Tuesday, May 14, 2024
नाम –  संजू शब्दिता
 
जन्मतिथि – 15 अगस्त 1984
 
जन्मस्थान –  भादर अमेठी ,उत्तरप्रदेश 
 
शिक्षा     – एम.ए . (हिंदी साहित्य) नेट ,जे.आर.एफ. पीएच.डी.
               
प्रकाशन – कविता कोष, रेख़्ता,  पाखी, कथादेश, अनुभूति,हस्ताक्षर ,गंभीर समाचार ,गुफ़्तगू,अट्टहास,विभोम स्वर,कविकुम्भ, संवेदन,शब्द-व्यंजना, हिन्दुस्तान दैनिक, चेतान्शी जर्नल,जानकीपुल,स्त्रीकाल आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉगों, साझा संग्रहों में ग़ज़लें प्रकाशित।
 
पुरस्कार/ सम्मान – गुफ़्तगू संस्था (इलाहाबाद) द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान प्राप्त, वाग्धारा (मुम्बई)यंग अचीवर अवार्ड.
 
ईमेल- [email protected]
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ग़ज़लें

ग़ज़ल-१

देख रही मेरी आँखों का दावा है
हर मंज़र में इक तस्वीर अलावा है
 
उम्र गवाँ कर मंज़िल तक तो आ पहुँचे
फिर हम समझे मंज़िल एक छलावा है
 
रूह की सूरत दिखने में कुछ और है पर
हम जो दिखते हैं वो महज़ दिखावा है
 
इन ज़ख्मो को कैसे भर जाने दूँ मैं
इन के दम से मेरे पास मुदावा है
 
कहाँ हुआ ओझल वो मेरी आँखों से
ध्यान हटा लेना बस एक भुलावा है

ग़ज़ल-२

ख़ुद ही प्यासे हैं समन्दर तो फ़क़त नाम के हैं
भूल जाओ कि बड़े लोग किसी काम के हैं
 
दस्तकें ख़ास उसी वक़्त में देता है कोई 
चार छह पल जो मेरी उम्र में आराम के हैं
 
कोई क्या लाग लगाए कि बिछड़ना है अभी 
हमसफ़र आप के हम एक ही दो गाम के हैं
 
आसमानों की बुलन्दी का सफ़र तय कर के
लौट आते हैं परिन्दे जो मेरे बाम के हैं
 
शाइरी चाय तेरी याद चमकते जुगनू
बस यही चार तलब रोज़ मेरी शाम के हैं

ग़ज़ल-३

निकल गया है मेरे हाथ से निज़ाम मेरा
मुझे ही आँख दिखाता है अब ग़ुलाम मेरा
 
मैं क्या बताऊँ ख़ुशामद के क्या तरीक़े हैं 
कभी पड़ा ही नहीं जाहिलों से काम मेरा
 
मेरा भी नाम उछाला था मेरे दुश्मन ने 
अब आसमाँ की जबीं पर लिखा है नाम मेरा
 
अब आप लोग तमाशे से हो गए फ़ारिग़ 
लो हो गया है चलो काम अब तमाम मेरा
 
जो बच रहे थे मेरे साथ हम कलामी से
वो आज पढ़ रहे हैं ढूंढ़ कर कलाम मेरा

ग़ज़ल- ४

ख़ुद से कुछ यूँ उबर रहे हैं हम
इक भंवर में उतर रहे हैं हम
 
ज़िन्दगी कौन जी रहा है यहाँ
मौत में जान भर रहे हैं हम
 
मौत के बाद ज़िन्दगी होगी
ये समझकर ही मर रहे हैं हम
 
अब संवरने का लुत्फ़ जाता रहा
आईने में बिखर रहे हैं हम
 
इश्क़ पहले भी तो हुआ है हमें
क्या नया है जो डर रहे हैं हम
 
वक़्त अपनी जगह पे क़ायम है
बस मुसलसल गुजर रहे हैं हम

ग़ज़ल ५

सफ़र की रात है दरिया को पार करना है
सफ़ीना डूब गया है मुझे उबरना है
 
तुम्हारे बाद अभी इन शिकस्ता क़दमों से 
पहाड़ चढ़ने हैं दरियाओं में उतरना है
 
मैं ख़ुश-लिबास समझ कर पहन रही हूँ क़फ़न
मैं ज़िन्दगी हूँ मेरा काम रंग भरना है
 
मिटाना ख़ुद है मुझे अपने अंदरूं का शोर 
मगर ये काम बहुत ख़ामोशी से करना है
 
मिटा रही हूँ चटख रंग सब शबीह के मैं
कि कैनवस को बहुत सादगी से भरना है
 
किसी की मौत पे अक्सर ये सोचती हूँ मैं
मुझे भी कल को इसी राह से गुज़रना है

ग़ज़ल- ६

उनींदी आँख में सपना नहीं था 
कभी कुछ दूर का सोचा नहीं था
 
गुमाँ पानी का हो ऐसा नहीं था
वो दरिया था कोई सहरा नहीं था
 
ख़ुशी भी जान ले सकती है इक दिन
मुझे इस ग़म का अंदाज़ा नहीं था
 
ये दीवारें बहुत उकता गई थीं
इन्हें इक रंग में रहना नहीं था
 
मैं हर पहलू से उसको सोचती थी
फ़क़त सोचा ही था समझा नहीं था
 
किसी दरवेश की सोहबत में थी मैं
मेरा मन यूँ ही बंजारा नहीं था
 
हमारे अहद की ये ख़ासियत थी
दरीचे थे प दरवाज़ा नहीं था

ग़ज़ल -७

पर्वतों के बीच वो जो इक नदी थी
अक्स अपना मैं उसी में देखती थी
 
रंग मुझ पर एक भी चढ़ता नहीं था
सादगी भी क्या बला की सादगी थी
 
आह वो मुझको किसी में देखता था
आह मैं उसको किसी में देखती थी
 
सिर्फ़ माज़ी कह के फ़ुर्सत हो लिए हम
क्या बताते क्या हमारी ज़िन्दगी थी
 
तुम फ़क़त इस जिस्म तक ही रह गए ना
मैं तुम्हें ख़ुद से मिलाना चाहती थी
 
चाँद सूरज तक मेरे आँगन में उतरे
ज़िन्दगी बस एक तेरी ही कमी थी

ग़ज़ल -८

कहाँ से लाए कोई रोज़ इक ख़याल नया
इसी फ़िराक़ में लो आ गया है साल नया
 
मलाल कम तो कहाँ थे गुज़िश्ता सालों के
ये साल दे के गया और इक मलाल नया
 
मेरे बग़ैर भी उस छत प धूप आयी थी
मेरे बग़ैर भी उसने मनाया साल नया
 
असीर कर के इसे हो गयी हूँ ख़ुद भी क़ैद
परिंदा ख़ुश है चलो मिल गया है जाल नया
 
तमाशबीन पुराने हैं इसलिए शायद
दिखा रहा है हमें वक़्त भी कमाल नया

ग़ज़ल -९

सारा क़ुसूर उसका है, कहता था जान-ए-जाँ 
बोला,तुम्हे भी इश्क़ है ? तो हम ने कह दी हाँ 
 
तौबा तुम्हारी बज़्म से ऐ इश्क़-ए-नामुराद
आने का रास्ता तो था,जाने का दर कहाँ ?
 
हम ने जला दिए थे कहानी के सब वरक़ 
बुझ तो गई वो आग प उड़ता रहा धुआँ
 
थोड़ी सी देर खुद को समझने में क्या हुई
ताउम्र अपने होने का होता रहा गुमाँ
 
तुम भी कमाल करती हो संजू कभी कभी
उसने कहा कि जान दो और तुम ने दे दी जाँ ?

ग़ज़ल -१०

दिन,कई दिन छिपा रहा जैसे
कोई उसको सता रहा जैसे
 
सुब्ह, सूरज को नींद आने लगी
अब्र चादर उढ़ा रहा जैसे
 
एक आहट सी लग रही मुझको
कोई पीछे से आ रहा जैसे
 
हम मुसाफ़िर हैं एक जंगल में
खौफ़ रस्ता दिखा रहा जैसे
 
उलझा-उलझा सा एक चेहरा ही
सौ फ़साने सुना रहा जैसे
 
काफ़िला मेरा बढ़ गया आगे
मुझको माज़ी बुला रहा जैसे

११-

आप होते हैं कहाँ गाम कहाँ होता है
इश्क़ में यूँ भी सफ़र आम कहाँ होता है
 
इश्क़ में हैं जो उन्हें काम में राहत दी जाय
इश्क़ में होते हुए काम कहाँ होता है
 
शाह हैं आप जिसे चाहें खरीदें लेकिन
हम फ़क़ीरों का कोई दाम कहाँ होता है
 
यूँ करो एक ही झटके में चढ़ा दो सूली
रोज़ की मौत में आराम कहाँ होता है
 
ज़िन्दगी तेरी पढाई का अजब है दस्तूर 
बस रिजल्ट आता है एग्जाम कहाँ होता है
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