं
अपनी बात बड़ी सरलता से कहते हैं