Wednesday, October 15, 2025
नेहल शाह
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डॉ. नेहल शाह

जन्म मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने फ़िज़ियोथेरेपी में स्नातक, कार्डियोथोरेसिक फ़िज़ियोथेरेपी में स्नातकोत्तर और सिंबायोसिस विश्वविद्यालय, पुणे से पीएच-डी. की डिग्री प्राप्त की। हिंदी कविता में रुचि के कारण उनकी कविताएँ प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। रेनर मारिया रिल्के और टी एस इलियट के हिंदी अनुवादों ने उन्हें पहचान दिलाई। प्रभाकर प्रकाशन से प्रकाशित उनके काव्यसंग्रह का नाम है ‘और इन सब के बीच’। उनकी कविताएँ राजपाल प्रकाशन से राजेश जोशी और आरती द्वारा संपादित ‘इस सदी के सामने’ एवं सूर्य प्रकाशन मंदिर से प्रकाशित, रुस्तम सिंह द्वारा संपादित ‘एक अलग स्वर’ संकलन में में भी शामिल हैं। चित्रकला में उनकी रुचि है, और ‘आर्ट फॉर कॉज़’ द्वारा जारी की गई शीर्ष 50 महिला आर्टिस्ट की सूची में उनका नाम शामिल किया गया। चिकित्सा क्षेत्र में उनके शोधपत्र अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। डॉ. शाह को 2022 में ‘युवा वैज्ञानिक’ और 2023 में ‘स्वाभिमान सम्मान’ और ‘पुनर्नवा नवलेखन पुरस्कार’ से नवाजा गया। वे वर्तमान में भोपाल स्मारक अस्पताल में क्लिनिकल कार्डियोथोरेसिक फ़िज़ियोथैरेपिस्ट के रूप में कार्यरत हैं और स्वतंत्र लेखन करती हैं।

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कविताएं

1

कभी कभी एक
रम्य साध की तीव्र अभिलाषा 
कर देती है दिमाग को कुंद
जैसे अंधेरे से पटा सघन अरण्य
जहाँ रात की लंबाई अधिक है 
दिन के बनिस्बत 
खयालों की जमीं 
हो जाती है 
सुंदरबन का दल-दल
और धंसते जाते हैं विचार
गहराई तक
 
समूची देह पर 
हो जाता है शून्य
मस्तिष्क का नियंत्रण
तर्क, ज्ञान, बुद्धि, स्मरण,
विचार, व्यक्तित्व,
निर्णय का नियमन
छूट जाता है
केवल एक स्वप्न
तैरता हुआ
जैसे किसी डोर से छूटी
अनियंत्रित पतंग
 
क्या धर सकता है 
कोई स्वप्न पर संयम?
स्वप्न में तुम्हारा साथ
तंत्रिकासूत्रों के हर आवेग में
बस तुम
स्वप्न के बाहर तुम नहीं
जहाँ तुम नहीं
वहाँ मैं होकर क्या करूं?
 
क्या करूं इस बिन रौशनी की गुफा का?
यहाँ कोई खिड़की नहीं
रोशनदान नहीं
केवल घुटन 
अपारदर्शी सी 
एक दरवाजा 
जो भीतर से खुलता नहीं
एक गहरा गड्ढा 
गुफा के बीचों बीच
कूद कर दम तोड़ते स्वप्न
घायल सपनों पर पलते सर्प
रेंगते, फुफकारते
ढूंढते मुझे
और डसी जाती हूं मैं 
हजारों सांपों से एक साथ।
 
आह! कितनी पीड़ा
कितना विष भर चुका है मेरे भीतर
कि अब जिलता नहीं कोई और विचार
बस एक तुम्हारा खयाल
पुकारती तुम्हारा नाम
बची-खुची अपनी आवाज में 
देखती तुम्हारी ओर
दर्द से भरी नीली आंखों से
देखने तुम्हारा चेहरा
जो दृश्य नहीं
दिखती है तो केवल
तुम्हारी पीठ।

2

मैं निष्प्राण होने की हद तक निष्क्रिय हूँ
तुम चाहो तो मेरा शोक मना सकते हो
मेरे भीतर कोई ज्वार नहीं उठता
कोई लावा नहीं फूटता आवाज़ बनने को
मैं एक विराम की तरह
कर्तव्य और अभिप्राय के बीच ठहरी हूँ

दिन धुंधले सपने सा गुजरता है
मैं इसे बहुत ढ़ीला छोड़ देती हूं
मैं अब तुम्हें नहीं पुकारती
रोती भी नहीं
कहीं आंसुओं से मेरे बहने का भरम न हो

मैं एक निर्वात हूँ जहां
किसी प्रश्न के जवाब में
कोई प्रतिध्वनि उत्पन्न नहीं होती
यह अभाव की अभ्यस्त चुप्पी है
जिसे तुम्हारे शब्दों और चिंता की चादर
अब छू नहीं सकती

तुम चाहो तो मेरा शोक मना सकते हो
मैं अब किसी भी दुःख से नहीं काँपती।

3

वक्त एक खराब कविता की तरह गुजर रहा है
थके हुए शब्द, पुराने रूपक
जबरन लिखी हर पंक्ति
जिसकी चंद लाइने पढ़ते ही
मन ऊब रहा है

मेरे इर्द गिर्द एक रंगीन दुनिया सज गई है
जिसके किसी रंग में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है

मेहरून मखमली आकर्षक पर्दों के पीछे
जंग लगी, पुरानी धूल-धूसरित खिड़कियां खड़ी हैं
और पर्दों के हिलते ही
शीतस्वाप में विराम करती अनेक छिपकलियां
सचेत हो रही हैं

एक असमय आवेग से बिखर रहा है
अथक श्रम से लिखी गई कविता का शिल्प
शब्द सजीली भाषा के तिलिस्म को
कई हिस्सों में तोड़ते हुए
बाहर निकल रहे हैं

निरुत्साह चारों ओर बिखर रहा है…

4

कितनी बार रचे गये युद्ध
एक बार रच दिये जाने पर
समाप्त नहीं हुए वे

जारी रहे उनके खयालों में
जिन्होंने पढा उन्हें करीब से
बंद घरों में
सुनसान सड़कों पर दहशत से बजते सायरनों की आवाज़ों में
आयुध के धमाकों के में

कहीं कोई जिक्र नहीं उठा उन चश्मदीदों का
जो हताहत हुए युद्ध के परिणाम स्वरूप
अठारह दिन चले महाभारत के महान युद्ध में
कई क्षेत्रीय योद्धा हो गये ध्वस्त
क्या उन क़बीलाई लोगों ने कम झेला
वह प्रचुर युद्ध?

फिर उपजा
एक अपरिपक्व अंत
जहां विरूपित हो चुका था
युद्ध की शर्तों का स्वरूप
कभी प्राप्त नहीं हुए किसी को गांव पांच
केवल धूल कसमसाती रही
उड़ कर भर गयी उन आंखों में
जिन्होंने देखा युद्ध करीब से

दूर से देख रहे लोग
युद्ध की आग से उठता धुआं मात्र देखते रहे।

5

फिर वही रात कि
अंधेरे में जिसके
कुछ दिखाई न दे

सुन रही हैं मेरी अंगुलियाँ
मच्छरों की घुन-घुन

ऐसा भी नहीं कि रोशनी का कोई जरिया नहीं

चकाचौंध से लथपत है शहर का बाज़ार
लेकिन ये रोशनियां मेरे लिए नहीं

कोई खयाल खड़ा है मेरी नींद के बहुत क़रीब
कि सोने जाऊं तो टकराता है बार-बार
इत्मीनान जैसे एक छोटी चादर की तरह
मुँह ढंक लेने पर छोड़ देता है पैरों का साथ

ऐसी रातों में केवल कविता ही करा सकती है सुलह
मेरी नींद और मेरे खयालों के बीच..

6

इतिहास में जिया नहीं जा सकता

पर तुम्हारी स्मृति के साथ जीने का अर्थ है
जीवन का अर्थपूर्ण हो जाना

पियानो पर बज रही है धुन-
हम हैं अकेले
हम हैं अधूरे!

एक नन्हा बच्चा इसे अपने आने वाले कार्निवल के लिए बजा रहा है।

शाम सर्द और सर्द होती जा रही है

कोई दावानल मेरे भीतर दहक रहा है
मन के परिंदे झुलस रहे हैं।

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