Friday, December 27, 2024
Homeलेखकों की पत्नियां"क्या आप सविता दानी को जानते हैं?"

“क्या आप सविता दानी को जानते हैं?”

पिछले दिनों आपने जबलपुर के प्रख्यात लेखक और पहल के यशस्वी संपादक ज्ञानरंजन की पत्नी सुनयना जी बारे में पढ़ा। हिंदी लेखकों की पत्नियों के बारे में चल रही शृंखला में आप इस बार पढ़िए जबलपुर के ही प्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र दानी की पत्नी के बारे में। जिनका गत वर्ष 18 अप्रैल को कोविड के कारण अचानक निधन हो गया था।
राजेन्द्र दानी पहल परिवार से वर्षों जुड़े रहे हैं और इस नाते ज्ञान जी के पारिवारिक सदस्य की तरह हैं। उनकी कवयित्री पुत्री तिथि दानी अपनी मां के बारे में बता रहीं हैं जिन्होंने तिथि के व्यक्तिव के निर्माण में और राजेंद्र दानी के साहित्यिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं। राजेन्द्र दानी आज अपनी पत्नी के इस योगदान की स्मृति में एक पुरस्कार समारोह भी आयोजित कर रहे हैं। वह शिवपूजन सहाय की उस परम्परा को जीवित कर रहे हैं जिसमें एक पति अपनी पत्नी की याद में कुछ करता है। 7 मार्च 1955 को जबलपुर में जन्मी सविता जी एक कुशल गृहणी थीं लेकिन उन्होंने सबको स्नेह और प्रेम का पाठ पढ़ाया। 1981 में उनका विवाह राजेन्द्र दानी से हुआ।वह एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आती थीं। जिसके जीवन में संघर्ष की मार पत्नियों को झेलनी पड़ती हैं लेकिन वे इस संघर्ष को कभी व्यक्त नहीं करते और पति तथा बच्चों का ख्याल रखती हैं तो पढ़िए तिथि का यह संस्मरण।
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“प्रेम जिनका विशेष मसाला था”
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– तिथि दानी
जब भी ख़ालिस और बेशर्त प्रेम की बात चलती है तो ऊष्मा, मुलामियत भरा तरंगित करने वाला वह स्पर्श बार-बार याद आता है,जो उनसे गले मिलने पर मेरी आत्मा में एक झरना बन कर गिरता और पैबस्त हो जाता था। यही वजह है, अब जबकि वे विदेह हो चुकी हैं, मुझे जब भी जीवन में प्रेम की नदी सूखती दिखती है मैं तुरन्त हृदय के कोरों को खोदना शुरू कर देती हूं और वह झरना एक बार फिर फूट पड़ता है जो कहीं गहन परतों तले चुपचाप मुंह पर उंगली रख कर बैठा था। लेकिन अब वह आंसुओं की शक़्ल इख़्तियार कर चुका है।
इसके बरक्स वे पल जिसमें आप किसी का चेहरा श्मशान की आग में जलने के पूर्व देखते हैं, कैसा होता होगा? ये सोच कर कभी रोंगटे खड़े होते हैं तो कभी अपना अस्तित्व पाताल लोक की अज्ञात गहराई में अनियंत्रित हो कर डूबता दिखता है। किसी अपने की बात इस तरह से करना बेशक एक नकारात्मक रुख़ लगता होगा, पर मैं ईमानदारी से बात करना पसंद करूँगी।
निस्संदेह आप सब में अधिकांशतः अपने प्रियजनों को इस तरह विचारते हुए स्मृतियों के भंडार से बाहर नहीं लाते होंगे। लेकिन जब औचक कुछ ऐसा घटित होता है जिसकी कल्पना आपने निकट भविष्य के लिए न की हो तो बात करने का कोई ढब समझ में नहीं आता। मैं यहां अपनी दिवंगत मां को याद कर रही हूं। जिनका देहावसान अप्रैल 2021 में कोविड-19 की वजह से अप्रत्याशित रूप से हो गया और जो एक मां होने के साथ-साथ एक लेखक की पत्नी भी थीं। दरअसल हमारा जीवन अच्छे- बुरे कर्मों और संस्कारों की कुल जमा पूंजी ही है और इस पूंजी में पहला निवेश माता पिता के रख-रखाव और उनकी दी हुई अचूक सीख का होता है और मां इसमें सबसे पहले अपना योगदान देती है। मेरा नाम ‘सुमि’ जिससे मुझे घर पर पुकारा जाता है ‘वह मेरी ‘मम्मी’ ( सविता दानी) ने दिया था। उनका जन्म जबलपुर में 3 भाई और 3 बहिनों के भरे-पूरे परिवार में हुआ था। वे कभी भी अपना अधिकार जताने वाली या थोपने वाली मां और पत्नी नहीं रहीं। उनका जीवन कुछ खट्टे, मीठे और नमकीन संघर्षों का मिश्रण रहा है। कड़वेपन या कसैलेपन की उनके व्यक्तित्व में सदैव अनुपस्थिति रही। वे ‘जैसे को तैसा’ की परंपरा की कभी नहीं रहीं। उनकी मां की गम्भीर बीमारी ने उन्हें बचपन में ही बड़ा होना सिखा दिया था। टेढ़ी मेढ़ी रोटियां बनाना, कुएँ से पानी खींचना, 5 वर्ष की कच्ची उम्र में ही उन्हें आ गया, लेकिन बचपन की मासूमियत फिर भी बरक़रार रही और वे अपने भाई बहिनों की बड़ी बहिन बन कर उनकी मीठी पिटाई भी करती रहीं। स्कूल में वे एक शर्मीली लड़की की तरह रहीं और इसी तरह ग्रेजुएशन भी किया। शादी के बाद मैं बहुत जल्दी उनके जीवन में आ गयी और कई कोशिशों के बाद भी उनका नौकरी करने का विचार साकार नहीं हो सका। हालांकि कुछ घरेलू व्यवसाय वे समय-समय पर करती रहीं।
यहां इस बात का उल्लेख मुझे आवश्यक लगता है कि अपने अब तक के जीवन काल में मैंने अपने अभिभावकों को बेहद स्वतंत्र विचारों का धनी होने के साथ-साथ नैतिकता का पैरोकार पाया है। मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान हूँ। आज से तीन या चार दशक पहले तक बच्चों के इकलौते होने को आश्चर्य से भर कर देखा जाता था और समाज में आम लोगों की धारणा यही होती थी कि ऐसा बच्चा ज़िद्दी, अनुदार, दूसरों के साथ सामंजस्य बिठाने में अक्षम, बेहद लाड़- प्यार से बिगड़े एक व्यक्तित्व के रूप में विकसित होगा। मेरी मम्मी इस सच के प्रति बहुत चौकन्नी थीं। यहीं से उनका मेरे प्रति व्यवहार और परवरिश उन कुछेक लोगों की श्रेणी में आ जाता है जो इकलौते होने के नफ़ा नुकसान से वाकिफ़ होते हैं। उनका ये कहना कि “अपनी हर चीज़ को बांटा करो सबके साथ”। अधिकतर चीज़ें अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर होती हैं, एक ऐसा उपकरण था जिसने मुझे स्वार्थी होने से बचाया।
ज़िन्दगी की तमाम जटिलताओं से गुज़रकर सब कुछ बदल सकता है, पर जो अक्षुण्ण रह जाता है, वह प्रेम है, जिसे मैंने मम्मी की बनाई करारी गर्म रोटियों और दही की शीतलता के साथ पापा की थाली में उतरते देखा है, फिर चाहे वह खुद बेहद थकी हुई हों या सिर दर्द को पट्टी बांध कर अपने उत्साह से पीछे धकेल रही हों।
कभी अपने लिए कुछ न खरीदने, कोई शौक न करने की पापा की मितव्ययिता किस तरह हमारे लिए नए घर की नींव बना गयी, मुझे देर लगी समझने में, पर मम्मी हमेशा समझती रहीं और बाज़ार से पापा के लिए ज़रूरी परिधान हमेशा खरीदती रहीं। उन्हें हमेशा इस बात की फिक्र रही कि पापा अपना ख़याल नहीं रखते, अपने बारे में नहीं सोचते और हमारी खुशियों के लिए कई सुखों का त्याग करते हैं। लेकिन इस दरमियान कभी भी वे आत्म दया से ग्रस्त नहीं हुईं, उन्हें मैंने कभी भी एक ऐसी पत्नी के रूप में नहीं देखा। जो अपने पति के सामने तरह-तरह की मांग रखती है और उनके पूरे न होने पर घर में क्लेश, कलह, द्वेषपूर्ण माहौल बना देती हैं। उन्हें मैंने हमेशा संतोष, करुणा, दया व प्रेम के गहने पहने हुए पाया।
पापा के लेखकीय जीवन की सक्रियता का आधार उनकी अपनी लगन, निष्ठा और परिश्रम के अलावा मम्मी का एक पत्नी के रूप में अथक और निरंतर समर्पण रहा। ऐसे कई अवसर आए जब पापा ने कहा, “आज मैं फ़िलहाल कहीं नहीं जाऊंगा, मुझे लिखना है” तब मम्मी ने बिना नाक-मुंह सिकोड़े पापा की मर्ज़ी में अपनी मर्ज़ी शामिल कर ली। गौरतलब यहाँ यह है कि उनकी कोई साहित्यिक पृष्ठभूमि नहीं रही, कि उनसे साहित्य को गम्भीरता से लेने की उम्मीद की जाए, लेकिन वे रिश्तों का सम्मान करना बख़ूबी जानती थीं। समय गुज़रने के साथ उनमें साहित्यिक अभिरुचि भी पैदा हो गयी थी। वे कई वर्षों से कहानी, उपन्यास, ग़ज़ल बहुत चाव से पढ़ रहीं थी। अक्सर कहानी के शीर्षकों पर पापा को बेबाक अपनी राय भी दे देती थीं।
फिर एक वक्त ऐसा भी रहा जब पापा के पैर में फ्रैक्चर हुआ और लंबे समय तक उनकी गतिशीलता लगभग बंद हो गई। और जब शुरू हुई तो बैसाखी के सहारे। इस कठिन समय ने गुज़रते हुए शायद, मम्मी-पापा के रिश्ते को एक बहुत ख़ूबसूरत आकार दिया और वे बिल्कुल नए हो गए। ‘जीवनसंगिनी’ शब्द मात्र कहने के लिए नहीं होता, जहां जीवन के हर कतरे में प्रेम.. निस्वार्थ और निरन्तर झरता रहे, अथक बिना ऊबे साथ रहे, वहीं उसकी सच्चाई का सूरज उदित होता है, इस तथ्य को मम्मी रक्त में मौजूद हीमोग्लोबिन की तरह बेहद महत्वपूर्ण मान कर चलती रहीं, इस दौरान उन्होंने इस बात का बख़ूबी ध्यान रखा कि पापा निरुत्साहित, निराश और लाचार न महसूस करें। वे एक केवल एक नर्स की तरह ही नहीं बल्कि एक पत्नी के रूप में दोस्त की तरह पापा का साथ निभाती रहीं।
इसी तरह जब मेरी दादी उम्रदराज़ होने की वजह से चलने फिरने और यहां तक कि, नित्यकर्म करने से भी लाचार हो गईं, तब मम्मी ने एक बहु, पत्नी और मां और बेटी की भूमिका का भी साथ में निर्वाह किया, जो बेहद चुनौतीपूर्ण रहा। लेकिन उन्होंने कभी उफ़्फ़ तक नहीं किया। वे अध्यात्म में गहरी संलग्न थीं, ध्यान, प्राणायाम, योग उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा रहे। बागवानी करना और घर को बहुत कम स्त्रोतों के साथ भी सुव्यवस्थित और सुंदर रखने की कला में वे माहिर रहीं। वे प्रतिदिन अपने कर्मों का लेखा जोखा करती थीं और गीता में कृष्ण के दिखाए रास्ते का अनुसरण कर रहीं थीं।
उनके हाथ से बना सादा भोजन हो या विशिष्ट, बहुत जल्दबाज़ी में बना भोजन हो या तसल्ली से बना, उसमें स्वाद और तृप्ति की जुगलबंदी बिना अंतराल के हमारे हर कौर में उतरती रही। जब उनसे ये पूछा जाए कि “आज कौनसा ख़ास मसाला डाल दिया भोजन में”? उत्तर में वे बस मुस्कुरातीं, ‘और’ खाने के आग्रह के साथ थाली में उस दिन का विशेष पकवान परोस देतीं। घर पर जो भी मेहमान आए वे उनकी मेज़बानी , उनके बनाये लज़ीज़ व्यंजन और सबसे बढ़कर उनका प्रेम विस्मृत नहीं कर सके, यही उनका विशेष मसाला था जो मज़बूत डोरी से बांध लेता था।
यदि सेवा, समर्पण, त्याग, करुणा, ममता, प्रेम, निश्छलता को एक साथ किसी इंजेक्शन की तरह दिया जाए तो उसका नतीजा बिल्कुल मेरी मम्मी के व्यक्तित्व का दोहराव होगा। मैं जानती हूँ कि मुझसे कोई इंसानियत की परिभाषा पूछे तो मुझे सबसे पहले अपनी मम्मी का चेहरा ही नज़र आएगा। एक लेखक के निर्माण में उसकी पत्नी की कितनी महती भूमिका होती है, मैं बचपन से इसकी साक्षी रही हूँ। लेखक के जीवन में जो लोग, रिश्ते, घटनाएं, परिस्थितियां होती हैं, वे केवल उसकी निजी नहीं, बल्कि उसकी पत्नी की ज़्यादा होती हैं। इसलिए लेखक की सफलता-असफलता, लोकप्रियता में उसकी पत्नी की बराबर भागीदारी होती है।
इतना कुछ सिर्फ़ इसलिए नहीं कहा कि वे मेरी माँ हैं तो उनकी तारीफ़ लाज़मी है, बल्कि इसलिए कहा क्योंकि वर्तमान का एक कड़वा सच जानती हूँ, कि इंसानियत और आत्मीयता शनैः शनैः ख़त्म होती जा रही है। मेरी माँ जैसे विराट व्यक्तित्व के इंसानों की इस पृथ्वी को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बहुत आवश्यकता है।
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