पूनम मनु
परिचय –
नाम – पूनम मनु
शिक्षा – एम ए हिंदी
संप्रति – स्वतंत्र लेखन
एक कहानी संग्रह ‘समंदर मंथन, एक काव्य संग्रह ‘कविता है कि स्त्री है’, तीन साझा काव्य संग्रह, एक साझा कहानी संग्रह, एक साझा समीक्षा पुस्तक तथा एक उपन्यास ‘ द ब्लैंक पेपर’ प्रकाशित। एक नाटक, एक कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। (हंस, नया ज्ञानोदय,आजकल, वागर्थ, इंद्रप्रस्थ भारती,लमही, विभोम स्वर, हरिभूमि, प्रभात खबर, लोकमत, छत्तीसगढ़ मित्र, कथाबिम्ब, माटी, आभा किरण,हिन्दी चेतना, उत्पल, वसुधा, अहा! ज़िंदगी, जनसत्ता, विश्वगाथा, समाज कल्याण पत्रिका समेत अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित )
मेरा पता –
बी-285 ,श्रद्धापुरी फेज-॥
सरधना रोड़ ,कंकर खेड़ा
मेरठ 250001, उत्तर प्रदेश
poonam.rana308@gmail.
कहानी
कल की मजदूर पीढ़ी
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हरेभरे पीपल के नीचे बैठे तीनों के मध्य इतनी निःशब्दता कि हवा की हल्की सरसराहट भी झोंके का–सा तेज़ रूप धरे प्रतीत होती। हर झोंका ढीठ–सा। जाने क्यों आता और उनके मुख से टकरा जाता बार–बार। बाद इसके भी उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं। ठहरा हुआ मौन दूर तक फैले क्षितिज को अपने अंक में भरकर मानों नेस्तनाबूद करने को आतुर। मटमैला–सा, धुंधला–सा सब कुछ। किसी की भी आँखों में कोई उपज नहीं। उफ! किसी ने कितनी सच्चाई से अपने मर्म पर हाथ रखकर कहा है– “सबसे बुरा है, सपनों का मर जाना।”
मानुष–सी बेगैरत कोई है धूप जो अपने–पराए, देव–असुर, नदी–समुन्द्र में भेद करे। उसका तो जहां जी चाहता है; पसर जाती है। वह तो ईश्वर की नेमत है। सबको पूरे मन से भरती है बांह में। हाँ, जाते हुए कुछ विशेष हो जाती है। जाते भी सबके लिए नहीं जाती। किसी–किसी के लिए जाती है। बस यहीं पर बदल जाते हैं प्रकृति के सभी नियम।
जैसे रघु पाँव सिकोड़ती धूप को देखकर अचानक किसी अनजानी पीड़ा से भर उठा भीतर ही। “आज फिर खाली हाथ…” एक सीलन–सी उतर आई सांस में।
–“बस, अब सब्र नहीं होता। बच्चों के मायूस चेहरे अब मेरी बची–खुची हिम्मत भी डिगा देने को होते हैं। कलेजा चाक–चाक है मेरा।” दीपे ने अपने हाथ पीछे ज़मीन पर पटके और अपना सारा वज़न उनपर डाल दिया।
–“भैया, ऐसे हिम्मत न हारो, अल्लाह कुछ न कुछ रास्ता ज़रूर दिखाएगा।” स्त्री उन दोनों को सांत्वना देते हुए जैसे स्वयं को संभालना चाहती थी।
–“सकीना भाभी, ईश्वर, अल्लाह कोई नहीं हमारा। सब कहने की बात है…हम मजदूर तो बेबसी की पैदावार हैं।” रघु अपना धैर्य खो बैठा। मानों उसके आक्रोश का सबसे बड़ा कारण ईश्वर अल्लाह ही थे।
–“अभी पिछले दिनों अपनी घरवाली की बच्चेदानी का अपरेसन करवाया मैंने। जमा–जोखड़ी तो क्या थी। सारा पैसा उधार पर लिया। सोचा था, थोड़ा–थोड़ा कर उतार दूंगा। पर ये साली नोटबंदी!!! बेफजूल की बेकूपी… गरीबों की जरा नहीं सोची सरकार ने। अब कर्जा ते के चुकाऊंगा। यहाँ तो रोटी के भी लाले हो गए।” पिछले एक हफ्ते से बिना मजदूरी के घर लौट रहा रघु दोनों नथुनों में उतर आए पानी को हौले–हौले पोंछने लगा।
–“भैया रघु, इतने दुःखी मत हौओ। सब्र रखो। तुम हिम्मत हारोगे तो….” स्त्री की आँखों में भी रघु के हिस्से का पानी उतर आया था स्यात। वह अपने घिसे–पिटे दुपट्टे से अपनी आँखें पोंछने लगी।
–“देख, भाई रघु मुझे देख, पिछले चार महीनों में मुझे खूब काम मिला। रात–दिन काम किया। पर उसका पैसा… आटे में नमक बराबर भी मेरे हाथ न लगा।” दीपे के स्वर में घुले आक्रोश से सनी उसकी विवशता वहाँ उपस्थित बाकी दोनों के अन्तर्मन से छुपी न रह सकी।
–“क्या मतलब? क्या हुआ?” एक जाना–पहचाना–सा अचरज दोनों की आँखों में संग उभरा।
-“सारे पैसे ठेकेदार डकार गया भाई। शुरू में ठीक–ठाक पैसे दिए उसने पर बाद में तो कभी सौ हाथ पर धर देता था कभी पचास। पैसा उसके पास फंसा था तो मजबूरी में कई माह मजूरी भी वहीं करनी पड़ी।” एक उसाँस दीपे के मुख से बाहर निकली।
–“ऐसे कैसे भैया, किसी को साथ लेके जाओ। अपने पैसे निकलवाओ। ठेकेदार है तो क्या साबुत ही सटक जाएगा हमें।” स्त्री क्रोध में आगबबूला हो गई।
–“भाभी, पंद्रह दिन हो गए। उसके घर के रोज चक्कर लगाता हूँ मैं। पता चला है–बाल–बच्चों समेत बिहार भाग गया वो। साला ठग मेरे सारे पैसे ले गया। क्या करूँ ?कहाँ शिकायत करूँ। कहाँ दरखास्त लगाऊँ? ऊपर से नोटबंदी के चलते अब कोई नया काम भी नहीं मिल रहा।” क्षोभ से भरे दीपे ने अपने माथे में हाथ मारा।
–“हा! कितना हराम था वो। हाय लगेगी मरदूद को! देखना भैया हाय लगेगी उसे।” स्त्री उसके दुःख से सचमुच दुःखी हो गई।
–“सबसे बड़ी तो यही परेसानी है भाई। पहले से ही, सदियों से ही ये जो बड़े करोड़पति बने हैं। पैसे वाले बने हैं। सब हमारे हिस्से का डकार कर बने हैं। जो कोई कहता है न कि मैं ईमानदारी से काम करने वाले का हिसाब करूँ हूँ। वह भी पहले काम करवा ले है। और बाद में हिसाब करते हमारी जायज मजदूरी में से ना ना करते भी सौ–दो सौ रुपये काटकर ही हमारी हथेली पर पैसा रखे है।“ पता नहीं किसके प्रति आज मन कसैला हुआ उसका। कई दिन के खाली हाथ होने से या घर में आस–निराश, अध खाली पेट बैठे बच्चों के उदास मुखड़ों के याद कर अपनी मजबूरी से। आँखों का खालीपन और गहरा हो गया रघु का।
–“भैया, तुम लोगों से क्या छुपा है भला। कितने कष्ट देखे मैंने छोटे–से जीवन में। उनके अचानक चले जाने से घर के जो हालात थे। अपने जीते जी कभी पर्दे से न निकलने दिया था उन्होंने मुझे। पर उनके जाते ही जाने कैसे बदकिस्मत हुई मैं कि कई महीने फाकापरस्ती के बाद आखिर मैंने सब पर्दे सब बंधन तोड़ दिये। बच्चों के भूखे–सूखे चेहरे और घर पर रोज़ ही टूट आती मुसीबतों ने मुझे लोगों के घर की नौकरानी बना दिया।” सकीना लगभग सुबक पड़ी।
–“भाभी, चिंता न करो सब ठीक हो जाएगा।” दोनों ने एक स्वर में स्त्री को धैर्य बँधाने की कोशिश की किन्तु वह और अधिक बिलख उठी-“क्या बताऊँ भैया, आप मजदूरी की बात करते हो। मेरे आदमी की तो अपने मालिक की गलती से जान गई। वैल्डिंग करते। पर कमबख्त ने उनकी जान की कीमत महज़ तीस हज़ार रुपया लगाई। वो भी इतने लोगों के हो हल्ला करने पर। ये भी न सोचा इसके बच्चों का अब क्या होगा।”
–“बस भाभी, अब याद न करो। जो भाग में लिखा। लिखे को कौन मिटा सकता।” दीपे ने उसे पूरे मन से सांत्वना दी।
–“अच्छा हो मैं भी कहीं काम करता मर जाऊँ। बच्चों को कुछ तो मिलेगा।” रघु होठों में ही बुदबुदाया था पर पता नहीं कैसे उसका स्वर दोनों के कानों में लावे–सा उतर गया।
–“अरे, ना… ना, भैया कैसा सोच रहे हो… ना! ऐसे नहीं कहते।” देने को तसल्ली देते रहे दोनों पर उनके मुख पर जमा गर्द उनके अंदर ही अंदर विचलित होने की कहानी कहती रही।
अचानक स्त्री की ओर से सुबक उठी– “कोई न देता भैया। कोई न देता। किसी मजदूर की जान की कीमत ही क्या है। कहने को तो मौताना के तीस हज़ार कबूले उनके मालिक ने। पर हमें दिया क्या जानते हो…? केवल पंद्रह हज़ार। बाकी के पैसे लेने जाने पर कहता है वह हरामखोर– ‘पूरी ज़िंदगी उगाही कर कर के खावेगी क्या… उसकी जान का सौदा करे है । तू तो बड़ी सौदागरन है री।’ सुबक लगभग रोने में तब्दील हो गई थी।
–“क्या करूँ भाभी। मैं क्या करूँ। कुछ न सूझ रहा। यहाँ तो पहले ही रोटी के लाले थे ऊपर से सूदखोर रोज चला आवे घर… कैसे करूँ। क्या करूँ। घर जाते भी घबराऊँ हूँ?” रघु ने अपनी निगाहें मानों आसमान को भेदने में लगा दी थीं।
–“हिम्मत रखो भैया… परेशान न हौओ। अल्लाह कोई रास्ता जरूर दिखाएगा।” स्त्री अपना दुख भूल उसका धीरज बंधाने लगी।
“राम हम गरीबों को बच्चे भी तो छिककर देवे है। और सारी दुनिया जहान की बीमारियाँ भी।” रघु अपनी आँख का पानी पोंछता मानों भीतर ही बड़बड़ाया। पर उसके शब्द दीपे के कानों में घर कर गए।
–“सही कहते हो भैया। चार ऊपर तले के बालक हैं मेरे। बड़ी तीनों बेटियाँ छोटा बेटा। कहने को तो तीनों ही ब्याह के लायक हैं। पर पैसे की कमी के कारण बड़ी बेटी का लग्न हर माह, हर बरस आगे सरका दूँ हूँ। इस बार लगके काम किया सोचा। अबके ब्याह निबटा दूंगा। पर साला ठेकेदार ही धोखा दे गया। इधर नोटबंदी के कारण कोई नया काम देने को तैयार नहीं। घर में फाकों की नौबत है अब तो। जी मैं ऐसी आग लगी है। क्या बताऊँ तुम्हें।” लाचारी में उसके जबड़े भिंच से गए।
–“मैंने तो सोच लिया है अगर ऐसा ही चला तो….” दीपे का मुख लाल हो गया।
–“तो… क क्या…क्या सोच लिया है।” रघु और सकीना के हृदय किसी आशंका से घिरते ही काँप उठे।
–“बच्चों को जहर देके खुदकुशी कर लूँगा मैं!”
–हा!
सारा वातावरण साँय–साँय। जैसे भुतहा आँधी ने घेर लिया हो सबको चहुंओर से। एक पल को किसी को कुछ सुझाई न दिया। दोनों ही मानों शून्य। पर स्थिति का भान होते ही–
“ना ना न… नहीं भाई ऐसे नहीं कहते। परेशानी तो आती–जाती रहती है। ऐसे कैसी बात कही। ना!” रघु ज़ोर से बोला पर आवाज़ जाने क्यों मध्यम रही उसकी।
सकीना तो स्त्री थी। स्त्री कब घबराती है किसी भी परेशानी से। वह तो सबके कष्ट हरने को जैसे तत्पर रहती है। भले अपने लिए कुछ सूझे न सूझे। पर दूसरों के लिए…। अलबत्ता तो अपने लिए सोचती ही नहीं। प्रमाण सामने था– “भैया… ये तो मर्दों वाली बात न कही आपने। मुझे तो बहुत कायर लगे हैं ऐसे इंसान जो मुश्किलों का हल खोजने की बजाय उससे भागने के मंसूबे बनाते हैं।” वह द्रविता हस्बेमामूल आज भी कोई डोर थमाने की जुगत में थी किसी डूबते हुए को। बिना अपना पराया देखे।
–“और क्या भाभी, और क्या! और रस्ता क्या है मेरे पास” हारा दीपे छटपटा उठा।
–“ ना भईया… मेरी समझ की बात न कही तूने। मेरी तो सोच ये है जब तक ईमानदारी से मिलेगी तो ठीक। फेर बाद में चाहे मुझे हेराफेरी, चोरी, डकैती करनी पड़े भले तो करूंगा… पर अपने बच्चों को यूं बेमौत तो न मारूँगा मैं। अपनी ज़िम्मेदारी से भागना तो कायरता है भाई।” रघु का स्वर तीव्र हो उठा।
इन तीनों से कुछ ही गज की दूरी पर पीपल को पीछे से अपनी बाहों में भरे खड़े प्रदीप के टखने यकायक चरमरा–से उठे। उफ! क्या है ये सब! क्या है। क्या हो रहा है? अकस्मात इस पूरे जगत को कैसी लाचारी ने घेरा। अभी हुआ है ये सब या पहले से ही सब होता आया। भूख ने कैसे अचानक इतना डेरा डाला कि हर व्यक्ति हर इंसान व्यथित है आज। कैसे चारों दिशाओं में चीत्कार है। कैसे?
वह… वह भी तो कितना निराश है। कितना हताश है इन दिनों। यूं तो उसकी पूरी उम्र ही निराशाओं और हताशाओं की गाथा है। पर आजकल जो उसके साथ हो रहा है। वह। वह क्या है। क्या है वह…? पढ़ा लिखा होने पर भी क्या है वह…? वह भी तो इन सबकी श्रेणी में खड़ा एक मजदूर ही है। मजदूर। पढ़ा–लिखा मजदूर। ये तो फिर भी अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। वह तो बंधुआ है। बंधुआ। मानों कहीं गिरवी धरा हुआ। पेन हाथ में थमाकर उससे भी तो मजदूरों जैसे ही काम लिया जाता है। पूरे माह में काम के बदले केवल आठ हज़ार। घर का खर्चा दिनों दिन बढ़ रहा है। बढ़ते बच्चों के बढ़ते खर्चे। कभी फीस में बढ़ोत्तरी तो कभी किताबों कॉपियों के मूल्य बढ़ जाते हैं। उसके स्कूटर की किस्त जमा करने को जाने कितने कितने खर्चों में कटौती करती है उसकी पत्नी। बच्चों की छोटी से छोटी ख़्वाहिश को उनके बालहठ पर अगले माह में पूरा करने के वादे में जोड़ लिया जाता है। ये बाल उम्र की ख्वाहिशें या तो कुछ समय पश्चात स्वयं धुंधली हो जाती हैं या बच्चों की आँखों में एक नई ख़्वाहिश के जन्मते ही पहली ख़्वाहिश स्वतः ही दम तोड़ देती है। बिना पूरी हुए इच्छाएँ बदलती रहती हैं। पर तंख्वाह वही रहती है। गिनिचुनी। बल्कि किसी भी परेशानी में छुट्टी लेने पर कट और जाती है। जब ये इच्छाएँ दम तोड़ती हैं न तब जीवित तो वह भी नहीं रहता।
कितने मान–मनौव्वल किए थे उसने दूसरों के। दूसरी जगह पर पार्ट टाइम करने के लिए। सोचा था कुछ इच्छाएँ आकार पा सकेंगी। पर नहीं। नोटिस हाथ में थमा दिया। कहा–या तो यहाँ नौकरी करो या वहाँ। हमारी कंपनी की इमेज का सवाल है। जाने क्या जानकारी लीक कर दोगे तुम।’ जाने किसने चुगली लगाई। जाने किसने टोटका किया। राहत को आना था पस्ती आई मुश्किलें।
पार्ट टाइम के दो हज़ार के लिए कैसे वह आठ हज़ार की नौकरी छोड़ दे। कैसे…? कितने दिनों से इससे बेहतर नौकरी की तलाश में था वह। ढूँढने निकला तो ज्ञात हुआ नौकरी का तो अकाल पड़ा है देश में। जब देश में इंजीनियर, एमबीए, एमसीए किए उससे कहीं अधिक पढे लिखे युवा इस छोटी सी पगार में भी काम झपटने को तैयार हैं तो। तो फिर उस जैसे के लिए कहाँ बचती है नौकरी। ना… वह न छोड़ेगा नौकरी। बच्चे भूखों मर जाएंगे।
‘हमारे आज के होनहार, कल की मजदूर पीढ़ी’। युवाओं को सोचता, मन क्लेश में भर जाता।
उधर उसकी बेचारी पत्नी उसकी हर ठहरी हुई मुश्किल को दूर करने के लिए स्वयं को कष्ट देकर पूरे वैवाहिक जीवन काल में व्रत टोने टोटके करती आई है। कष्ट तो दूर न हुआ अलबत्ता अब उसकी सेहत ज़रूर साथ छोड़ने लगी है उसका।
इस बार भी तो यही हुआ– पता नहीं किसने सुझाया उसे ये टोटका कि सुबह शाम पीपल की कोली भरने से व्यक्ति के जीवन के सब कष्ट दूर हो जाते हैं।
वह अंधविश्वासी तो नहीं था। पर परिस्थितियों ने उसे विवश कर दिया था कि वह अपनी भार्या की बात को पूरे मन से माने। इसी के मद्देनजर उसने सुबह के मिलन की एक दो बार कोशिश की पर लोगों की तीखी नज़र से उसे लगा कहीं कुछ आपत्तिजनक है तो उसने सुबह का कार्यक्रम स्थगित करते हुए शाम का अंधियाया–सा वक़्त चुना। पर इस पर भी अमल न हो सका। प्रतिदिन शाम को घर लौटते दूसरे दिन के लिए कल के आज में जमा हो जाने वाले बड़ की बढ़ती शाखाओं सदृश्य परेशानियों में घिरा वह उस दिन के पीपल को भूल जाया करता था। इसलिए उसने अपने मनोकूल समय पर ये कार्य करने की सोची।
पर आज यहाँ, ये सब...। पीपल के नीचे… क्या सुना उसने!!! जहर खाने खिलाने की बात। हा! वह भी तो आजकल यही सोचता है।