प्रतिरोध की कविताएं
कवयित्री सविता सिंह
स्त्री दर्पण मंच पर ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह के संयोजन से लगातार प्रस्तुत की जा रही हैं। इस ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ में अब तक वरिष्ठ कवयित्रियों में शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह एवं रजनी तिलक की कविताओं को आप पढ़ते रहे।
इस श्रृंखला की अगली कवि पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ कवि निवेदिता हैं। आज आपके समक्ष इनकी की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं पाठकों का सहयोग अपेक्षित हैं।
“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 8 में आपके समक्ष वरिष्ठ कवयित्री रजनी तिलक की महत्वपूर्ण कविताएं थी।
आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 9 के तहत पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ कवि निवेदिता की सशक्त कविताएं परिचय के साथ प्रस्तुत की जा रही हैं।
पाठकों के प्रोत्साहन हेतु आभार व्यक्त करते हैं।
– सविता सिंह
रीता दास राम
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आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध कविता श्रृंखला की नवीं कवि निवेदिता हैं। इनकी कविताओं में दुख के अनेक विवरण हैं जो कविता को संबल देते हैं। हमारे सामाजिक और राजनैतिक जीवन में व्याप्त असमानता की विद्रूपता को ये कविताएं मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। जो उजागर होता है वह हमारे मन के अंधकार को लक्ष्य करता है। इनको पढ़ते हुए कितने ही और महान कविताओं की याद हमें घेरने लगती है। इन कविताओं में बसे जीवन के राग को आप भी सुने, प्रस्तुत है उनकी दस महत्वपूर्ण कविताएं।
निवेदिता का परिचय :
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लेखक, कवि, वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता।
लंबे समय तक पत्रकारिता किया। लगभग सभी राष्ट्रीय अखबारों में काम किया। नवभारत टाईम्स से शुरुआत।
सर्वश्रेष्ठ हिन्दी पत्रकारिता के लिए लाडली मीडिया अवॉर्ड मिला।
मुजफ्फरपुर शेल्टर होम के मामले को लेकर लंबी लड़ाई। अदालत से लेकर सड़कों तक। इस मामले लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। अपराधियों को उस आधार पर सजा हुई।
कविता की दो किताबें वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘ज़ख्म जितने थे’, ‘प्रेम में डर’ और संस्मरण ‘पटना डायरी’ के नाम से भी वाणी से प्रकाशित। कहानी संग्रह ‘अब के बसंत’ प्रलेक प्रकाशन से प्रकाशित।
E mail id – niveditashakeel@ gmail. Con
निवेदिता की कविताएं :
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1. ये कविता कई दिनों से मेरे भीतर थी
आज चुपचाप बाहर आ गई।
एक दिन सारी स्त्रियां डाल दी गई कुएं में
कुंआ में पानी गहरा था
अंधेरा था घना
उनके साथ दूध मुहें बच्चियां थीं
उन्हें जीना था
जिन्दगी के जंग से लड़ना था
वे निहत्थी औरतें तैर रही थीं गहरे – गहरे
वे तैरते हुए सूरज को देख रहीं थीं
सामने झिलमिल आकाश था
एक पेड़ झुका था कुएं पर
मां ने बच्चियों को तैरना सिखाया
वे तैरते हुए रात के अंधेरे में पेड़ की शाखों पर झूम रही थीं
गा रही थीं
दूर उस देश में उन्होंने सुना संगीत
वे देख रहे थे गाती बच्चियों को
तैरती बच्चियों को
वे बड़े लोग थे
सत्ता और बंदूक की नोक पर वे देश चला रहे थे
ख़ुदा को बंदूकों में कैद रखा था
उस दूर देश में कोई स्त्री गा नहीं सकती थी
अलिफ, बे से नाता नहीं रख सकती थी
वे डरते थे
ये निहत्थी औरतें कहीं मुहब्बत से दुनिया जीत न लें
कहीं ज्ञान उनके जीवन को मुक्ति का रास्ता ना बता दें
कहीं संगीत का झरना ख़ुदा को ज़मीन पर आने को मजबूर न कर दें
उन्होंने कुएं में बहुत सारे बिच्छू डाल दिए
कुएं तक झूलती शाखों को काट दिया
पहरे बिठा दिए गए
अंधेरा और घना हुआ
बिच्छुओं के डंक से देह लहू -लुहान हुआ
पहरेदार थक गए पहरा देते हुए
नींद में चले गए
बच्चियां सूरज की रौशनी पकड़ कुएं से बाहर निकलीं
फिर वे गाने लगीं
खिलखाने लगीं
उन्होंने जोर से पढ़ा
“अ “से अलिफ
दुनिया की सारी आवाज उनमें समा गई
अब सब कह रहे हैं
“अ” से अलिफ !
“अ” से अमन !
2. लक्ष्मी की पुकार
मैं थक गई हूं
सदियों से तुम्हारी सेवा करते हुए देव
हे विष्णु
हे जगत के पालनहार
मेरा सुख तुम्हारे पांव तले कभी नहीं था
मैं चाहती हूं
तुम्हारे साथ जीना
ये आकाश,
ये हवा
और रात के सितारे
मेरे प्राणों में बाँसुरी सी बजती है
ओ विष्णु
वसंत में आम्रकुंज से आती सुगंध
मुझे खुशी से पागल करती है,
आषाढ़ में पूरी तरह से फूले धान के खेत
में तुम्हारे साथ नंगे पांव भागना चाहती हूं
नहीं चाहती तुम किसी सामंत की तरह शेष नाग पर विश्राम करो और मैं तुम्हारे पांव के पास बैठी रहूं
मैं महालक्ष्मी हूं तुम्हारी
हम क्षीर सागर में साथ – साथ उतरे थे
ये संसार हमनें साथ रचा
साथ साथ देखें मुक्ति के स्वपन
देव ये विधि का विधान नहीं है
स्त्रियां पुरुषों के पांव तले रहे
हे देव मैं एक साधारण स्त्री की तरह जीना चाहती हूं
चाहती हूं संसार के रस में हम साथ भीगे
मैं चूल्हा जलाऊं तुम आटा गूंथ दो
तुम खेत में हल चलाओ
मैं बीज बो दूं
हम खुले आकाश के नीचे पड़े रहें
समुद्र के गहरे जल में उतर जाएं
मैं चाहती हूं शेष नाग करवट लें और जल, थल सब डोल जाए
तुम सारे दिन विश्राम मत करो देव
संसार को देखो
सुख – दुख के भागीदार बनो
आज खिलने दो ह़दय-कमल को,
भूलो की तुम देव हो
मेरे मन में बसो
प्रेमी की तरह
आओ प्राणों में
आओ गन्धों में
आओ अंगों में
आओ इन दोनों नयनों में
3. मजदूरों के नाम
मजदूर
बारिश की तरह है
झमाझम बरसते हैं खदानों में, खेतों में
बाढ़ की तरह बहा ले जाता हैं मालिक
मजदूर
रोटी में बसे रहते हैं
मजदूर
इस तपती धूप में
भूखे प्यासे
मीलों चल रहे हैं
कोई तो आंगन है जिसने पुकारा
मजदूर
पीठ पर गट्ठर लादे
चला जा रहा है
तानाशाह
हवाईजहाज से उड़ रहा है
मजदूर
सड़कों पर मर गए
रेल पटरियों पर बिछ गए
वे वैसे ही बिछड़ गए
जैसे पक्षी छोड़ते हैं घोंसले
घोंसले में अपनी परछाइयां
जहां हवा उगती है
जहां निर्झर बादल धड़कते हैं
गहरे नीचे घास की परत के नीचे
नन्हीं कोमल जड़ें हैं वहीं तो है
प्यार
जहां मजदूर बसते हैं
ये दुनिया जो उन्होंने बनाई
ये दुनिया उनकी नहीं है
वे मजदूर हैं
मजदूरों
की आंखों में
गांव, घर बसते हैं
बसते हैं खेत, खलिहान
मजदूरों के सपने जीवित हैं
सपनों में ही वे चल रहे हैं
इस तपती धरती पर
मजदूर
देश भक्त नहीं है पर
प्रेम करता है देश से
मजदूर सरहद के पार जाता है उसके साथ कोई सेना नहीं कोई हथियार नहीं
मजदूर दो देशों के बीच धड़कता है
और मेहनत कि रोटी के लिए किसी भी देश में पनाह लेता है
मजदूर
घर के लिए लौटता है
घर नहीं पंहुच पाता
मजदूर देशभक्त नहीं
पर देश के लिए मर जाता है
4. अँधेरे समय की कविता
मैं लिखना चाहती हूँ ताकि इतिहास में ये दर्ज रहे, की हम तानाशाह के आगे हारे नहीं थे
जब झूठ रचे जा रहे थे और सारे दानिशमंद पर पहरे बिठाये गए
तब भी रौशनाई सूखी नहीं थी .
न्यायधीश जब जिरह कर रहे थे ठीक उसी समय सारे गवाह खरीद लिए गए
हवा जो हंसती थी उसे कैद कर लिया गया
सूरज को उगने से रोक दिया गया
नील विस्तीर्ण आकाश के आलोक मंडल में अपने पंख फैलाये उड़ रहे पक्षी पर निशाना साधा गया
जिन स्त्रियों की बलात्कार के बाद हत्या हुयी उनके मेडिकल रिपोर्ट में
कहा गया कि वो एक अदृश्य मौत से मरी
दुनिया के स्कूल में सारे छात्र गूंगे करार दिए गए
उन्होंने अपनी प्रेमिकाओं के नाम नहीं पुकारे
नहीं देखा गुलाब को खिलते हुए
धूप को पहाड़ों की पीठ पर चढ़ते हुए
झींगुरों और टीटहरियों की तान सुनते हुए वे बड़े नहीं हुए
घृणा का खारा जल लिए वे
शहरों को लड़ते हुए देखते रहे
नफरत को बिकते हुए
वे नहीं सुन रहे थे एक दूसरे को
उनकी आँखों ने भीड़ में चेहरे पहचानना बंद कर दिया था
औरतों , बच्चों से ताजादम बस्तियां
मेहनत से फसल उगाते किसान
झूल गए रस्सियों पर
जिन्होंने ये बयां दर्ज किया
वे सब काल कोठरी में ठूंस दिए गए
वहां से भी कविताएं फूट पड़ीं हैं
स्याही फैल गयी है
एक इतिहास रचा जा रहा है।
5. इस कविता को कोई नाम ना दो
दुनिया की कोई किताब नहीं जो तुम्हारे दुखों को समेट सके
कोई ग्रंथ नहीं
कोई ईश्वर नहीं
जो तुम्हें भरोसा दे
सिर्फ सड़के हैं गवाह
तुम्हारे पैरों के धूल से लिपटे
खून से भीगे
उन पथरीले रास्ते पर कोई नदी भी नहीं बहती जहां तुम अपने जख्मी पैरों के लहू धो सको
कोई शहर नहीं बचा जहां तुम्हारे क़दमों के निशान नहीं हैं
मुझे ईश्वर के पांव नहीं दिखते
तुम्हारे पांव दिखते हैं
जैसे तुम पृथ्वी को नाप रहे हो
ईश्वर ने चार डेग से पूरा ब्रह्मांड नापा था
तुम्हारे पांव घरती से आकाश की तरफ
पूरा आकाश तुम्हारे लहू से लाल है
तुम इस्पात पर चले
लोहे, पत्थर,गारे, मिट्टी
धूल के कण तुम्हारे फेफड़े में रचे बसे हैं
घर पंहुचने और अपनी मिट्टी में सांस लेने
के ख्वाब के साथ
तुम सो गए
ट्रेन की पटरियों पर
पटरी पर नींद उतर आई
जैसे
चांद उग आया था
पत्तियों से फिसलता हुआ तुम्हारे सिरहने पड़ा था
अंधेरे में गुम शाखों से फूल झर रहे थे
की अचानक
ख़ून से भर गई पृथ्वी
तानाशाह को नहीं पता
इतिहास लहूं से लिखे जाएंगे
अनगिनत मौत का हिसाब होगा
ख्वाबों की बावडी से उठती हुई आग
की लपट में जलेगा सबकुछ
निर्मम सत्ता के विरुद्ध
फिर उठ खड़े हुए हैं वे अपने दुखों को लांघते हुए
भेद रहे हैं अंधरे को
फूलो से पटा है मैदान
ऊपर उठ रहे हैं
ऊपर उठ रहे हैं वो
जमीन की सतह से
सैकड़ों मीनारों जितनी ऊंचाई तय कर
अपनी धरती से लिपट रो रहे हैं
तानाशाह अंतरिक्ष में चकरघिन्नी की तरह घूम रहा है
चमकीले ख्वाब बुन रहा है
उसके हाथ मजदूरों की गर्दन पर है
उसके नोकीले दांत खून से भीगे हुए हैं
फ़रिश्ते जैसे चेहरे वाली मां अपनी गुलाबी गालो वाली बच्ची को पीठ पर उठाए भाग रही है
माप रही है पृथ्वी।
6. मुखौटे
सफेद झक- झक लंबी दाढ़ी थी बाबा की
अक्सर रात में चांद उस दाढ़ी में लटका मिलता
बच्चे उमच- उमच कर खेलते
बाबा की श्वेत दाढ़ी से कविता के फूल झरते
संगीत की ताल पर पगला हवा नाचता
बाबा गुनगुनाते
समुद्र की लहरें कांपती
लहरों पर
नृत्य करती फेनराशि अनंत
रहस्यों के साथ
झिलमिलाती,
बाबा की दाढ़ी में गिलहरिया नींद लेती
और भोर के तारे ऊंघते हुए विदा होते
बाबा गुनगुनते
देखा है मैंने तुम्हें देखा, शरत प्रात में, माधवी रात में,
खींची है हृदय में मैंने रेखा, विदेशिनी !!
बच्चे हंसते
उनकी गोद में सो जाते
एक रात उनकी दाढ़ी में अचानक खूब सारे कील उग आए
बच्चे लहूलुहान थे
गिलहरी मरी पड़ी थी
चांद बुझ गया था
तारे आखरी बार दिखे थे चमकते हुए
उस रात बच्चे डर गए
बाबा के चेहरे का रंग बदलने लगा
उनकी आंखों में रक्त के धब्बे थे
और दांत में मांश के रेशे फंसे हुए थे
बच्चों ने देखा ये दाढ़ी वाला आदमी
उनके बाबा नहीं हैं
बाबा अनंत आकाश के पालने में सोए हैं
और कोई मुखौटा बदल गया है चेहरे में
चांद मरा पड़ा है उसके सिरहाने
गिलहरी के खून के धब्बे फैले हैं उसकी हथेलियों पर
सफेद दाढ़ी बढ़ रही है बड़े- बड़े नुकीले नाखून की तरह
रक्त के बूंद धरती में घुल रहे हैं
वो मुखौटा गा रहा है
आमी चीनी गो चीनी गो विदेशिनी…..
7. मृत्यु
अगर तुम्हें आना हो तो आना
भोर के तारों के साथ
आना सांझ के उजाले में
झरते हुए फूलों के साथ
मुझे बेला के फूल बेहद पसंद है अगर तुम आ रहे हो तो देखना मेरी सेज पर बेला के फूल हों और पाब्लो नेरुदा की प्रेम कविता
मुझे याद करने के लिए
पढ़ना पाश की कविता
और किसी भी नदी को याद कर लेना
प्रवाहित कर देना मुझे
अगर तुम्हें आना हो
तो पूरी धरती के हरेपन के साथ आना
जहां बांसुरी की धुन पर
मेरे गीत थिरक रहे हों
और मृत्यु गान
गाते हुए मेरी आंखें प्रेम में डूबी हो
मैं रहूं अपने प्रिए के पास
उसकी आवाज,उसकी त्वचा ,उसकी आंखें और मोतियां बिखेरती हंसी से मैं भीगती रहूं
रात के अंधेरे में या दिन के उजाले में जब भी आना
खुशबू से भीगे
सितारों के दीप्त पैरों के साथ
बसन्त सी पारदर्शी मेरी देह तुम्हारे लिए
मृत्यु !
8. मेरा ईश्वर
प्रार्थना के बाहर मिलता है
दुख के भीतर मिलता है
सुख के दिनों में कोने में पड़ा रहता है
मुझ से पूछता है क्या मेरा होना जरूरी है?
मैं हंसता हूं
तुम ईश्वर हो
सर्वशक्तिमान
तुम्हारे इशारे पर दुनिया चलती है
पत्ता भी नहीं हिलता तुम्हारे बिना
ये सवाल तो मुझे करना चाहिए
वो खूब हंसता है, ठहाका मारता है
तुमने मुझे गढ़ा है
और खुद तुम सवाल करते हो
तुम्हें खुद पर यकीन नहीं
इसलिए मुझ पर यकीन करते हो
मैं हृदय सुरंग से गुजरता हुआ
तुम्हारी त्वचा और आत्मा के भीतर बसता हूं
हवा से हवा तक
वायुमंडल के बीच
बसंत और गेहूं की बालियों के बीच
गहनतम निर्जनता में मैं बसता हूं
पृथ्वी की गहराइयों से मुझे देखो
हलवाहे,जुलाहे,चरवाहे, लोहार के बीच बसता हूं
सम्पूर्ण पृथ्वी ने मुझे गढ़ा है
वह रहस्य नहीं है
जीवन है
पर तुम जीवन को जानना नहीं चाहते
तुम ज्ञान पर कब्जा जमाए हुए हो
दुनिया की संपदा लूट रहे हो
उस लूट को संजोने के लिए तुम्हें ईश्वर की जरूरत है
तुम भय से लोभ से मुझे पैदा करते हो
मैं प्यार करता हूं उसे जो मुझ पर संदेह करते हैं
मैं हर देश , हर जगह से आया हूं
कांपती पृथ्वी
जो मेरी मां के गर्भ से जन्मी है
मैं उसके भीतर हूं
यायावर की तरह चलता हूं
मंदिरों, मस्जिदों के कैदखाने से मुक्त
वनों की दुनिया रहता हूं
मेरी सत्ता तुम स्थापित करते हो
मुझे भय लगता है
मेरा चेहरा रक्त से भीगा हुआ है
मैं तुम्हारी कैद से मुक्ति चाहता हूं
मैं उन औरतों के बीच रहना चाहता हूं,जो मुझ में अपने को ढूंढती हैं
मैं हूं प्रकृति के भीतर
पृथ्वी जीवित है मेरे भीतर
एक नदी गाती हुई प्रवेश करती है
मैं सुनहरे गिरजाघर से निकल कर
बसंत के भीतर जाता हूं
मैं तुमसे तुम्हारे प्रार्थना के बाहर मिलना चाहता हूं मनुष्य की तरह।
9.
मुझे माफ करना मेरी बच्चियां
उन तमाम लहू – लुहान रातों के लिए
उस भय के लिय जो तुम्हारी देह में उतरा
उस अंतहीन दुख के लिए
हर जख्म के लिए जो तुम्हारे मन में बोए गए
मुझे माफ करना
मैंने नहीं सिखाया अपने बेटों को
कैसे किसी स्त्री से प्यार किया जाता है
कैसे उसके दिल में उतरना होता है
कैसे दुख में कोई हाथ शीतल होते हैं
मैं उसे बता नहीं पाई एक स्त्री को पाने के लिए
कितने जतन की जरूरत है
एक स्त्री को पाना हिंसा से मुक्ति का रास्ता है
एक स्त्री को पाना लहरों के साथ -साथ बहना है
और कई बार उसके आने की आवाज़ आती है हवा उसके स्पन्दनों से भरी होती है
उसके स्पर्श उड़ते हुए आते हैं
अन्धेरे में खिले हुए फूल की तरह
वे अभागे है जो किसी स्त्री के मन के भीतर बस नहीं पाए
जो कभी जान नहीं पाए प्यार होने का मतलब क्या है
कैसे प्रतीक्षा करनी होती है
जब तक उसके मन के द्वार खुले नहीं
मुझे माफ करना मेरी बच्चियां
मैं नहीं बता पाई
मनुष्य होना क्या होता है
10. कविता
हम फिर से जी उठेंगे
भर लेंगे फेफड़े में पूरी हवा
रगों में फिर बहेगी जिन्दगी
फिर खिलेंगे मोगरे के फूल
और चांद उतर आएगा मेरे सिराहने
प्रेम में डूबे उन तमाम रातों को बुलाएंगे पास
तुम पढ़ना पाब्लो नेरूदा की कविता
और हम कविता के साथ तुम्हारे भीतर पड़े रहेंगे
तारे अनगिनत झिलमिलायेंगे
नदी हंसेगी
बह जायेंगे हमारे सारे दुख
जो बचे रहेंगे
वे हमारी – तुम्हारी हंसी में घुलकर नए रंग में ढल जाएंगे