योजना रावत सुपरिचित कहानीकार और कवि तथा अनुवादक हैं। उनकी विशेष रुचि स्त्री विमर्श पर केंद्रित कथा साहित्य में है। उनका कहानी ‘संग्रह पहाड़ से उतरते हुए’(2012) कविता संग्रह ‘थोड़ी सी जगह’ (2014) तथा कहानी संग्रह ‘पूर्वराग’2023 में प्रकाशित हो चुका है। योजना रावत की कविताएँ, कहानियाँ और यात्रा संस्मरण अनेक प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। वह फ़्रेंच से हिंदी में अनुवाद भी करती हैं। उन्होंने फ़्रेंच से दो पुस्तकों ‘पेड़ लगाने वाला चरवाहा’ (2000) और ‘ऐसा भी होता है उपन्यास’ (2005) के अलावा सुप्रसिद्ध फ्रेंच कथाकार फ्रांक पाव्लोफ़ द्वारा रचित चर्चित फ्रेंच कहानी (मातैं ब्रं ) का ‘भूरी सुबह’ शीर्षक से हिंदी में अनुवाद के अलावा सौ फ़्रेंच कविताओं का फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद किया है। फ़्रेंच कला और फ्रांसीसी सांस्कृतिक गतिविधियों पर वह लंबे समय तक लेखन करती रही हैं। 2005 में अनुवाद परियोजना के तहत वह फ़्रेंच सरकार के निमंत्रण पर तीन महीने फ्रांस में रहीं। वह यूरोप तथा एशिया के अनेक देशों की लंबी यात्राएं कर चुकी हैं । देश-विदेश में लंबी, रोमांचक व साहसिक यात्राएं, पर्वतारोहण तथा यायावरी में उनकी विशेष रुचि है।
योजना रावत पंजाबविश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी की प्रोफेसर हैं।
ई-मेल : [email protected]
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दो अँधेरे
आखिर उसे स्ट्रीट फेस्टिवल की परेड से घर लौटना ही पड़ा. म्यूनिख की सड़कों पर लोगों का ऐसा हुजूम उसने पहले कभी न देखा था. साल भर लोगों की पदचाप सुनने को तरसती शहर की सुनसान सड़कों पर आज तिल रखने की जगह न थी. पारंपरिक वेशभूषा में सजे धजे हर उम्र के अनगिनत लोग, अनेक वाद्यों के संगम से उठते लाइव म्यूजिक की ताल पर थिरकते हजारों कदम… जोश -जवानी और मौज मस्ती की लहर में जिंदगी के सरूर में लबालब डूबता -उतरता लोगों का सैलाब. साल में एक बार ही सही, पुरानी संस्कृति का जीवंत प्रदर्शन कर आधुनिक पीढ़ी के स्मृति पटल पर खुद को दर्ज करवाता, हर किसी को अपनी रौ में बहा ले जाता है- म्यूनिख का यह स्ट्रीट फेस्टिवल.
वह भी मंत्रमुग्ध सा डूब रहा है उस रंग में.
बीयर की पहली बोतल खाली हुई ही थी कि पीटर ने उसके हाथ में दूसरी बोतल थमा दी.
” इंजॉय. इट्स अ ग्रेट डे.”
“ थैंक्यू पीटर! चीयर्स …वह भी उत्साह से भर गया.
जुलूस के साथ चलते -चलते कभी उसके कदम हल्के हल्के थिरकने लगते तो कभी वह हुजूम से थोड़ा बाहर निकल एक और खड़ा होकर परेड का नज़ारा लेते हुए बीयर की चुस्कियों में डूब जाता. लेकिन जल्दी ही उसके दोस्त पीटर, जूली, रॉबर्ट इत्यादि में से कोई न कोई उसे जुलूस में खींच लेता. आवाज देकर या हाथ हिला कर. अपनी प्यार भरी निगाहों से उसे मदहोश करती और हवा में चुंबन उछाल कर उसे अपनी ओर खींचती मारिया के आग्रह पर तो वह खिंचता ही चला जाता था. मारिया एकदम चुलबुली व मस्त- मिज़ाज़ है , लेकिन उसने उसे पहले कभी इस हद तक बेकाबू होते न देखा था. मारिया चुम्बक है, चिंगारी है, आग की लपट है मारिया. उसने पहली बार महसूस किया. मारिया के हवा में उछाले चुम्बनों ने उसे न केवल अपनी ओर खींचा बल्कि उसे इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया कि उसकी लपटों से बचना असंभव हो गया.
“क्या बीयर का नशा तो मारिया के सिर चढ़कर नहीं बोल रहा?” उसने मरिया को इस ‘डाउट’ तले छूट देनी चाही. मगर नहीं, वह गलत था . नशे में तो सभी हैं हल्के- हल्के. जूली और क्रिस्तीन भी, पर और तो कोई भी उसे इस तरह अपनी और नहीं खींच रहा- मदहोश निगाहों से, दहकते होठों से. मारिया नाचते-नाचते उसके साथ इस तरह कदर सटती चली गई कि भावनाओं के उद्दाम आवेग को हल्का सा विराम देने के लिए उस क्षण मारिया को चूमना निहायत जरूरी जान पड़ा था उसे. वह कोशिश करके भी नहीं बच सकता था इससे. मारिया के सुर्ख गुलाबी होठों ने उसके चेहरे पर जगह-जगह अपनी छाप छोड़ दी थी . फलत: वह भी मारिया के होठों पर छाप छोड़ने के उन्माद से नहीं बच पाया था . हालांकि अपने अंतर्मुखी स्वभाव के कारण शुरू के क्षणों में उसे अचानक यूं सरेआम लोगों के बीच किसी लड़की के साथ इस तरह फिजिकली इंटीमेट होना बड़ा अजीब सा लगा था. भले ही वह पिछले तीन सालों से ऐसे दृश्यों का आदी हो चुका है, पर वह स्वयम इस तरह सरेआम- सरे बाजार किसी की बाहों में… इस बात की तो उसने कभी कल्पना तक न की थी. अचानक वह कुछ सजग हो आया. इस अनहोनी पर काबू पाना चाहता हो जैसे. उसके शरीर में बिजली सी कोंधी सी थी, जिसने बियर के नशे को हल्का सा उतार फेंका था. लेकिन देखते ही देखते वह जैसे आसमान से टपक किसी गहरी खाई में धंसता ही चला गया था. मारिया के होठों का निरंतर बढता कसाव… उसके शरीर पर उसकी कसती मारिया की बाहें… जैसे दो देहों को कसकर बांध दिया हो किसी ने. वह भी उससे गुथता ही चला गया. बेलौस… बेपरवाह… बेतरतीब.
जुलूस धीमी गति से आगे बढ़ रहा था. वह और मारिया रह- रहकर किसी उफ़ान की तरह एक दूसरे से गुंथते ही चले जाते और फिर स्वयं कुछ शांत से हो जाते. मेन बाज़ार में पहुंचते पर जुलूस की रंगत और भी लाजवाब हो गई. वहां सड़कों के किनारे स्वागत में पहले से ही खड़े सैकड़ों लोगों के जुलूस में शामिल होने से जोश- जवानी और मस्ती का दरिया अपने किनारे तोड़- तोड़ बहने लगा. जर्मन बैंड ‘मैजिक वर्ल्ड’ का जादू सबके सिर चढ़कर बोल रहा था. हर कोई हवा में था. बीयर की अनगिनत बोतलें ठकाठक खुलतीं और खाली होती जातीं. सुबह से बेहिसाब बीयर पी रहे थे लोग. इतना खुलापन फिर भी सब कुछ कितना सहज. मज़ाल है किसी कि कोई नशे में किसी से ज़रा सी भी बदसलूकी व बदतमीजी कर जाए. इस बात के लिए वह यहां के लोगों की बड़ी कद्र करता है. हिंदुस्तान में तो ऐसे किसी उत्सव की कल्पना करना ही असंभव है. वहां ऐसा कोई उत्सव होता तो अब तक न जाने कितनी लड़कियों के… यह ख्याल आते ही उसका मुंह कसैला होने लगा. उसने जल्दी से इस खयाल को झटक दिया और धीरे-धीरे म्यूजिक धुन में डूबने लगा.तभी अचानक मारिया ने उसके हाथ में बीयर की तीसरी बोतल पकड़ा दी.
वह और मारिया अब एक ही बोतल से बीयर पी रहे थे. हल्के- हल्के झूमती मारिया फिर से उसकी बाहों में सिमट आई थी. वे दोनों एक दूसरे को चूम रहे थे. वह बेतहाशा बहक रहा था कि तभी अचानक. .. उसने झटके से मारिया को स्वयं से अलग कर दिया. पीटर, डेनियल व क्रिस्तीन सभी ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की थी पर वह गुस्से में उफनता बेकाबू तूफ़ान सा भीड़ को चीरता हुआ सड़क के किनारे आ गया और फिर तेज कदमों से मेन बाजार पारकर सिटी सेंटर के मेट्रो स्टेशन पहुंच गया था. उसने वहां ठंडे पानी की बोतल खरीदी और लगभग आधा घंटा निरूदेश्य वहां बैठा रहा. जैसे ही उसके घर की ओर जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गई, वह उसमें सवार हो गया. दसेक मिनट बाद उसका स्टॉप आ गया था. शाम होने वाली थी . उसका घर वहां से सिर्फ दो सौ कदम की दूरी पर था, पर न जाने क्यों उसका घर लौटने का मन न हुआ. वह स्टेशन से बाहर आ सड़क पार कर बसस्टॉप पर खड़ा हो गया. चार पांच मिनट बाद ही वह बस में था. बस लगभग खाली थी. ये बसें आज आधी रात बाद भरी होंगी, जब नशे में डूबे लोग घरों को लौटेंगे, उसने सोचा. लगभग आधे घंटे बाद वह बीथोवन स्ट्रीट पहुंच गया. पांच छह मिनट पैदल चलने के बाद उसने स्वयं को इस्कॉन मंदिर के बाहर खड़ा पाया. अन्य दिनों की तुलना में मंदिर में खासी चहल-पहल थी. कुछ लोग मंदिर के प्रवेश द्वार को फूलों से सजा रहे थे. मंदिर के भीतर भी कुछ औरतें मंदिर की सजावट में व्यस्त थीं. उसने घड़ी की ओर देखा. आरती शुरू होने वाली थी. पता चला कि अगले दिन कृष्ण जन्माष्टमी है उसी की तैयारी चल रही थी. वह मंदिर के में हाल में चला आया. आरती शुरू हो चुकी थी. आरती के स्वर ने धीरे-धीरे उसे बांध लिया.
हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा, हरे हरे…
आरती का स्वर तेज हो गया था. मृदंग की थाप उसके हृदय को उद्वेलित करने लगी थी. सब गा रहे थे और नाच रहे थे मृदंग की थाप पर, लेकिन वह सबसे पीछे खड़ा हल्के से बुदबुदा रहा था – आरती के उखड़े- उखड़े से बोल. सहसा उसने स्वम को उस माहौल के प्रतिकूल पाया. वह मन ही मन सोच रहा था कि वह स्ट्रीट फेस्टिवल से घर जाता- जाता वहां क्यों चला आया था. इतना ही नहीं वह पिछले साल भर से अक्सर रविवार की शाम वहां क्यों चला आता है? वह खुद भी ठीक से नहीं जानता. हिंदुस्तान में इस्कॉन मंदिर उसके घर के एकदम बगल में था, पर उसने कभी उस तरफ झाँका तक नहीं, लेकिन यहां आने के बाद न जाने क्यों और कैसे यहां आने का सिलसिला शुरू हो गया था. ऐसा भी नहीं था कि मैं वहां आकर वह अपना सोशल सर्किल बनाना चाहता था. बल्कि वह अक्सर तब पहुँचता जब कीर्तन शुरू हो चुका होता. वह चुपचाप सबसे पीछे खड़ा हो जाता और घंटे भर बाद आरती खत्म होते ही चुपचाप वहां निकल जाता. फिर भी इस दौरान तीन-चार लोंगो के पत्ते उसके मन पर लिखे गए थे. रॉबर्ट, लीजा, जॉन और कानपुर के मधुकर और उसकी पत्नी शिल्पा. मंदिर से निकलते हुए कभी कभार इनसे हाय हेलो हो जाती. मधुकर और शिल्पा सेहाय से तो लेक साइड वाले कॉफी हाउस मैं अक्सर भेंट हो जाती. तीन चार बार तो लंबी गपशप भी हुई है उनके बीच. आरती खत्म हो चुकी थी. काफी लोग जा चुके थे. पर न जाने क्यों उसका मन वहां से उसने का न हुआ. वह चुपचाप वहां बैठा रहा अपने में सिमटा, फिर भी कुछ बिखरा बिखरा सा. तभी उसका ध्यान एक हिंदुस्तानी नवविवाहिता की ओर खिंच गया. गहरे नीले रंग की सिल्क की साड़ी, माथे पर बड़ी सी बिंदी, गले में मंगलसूत्र व हाथ में कांच की चूड़ियां पहनी थी वह. किसी परिचित से बड़े अपनेपन से खिले स्वर में बात करती हुई,
“ठीक है जीजा जी! अगले इतवार आना मत भूलिएगा. कोई बहाना न चलेगा. न आए तो मैं सच में नाराज हो जाऊंगी. घर जाकर दीदी से बात करवाइएगा और यह भी बताइएगा कि क्या खाना पसंद करेंगे उस दिन’.
उसे उसका यूं खुले स्वर में हिंदी में बात करना बेहद अच्छा लगा था. पिछले कुछ सालों में शायद उसने पहली बार किसी को यों बेझिझक खुली ऊँची आवाज में हिंदी में बात करते देखा था. आमतौर पर सार्वजनिक स्थलों पर हिंदुस्तानी लोग जब कभी हिंदी या प्रादेशिक भाषा में बात करते, उनका स्वर कुछ दबा- दबा सा होता.
ऐसे ही दबे स्वर में किसी ने उसे पुकारा था. सामने से मधुकर आता दिखाई दिया-
“कैसे हो यार ? बहुत दिन बाद दिखाई दिए. नौकरी कैसी चल रही है?’ मधुकर ने पूछा था.
“ ठीक हूं . बहुत दिनों से इधर आना नहीं हुआ. दरअसल पिछले तीन वीकेंड्स पर दफ्तर के काम से फ़्रंकफ़र्ट पर जाना पड़ा और उससे सप्ताह भर पहले यू.एस. से कंपनी के क्लाइंट आ गए थे. उनके साथ व्यस्त था. तुम सुनाओ! सब कैसा चल रहा है सब?
मधुकर को देख उसकी तबीयत हरी हो आई थी.
“बस ठीक सा ही . इस बार घर जाने का कार्यक्रम कब है? मधुकर ने कुछ सोचते हुए पूछा था.
“ नवंबर में. दिवाली के आसपास. तुम्हारा और शिल्पा का प्रोग्राम कब है घर जाने का?’
“हमारा प्रोग्राम तो अब क्या ही होगा” कहते- कहते मधुकर का चेहरा एकदम उतर गया था. एक गहरी सांस लेकर में एकाएक चुप सा हो गया मधुकर.
“ क्या बात है मधुकर? ” उसका हाथ मधुकर के कंधे पर था
“ कुछ नहीं यार. बस! मैं और शिल्पा… दरअसल हम अलग हो गए हैं.” “क्या” उसे बिजली का करंट सा लगा था जैसे.
“ पर आखिर ऐसा क्या हो गया?”
“ बस! मैं हार गया. मैंने पूरी कोशिश की, पर बात नहीं बनी. शिल्पा को कोई और मिल गया है.” मधुकर का चेहरा जमीन की ओर झुक गया.
“रिया किसके पास है?” उसकी आँखों के सामने छह वर्षीय रिया का मासूम चेहरा तैर आया.
“रिया को शिल्पा ने कुछ दिन पहले ही कानपुर भेज दिया है नानी के पास. वह वहां स्कूल जाने लगी है”
“ यार! मुझे तो अभी भी विश्वास नहीं हो रहा तुम्हारी बात पर. तुम लोग तो इतने करीब थे एक दूसरे के. बेहद दुख की बात है यह” उससे इससे अधिक कुछ कहते न बना था. कहता भी तो शायद मधुकर जज़्ब कर पाता. वह जाने को उद्यत था.
“कभी बैठते हैं कॉफी हाउस में. मैं तुम्हें फोन करूंगा, जल्दी ही ” मधुकर ने हाथ मिलाते हुए उस से विदा ली.
मधुकर के एकदम ठंडे निष्प्राण हाथ…
“ ठीक है. अपना ध्यान रखना. जल्दी मिलेंगे”. उसने धीरे से कहा था.
अपनी हथेलियों से चिपके मधुकर के हाथों के ठंडे निष्प्राण स्पर्श को महसूसता वह वहीं खड़ा कुछ देर उसे चुपचाप जाते हुए देखता रहा. मधुकर मंदिर के गेट से बाहर जा चुका था और वह अभी भी वहीं खड़ा था. खामोश… आवाक्
वह उस शाम वहां क्यों चलाया था चला आया था? भारी कदमों से मंदिर से बाहर निकलते हुए इस सवाल ने उसे फिर से घेर लिया था, पर उसके पास इसका कोई जवाब न था. मौसम साफ़ था .बावजूद इसके हवा अपने घेरों में बंधी थी. बोझिल… बेजान.
उसने अपने भीतर एक अजीब से खालीपन का एहसास हुआ था. चार पांच मिनट बाद ही वह बस में बैठ चुका था. अब एकाएक उसे घर पहुंचने की जल्दी थी. पता नहीं क्यों? घर पहुंच कर देर वह तक बिस्तर पर अलसाया सा लेटा आ रहा, लेकिन फिर पेट की पुकार ने उसे उठने के लिए विवश कर दिया. उसने किचन में जाकर एक पैन में चावल उबालने के लिए रख दिए और फ्रिज से उबले हुए राजमा निकाल कर उन्हें बनाने के लिए प्याज टमाटर काटकर मसाला भूनना शुरू कर दिया. थोड़ी देर में खाना तैयार हो गया. बहुत दिनों बाद अपने हाथ का खाना खाकर उससे बेहद संतुष्टि हुई थी. लैपटॉप पर बजते राहत फतेह अली खान का गाना ‘तेरी दीवानी… तेरी दीवानी… सुनते सुनते वह काफी सही मूड में आ चुका था कि तभी मोबाइल पर मैसेज की बीप सुनाई दी.
“आर यू कमिंग बैक?” मारिया का मैसेज था. उसने मैसेज का कोई जवाब न दिया. दो-तीन मिनट ही बीते थे कि स्काइप पर रिंगटोन बजने लगी. गगन ऑनलाइन था. गगन का नाम पढ़ते ही उसने आंसर पर क्लिक कर दिया.
“अरे भई कैसा है तू ? क्या चल रहा है? बहुत दिनों से बात ही नहीं हुई तुमसे. क्या बात है आजकल तू ऑनलाइन ही नहीं होता? सब ठीक तो है? अगर आज भी न मिलता तो मैं फोन करने वाला था” गगन का स्वर हलके से उत्साह से भरा था.
“ दरअसल पिछले महीने हर वीकेंड पर ऑफिस के काम से फ्रैंकफर्ट जाना पड़ा. वही दो तो दिन होते हैं अपने कामों के लिए. तू सुना क्या चल रहा है?”
“ कुछ खास नहीं. हां ! एक छोटी सी गुड न्यूज़ है. पिछले हफ्ते मेरी और नेहा की सगाई हो गई है” गगन चहका था.
” अरे वाह! मुबारक हो? इसे छोटी सी गुड न्यूज़ कह रहा है. साले! पिछले चार साल से उसे पाने के लिए नाक रगड़ रहा था और कहता है कि छोटी सी गुड न्यूज़…” गगन की सगाई की खबर सुनकर वह एकदम सही मूड में आ गया था.
गगन कपूर. उसका पुराना सहपाठी और पुराना कुलीग .
दोनों ने एक ही कॉलेज से एम.बी.ए किया था. गगन उसका जूनियर था. पर दिल्ली में एक ही कंपनी में नौकरी करते हुए उन दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई थी. हालांकि अपने अंतर्मुखी स्वभाव के कारण वह एक सीमा के बाद किसी से भी अधिक न खुल पाता और म्यूनिख आने के बाद तो गिने-चुने मित्रों से भी संपर्क टूट गया था उसका. सिर्फ गगन ही था जो उसके करीब आता चला गया था- अपने खुले, हंसमुख सहज स्वभाव व सहृदयता के कारण.
“ यार! यह तो बड़ी अच्छी खबर सुनाई तूने. शादी कब है?” उसने गगन से पूछा था.
“ अबे ! तुझसे पूछे बिना शादी की तारीख पक्की कर सकता हूं क्या? इंडिया कब आ रहा है तू?.”
“नवंबर में, दिवाली के आसपास तीन हफ्ते के लिए”
“ यह तो बहुत अच्छा रहेगा. घर वाले भी नवंबर में ही शादी की सोच रहे हैं. तेरा वहां होना बहुत जरूरी है. अपनी शादी की मेन शॉपिंग तो मैं तेरे साथ जाकर ही करूंगा. वैसे अब तू भी कर ले कहीं न कहीं बात पक्की. बेटा! मलाई खा- खा कर कब तक पेट भरता रहेगा” गगन ने हंसते हुए तीर छोड़ा था.
“ छोड़ यार! ऐसी कोई बात नहीं है’ वह कुछ झेंपते हुए बोला था. “अच्छा! तेरी ऐसी ऐसी बातें तो चलती रहेगी, जब तक तू रंगीन दुनिया में अविवाहित है. पर लाइफ में सेटल होने की भी कोई उम्र होती है. चौंतीस का हो चुका है तू. दो-तीन साल और निकल गए तो फिर कुंवारी लड़की की उम्मीद मत करना. बता दिया मैंने. वैसे तो तू अब तक इन सब बातों से काफी ऊपर उठ चुका होगा, मैं अच्छी तरह जानता हूं’ गगन ने ठहाका लगाया था.
“ बस कर यार! मेरी ऐसी वैसी कोई एक्सपेक्टेशन नहीं है”
“समझता हूं, बहुत अच्छी तरह समझता हूं और इसका कारण भी जानता हूं.” गगन ने फिर से चुटकी ली थी.
“ सब ठीक है यार! जिंदगी में किसी चीज की कोई गारंटी नहीं”.
“ अबे! अपनी यह फिलोसफी छोड़ और शादी का मूड बना. इस बार मेंटली तैयार होकर आना. मेरे ससुराल में रिश्तेदारों के यहां तीन चार लड़कियां अविवाहित हैं. इस बारे में नेहा से बात करूंगा. संभव हुआ तो अपनी शादी के मौके पर तेरा किसी न किसी से मामला फिट करवा ही दूंगा. यहां की दोस्तियाँ तो टाइम पास हैं. करेगा तो तू अरेंज मैरिज ही. मैं यह भी अच्छी तरह जानता हूं. इसलिए हाँ बोलने के लिए तैयार रहना ” गगन उसे पूरी तरह करने पर आमादा था.
“ ठीक है, ठीक है. तू जो कहेगा वही होगा. मैं पूरी तरह तैयार हूं” वह हंसते हुए बोला था.
इतने में उसके मोबाइल की घंटी बजी थी.
“गगन! अगले हफ्ते आराम से लंबी बात करें क्या? एक फोन आ रहा है. मुझे थोड़ी देरके लिए बाहर जाना पड़े शायद ”
“ ठीक है. अगले हफ्ते बात करते हैं’ गगन ऑफलाइन हो गया था.
फ़ोन की घंटी फिर से बजी . उसने फोन नहीं उठाया बल्कि लैपटॉप और मोबाइल दोनों स्विच ऑफ कर बिस्तर में लेट गया. शनिवार का दिन था अभी रात के सिर्फ दस बजे थे. वीकेंड पर वह अक्सर देर से सोता. खासकर शनिवार को. शनिवार की रात ‘येलो चिल्ली’ बीयर बार के नाम होती. वीकेंड पर ‘येलो चिल्ली’ में पचीस वर्ष से कम उम्र वालों को आने की मनाही होती जिस वजह से वीकेंड पर वहां का क्राउड बेहतर होता. कुछ मैच्योर किस्म का. रात के ग्यारह बजे के आसपास लोग आना शुरू हो जाते और लगभग घंटे भर में अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती. शुरु -शुरु में तो वह किसी कोने की टेबल के आसपास बैठा देर तक वाइन या बीयर पीने व उस माहौल का मजा लेता रहता. धीरे-धीरे रेगुलर आने वाले कुछेक चेहरों से परिचित हो गया था वह. पर यह परिचय एक साथ पीने व सुरूर आने पर म्यूजिक के साथ झूमने तक ही सीमित था. हां! दो तीन लड़कियों का डांस पार्टनर बनने की वजह से वह उनके कुछ करीब आ गया था, लेकिन यह करीबी भी बियर व वाइन के घूंटों से शुरू होकर एक दूसरे की आंच में जलने व दहकने के साथ खत्म हो जाती. भारतीय स्वभाव के अनुरूप शुरू- शुरू में उसने एक दो लड़कियों से डांस के दौरान परिचय बढ़ाने का प्रयास करते हुए कुछ व्यक्तिगत सवाल पूछ उन्हें बोर कर किया था. उसकी एक डांस पार्टनर रूबी तो उसके दो चार सवाल पूछने पर बुरी तरह से उखड़ गई थी-
“ प्लीज डोंट वेस्ट माय टाइम. आई एम हियर टू हैव फन’
हालाँकि रूबी ने आधी रात तक उसे घेरे रखा था. तीन चार शनिवार काफी रंगीन गुजरे थे रूबी के साथ. पर उसके दो-तीन हफ्ते बार में न आने पर रूबी ने एक नया पार्टनर ढूंढ लिया था. उस रात तो उसे रूबी पर और भी हैरानी हुई थी जब उसके द्वारा ‘हेलो’ कहने पर रूबी सिर्फ बड़े औपचारिक स्वर में ‘एक्सक्यूज मी’ कहकर उसकी घोर उपेक्षा करती हुई अपने नए डांस पार्टनर के साथ जाकर डांस करने लगी थी. उसे गौर किया कि केवल रूबी ही नहीं और भी कई लोग उस रात अपने नए डांस पार्टनर के साथ थे. बहुत से चेहरों को वह वहां पहली बार देख रहा था. बीयर बार की हल्की रोशनी में डांस शुरू होने पर डिस्को की जलती बुझती चुंधियाती रोशनी में वे सब चेहरे केवल नाचते हुए मुखौटे भर प्रतीत हुए थे उसे . अलग-अलग रंगों से लबरेज़ बेरंग मुखौटे . डिस्को लाइट का एक रंग उनके चेहरे पर एक रंग आता तो दूसरा रंग जल्दी ही उसे लील जाता. किसी से कुछ छुपाने की जरूरत नहीं है यहाँ और न ही किसी को झूठ का सहारा लेने की . एक दूसरे से न कुछ पूछना और न ही अपने बारे में कुछ खास बताना- सभी के लिए यही सुविधाजनक था और एक मायने में सेफ़ भी. पर उसे यह सुविधा कभी-कभी एक गहरी साजिश सी प्रतीत होती. सुरक्षा की आड़ में रची गई एक खतरनाक साजिश.लेकिन वह स्वयं कैसे इस साजिश का हिस्सा बनता चला गया ?. इस सवाल ने उसे बुरी तरह जकड़ लिया था पर फिर उसके चेहरे पर पड़ती डिस्को की रंग बदलती रोशनी में उसके सामने खड़ा यह सवाल संगीत की तेज लहरियों में थरथरा कर रह गया था. इस थरथराहट ने उसे क्षण भर के लिए भीतर तक कंपा दिया था. वह दोनों हाथों से अपना चेहरा ढके कुछ देर अकेला एक टेबल पर बैठा रहा. हर कोई अपने तक सीमित है यहां. परिवार, रिश्ते नाते, दोंस्तियाँ … सब अपने अपने खांचों में बंद. जरा से हिलजुल हुई नहीं कि खांचे चटकने लगते हैं. फिर भी सब कुछ न जाने कैसे जल्दी ही सहज लगने लगता है. कुछ भी चरमरा जाए, टूट कर बिखर जाए, दो चार कदम लड़खड़ाने के बाद सब आगे की दिशा में चल पड़ते हैं. जिंदगी भाग रही है. रुकने का मतलब है- पीछे छूट जाना और इसी रौ में सब भाग रहे हैं- बहते जा रहे हैं. भीतर से दरकते , चटखते,सिसकते… पर ऊपर से मुस्कुराते, हंसते, ठहाके लगाते. जीना इसी का नाम है यहां.
हिंदुस्तान में कितनी सीधी सरल थी उसकी जिंदगी. ऑफिस के बाद वह अक्सर शाम सोनाली के साथ बिताता. वीकेंड पर तो पूरा पूरा दिन ही सोनाली के फ्लैट पर बीतता . दोनों दुनिया से बेखबर एक दूसरे में डूबे रहते. जीना मरना एक साथ था दोनों का. पर यहां आने के कुछ समय बाद वह जैसे ‘वह’ नहीं रहा. धीरे-धीरे इस दुनिया से परिचित होता- होता न जाने क्यों वह स्वयं से भी अजनबी होता चला गया था. सोनाली को कैसे बताता कि वह उसे किनारे पर अकेला छोड़ बहुत दूर निकल आया है. पर तीन साल पहले हिंदुस्तान जाने पर उसने बड़ी हिम्मत बटोर कर सोनाली से कह ही दिया था कि वह उसका इंतजार न करे. उफ़! कितनी भयावह थी वह शाम. सोनाली तो रो-रोकर पागल हो गई थी. बेतहाशा रोने से घंटे भर में ही उसकी आंखें व होंठ सूज गए थे. कभी वह चीत्कार करती हुई उसके कंधे झिन्झोड़ने लगती तो कभी फूट फूटकर रोती हुई दर्द से कराह उठती. हृदय को चीरती हुई एक दर्दनाक और बेबस रुलाई … काश! उस शाम वह भी सोनाली के साथ रो पाता. पर न जाने क्यों उसका कलेजा तो जैसे पत्थर हो आया था उस शाम, जिसने सोनाली के आंसुओं को इस कदर सोख लिया था कि म्यूनिख लौटने के बाद उसे कभी भी अपने भीतर नमी का एक कतरा तक महसूस न हुआ था. पर आज बरसों बाद अचानक लंबे अरसे से सोखे सोनाली के वे आंसू किसी नदी की तरह उसे अपने भीतर उमड़ते प्रतीत हुए थे. वह रोना चाहता था शाम- खुलकर, जी भरकर लेकिन फिर न जाने क्यों उसने अपने पिघलते कलेजे को चुपचाप पत्थर हो जाने दिया था सायास. पता नहीं उसने यहां आकर ठीक किया या गलत. कभी-कभी एक डर सा उसे घेर लेता है पर फिर वह उसे झटकने में जल्दी ही कामयाब हो जाता है. वैसे हिंदुस्तान छोड़कर यहां न आता तो जिंदगी का यह चेहरा कभी न देख पाता. एक मायने में बहुत सी बातों के बारे में जिंदगी भर अनजान ही बना रहता. बहरहाल जो हुआ ठीक ही हुआ. उसे किसी से कोई अपेक्षा नहीं है और न ही कोई शिकायत. मगर कभी-कभी चीजें बर्दाश्त से बाहर हो जाती हैं उसके .सुबह स्ट्रीट फेस्टिवल में सब कुछ कितना रंगीन था. सब मस्ती के मूड में थे. वह मारिया के आग्रह को सहज स्वीकार कर उसके रंग में रंगा स्वयं को बेहद हल्का- हल्का महसूस कर रहा था. लेकिन मेन सिटी सेंटर में आने के बाद तो मारिया ने हद ही कर दी-
“ और पास आओ न.” वह उसे बार-बार अपनी और खींच रही थी.
फिर डांस करते -करते अचानक मारिया ने अपने हाथ उसकी टीशर्ट में डाल दिए थे. टी-शर्ट आगे पीछे से ऊपर उठ गई थी. मारिया के होंठ उसकी गर्दन पर गड़ते जा रहे थे. वह एकदम सकपका गया था, जबकि उसका नंगा बदन देख मारिया एकदम वाइल्ड हो गई थी. वह जबरदस्ती उसकी टीशर्ट उतार रही थी,
“ यू हैव सच नाइस बॉडी. यू मस्ट शो दैट’.”
“ स्टॉप दिस मारिया. आई डोंट लाइक इट” उसने घोर विरोध किया था.
“ बट आई लाइक इट. फॉर माइ सेक …” उसकी टी-शर्ट को उसके बदन से उतारते मारिया के हाथ उसके कंधों तक पहुंच गए थे कि तभी उसने बड़ी जोर से मारिया के हाथ झटक कर उसे खुद से अलग कर दिया था. मारिया उससे गुस्सा गुथमगुथा हो गई थी. हर हाल में उसकी टीशर्ट को उतारने पर आमादा.
“ नॉनसेंस!” वह मरिया को भीड़ में धकेल चुका था .
“ साली! यह होती कौन है यूँ सरेआम मेरे कपड़े उतारने वाली. मेरा शरीर है. किसी को दिखाऊँ या न दिखाऊँ. ब्लडी बिच”
उसके सभी दोस्तों ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की थी लेकिन वह बेतहाशा गुस्से में बढ़बढ़ाता हुआ जुलूस से बाहर निकल आया था.
दोपहर का यह प्रसंग याद आते ही उसकी माथे की नस तन गई. उसने उठकर बालकनी वाला दरवाजा खोल दिया. बाहर से आती ठंडी हवा का स्पष्ट उसे बेहद मुलायम जान पड़ा. पोर पोर को सहलाता हुआ. उसने फ्रिज से बीयर की बोतल निकाली और सोफ़े पर अलसाया सा चुपचाप बीयर पीने लगा. पीते -पीते उसके कानों में गगन की हंसी गूंजने लगी. गगन की उन्मुक्त निश्छल हंसी में कहीं कुछ था जो उसे कांटे सा गहरा बेंध रहा था – भीतर ही भीतर. हां! वह चौंतीस का हो आया है. उसे भी अहसास है इस बात का. चाहता तो वह भी है कि उसे यहीं कहीं कोई सच्चा जीवन साथी मिल जाए. विदेशी लड़की का ख्याल तो उसे करंट की तरह छूकर गुज़र गया. मगर कोई ठीकठाक सी हिंदुस्तानी लड़की मिल जाती तो कितना अच्छा होता. उसकी आंखों में कुछ घंटे पहले इस्कॉन मंदिर में दिखी उस नवविवाहिता का चेहरा तैर आया. एक नन्ही सी हिलोर उसके भीतर सिर उठाने लगी, पर देखते ही देखते उस चेहरे पर सोनाली का चेहरा चस्पां हो गया. उसने बीयर के आखिरी दो तीन घूंट जल्दी से अपने भीतर उतारते हुए बत्ती बुझा दी और बिस्तर में लेट गया.. उसे हल्की सी घुटन महसूस हुई. उसने उठकर बालकनी का दरवाजा खोल दिया. मौसम एकदम साफ था बावजूद इसके हवा अपनी घेरों में बंधी थी बोझिल…बेजान.
अचानक उसे कसमसाहट सी होने लगी, सीने में जकड़न और पैरों तले एक साथ सैकड़ों चीटियों के रेंगने की एक तीखी सी चुनमुनाहट. एक गहरे खालीपन ने उसे भीतर तक चीर दिया. उसने तीन चार बार करवट बदली. वह उठना चाहता था बिस्तर से मगर चाह कर भी उठ न सका .चुपचाप लेटा ही रहा. भीतर बाहर घुप्प अंधेरा छाया था. बालकनी के बाहर मैदान में लगे दो विशाल वृक्षों की छाया उन दो अंधेरों की स्याही में पूरी तरह घुल गई थी. बावजूद इसके उस रात दो अंधेरों में लिपटी वह छाया उसके भीतर तक पसरती चली गई.
योजना रावत
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