Tuesday, July 8, 2025
Anita rashmi
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अनिता रश्मि

प्रथम उपन्यास 19-20 की उम्र में। प्रथम काव्य भारत यायावर की पत्रिका नवतारा में।
हंस, ज्ञानोदय, जनसत्ता, लोकमत, विश्वगाथा, लेखनी.नेट आदि के विशेषांकों में कहानी सहित राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र, पत्रिकाओं में विविधवर्णी दो सौ से अधिक रचनाएँ।
दो कविता संग्रह भी प्रकाशित।

अद्यतन :
“हंस सत्ता विमर्श और दलित विशेषांक” के पुस्तक रूप में एक कहानी।
“सरई के फूल” कथा संग्रह ( हिन्द युग्म) एवं “रास्ते बंद नहीं होते” लघुकथा संग्रह (इंडिया नेटबुक्स)।

डायमंड पाॅकेट बुक्स कथामाला के अंतर्गत “21 श्रेष्ठ नारी मन की कहानियाँ, झारखंड” का संपादन।

दोनों उपन्यास पुरस्कृत। अलावे चंद पुरस्कार-सम्मान।
संप्रति : बस रचनारत।

ईमेल – [email protected]

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कविताएं

      

प्रमाण पत्र

     

कविताएँ ‘कविता लिखती स्त्रियाँ’, ‘पहाड़ से उतरती औरतें’, ‘ऐ स्त्री’, ‘गीतोंवाली स्त्रियाँ’

कविता
अनिता रश्मि

कविता लिखती स्त्रियाँ
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घर-बाहर के छंद
मकान के अंदर के द्वंद
बच्चों की किलकारियों की भाषा
रिश्तों की अनगिन परिभाषा
संजोकर क्या खूब
कविता लिख लेती हैं स्त्रियाँ

ना मेज-कुर्सी की खिचखिच
ना समय की किल्लत की चिकचिक
बस चूल्हे पर पकते
रंग-रूप गंध के संग
सपनों की हांडी में डूब
रच लेतीं हैं एक मुक्कमल कविता
व्यस्त…बहुत व्यस्त रहते हुए
मन के अंदर ही अंदर
ये कविता लिखती स्त्रियाँ।

अनिता रश्मि

पहाड़ से उतरती औरतें
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देखा था कभी
सुदूर पहाड़ की
बेहद ख़ूबसूरत पहाड़ी औरतें
उनकी ललाई एवं लुनाई में
गया था खो आसक्त मन

पर एक अलग ही रूप देख
अब भी स्तब्ध हूँ
हिम की ख़ूबसूरती को
बसाए हुए दिल में
हिम पर खेल लौट रही थी
और सामने ही अपने अश्वों की
रास थामे दोनों हस्तों की कठोरता से
एक पहाड़ी औरत
पथरीली ढलाऊँ पर
उतरती गई झट धड़ाधड़
यायावरों के साथ
दोपहर तक के कठोर श्रम के बाद

पलक झपकते ओझल तीनों
बुला रहा था शायद उसे
कोई बीमार, वृद्ध, अशक्त
स्कूल से लौटा उसका लाल
या फिर खेतों की हरियाली
इंतज़ार सेब बगान का

अभी भी मेहनत के नाम
लिखने को बचा था
बहुत सारा काम
उस ख़ूबसूरत युवती का

अबकी जाना पहाड़ तो
उसका चेहरा, चेहरे की रंगत
लावण्य का पैमाना
उसकी देह न देखना

बस, देखना केवल
जड़ सम कठोर पैर,
उसकी खुरदुरी हथेलियाँ!

ऐ स्त्री

प्रतीक्षा में है समय
कब खुल कर हँसोगी तुम
सारी कायनात को
अपनी मुट्ठी में
कस कर बाँधे हुए
निर्द्वद्व, भयमुक्त!

कभी तो हँसोगी तुम
भय के सीने पर
धर अपना अंगदी पाँव
एक जोरदार, स्वच्छंद
दिली ठहाके के साथ
भरपूर प्रेम
अपने तिकोने कोने में
समेटे हुए ,
कभी तो…!

लेकिन कब ?

गीतोंवाली स्त्रियाँ

गीत गाती स्त्रियाँ
रचती थीं
भरा-पूरा संसार
अपने उत्सवी गीतों में
ढोलकी संग थाप लेतीं
उछालतीं चाबियों के गुच्छे से
उत्साह का चरम,
जब घर में मांगलिक बेला हो

केवल अपने परिजनों की ही
मंगल कामना उन गीतों में
नहीं करती थीं स्त्रियाँ
पूरे मुहल्ले और अनजाने परिचितों संग
जोड़ कर रिश्ता गाती रहीं
मंगलाचरण
ताउम्र गीत गाती स्त्रियाँ

खेतों, खलिहानों,
जाता, ढेकी में जगा देती रहीं
मंगल कामनाएँ
शाम ढलने तक
रोप-कोड़ कर अपने समय को
चुनते, छाँटते, पीसते हुए गाकर गीत
कितना सुख पाती रहीं।
दुखों की गठरी को
काँख तले दबाए
हर दबाव को झटकती रहीं
तनाव को फटकती रहीं
समझौतों के दाने बिलगातीं
वे गीत गातीं स्त्रियाँ

लेकिन
अब शर्म हावी है
नई सदी की महिलाओं पर
नहीं गातीं वे ढोलकी के बँधों में
बँधी अनगिन बधाइयाँ,
देतीं नहीं ननदी को सुरीले उलाहने,
नवजात लाल के लिए सोहर,
शादी में मीठी गालियाँ,
खेतों में फसलों के गीत,
एक सुख का साझाकरण
नहीं भाता उन्हें अब,
शुभाकांक्षाएँ देती हैं रेडिमेड कार्ड से
मैसेज से, सोशल मीडिया में जम कर
उछालती हुईं इमोजी

अभी भी जब झुर्रीदार हाथों में
आ जाती ढोलकी की रस्सी
हाथों में एक चम्मच या
चाभियों का वह गुम गया वृद्ध गुच्छा
जवां खिलखिलाहटों संग,
वे फिर से जवान हो जाती हैं

नहीं भूलीं अभी तलक
एक भी शब्द और
ढोलक की वो पुरानी मिठास
वे गीत गातीं बूढ़ी हो उठीं स्त्रियाँ !

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