पुष्पा भारती जन्मदिन समारोह
हिंदी की प्रसिद्ध कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ कथक के युग पुरुष बिरजू महाराज के अवदान पर स्त्री दर्पण के लिए यह सामग्री भेजी है। उन्होंने महाराज जी पर एक किताब भी लिखी है। उसका फोटो भी लगा रहे हैं। तो पढ़िए एक नृत्यांगना कथाकार की भावभीनी श्रद्धांजलि।
“बिरजू लय का अंश”
“बिरजू महाराज : तीन सौ साल पुरानी जीवित परंपरा के वाहक”
एक सितारा उगता है, अकेला. निरभ्र आकाश के कोने में संकोच के साथ और धीरे - धीरे सूर्य साबित होता है, उसका अपना सौरमंडल बनता है, ग्रह - उपग्रह और अनंत को अपने प्रकाश में डुबो लेता है. कितना ही बचें हम बिरजू महाराज के मूल्यांकन में उनकी विरासत से, वह सामने आ खड़ी होती ही है, क्योंकि वह जितनी समृद्ध थी, उतनी ही बिरजू महाराज तक आते - आते लखनऊ घराने के जहाज का मस्तूल जर्जर हो चुका था, जिसे नया स्वरूप देकर, जहाज़ को नई दिशा दी को बिरजू महाराज ने। किशोर बिरजू महाराज जब अपने पिता के समय में एक अपना बचपन वैभव में जीने के बाद, उनको खोकर, महज दो साल की तालीम पाकर अपनी मां के संरक्षण में अभावग्रस्त जीवन बिता रहे थे. तब कपिला वात्स्यायन ‘संगीत’ भारती के लिए उन्हें दिल्ली लाईं, वे चौदह वर्ष के थे और गुरु बने, तब के उनके शिष्यों में रानी कर्णावती रहीं. इस बहाने उनकी स्वयं की प्रतिभा का विकास हुआ. वे मुंबई लच्छु महाराज के पास भी आते - जाते रहते रहे. सीखते रहे. भारतीय कलाकेंद्र में निर्मला जोशी जी ने लखनऊ में विनिष्ट होते इस घराने को दिल्ली में संरक्षण देने के प्रयास में शंभू महारज को आमंत्रित किया. कहते हैं, तब पहली और अंतिम बार बिरजू महाराज और शंभू महाराज ने कर्ज़न रोड पर कॉंस्टीट्यूशनल क्लब में निर्मला जी के अनुरोध पर नृत्य किया था. चाचा ने गत निकास, गत भाव और अभिनय प्रस्तुत किया, भतीजे ने तोड़े, परण और तत्कार प्रस्तुत किए. संगीत भारती से निर्मला जोशी बिरजू महाराज को भारतीय कला केंद्र उन्हें लाईं और वे बतौर शंभू महाराज के सहायक काम करने लगे. वे दोनों चाचाओं से नृत्य सीखते भी रहे और अपने शिष्यों को सिखाते भी रहे. भारतीय कला केंद्र उन दिनों उत्कृष्ट कलाकारों का केंद्र बनने लगा था. डागर ब्रदर्स, उस्ताद मुश्ताक़ हुसैन. उस्ताद हाफिज़ अली खाँ, और सिद्धेश्वरी देवी आदि की संगीत कला की धाराएँ बहा करती थीं. “उन दिनों भारत की राजधानी दिल्ली में कई महान कलाकार एकत्रित हो चुके थे. मशहूर तबला नवाज़ पं चतुर लाल और सितार वादक पं रविशंकर आदि भी दिल्ली में संगीत के वातावरण को सजाए थे. ऎसे महत्वपूर्ण सांगीतिक वातावरण में फलते - फूलते प्रतिभावान बालक बिरजू महाराज गायन, वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं में निपुण हो गए.” यह उल्लेखनीय है कि तत्कालीन राजनीतिक काल भी ऎसा था जब कलाओं के पुनरुत्थान और संरक्षण के लिए संस्थाएँ बन रही थीं, वह बात अलग है कि कालांतर में ये संस्थाएँ कितनी उपयोगी साबित हुईं या सफेद हाथी बन कर रह गईं, किंतु उस समय इन संस्थाओं ने बहुत से बड़े कलाकार भारत को दिए और वैश्विक स्तर पर भारत की एक सांस्कृतिक पहचान बनी. पं. बिरजू महाराज के कला - कौशल और सृजनशीलता को पल्लवित होने का अवसर और अधिक मिला. “ संगीत नाटक अकादमी के तत्वाधान में 1954 - 55 के आस पास कुछ उच्च कोटि की नृत्य नाटिकाओं का निर्माण किया गया, जिनके नाम हैं शान ए अवध, मालती माधव, कुमार संभवम, कथक थ्रू द एजेस आदि. इन सभी नृत्य नाटिकाओं में संगीत निर्देशन प्रसिद्ध घरानेदार संगीतकार ‘डागर बंधुओं ने दिया, स्वयं गाया भी बजाया भी.” बिरजू महाराज की कला यात्रा और उनके आज के बिरजू महाराज होने का श्रेय केवल बिरजू महाराज की पारंपरिक विरासत को नहीं दिया जा सकता बल्कि उन समस्त हाथों और साथों और संगतों का है जिन्होंने उन्हें बिरजू महाराज होने में अपना योगदान दिया. परिस्थितियाँ, गुरु, संस्थाएँ, वे संस्था प्रधान, वे गायक, वे वादक, राजनेता...वह समय और परिवेश और स्वयं कलावंत दर्शक, समीक्षक सभी ने मिल कर बिरजू महाराज को बनाया. और यह तभी संभव था जब स्वयं किशोर बिरजू महाराज ने स्वयं को विनम्रता के साथ सौंप दिया. इसके पीछे शायद वे अभाव और उनकी मां की शिक्षा रही होगी. सत्ताईस साल की उम्र में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार आज के समय में अचंभा हो सकती है, क्योंकि आज के प्रतिस्पर्धा से भरे, सिफारिशी युग में सत्ताईस साल में तो कोई कलाकार अपनी एकल प्रस्तुति के लायक नहीं समझा जाता. 1986 में वे पद्मविभूषण से अलंकृत हुए. इसी वर्ष ‘कालीदास सम्मान’ भी मिला. आज बिरजू महाराज स्वयं कथक की अनूठी गंगा - जमनी परंपरा के महज वाहक ही नहीं, एक लाईट हाउस हैं. वे नृत्याचार्य भी हैं और नर्तक भी, जब वे मंच पर आते हैं, आते ही दर्शकों से एक सहज संबंध जोड़ लेते हैं, न केवल गुणवंतों से बल्कि आम दर्शकों से भी. यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि वे आम और शास्त्रीयता से परे किसी भी व्यक्ति को लय, यतियाँ, ताल और उसकी मात्राओं को, सम को आम भाषा में, सहज उदाहरणों में समझा जाते हैं, समझाते हुए, उसकी यति में रह कर भी वे अनूठे उदाहरण पेश करते हैं. यही वजह है कि भारत में एक औसत व्यक्ति भी कथक का अर्थ बिरजू महाराज ही समझता है. बिरजू महाराज की जो सबसे बड़ी उपलब्धि रही है वह है उनका कम उम्र में ख्यातनाम हो जाना. और वह ख़्यानाम होना यूँ सहज भी नहीं था, इसके पीछे एक कच्ची, लचीली और नियति के मुक्कों से खूब गुंथी हुई नम मिट्टी और बहुत से महारत भरे हाथ रहे हैं. सत्ताईस वर्ष की आयु में तो उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड मिल गया था, अपनी उम्र के चौथे दशक में तो वे पद्मविभूषण से विभूषित हो चुके थे. अपने पिता अच्छन महाराज की मृत्यु के बाद केवल दो वर्ष की तालीम पाकर, अभाव और विषमताओं के बीच जीवंत बृजमोहन मिश्र ने, कथक की विरासत को बहुत अलग ढंग से स्वयं में विकसित किया. पिता की तालीम जो बालपन की स्मृतियों, अवचेतन और अनुवांशिक विरासत में रच - बस गई, कुछ माता ने जो सिखाया. बिरजू महाराज की माता जी को बिंदादीन महाराज के कई भजन, ठुमरी, अष्टपदी आदि कंठस्थ थे, कुछ भाव भी याद थे. जिनके आधार पर बिरजू महाराज को उन्होंने अच्छन महाराज की स्थायी अनुपस्थिति में भी रंगमंच की शोभा बनाए रखा. उसके बाद तो उन्होंने दोनों चाचाओं के शुष्क अनुशासन और उपेक्षा के चलते जो ज्ञान जब मिला एक स्पॉंज की तरह सोखा. वे जानते थे, कथक अगर उनका प्रथम प्रेम है तो वही अभाव के दिनों में ज़रिया - ए माश भी बना है. उन्होंने स्वयं को डुबो लिया कथक में, उसके लिए कितने ही धक्के खाने पड़े. अंतत: उन्होंने परंपरा के भीतर ही अपने पिता अच्छ्न महाराज की भारी देह में बसी लय और तालों के गहन ज्ञान का गांभीर्य, चाचा लच्छू महाराज का लास्य - लोच और छोटे चाचा शंभू महाराज से अभिनय में दक्षता हासिल की. अभाव और संघर्षों ने उन्हें विनम्र बनाया और कथक के प्रति पूर्ण समर्पित. वे कहते हैं - “हमारे दोनों चाचा अभिनय में माहिर रहे तो पिताजी रिदम और बंदिशों पर ज़ोर देते थे । “ कथक का लखनऊ घराना कोमल और सौंदर्यप्रधान माना जाता है - इस घराने की विशेषताओं की त्रिवेणी हैं बिरजू महाराज. उनका पालन पोषण लखनऊ के मिश्रित अवधी - मुगल वातावरण में हुआ, धार्मिक पृष्ठभूमि वैष्णव रही. जहाँ उनके समकालीन कथक को अपना रहे थे, उनकी आनुवांशिक विरासत में कथक था. मानो वे बने ही हों कथक नाचने के लिए. The Lucknow Gharana of kathak to be characterised as a dance which was graceful, lyrical, decorative, suggestive, expressive, soft and the sensuous. - Prajosh Banerji बिरजू महाराज लखनऊ घराने के वास्तविक प्रतिनिधि हैं, आज तो इस बात पर संशय करना बेमानी है, लेकिन हो सकता है कि उनकी तालीम का कम समय, या दोनों चाचाओं से बारी बारी, बिखरे तौर पर तालीम ने किसी ज़माने में विरोधी लोगों ने संशय किया हो. इस बात पर मोहनराव कल्याणपुरकर एक जगह लिखते हैं - “बिरजू महाराज ही इस घराने के वास्तविक प्रतिनिधि हैं,इस विशय पर बहुत लोग संशय व्यक्त करते हैं, क्योंकि उनके पिता की मृत्यु के समय वे केवल नौ वर्ष के थे. मैं उन लोगों को आश्वस्त कर देना चाहता हूँ कि बिरजू महाराज का जन्म से ही प्रतिभासम्पन्न हैं, और उनका जन्म कथक के लिए ही हुआ है. एक बार ही सुनने या देखने से बोल, हस्तक और संगीत याद रखने में उनकी स्मरणशक्ति विलक्षण है. एक बार गुरु अच्छन महाराज जी गणेश परण मुझे लिखवा रहे थे. उस समय पाँच या छ: साल के बिरजू भी अपने पिता के पास ध्यान से से सुन रहे थे. परण को ताल में निबद्ध करने के लिए श्रुतलेख को बार - बार दोहराना पड़ता था. अभी केवल आधा ही कार्य हो पाया था कि बिरजू महाराज ने कहा - “ बाबू हमका याद होई गया.” अच्छन महाराज ने प्यार से उन्हें झिड़का, हम पुन: ताल निबद्ध करने काम में लग गए.बालक बृज जज़्ब नहीं कर सके, उन्होंने दुबारा वाक्य दोहराया. जिज्ञासा और दुलारवश जब अच्छ्न महाराज ने परण सुनाने को कहा और जब बिरजू महाराज ने इतना लंबा परण ताल सहित बिना किसी गलती के दोहरा दिया तो सभी आश्चर्यचकित रह गए. अच्छ्न महाराज की आँखों में खुशी के आँसू थे, रुंधे गले से वे केवल इतना ही कह पाए - यह मेरा गुरु है.”(परंपरा और बिरजू महाराज - “ कलावार्ता नवंबर 1984”) स्वयं अच्छ्न महाराज के लिए प्रसिद्ध गायक उस्ताद फैय्याज़ खान कहा करते थे, “यूँ उनका आकार हाथी जैसा था, लेकिन जब अच्छ्न महाराज नाचने खड़े होते तो इतना गरिमामय लगते कि मानो कोई परी बताशों पर नाच रही हो.“ बिरजू महाराज ऎसे व्यक्ति के गुणसूत्रों के वाहक थे. बिरजू महाराज पिता की इसी नाज़ुकी को अपने नाच में लाने के संघर्ष में रहे. वे स्वयं बताते हैं बहुत बाद तक, वे अपनी ‘अम्मा जी’ से पूछा करते थे कि क्या वे अब पिता जैसे दिखते हैं नाचते में? बिरजू महाराज के पिता केवल तीन ताल ही में सिद्धहस्त नहीं थे, वे अप्रचलित तालों पर भी नाचा करते थे. वे नृत्य के सभी पहलुओं को विद्वतापूर्वक ढंग से नाच में समाहित करते थे. भाव, ताल, लय और लय की महीन यतियों के कारीगर. उनकी नृत्यरत उपस्थिति मंच पर आकर्षक होती थी, प्रयोगात्मक प्रवेश और प्रस्था, पुरुषोचित अंग उनके नाच की विशिष्टता थी, बहुत कुछ ऎसा है जो अच्छन महाराज से बिरजू महाराज तक की यात्रा में विलुप्त हुआ होगा, बहुत कुछ है जो नया जुड़ा होगा. इसी तरह कुमुदनी लखिया भी, अपने बचपन को याद करते हुए, बिरजू महाराज को मिली विरासत की एक मोहक झलक देती हैं -“I was ten years old when my parents moved to Lucknow, my father gave us a detailed lecture on the great architecture of the city. The architecture of a place he said reflects the philosophy and lifestyle of its people. My mother was not interested, she was ecstatic only about the fact that we would be in the city in which lived the great Kathak maestro Pt.Achhan Maharaj. She was hell bent to taking me to train with him. As I was reluctant it was some time before we actually made it to maestro’s house. He was very hospitable and gentle but there was a three year old kid with only a string around his waist making his presence felt by trying to play Pkhavaj even though his arms did not reach the two sides of the drum. This child would grow up to be the great performer and the torch bearer of the Lucknow Gharana - Pt. Birju Maharaj. “( Nartnam 2007 April - July issue Pt. Birju Maharaj...- Kumudani Lakhiya) ( मैं दस साल की रही होऊंगी जब मेरे अभिभावक लखनऊ जाकर बसने जा रहे थे. मेरे पिता ने शहर की वास्तुकला पर एक लंबा भाषण दिया, उन्होंने बताया कि किस तरह किसी शहर का आर्किटैक्चर वहाँ के लोगों के दर्शन और जीने के ढंग को उजागर करता है. मेरी माँ की इसमें रुचि नहीं थी. वे केवल इस बात को लेकर प्रफुल्लित थीं कि वे उस शहर में जा रही हैं, जहाँ कथक के महान कलाकार पं. अच्छ्न महाराज रहते हैं. वे मुझे उनसे तालीम दिलवाने पर उतारू थीं, और मैं पंडित जी के घर जाने के ठीक पहले तक आनाकानी करती किंतु वे सौम्य और मेहमाननवाज़ थे. वहाँ एक तीन साल का बच्चा था जो अपनी उपस्थिति से सबको आकर्षित कर रहा था, केवल एक धागा उसकी कमर में था. वह पखावज बजाने की कोशिश में था, और उसके हाथ तक उसके दोनों सिरों तक नहीं पहुँच पा रहे थे. यह वह बच्चा था, जिसे महान नर्तक और लखनऊ घराने का रोशन चिराग पं. बिरजू महाराज.बनना था. ) लखनऊ भले ही बिरजू महाराज बहुत कम रहे हों, लेकिन लखनऊ उनके अंदर बसता है, वे लखनऊ को बहुत याद करते हैं. ““ मैं पूरे भारत और संसार में नाचा हूँ, लेकिन लखनऊ में नाचने की बात ही कुछ और है. मैं यहाँ सड़क पार गोलागंज में जन्मा, मेरे पिता, चाचा लोग, और मेरे दादा, उनके भाई और उससे पहले भी दो पीढ़ियाँ..सब यहाँ रहे, कथक किया. फिर 100 सालों में नियति और यश अनको रायगढ़, रायपुर, बॉम्बे और दिल्ली ले गया. अब मैं सच मॆं लखनऊ लौटना चाहता हूँ. “ ( हाल ही में 21 फरवरी 2014 को बिरजू महाराज ने लखनऊ में प्रस्तुति दी, उसमें वे बोले इंडिया टुडे मार्च 2014 अंक ) रामपुर के दिन बिरजू महाराज की बाल - लीलाओं के दिन थे. किंतु रामपुर नवाब की हाजिरी में रात को नाचना पड़ता था. “रामपुर नवाब के यहाँ जब बाबू जी थे, तब मुश्ताक हुसैन खाँ, हाफिज़ अली ख़ाँ जैसे कलाकार हुआ करते थे. छ: साल की उम्र में मेरा नाच नवाब साहब को बहुत पसंद था, आधी रात के बाद नाचना होता था. मैं बैठता था, पैर मोड़ कर चूड़ीदार पजामा, साफ़ा और अचकन पहन कर. वहाँ से निर्मला जी के स्कूल में यहाँ दिल्ली में हिन्दुस्तानी डांस एंड म्यूजिक अकादमी में चले आए. ये शायद 43 (1943) की बात रही होगी, उस उम्र में जुबली टॉकीज दिल्ली में एक बड़ी भारी कॉंफ्रेंस में मेरा नाच रखा गया. यह हॉल अब भी है. सात साल की उम्र में मैं एक कलाकार के नाते आमंत्रित था. जाने क्या नाचा रहा होउँगा. तबला खुद बाबूजी ( अच्छन महाराज) ने बजाया. उन्होंने मेरी आदत डाल दी थी, अकसर जहाँ वे खुद नाचते, पहले मुझे नचाते थे, मैं खूब जोरों से जमकर नाचता. यों मुझे याद नहीं पर वे जो बोल देते थे तो टुकड़े का मेजरमेंट मैं फट से पैरों से कर लेता. जैसे दिगदिग थई ता थेई आ थेई. मेरा अंदाज़ - नाप ईश्वर की कृपा से शुरु से अच्छा रहा. वही समय था जब कपिला जी, लीला कृपलानी आदि हिंदुस्तानी डांस अकादमी में थीं, मैं बाबूजी के साथ जाता था. हालांकि लौटते में तांगे में मुझे नींद आ जाती थी. कपिला जी, लीला जी की हायर ट्रेनिंग होती थी, अच्छे कठिन टुकड़े - परन, मैं याद कर लेता था और अगले दिन बाबुजी से कहूँ कि मुझे याद हो गया तो मानते नहीं थे. जब अम्मा जी मस्का लगा कर कहें कि सुन लो तो सुनते थे. तो ऎसे परन - किड़ तक धुन - धुन नातिट ता धाधिनता उस सात साल की उमर में खूब सुनाता उनको. मोहनराव जी ने उस दिन जो बताया ‘गणेश परन’ भी उसी समय सुनाई थी. “ ( जित - जित मैं निरखत हूँ : बिरजू महाराज की अपनी रश्मि वाजपेयी से बातचीत कलावार्ता नवंबर - दिसंबर 1984 ) पिता के अवसान के बाद निशेष हो चुके ऐश्वर्य के अवसरों के बावजूद नियति के पाले मे सही जगह आ गिरे महाराज, जब संघर्षरत किशोर बृजमोहन को 1953 में कपिला वात्यायन, जो स्वयं अच्छन महाराज की शिष्या रह चुकीं थीं, लखनऊ से दिल्ली ले आईं, और किशोर बिरजू कपिला जी द्वारा स्थापित 'हिंदुस्तानी स्कूल ऑफ़ म्यूज़िक एंड डांस' में नृत्य शिक्षक बन गए। बाद में यह संस्थान संगीत भारती कहलाया। लीला वैंकट रमन लिखती हैं - तब तक तो पुलों के नीचे से कितना पानी बह चुका था, युवा बिरजू दिल्ली में अजनबी नहीं थे। वे सात साल के रहे होंगे जब अपने पिता अच्छन महाराज के साथ दिल्ली आए थे, जब निर्मला जोशी ने उन्हें इसी संस्थान में शिक्षण के लिए आमंत्रित किया था - कपिला मलिक, लीला कृपलानी, जी.आर गुप्ता और ऊषा भाटिया तब वहां प्रशिक्षु थे। 1947 के दंगों से भयभीत हो अच्छन महाराज लखनऊ लौट गए, और उसी वर्ष की गर्मियों के मौसम में वे अचानक चल बसे, नौ साल के पुत्र और विधवा महादेई जी को गहरे निज और आर्थिक आघात में छोड़ कर।“ ( पृ. 24 श्रुति जनवरी 2014) किंतु क्या यह यात्रा इतनी आसान है कि एक चौदह साला किशोर कथक नर्तक लखनऊ से दिल्ली लाया गया और वह परंपरा बन गया! ऎसे ब्रजमोहन में यहाँ एक संगमरमरी विनम्रता थी, कि आओ गढ़ो मुझे ! जो भी बन सकूँ !! यही विनम्रता आज भी बिरजू महाराज का स्थायी गुण है. वे ब्रिटिश टीवी पर नाहिद सिद्दीकी को दिए गए एक साक्षात्कार में कहते हैं. “हमें तो आज भी हम से बेहतर कोई कथक का जानकार मिले तो उसे उस्ताद बना लें.” कथक के प्रति यह आस्था बिरजू महाराज के भीतर छिपे अनहद का सिमटाव है. मनुष्य में अहं जहाँ अपने चरम पर पहुँच चुका है. भौतिकता के अंध विवर से निकास का रास्ता है नृत्य. इस बात को हम आउटडेटेड कह कर नकार भी सकते हैं, मगर जो नाचते हैं वे जानते हैं कि भीतर और बाहर के बिखराव को अपने नम हाथों से थाप देता है नृत्य. स्वयं बिरजू महाराज कहते ही हैं कि उनके पूर्वज राजदरबारों तो नाचे ही, लेकिन धार्मिक आयोजनों में नृत्य मंडलियों में भी कथक होता था, तब साजिन्दे वाद्यों को देह से बाँधे कथक के साथ साथ सभा में चलते जाते थे. कथक नाच के माध्यम से कथानक प्रस्तुत करते थे. कालीय दमन, रास, राम और कृष्ण की बाल लीलाएँ, रावण वध, और भी अनंत कथाएँ उस अनंत हरि की. हमेशा यूँ ही ग्राफ़ चलता है, होता यूँ है कि कोई छोटी सी कलात्मक अभिव्यक्ति एक उठान लेते हुए एक लंबे कालांतर में कलाकारों, रसिकों द्वारा अपनाई सराही जाती है, कला के विशुद्ध स्तर पर आकर वह शास्त्रीय शिल्प ओढ़ती है, व्याकरणबद्ध होती है पहले श्रुति और स्मृति और फिर ग्रंथों के स्वरूप में. वह कला का विशुद्ध रूप बन कर सामने आती है...स्वर्णकाल पाती है. फिर जनरुचियों में उतरती है, कला जनमानस के समूह तक आती है, उसमें फरमाईशें और आम जन तक संप्रेषणीयता का तत्व आने लगता है और कला के क्याकरण में समय का बदलाव और जनता की माँग मिलावट लाते हैं, भाषा, अंदाज़ और कविता तीनों प्रभावित होते हैं. और कला तट बदलने लगती है. ऎसे ही कथक मंदिरों से दरबारों और दरबारों से और आगे जनता में आया. फैला...अपनाया गया इसे. अपनी परिशुद्ध ताल और लयकारी तथा भावपूर्ण गतों के लिये प्रसिद्ध बिरजूमहाराज ने एक ऐसी शैली विकसित की है, वह पदचालन की सूक्ष्मता और मुख वगर्दन के चालन और विशिष्ट चालों (चाल) और चाल के प्रवाह का श्रेय वे अपने प्रख्यात परिवार से मिली विरासत को देते हैं। वैसे तोबिरजू महारा़ज अपने आप में एक परंपरा का नाम है, एक तकनीक का नाम है और नाचके विशुद्ध शास्त्रीय प्रारूप में एक प्रयोगात्मक श्रृंखला का नाम हैं। हर महान कलाकार की तरह स्वयं महाराज जी विनम्रता के साथ हर निपुण कलाकार को अपने आप में घराना मानते हैं। कला की हर पारंपरिक विधा पर समय का प्रभाव पड़ता है। उसकी अभिव्यंजना मेंसमाज और तत्कालीन समय की अवधारणाएं अनजाने ही आ जाती हैं। अपनी रचनाप्रक्रिया में बिरजू महाराज कथक को जनमानस के निकट ला पाए। उनकी परंपरा में कथक की शास्त्रीयता केवलक्लिष्ट तालों और अंकगणितीय नृत्त शास्त्र से उपर उठी है, मात्राओं के चमत्कार, सहज अभिव्यक्ति बन गए हैं, और आज भी मायने रखते हैं। कहा जा रहा है आज 17 जनवरी 2022 को बिरजू महाराज का अवसान हो गया है, उनके हज़ारों शिष्य और लाखों मुझ जैसे एकलव्य शिष्य, करोड़ों प्रशंसक घने दुख में हैं। मुझे याद है मैं उनसे गुरूपूर्णिमा के दिन मिली थी, वे नक्षत्रों के बीच सूर्य समान चमक रहे थे, ताम्बूल रचित उनकी मुस्कान और बड़ी आंखों में मीठा संतोष था। मेरा मानना है कलाकार दिवंगत नहीं होते, अपनी कला में बने रहते हैं। बिरजू महाराज अपने आप में एक घराना हैं, किसी भी घराने से परे। विनम्र श्रद्धांजलि - मनीषा कुलश्रेष्ठ
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स्त्री दर्पण की ओर से हमारे समय की दो महत्वपूर्ण लेखिकाओं जया जादवानी और निर्मला भुराड़िया को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं।आज उनके जन्मदिन पर हम कार्यक्रम भी कर रहे हैं।आप इन लोगों की रचनाएं पढ़िये ।उन पर लेख दिए जा रहे हैं उनपर वीडियो भी बनाये गए है और उनका रचना पाठ भी कियाजा रहा है। आपको पता ही है हम 60 वर्ष से अधिक उम्र की महत्वपूर्ण लेखिकाओं पर जन्मदिन समारोह आयोजित कर रहे है।अब तक 60 से अधिक लेखिकाओं पर हम कार्यक्रम कर चुके हैं।तो आज इन दोनों लेखिकाओं की जन्मदिन समारोह में आप भी हिस्सा लें और उन्हें बधाई दें।
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हिंदी की विदुषी लेखिका चंद्रकला त्रिपाठी के67 वें जन्मदिन पर उनकी कुछ कविताएं
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स्वतंत्र किरदारों का आत्मीय अंतरंग
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स्मृति में अटकी लेखिका
स्त्री दर्पण जन्मदिन गीतांजलि श्री