Wednesday, September 17, 2025
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स्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

प्रतिरोध की कविताएं

कवयित्री सविता सिंह

स्त्री दर्पण में प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह के संयोजन में प्रतिरोध कविता श्रृंखला में वरिष्ठ कवयित्रियों शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग और कात्यायनी की कविताओं के बाद अब आप पाठकों के लिए वरिष्ठ कवयित्री अजंता देव की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं।

प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 4 में जनवादी सरोकारों की कवयित्री कात्यायिनी की कविताओं को पाठकों ने पढ़ा।
आज “प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 5 में वरिष्ठ कवयित्री अजंता देव के परिचय के साथ पेश कर रहे हैं।
प्रोत्साहन के लिए हम आप पाठकों का आभार व्यक्त करते हैं।
– सविता सिंह
रीता दास राम
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आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री दर्पण पर चल रही स्त्री प्रतिरोध श्रृंखला की पाँचवीं कवयित्री अजंता देव हैं। हालांकि इनकी
प्रतिरोध करती कविताओं का जिक्र कम हुआ है मगर ये कविताएं अपना काम करती रही हैं। इनके कविता संग्रह “एक नगर वधू की आत्मकथा” ने हिंदी के सुधी पाठकों को चौंकाया था। स्त्री के आंतरिक जीवन की एक बहुत ही सूक्ष्म दुनिया को इस संग्रह की कविताओं ने सबके समक्ष रखा। इससे एक उजाला फैला था जिसको सबने देखा। यहाँ प्रस्तुत प्रतिरोध की कविताएं भी उसी ज़मीन से आती हुई हमारे लिए थोड़ा और उजाला लेकर आई हैं। इस महत्वपूर्ण कवयित्री की इन कविताओं को यहाँ साझा करते हुए हमें बेहद खुशी हो रही है।
अजंता देव का परिचय
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जोधपुर में 31 अक्टूबर, 1958 को जन्म। राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हिन्दी साहित्य में एम.ए.।
शास्त्रीय संगीत (गायन) में बचपन से प्रशिक्षित, साथ ही नृत्य, चित्रकला, नाट्य तथा अन्य कलाओं में गहरी रुचि एवं सक्रियता होने के बावजूद मूलतः कवि के रूप में पहचान।
किताबें : कविता संग्रह
राख का किला, एक नगरवधू की आत्मकथा, घोड़े की आंखों में आँसू, बेतरतीब
नानी की हवेली ( बच्चों के लिए)
बांग्ला से नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती व शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं के और अंग्रेज़ी के ज़रिये ब्रेष्ट की कविताओं के हिन्दी में अनुवाद।
राजस्थान पत्रिका और धर्मयुग में पत्रकारिता करने के बाद 1983 से भारतीय सूचना सेवा में। 2010 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन।
पुरस्कार :
साहित्य सप्तक की ओर से गीत सम्मान, राजस्थान पत्रकारिता संस्थान की ओर से मीडिया सम्मान।
अजंता देव की कविताएं
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1. गत्ते का मुकुट
मैंने बहुत बाद में जाना
कुर्सी पर सफ़ेद चादर ओढ़ाने से वह हिमालय नहीं होता
गत्ते का मुकुट लगाए खड़ी वह भारत माता नहीं
मेरी सहेली है
पिता की फटी लुंगी का आधा हिस्सा लपेट कर
गांधी जी नहीं तीसरी ए का नवीन चला आ रहा
कॉपी पर हल चलाता किसान
उगते सूरज के सामने उड़ते तीन पंछी
और नदी पर आधे झुके नारियल के पेड़
दृश्य नहीं चित्र हैं
मैंने तो यह भी बहुत बाद में जाना कि
चौथी क्लास का वह लड़का
इन्हें सच समझता था
मैंने यह तब जाना
जब मेरी नज़र तानाशाह पर पड़ी
जब वह गत्ते का वही मुकुट लगाए सामने आया
जो भारत माता ने कब का फेंक दिया था।
2. कुछ शब्द बदल दें
हमें भूना गया गोलियों से लगभग पृथ्वी से बाहर धकेल दिए गए
जलाये गए हमारे शरीर
हम आग बुझाने कूद गए समन्दर में सिर्फ़ रह गए कुछ फफोले और सुराख
हमारे सीने के भीतर तक घुसा दिए गए भाले हमने पर्वत शिखरों से रगड़ कर
निकाल दिए सारे नोक
सिर्फ़ रगड़ के निशान रह गए हमें रौंदा गया बूट से
राइफल की बट से ठोका गया बार बार हम रेत में रेत बन कर मिल गए।
सिर्फ़ कहीं कहीं रंग बदल कर रह गई मिट्टी
घर से बाहर
बाहर से और बाहर
लेकिन हम लौट आए बिगड़ा मौसम बन कर
सिर्फ कुछ खालें लटकी रही जंगलों में
पेड़ पर यहाँ वहाँ बालों के कुछ गुच्छे बस
वाकई यहाँ ऐसा कुछ नहीं मिलेगा
आप यह कविता बच्चों के पाठ्यक्रम में लगा सकते हैं
बस, गोली आग भाला राइफल और बूट की जगह फूल बर्फ़ डाली पिचकारी और रंग कर दें।
3. जहर
अगर तुम नहीं पहचानते ज़हर
तो ज़रूर मर जाओगे किसी दिन धोखे में
उसे चखो ,उसका स्वाद याद रखो
याद रखो कि अब कभी नहीं चखना है ये स्वाद ……..
4. युद्धबंदी
हताशा से मेरा गला सूख गया फिर से मेरा ही नाम दर्ज हुआ दुनिया की किसी भी भाषा में नफ़रत से बोला गया नाम हर युद्ध की मैं बंदी हूँ हर युद्ध मुझसे छीनता रहता है नीला आसमान हरे पेड़ कुछ गीत और मोटा अनाज
मेरे नाम में बदल जाता है
कुछ दूर तक का वक़्फ़ा भी नहीं मिलता रिहाई का कि फिर पकड़ लिया जाता है
कितने सत्तावन सैंतालीस पैंतालीस छ: पाँच चौदह सौ अठारह सौ उन्नीस सौ दो हज़ार और जाने कितने आगे भी
मुझ पर पूरी दुनिया का दावा है इसीलिए मुझे कोई नहीं जानता कोई देश नहीं कहता आगे आकर यह युद्धबंदी मेरा है
सिर्फ़ एक घोड़े की आँखों में आँसू आ जाते हैं हरबार
पेड़ से टपक जाता है खारा पानी मछलियाँ उलट जाती है समंदर में ज़मीन फटकर खाई बन जाती है। जिसमें दुबके बच्चे बड़ी-बड़ी आँखों से इंतज़ार करते हैं लाल सुर्ख धमाकों का आसमान पर मंडराने लगता है भूतिया जहाज।
5. खून
प्रेम से ऐसे निकली
जैसे ध्वस्त इमारत से
मलबे में दबे रह गए असंख्य चुम्बन
चिन्दी हो गए प्रेमपत्र
झूल गए वे तार जो विद्युत प्रवाहित करते थे
दो शरीरों में एकसाथ
उनसे निकली चिंगारियों से चेहरा काला पड़ गया
वह इमारत
जिसे खड़ा किया गया था गर्व से
सुन्दर नाम से पुकारा गया था
अब उसे ढाँचा कहा जा रहा था
ख़तरनाक
कोई नहीं आया मुझे निकालने
चिल्लाने से नहीं
टूटे टुकड़े के धँसने पर पता चला
कि ज़िन्दा हूँ और रहना चाहती हूँ
बाहर सब थे
मुझे ख़तरे से दूर ले जाते
नीचे मलबे में अब भी गर्म था मेरा ख़ून
ईंटों को नमी देता हुआ।
6. मौत
आँखें बाहर की तरफ निकल कर ठहर गई थीं
बहुत पहले से नज़ारों से फेर ली थीं नज़र
गला पकड़ने को एक पूरी जमात लगी हुई थी बरसों से
चौखाने वाला मफ़लर भी छिपा नहीं पा रहा था
लगातार गहरा होता निशान
साँस लेते ही बारूदी हवा पी जाती थी अंदर की प्राणवायु
उसके और मृतक के हक़ बराबर थे ,या शायद मृतक के कुछ ज़्यादा ।
* मौत दम घुटने से हुई ,लगभग बारह घंटे पहले
7. यह भी एक मृत्यु
मेरी शव परीक्षा में
नहीं पाई गई भुखमरी से मृत्यु
डॉक्टरों ने नहीं खोला मेरा पेट
देखी खुर्दबीन से मेरी उंगलियां
लिखा ,नाखूनों पर मिले हैं आटे के अंश
नहीं पता चला किसी को मेरी मौत का
उन्हें भी नहीं ,जिनके घर मैं खाना बनाती थी।
*अज्ञात कारणों से मौत, मृतका किसी क्रॉनिक बीमारी से ग्रस्त नहीं थी।
8. शिकारी से बचने के अचूक मंत्र आधुनिक कुटिल इंद्रजाल से
मंत्र – एक
सिर्फ़ रंग बदल लेने से जान नहीं बचती
त्वचा पर काँटे और लार में ज़हर ही असली हथियार है ।
(कैसे भी अपना ज़हर बचा कर रखें )
9. मंत्र – दो
सिर्फ़ अपने अहसास पर भरोसा रखें
टिटहरी पर नहीं
उसकी चेतावनी शिकारी के कानो तक भी पहुँचती है ।
(सन्नाटे को सुनें )
10. शांति भी एक युद्ध है
तन कर खड़ा होता है
हिंसा के विरुद्ध अहिंसा
नफ़रत के विरुद्ध प्रेम
शान्ति भी एक युद्ध है
युद्ध के ख़िलाफ़।
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