Friday, November 29, 2024
priyanka singh
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नाम– प्रियंका सिंह

जन्म – 21 मई 1993 (कलकत्ता)

शिक्षा – हिन्दी विषय में स्नातक(कलकत्ता विश्वविध्यालय ) और परास्नातक (IGNOU), अनुवाद में परास्नातक (डिप्लोमा), NTA – NET/JRF उत्तीर्ण ,वर्तमान समय में कलकत्ता विश्वविध्यालय में शोध विद्यार्थी (PhD research scholar )

रुचि – आलेख ,काव्य,गीत लेखन उनके वाचन एवं गायन के साथ साहित्यिक पुस्तकों का अध्ययन विशेष रूप से प्रिय है|

उपलब्धि – अखंड भारत, केंद्र भारती ,गीत गंगा ,नज़रिया ,हाइकू मंजूषा आदि पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन |

हिन्दी साहित्य परिषद ,काव्यांचल, सरला नारायण ट्रस्ट जैसी संस्थाओं द्वारा काव्य तथा गीतों की रचना हेतु पुरस्कृत |

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कविताएं

महुओं की शक्ल में

कितना कुछ है उथला हुआ भीतर

भावनाओं की खोह में

समय के अंतराल में कोमल भावों के स्तूप

कठोर शिलाओं में हो गए हैं परिवर्तित

द्रवित भावनाएं निरंतर टकराती हैं

अपनी ही सहोदर शिलाओं से

पूर्णिमा के ज्वार की भाँति

रह – रह कर उठती है हूक

जो भावनाएं संयमित हैं

वे तल्लीनता से बुनती हैं बांध

सुगढ़,सजग भावनाओं के हाथों में है

विशालकाय लौह श्रृंखला

वे जकड़े रखती है व्याकुलताओं को

छटपटाहटों को संभालती हुई

वे गुनगुनाती हैं कोई शांति गीत

जैसे पहर के पहले धुंधलके में

महुआ चुनती यौवनाएं गुनगुनाती हैं

मोह लेने वाली कोई पारंपरिक रहस्यमयी धुन

धुन के मोह में पड़ कर वृक्ष अंततः

खोल देते हैं अपनी कसी हुई मुट्ठियां

और बिखर जाती हैं मन की सारी गाँठे

नए सफेद महुओं की शक्ल में।

देवालय में नहीं मिलते कोई देव

देवालय में नहीं मिलते कोई देव

प्रांगण के पश्च मार्ग से वे निकल पड़ते हैं

मध्य रात्रि में अपने एकांत कि ओर

पुष्प के गंध विलग होकर चल पड़ते हैं उनके साथ

सर्वमंगला के उस घाट की ओर जहां छठ के पूर्व

वर्ष भर कोई नहीं जाता

घाट की ढलान की सीध में वे फैलाए रखते हैं अपने पैर

सारी ऊर्जा नदी में ढुलक जाती है

कौन जानता है ग्रीष्म में सूखती नदियों की वास्तविक वजह 

जैसे कोई नहीं जानता 

किस ओर से बहती धाराओं से उफन जाती हैं नदियां

देव पूरे वर्ष ढूंढते है नदियों में मत्स्य शिशु

शिशु उनके गुरु हैं

अपनी ध्वनेद्रियों द्वारा देव सीखते हैं उनसे

जीवन शैलियों की बुलबुलाती परिभाषाएं

एकाएक नदियों की कलकल में उठती बुलबुलाहटें

छपाक छीटों और कराह में गूंज उठती हैं

क्षतिग्रस्त होती है सारी चेतनाऐं

खुली आंखों से देव देखते हैं जाल, बेंत की टोकरी ,

मल्लाह और वहीं मृत होता जीवन

छूट पड़ती हैं सुषुम्ना से मोह हीन, हतप्रभ श्वासें

रिक्त पंजों से घुटनों पर टेक लगा,

लड़खड़ाते उठते हैं देव

उलझे जटा जूट ,उलझी मालाओं,

अस्त व्यस्त पीतांबर के साथ अंततः

वे लौट पड़ते हैं अपने पुराने पद चिन्हों पर

अपने ही देवालयों की ओर।

यात्राओं की संगिनी

देखो!

धुंध से उड़ते बादल 

रुई की फाहों की तरह 

आकर ठहर गए हैं हमारी हथेलियों में

हमारी जुड़ी हुई हथेलियों में ही समाहित है

हमारा संपूर्ण संसार 

तुम्हारे बाए कांधे के सहारे टिका मेरा मन 

हरा है 

सदाबहार वृक्ष वाले शीतोष्ण वनों जैसा

मेरे मन -से हरे पहाड़ों से उड़ कर आई चिड़िया

जब बैठती है तुम्हारे दाएं कांधे पर चुपचाप

ठीक तभी मैं सुन पाती हूं उसकी सबसे सुरीली तान

देखो ,

मेरी आंखों में इंद्रधनुष के सभी रंग उतर आए हैं

लाल मकान की पीली रोशनी में

नील आकाश का वो सफेद चांद भी 

अपनी अर्धमासिक यात्रा पर है 

ठीक मेरी तरह।

अहा! 

कितना सहज है यहां संसार

झीलों और झींगुरों की आती आवाजों के बीच

गोल मेज के पास बैठी दो खाली कुर्सियां भी

अपने एकांत में कितने सहज और सुंदर दिखती हैं 

सुनो!

बाहर बारिश हो रही है वर्षा की झड़ती बूंदों में 

जाने कैसा विचित्र रहस्यमयी सम्मोहन है!

जानते हो? 

जीजीविषाओ का सबसे शुद्ध सोता 

कहां से फूटता है?

वह फूटता है अपनी बेबसी की पीड़ा में

मसोसे हुए मन से

जबकि उसी क्षण आंखों से टपकती है नमी 

जो यथार्थ की गर्म सतह पर गिरते ही 

भाप बनकर विलीन हो जाती है 

किसी शून्य में

मैंने देखें हैं,

हमारी यात्राओं के सबसे सुखद दृश्य 

हमारे चलने के उपरांत

पीछे छुटने वाले प्रत्येक पद चिन्हों में 

हम सदैव साथ थे ।

उन दृश्यों ने मुझे सौंपी श्वेत आश्वस्तियां 

आश्वस्ति कि मैं तुम्हारी

समस्त यात्राओं की संगिनी हूं।

प्रतीक्षाओं का रहस्य

कौन जानता है प्रतीक्षाओं का रहस्य ?

मानो सर्वस्व उझला हुआ हो

घड़ी की छोटी – बड़ी सूइयों के इर्द-गिर्द

स्मृतियों के जाल में गुँथित 

अदृश्य आत्माओं के धागे ,

परस्पर किसी एक पर पड़ा खिंचाव

प्रायः खींच लेती हैं सारी तंत्रिकाओं को

चेतनाएं पड़ जाती हैं पहाड़ सदृश्य  बोझिल

नीलाम्बर में विचरते पक्षी

उड़ते चले जाते हैं क्रमशः

जाने किस अज्ञात दिशा की ओर?

अलाव की अंतिम अंगीठी से

उद्वेलित चिंगारी छिटकती रहती है

अपनी पुनुरुक्ति में

कोरों में पसरी नमी तय करती है

नेत्र के दृश्यों का स्वरूप

आखिर कौन जानता है प्रतिक्षाओं के रहस्य?

कि कैसे सुलझाए जाते हैं

समय की चाक से उलझी पहेलियाँ ?

जब नीलाभ में विचरता हुआ कोई पक्षी

लक्ष्य साधे आत्मा के समीप आए

सम्भवतः तभी

अलाव की उस अनवरत उद्वेलित अग्निकण को

मिले उसके भाग्य की सुखद निद्रा।

दिशाभ्रम

जीवन की समस्त गणनाएँ

घूमती रहती हैं

अपनी असीमित परिधि में

किसी भूलभुलैयाकार घेरे की तरह

घेरा,

जो सदैव बदलता रहता है

अपनी गति ,अपना स्थान।

घेरा ,

जिसके केंद्र में विद्यमान होते हैं

ध्यान के दशमलव,

मोक्ष के  शून्य ।

आत्माएँ खड़ी रहती हैं द्वार पर

दिशाभ्रम से ग्रसित

किसी अबोध के भाँति

जहाँ केंद्र की ओर बढ़ते क्रम में

प्रायः निष्क्रिय होने लगते हैं

मस्तिष्क को मिलते मूल मंत्र ,

संयम के समस्त सूत्र

वे निरतंर करते हैं संघर्ष

उस मार्ग की प्राप्ति हेतु

जहाँ से होते हुए –

निष्कर्ष तक पहुँचती है सबकी

नियति ।

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