पायल भारद्वाज
जन्मतिथि- 26 अगस्त 1987
शिक्षा- वाणिज्य एवं हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर
निवास स्थान- खुर्जा(उत्तरप्रदेश)
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कविताएं
घृणा
घृणा एक कट्टरपंथी शब्द है
एक कठोर सँकरा अनुदार शब्द
असहमति में शेष रहती है-
संभावना, सहमति की
अप्रियता में प्रियता की
अमित्रता में मित्रता की
प्रतिकूलताओं के
बड़े और भारी पत्थर के नीचे
बची रह जाती है
अनुकूलताओं की छटाँक भर नमी
परन्तु घृणा में कुछ नहीं बचता
प्रतिकूलता भी नहीं
बचती है तो केवल घृणा
जिसे बोलते वक़्त तुम
‘र’ को जितना घुमाओगे
वह उतनी ही गाढ़ी होती जाएगी।
धर्म
धर्म बताएगा
किस भाषा में रखा जाए तुम्हारा नाम
पर काग़ज़ और क़लम नहीं देगा
उसे लिखना सीखने के लिए
धर्म बताएगा
तुम्हें पानी के प्रयोग के ढंग
दैहिक पवित्रता के लिए
पर पानी नहीं देगा
अनुपलब्धता की स्थिति में
धर्म बताएगा
तुम्हें प्रार्थना का तरीक़ा
पर ज़मानत नहीं देगा
प्रार्थना स्वीकार होने की
धर्म बताएगा
कि क्या सुलूक करना है
तुम्हारी मृत देह के साथ
और तमाशा ख़त्म होने पर
खीसें निपोरकर बजाएगा ताली
अपनी जीत की ख़ुशी में
दु:ख जुड़ा रहा नाभि से
नाराज़गी का बोझ उठा सकें
इतने मज़बूत कभी नहीं रहे मेरे कंधे
‘दोष मेरा नहीं, तुम्हारा है’
यह कहने के बाद मन ने तब तक धिक्कारा स्वयं को
जब तक अपराधबोध ने श्वासनली अवरुद्ध न कर दी
और क्षमायाचना न करवा ली
प्रेम करते हुए स्वयं को घाट पर पानी पीते उस निरीह हिरण की भूमिका में पाया
जिसे बाहर से भी घात का डर है और पानी के भीतर से भी
जिसके लिए पानी पीना भी दुरूह है और न पीना भी
विरक्ति ने मनमाने पैर पसारकर अपनी जड़ें मज़बूत कर लीं
वांछना और प्राप्ति के बीच इतना अंतराल रहा
सुख आया भी तो किसी नकचढ़े अतिथि की तरह
आवभगत में ज़रा-सी कमी हुई
बोरिया-बिस्तर उठाकर चलता बना
दुःख जुड़ा रहा नाभि से
माँ की तरह
गालियाँ दीं, मारा-पीटा, ख़ूब रुलाया
और अंततः आँसू पोंछते हुए
सीने से लगाकर
सहेज लिया अपने आँचल में…
मुखर स्त्रियाँ
मुखर स्त्रियाँ डायन होती हैं
लंबे नाख़ून और नुकीले दाँतों वाली
लील जाती हैं घर की तथाकथित शांति
क्लेश उनका पसंदीदा शग़्ल है
मोस्ट वांटेड क्रिमिनल्स हैं वे स्त्रियाँ
जो जानती हैं
अपनी ज़रूरतें, अपने अधिकार, अपनी पसंद-नापसंद
वे कहते हैं स्त्री देवी-स्वरूप है
देवियों के मुँह में ज़बान नहीं होती
उनके होंठ हिलते और खुलते हैं
शालीनता से मुस्कुराने के लिए
सुमधुर, कर्णप्रिय, आयुवर्धक भजनों और वचनों के लिए
देवियाँ मार दी जाती हैं
मर जाती हैं
फाँसी लगाकर, ज़हर खाकर, पानी में डूबकर, धरती में समाकर
निश्चय ही वे स्वर्ग को प्राप्त होती हैं
लाल जोड़े में सजी
सौभाग्यपूर्वक भस्म होती हैं
पति अथवा पुत्र द्वारा दी गई मुखाग्नि में
डायनें मरती नहीं
मारती हैं
निगल जाती हैं लोथ के लोथ
वे शापित हैं
आजीवन अपनी मुखरता का त्रास झेलने के लिए।
बहिष्कृत
मुझे कंडे ही पाथने थे
बनानी थीं बस रोटियाँ
दूध दुहना था
दूध पिलाना था
दबे स्वर में
गानी थीं लोरियाँ
धोनी थीं तिकोनियाँ
आधी उम्र तलक
बदन ढाँपकर चलनी थी मयूरी चाल
हौले-हौले भरने थे डग
क, ख, ग से दूर ही रहना था
किताबें छूनी थीं
धूल हटाने को
रद्दी काग़ज़ों से सुलगाने थे चूल्हे
अँगूठे से करने थे केवल तिलक
अँगूठे और तर्जनी को मिलाना वर्जित ही अच्छा था मेरे लिए
हर रात छुपन-छुपाई के खेल में
धप्पा खाना था
चुपचाप बँधे रहना था खूँटे से
बिना सींग वाली गाय की तरह
धार निकालते वक़्त लात नहीं मारनी थी
अपने सिर लेनी थीं सारी बलाएँ
आँखें मूँदकर करने थे
व्रत और प्रार्थनाएँ
नज़रें झुकाकर पलकें उठानी थीं
आदेश पर
कितने ही ‘सुख’ हो सकते थे मेरी झोली में
मैंने भर लीं कितनी पीड़ाएँ
प्रकृति का तोहफ़ा थे इंसान को
बुद्धि, विवेक, ज्ञान और तर्क
परंतु मेरे लिए अभिशाप
इंसानों की श्रेणी से बहिष्कृत
मैं एक स्त्री थी
अब्दुल पंक्चर बनाता है
अब्दुल पंक्चर बनाता था
गाँव के सिवाने पर चार बल्लियों के सहारे टिका था उसका छप्पर
गड्ढों में दुबकी ग्रैंड ट्रंक रोड के किनारे
ग्रैंड रोड ग्रैंड शहरों तक जाती थी
पर अब्दुल कहाँ जाता था!
रोज़ सवेरे सात बजे झाड़ू लगाकर
बल्लियों पर गड़ी कीलों पर टाँगता था टायर
ट्यूब में हवा भरकर
तसले में भरे पानी में उसे डुबा-डुबाकर ढूँढ़ता था पंक्चर
किसी पुराने बेकार ट्यूब में से काटता था चौकोर टुकड़े
सिर झुकाकर, पूरी तल्लीनता से
करता था उन्हें गोल
बिल्कुल वैसे जैसे माँ करती थी पूजा
जैसे मैं छीलती थी पेंसिल
ट्यूब के गोल टुकड़े पर
वह वैसे ही गोंद लगाता था
जैसे अपने नवजात शिशु की छाती पर तेल लगाती है
एक माँ
कितनी कमाल की है अब्दुल की गोंद
मैं हमेशा सोचती थी
जब दोबारा बनाने के लिए
अब्दुल खोलता था
कोई पुराना लीक हुआ पंक्चर
“अब्दुल ये गोंद कहाँ मिलती है?”
“क्या करोगी मुन्नी, आपके काम की नहीं!”
“पर मुझे चाहिए”
“ठीक है, मैं ला दूंगा”
हर बार गोंद लाना भूल जाता था
जानता था
गोंद मेरे काम की नहीं
मुझे काले ट्यूब नहीं सफ़ेद काग़ज़ चिपकाने थे
पर वह ये नहीं जानता था
कि मन ही मन मैं भी बनाना चाहती थी पंक्चर
काटना चाहती थी ट्यूब की काली कतरनें
मगर वह मेरा काम नहीं था
अब्दुल्लाह ख़ान उर्फ़ अब्दुल मेरा नाम नहीं था
अब्दुल तो उसका नाम था
जो पंक्चर बनाता था
लगाता था मेरी साइकिल की चेन में ग्रीस
ताकि मैं स्कूल जा सकूँ
काग़ज़ काले कर सकूँ
और एक दिन ठट्ठा मारकर कह सकूँ
कि अब्दुल पंक्चर बनाता है
अब्दुल पंक्चर ही बनाएगा ।।
दोष
लड़का अन्तर्वासना पढ़ रहा था और लड़की आसारामायण
लड़का सीख रहा था संभोग के प्रयोग
लड़की रोटी के किनारे पतले करने की कला
लड़का शरीर के सुख का विज्ञान जान रहा था
और लड़की गर्भ ठहरने, ना ठहरने का
लड़का गुन रहा था ‘ना’ न सुनना
और लड़की ‘ना’ न कहना
लड़की रोते हुए पूछ रही है
“शरीर के पश्च भाग से संभोग कौन करता है?”
वह जानना चाहती है-
“यह सामान्य है या असामान्य”
वह जानना चाहती है-
पति को ख़ुश रखना
चूंकि पत्नी की सामान्यता है
और पति की इच्छा में असामान्य कुछ भी नहीं
सो इस सामान्यता में अक्षम रहना कहीं उसी का तो दोष नहीं?”
मुझे लड़़की से कहना है-
ज़रूरी यह जानना नहीं
कि कौन करता है
ज़रूरी यह जानना है
कि तुम्हें करना है या नहीं
मुझे लड़़की से कहना है-
अक्षमता दोष नहीं है
दोष है ज़बरदस्ती की सक्षमता को ढोना
प्रेम एक लम्बा दु:ख है
हम बसन्त में पतझड़ की बात करेंगे
सरसों पर रीझती दुनिया में सहेजेंगे
सत्यानाशी के फूल
बहुत बुरे हो तुम!
कहकर चूम लेंगे
एक दूसरे को
पिछली बार से भी अधिक व्यग्रता से
हर झगड़े के बाद
हम प्रेम में किसी देवत्व की स्थापना नहीं करेंगे
हम मनुष्य हैं मनुष्यों की तरह प्रेम करेंगे
जब तमाम परिभाषाएँ दे चुके होंगे
प्रेम में खाए पीए अघाए लोग
तब हम कहेंगे
प्रेम एक लम्बा दु:ख है
क्योंकि दु:ख अस्ल में कुछ और नहीं विकल्पों का अभाव है
और प्रेम का कोई विकल्प नहीं दोस्त!
मेरे लिखे में
मेरी आँखों में झाँककर जिसने माँ से कहा था—
“इसकी आँखें देखीं आपने!
हल्की भूरी हैं, आकर्षक।”
मेरे लिखे में वह पुरुष डॉक्टर है
ख़ुद से पाँच साल बड़ी दोस्त का उससे पाँच साल बड़ा प्रेमी है जिसे प्यूबर्टी की उम्र में चूमा था मैंने
एक लड़का है जिसने सारे मोहल्ले में अफ़वाह उड़ाई थी कि उसका चक्कर है मुझसे
एक वह लड़का है जिसने महीनों साइकिल से मेरा पीछा किया
वह डरावना पुरुष है जिसने राह चलते मेरे सीने पर हाथ मारने की कोशिश की थी
एक वह लड़का भी जिसने बिना कुछ कहे सालों चोर नज़र से देखा मुझे
एक वह पुरुष दोस्त है जिसकी दोस्ती ने अनजान शहर को अपना बनाया
मेरे लिखे में पति बन चुका एक प्रेमी है
एक छूटा हुआ प्रेमी है जिसका छूट जाना ही बेहतर था
एक छूटा हुआ दोस्त है जिसे कभी नहीं छूटना था
कोई एक नहीं अनेक पुरुष हैं मेरे लिखे में
तुम किसे ढूँढ़ रहे हो दोस्त?
कविता छूट रही है
आटे की लोई और कविता की भूमिका
दोनों साथ-साथ बनते हैं
बेलन की चोट से लोई बढ़ती है,
कविता नहीं।
विचारों और भावों को आग में झोंककर
सेंकी जाती हैं रोटियाँ
(पेट की दुनिया में रोटियों का जलना वर्जित है)
सालन की तरी में डूबकर मर जाते हैं शब्द
रसोई को तारीफ़ें मिलती हैं,
कविता को उपेक्षा!
स्वाद-ग्रंथियों को नागवार गुज़रती है—आत्मप्रवंचना
आत्महनन से सिकुड़ती जाती हैं आँतें
जैसे-तैसे निगल ली जाती है
आख़िर में बनाई गई एक बेढब रोटी।
जीने की प्रक्रिया में चलते रहना ज़रूरी है
पर शरीर के साथ मन भी चले, ज़रूरी नहीं।
डूबते सूरज और छूटती कविता के साथ
मन भी डूब जाता है कई बार
(सूरज डूबता है, छूटता नहीं!)
कविता छूट रही है—
जैसे छूटता है घर के कामों में समय,
जैसे छूटती है उम्मीद,
जैसे छूटता है जीवन।
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