Wednesday, September 17, 2025
prajnagupta

विभिन्न पत्रिकाओं- वागर्थ, परिकथा ,बयां, समसामयिक सृजन, गुंजन ,दोआबा, समकालीन जनमत, अनहद,लहक में कविताएँ प्रकाशित एवं विभिन्न पुस्तकों एवं पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
• प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
• संपादित पुस्तक- “साहित्य, समाज, योग और विज्ञान”, “झारखंड का हिंदी कथा-साहित्य”
• संप्रति- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,राँची वीमेंस कॉलेज ,राँची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
ई-मेल-prajnagupta2019@gmail.com

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प्रज्ञा गुप्ता की कविताएं

1. पृथ्वी बोल रही है

बाजार में खड़ी है पृथ्वी
भय से डोल रही है
उसकी काया
तौल रही है वह
मनुष्य की माया
समय-समय पर बोल रही है
नहीं चाहिए क्या ?
मनुष्य को,
पेड़ों की छाया!

2. हार नहीं मानूँगी माँ

अपने जीवन की भीत को
लीप रही हूँ मैं
‘ चूही’ माटी से;
खपड़े की छत रही
लगातार बारिश से
झड़ती रही माटी
भीत पर बनी है
‘ललहुन’ धार
कितना भी लीपूँ, माँ
दिखती ही रहती है वो धार !
क्या करूँ माँ उज्जर चाहिए
मुझे अपने जीवन की भीत
माटी के भीत पर
नहीं धरता
चुने का रंग
क्या करूँ माँ
कैसे करूँ उज्जर
जीवन की भीत

जिस नदी से
लाती रही तुम
‘चूही’ माटी
वह नदी भी सूख रही
किस किनारे जाऊँ माँ
कौन सी माटी उठाऊँ
जो मिटा सके ललहुन धार
जीवन की भीत को
उखड़ने से कैसे बचाऊँ माँ
हार नहीं मानूंगी
सीख रही हूँ तुम्हारी ही तरह
घर छाबना;
लाल माटी से ही सवार दूँगी
जीवन की भीत।
गोबर से लीप, कर दूँगी हरियर!
जाने दो माँ उज्जर नहीं, हरियर सही
उस पर रचूँगी
चरका माटी से
फूल- पेड़ -पौधे,पंछी- पेरवा
और एक पूरा आकाश !
हार नहीं मानूंगी माँ।

3. समानता

घर के अंदर आने के लिए
घर के दरवाजे
पुरुष के लिए
आधी रात को भी खुले रहे
देर रात
घर लौटती स्त्री के लिए
घर के दरवाजे
बाहर निकल जाने के लिए
आज भी खुले हैं चौबीसों घंटे।

4. सलीका

वे ताउम्र
खाना पकाती रहीं
लेकिन नमक डालने का
सलीका
उन्हें उम्र भर
नहीं आया
उन्होंने
खाने की थाली फेंक कर
उन्हें नमक डालने का
सलीका
सिखाया।

5.. मैं अपनी बेटी से ककहरा सीख रही हूँ

मैं अपनी बेटी से ककहरा सीख रही हूँ।
छःबरस की मेरी बेटी कहती है
कि ‘क’ से ‘कबूतर’ नहीं ‘कल्पना’ होता है;
कल्पना करो
कि पापा पत्नी होते
और माँ, तुम पति;
वह कहती है ‘त’ से ‘तरबूज’ नहीं ‘तमीज’ होता है
पापा को तमीज सिखाओ
कि तुमसे ऊँची आवाज में बात ना करें
‘ब’ से ‘बकरी’ नहीं ‘बहादुर’ होता है
अपने बेटी को बहादुर बनाओ
कि अपने सारे काम
खुद कर सकूँ
‘म’ से ‘मछली’ नहीं ‘मजबूत’ होता है कि
मुझे इतना मजबूत बनाओ
कि मैं बस स्टॉप से
अकेली घर आ सकूँ
सोचती हूँ मैं
कि अपनी ढलती उम्र तक पहुँचते -पहुँचते
क्या मेरी बेटी को ये ककहरा याद रहेगा?

6. दिल्ली अब शहर नहीं रहा

हाथरस अब नहीं जाना जाता
काका हाथरसी के नाम से
कि उसकी गर्दन पर नाखूनों के निशान
दहशत की किताब में दर्ज नये पृष्ठ हैं
हाथरस की जुबान काट दी गई है।
मणिपुर अब मणिपुर नहीं रहा
मणिपुर कहते हीं
अनगिनत शिकारी दौड़ते नजर आते हैं
दो मादाओं के पीछे;
उनकी चीत्कार
हमारे जेहन में बज रही बैकग्राउंड म्यूजिक सी
हम अवाक् कठुआए खड़े हैं
कौन कब कहाँ
अपने पंजे में पहन ले भेड़िए का पंजा
यह वह खुद भी नहीं जानता
सारा शहर खौफज़दा है भेड़ियों के पंजों से
सारे शहर बेपर्द हो गए हैं ,साथ ही बेनाम भी
शहरों के नाम लिखे थे जिन दीवारों पर
वहाँ नदियों के खून के ताजा छींटे पड़े हैं
एक नदी की जघन्य हत्या
सौ योजन धरती का बंजर होना है
ऐसा कौन शहर है
जिसने बचाया हो धरती को बंजर होने से
कौन शहर बचा है जिसने बचाये रखा है अपना नाम !
ना ; कोलकाता का तो नाम भी मत लेना।
अपने- अपने शहर को बचाने
लोग जा रहे हैं दिल्ली
उन्हें नहीं पता
दिल्ली अब शहर नहीं,
एक नये “ कत्लगाह “का नाम है।

7. बिच्छू

हमारी भाषा में श्रेष्ठता -बोध के
कितने बिच्छू छुपे बैठे हैं!
जरा सा आहत हुए नहीं कि
अपनी जुबान के डंक से डस लेंगे
मन के कोमल तंतुओं को
कोई पूछे भलमनसहियत में
कि अरे उनकी बेटी का रिश्ता क्यों नहीं लगा देते
कहेंगे अरे हम पाँत में बैठने वाले हैं
और युद्ध कला में निपुण
हमारे बाप दादाओं की एक अलग शान रही है;
कोई पूछ बैठेगा आपसे
अरे लव- मैरिज कर लिया तुमने
आपके जवाब से पहले ही
आपके मुंह पर लेसार देगा यह पंक्ति
कि अच्छा तुम्हारी उम्र भी तो जा रही थी
कोई परंपराओं के नाम पर शेखी बखारेगा
कि अरे हम तो चौबे ठहरे,
त्रिवेदी से रिश्ता नहीं सहाता है
या कोई अचानक से आपसे कह दे
कि अरे आज तो बड़ी सुंदर लग रही हो
आप मुस्कुराने के लिए अपने होंठ पसार रहे हैं
इससे पहले ही लगे हाथ कह देंगे –
जवानी में तो भैंस भी सुंदर लगती है।

श्रेष्ठता बोध के कितने ही डंक
हमारी पीठ पर दागे गए
कोई कहेगा मेरा ड्राइवर तो
जल्दी से कोई बात ही नहीं सुनता
विश्व आदिवासी दिवस के दिन
यह सभी विमर्श कर्ता
सभागार की आगे की कुर्सियों पर
मुख्य और विशिष्ट अतिथि बने
वार्तालाप में मगन होंगे
उनकी जुबान का बिच्छू
अपना डंक छुपाए
माइक पर बोलेगा
जोहार!
यहाँ कोई किसी से कम नहीं,
आप किसी से प्यार से बोलेंगे-
ए सहिया!
हूल जोहार!
और वह तपाक से कह देगा
-दीकू स्साला!

8. वक्त – बेवक्त

तुम्हारे दोस्त आये
तो मैंने कभी नहीं पूछा
कैसे दोस्त हैं?
दफ्तर से लौट कर
थकी- हारी आयी मैं
तुम्हारे और दोस्तों के लिए
पकौड़ियां तली
उन्हें चाय पिलायी
उदास होने पर भी
जबरदस्ती मुस्कुरायी
तुम सोफे पर
पसर कर
डींगे हाँकते रहे इधर-उधर की
मैंने चुपचाप कप- प्लेट समेट
बेसिन में डाला
धोया ;
मेरे दोस्त आये
तो तुमने पूछा
कैसे दोस्त हैं
मायके के हैं,
ऑफिस के हैं?
हल्की दोस्ती है या गहरी ?
छुट्टी का दिन रहने पर भी
ड्राइंग रूम में आए तुम
घंटे भर बाद
बेमन से बतियाया
दिखाया भी कि
तुम्हें अच्छा नहीं लगा
दोस्तों के जाने के बाद
कहा भी
– क्या वक्त बे वक्त
अपने दोस्तों को बुला लेती हो।
-प्रज्ञा गुप्ता,राँची

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