Tuesday, May 14, 2024

शैलजा पाठक
जन्म रानीखेत अल्मोड़ा
बचपन बनारस में बीता
हिंदी स्नातकोत्तर

दो कविता संग्रह

कभी देह कभी देहरी

जहां चुप्पी टूटती है

………………………….

कविताएँ

औरतों को बीमारी की कोई माफ़ी नहीं मिलती

जरा जरा सा दुख दर्द इनसे लगा ही रहता है
महीना होने की परेशानी इनकीं अपनी है
कम और ज्यादा को भी झेल लेना इन्हें बताया गया
ये कह कर तसल्ली लेती देती रही
किसी किसी को ज्यादा परेशानी होती है
इसका क्या रोना हर महीने की बात है
 
बच्चा पैदा करने और पालने का काम ईश्वर ने ही इन्हें दिया है
घर सर पर उठाने जैसी कोई बात नहीं
बहुत बल होता है
ये सब कर लेती हैं
 
चूल्हे चौके से सटी इनकीं देह को वहीं के लिए उपयुक्त बताया गया
 
इन्हें कोई शारीरिक तकलीफ हो तो ये खुद को ही गरियाती है
सब परेशान हो जाएंगे
खाना की दिक्कत हो जाएगी
रखा पैसा खर्चा होगा अलग
 
हाथ पैर के लगातार दर्द को ये लम्बे समय तक झेल रही है
ऐसी छोटी बात पर डॉक्टर को क्या ही दिखाना
एक बार डॉक्टर का चक्कर शुरू हुआ तो खत्म ही नहीं होता
 
ये किसी भी तरह से बीमार हों मन से हार जाती हैं
अपराध बोध से ग्रस्त
बिस्तर पर आराम करती ये खुद को ही कोसती हैं
 
बार बार अपने दुख को झँखती हैं
सही तो था सब बस पता नही क्या हो गया
 
इनके हिस्से ईश्वर को बीमारी नहीं बनानी चाहिए
ये अच्छी तीमारदार हैं
कोई बीमार पड़े ये साथ हौसला और रखे गहने बेच इलाज की बात करती हैं
 
बिस्तर पर लगी औरत कुछ बोले और बदले में खीज भरी आवाज आए
 
‘जहां पड़ी हो पड़ी रहो
साला घर को अस्पताल बना दी है मेरे
मायके से ही दस बीमारी लेकर आई थी
सर पड़ गई
मायके ही चली जाती सेवा करवाने
ठीक होती तब आती”
 
ये समझ गई हैं इन्हें बीमार नही होना
पति की नजदीकी खत्म
बच्चो का प्यार
रसोई की व्यवस्था भी
 
बरसों से अपनी तकलीफ को नीमहकीम के इलाज 
दोस्तों के सलाह मशविरा
तमाम पत्तियों के जूस से ये जो इन्होंने अपनी बीमारी को बहलाया
 
बीमारियों से हारी ये अपराधी सी दवाइयों से घिरी एक बिस्तर पर पड़ी हैं
ये कराह भी नहीं पाती के लोग को परेशनी होगी
 
ये तमाम बीमारियों को मन मे तन में छुपाये मुस्कराती सी चाय बना रही है
 
क्या इनसे कोई नहीं जो पूछे
चेहरा कितना मुरझा गया है तुम्हारा
 
तबियत तो ठीक है न?

इन चौकोर डिब्बो में

प्रवासी मजदूरों के पैर छूटे हैं
 
इसी रास्ते पुलिस भेरीफिकेसन की लम्बी लाइन लगती थी
 
चटकती धूप के दिन ये झोला बैग लिए अपनी बारी का इंतजार करते रहे थे
 
इन्हीं डिब्बे की एक औरत पूरे दिन के पेट से थी
कहीं वही तो नही जिसने राह चलते बच्चा जना
 
यहां भीड़ थी
कुछ पैसों का तिकड़म भी
ट्रकों में भरने के भी मोटे पैसे लिए गए
 
इसी एक डिब्बे में एक जवान लड़का रो रहा था
चक्कर से बेहोश हो गया
 
जो गाड़ियों के सहारे गए
जो चल कर गए
वो इन्ही डिब्बो में कभी खड़े थे
 
आज किसी एक डिब्बे में मेरा पैर पड़ गया
लगा किसी पी पी वाला बच्चे का जूता दब गया
 
मेरे दिए मात्र पांच डिब्बे फ्रूटी के इन्ही में से किसी ने लिय्या था
 
मन से तो यही निकला
के जिस शहर से तुम इस तरह गए हो
कोई बाग बगीचा घर दुवार तुम्हारी पीड़ा हर ले
 
मत ही आना 
हम तो नजर भी न मिला पाएंगे
 
दुःखों का कोई अंत नहीं
इन डिब्बो में एक एक मजबूर परिवार की कहानी है
हमारे लिए ये इतिहास के सबसे दर्दनाक पन्नो में दर्ज हो गया
 
मन कर रहा इन डिब्बो की दूरियां मिटा दूँ
सब करीब और एक हो जाएं
सब मिलकर कोई और राह निकालें
धूप कम हो जाये
 
पर कुछ नहीं होगा
गरीबी की मार बड़ी होती
जहाँ से निकले थे वहीं आ रहे
काम मांग रहे गिड़गिड़ा रहे
 
इनका कोई घर आँगन था ही नही कभी
ये इसी डिब्बे में थे
हमेशा
इनकीं आवाज अब भी टकरा रही
 
सरकार की कोशिश डिब्बा रही
जिन्हें मरना था वो मरे
जो जिंदा बचे फिर मरने आ रहे
 
इन्हें करोड़ो का साथ नहीं चाहिए था
इन्हें बस दो टाइम दाल भात चाहिए
 
एक डिब्बे में मौत का सन्नाटा है
पूंजीपतियों के पास इनके हिस्से का आटा हैं
पर इनके हिस्से बबूल का कांटा है
 
एक दुनियाँ में तमाम डिब्बे है
 
इनके दरवाजे खोल देने चईये

मौसम की तरह तुम भी कभी तो लौट आना

जब क्लास में वो पास बैठती तो हाथ पकड़े रहती
हाथ बेंच के नीचे होती
हँसने के लिए गुदगुदी तो कभी 
कालिदास पढ़ते हुए उसके हाथों की पकड़ जरा ज्यादा होती
 
जब दोनों को एक ही सवाल का जबाब आता
हम दोनों को एक ही सवाल का जबाब नही आता 
हम दोनों को साथ बाथरूम जाना होता
हम इतने साथ होते कि अलग देखने वालों की आँखों में झट से सवाल खीच जाए
अरे दूसरी किधर है
 
रिबन की चोटी से रबर बैड वाली चोटी भी तय होती 
उसके पास अदा थी
मेरे पास कुछ गाने 
मैं गाती तो वो रेखा की तरह उमराव जान बन जाती 
टिफिन टाइम में कम टाइम होता
टिफिन नही खुलता
हम अपने लम्बे बाल खोलते 
वो पेन ने नीली बिंदी लगाती मुझे 
किसी भी काल्पनिक प्रेमी का नाम मेरी हथेली में लिखती 
और कहती 
हायययय कितनी सुंदर लगोगी शादी के बाद 
पति को ऐसे ही खुले बालों में दिखना हमेशा 
मुझे उसके कहने से गुदगुदी होती
जबकि उसके ये पति वाले पात्र के आने से मुझे कुछ लहचह टाइप फिलिंग न होती 
 
उसके नम्बर ज्यादा आते
मेरे कम 
उसकी ड्रेस हमेशा मेरी ड्रेस से ज्यादा सफेद रहती 
उसकी हथेली वाले नाम को मैं कभी न देख पाई
न ही मुझे मेरी हथेली वाले प्रेमी याद रहे 
 
साथ छूटा तो रास्ते बदल गए
बेंच से बाहर आ गए वो दोन हाथ जो हमेशा गूँथे रहते 
 
टिफिन में टिफिन खाने लगे हम 
मुहल्ले और शहर बदले 
समय और उमर भी 
 
मेरे बाल लम्बे खुले हैं 
मैंने बहुत बार पति को चाय देते हुए
लम्बे बाल नीली बिंदी लगाई
पर कमबख्त तुम्हे भूल नही पाई 
 
जरूरी नही था न मेरी जान मेरे लम्बे बालों पर मर मिटता कोई
कोई नीली बिंदी को और गाढ़ा कर देता 
खाने को परे कर उमराव जान की अदा पर फ़िदा हो जाता 
उमराव जान हक़ के बिस्तर पर खुले बालों हमेशा ही बिछी है 
 
मेरे हथेली में एक हाथ के खो जाने की कसक है 
पुराने दिनों के बौराये आम के मोजर गिर रहे हैं 
 
चलो शकुंतला की तरह सजे
अपने राजा को खोजे
अगर मिल जाये वो पहचान वाली अंगूठी 
तुम मेरे बालों को सफ़ेद फूलों से सजाना 
कुछ खोना कुछ मिल जाने पर किलकति दो सहेलियों की जिंदगी में 
पेन है स्याही है पतझड़ है 
हथेली के सभी प्रेमी 
पत्तो से झड़ रहे हैं 
 
हम तुम्हे बहुत 
 
और बहुत याद कर रहें हैं 

बड़े बरसों बाद मिली बहनें एक थाली में खाना खाती थीं

एक भात का पहाड़ बनाती
दूसरी दाल की नदी
तीसरी प्याज और अचार 
और चौथी तमाम कहानी और मलंगई की बात
 
दाल न बचा हो तो भात के पहाड़ को नमक और तेल में धरासाई कर दिया जाता
प्याज लक्जरी
 
खाने की थाली को ज्यादा स्वाद बनाने के खातिर एक बहन जानती है बचे परथन में प्याज हल्दी मिर्ची डाल कर कैसे तवे पर ही उतारी जाती है करारी पकौड़ी
 
एक थाली के गिर्द बैठी बहनें
अलग अलग शहर अलग अलग जिला और गाँव हैं
 
तराई में रहने वाली जानती है कि ऐसा दुष्कर जाड़ा पड़ता है कि उभर ही आती है दरारें हाथों में एड़ियों में
 
तपते तापमान में कैसे दिन रात चूल्हे चौके का काम करते पीठ बड़ी बड़ी घमौरियों से भर गया था
 
ये दुखो के साथ कोमल लेप भी रखती एक दूसरे के लिए
जैसे ठीक इस वक़्त ये अपनी बात बताती स्पर्श के सुख से सराबोर हैं
 
ये आँगन के चापा नल पर झुंड में बैठी नहाई
बरसों बाद एक दूसरे के पीठ पर साबुन लगाती गुदगुदी से भरी हैं
आँगन निहाल है
खपरैल पर भाग कर आती गिलहरी इन्हें देखती फिर भाग जाती
ये पानी के रंग रँगी जा रही है
चुहल करती पानी उछालती
 
ये रात को पहरे पर रख छत पर दरी बिछाती
एक मे एक गुत्थम गूथ हैं
चाँदनी रात में एक दूसरे के कॉपी में लिख रही नया गीत
राग बता रही
कह रही ये लाइन तीन बार 3
 
जीवन दुहराती बहनें चित्त लेटी हैं
न जाने किस मोह से कोई हरा पत्ता उस छत पर डोलता सा इनकीं गोद मे आ गिरता है
जैसे इनकीं बातों में अपनी भागीदारी जताता
ये पत्ते का मुख चूम उसे सहलाती हैं
 
जैसे छोटी बहन का
वो नहीं आ पाई इस बार भी हर बार की तरह
 
हर बार की तरह भात के किसी कौन में कोई कंकर सा आ जाता है
नमक और मिर्च ज्यादा लगता है
 
ये देर तक मुँह धोने लगती हैं
देर तक आँगन छत की छातियाँ करकने लगती हैं
 
बड़ी देर से मिली बहनें बड़ी जल्दी चली जाती हैं 

अम्मा सुख दुख के साथ जोड़ी वाली बहनों की बात करती

नैहर पूछे न पूछे बहनें हाल लेती देती रहेंगी
 
बहनें बाकायदा निष्कासित की गई और उनकी जगह घर में जरा खुली जगह उभरी
घर में भी यही बातें रहीं के दोनो चली ही जाएंगी
कमरा बक्सा अलमारी सब खाली कर के
भाइयों ने जाने तक सब्र रखा
फिर हर अलमारी बैठक चौकी बिस्तर को समेट नया सेटअप बना लिया
 
जोड़ी में बड़ी हुई बहनें उदासी बांट लेती हैं
इनकीं बैग में हमेशा एक्स्ट्रा रुमाल रहता है
दो चार बीमारी की दवाई की सलाह ये लेती देती रहती हैं
यही आपस मे समझती समझाती है
के कोई ध्यान दे न दे विटामिन कैल्शियम जरूर लेती रहना
 
अम्मा के बक्से में धरी साड़ियां इन्हें मुंहजबानी याद है
इन्हें सब याद है
इनके पास गोया याद ही बची है
बस ये किसी को कम याद आती हैं
 
ये मिलती है तो देर शाम वाली चाय लिए छत के कोने में गुंथी मिलती है
वहीं घर से हमेशा को विदा हुए बड़े पापा कोई बेहद फेवरेट चाची की प्रार्थना सभा होती है
वही रखती है मौन
वहीं एकदूसरे को दिलासा देती कहती हैं
अब खोने का समय आ गया है मेरी बहन
मन को कड़ा रखो
 
अम्मा के बाद के किस्से इन्हें ही याद है
यही कह उठती है
अरे तुम्हें याद नहीं अम्मा कहती थी न ….
 
कहने और रहने वाली अम्मा की रिक्त जगह पर ये बैठी हैं एकदम अम्मा की तरह
भाई की बात सुन रही
छोटी बड़ी उनकी समस्या को राय बात से सुलझा रही
 
अपने सुख दुख की गठरी ये बंधा ही रखने लगी हैं
ये साधने लगी हैं उदासी
ये नियत भाग्य और ईश्वर के हाथ में छोड़ रखी हैं अपनी जिंदगी 
 
इनकीं जुबान पर धनिया खटाई की चटनी की तरह उतरती है छूटे आँगन की याद
 
ये छलकती हैं 
मुस्कराती हैं
नाक मुँह पोंछती हैं
और हँस के कह देती हैं
 
हरी मिर्च बहुत खाते हो तुम लोग
हमसे अब तीखा खट्टा बर्दास्त नहीं होता..

दूर कोई तारा टूटता है

मैं दुआ में आंखें बंद कर कहती हूँ
बची रहे प्रेमियों में प्रेम की ललक
 
कहीं हरसिंगार झरता देखूं तो चाहती हूं
कोई प्रेमी झुक कर अपने सबसे कोमल स्पर्श से एक एक कर चुन लें इन्हें
 
कहीं शांत झील देखते मन बेचैन सा चाहता है
किसी पागल प्रेमी के आवाज में पुकार सुनूं मेरे नाम का
 
कहीं देखती हूँ इंद्रधनुष तो बस उस भरोसे के कंधे पर देर तक टिकी रह निहारना चाहती हूं उन सात रंगों को
 
कोई जलती आग देखती हूँ तो जी करता है बुझा दूँ ये आग इसी में जलाई जाती हैं प्रेम वाली चिट्ठियां
 
बड़ी बिंदी चिपके आईने पर माथा किसी आभा से भर आशीष देता है कि सौभाग्य बना रहे
 
मन रहे यू ही खाली
तैरते डूबते रहें ख्याल
एक दिन जिंदगी किसी कागज के नाँव सी
लग जायेगी किसी किनारे
 
किनारे पर ही मर जाएंगी नदी सी भरी प्रेमिकाएँ……..

………………………….

लेख

कमाल की औरतें 
—————
राजा राम भादू
 
 
 
जब से मैं ने कविताएँ पढना ( बल्कि सुनना भी, क्योंकि उन दिनों कविताएँ सुनाई भी जाती थीं।) शुरू किया और उन्हें समझने की किंचित समझ बनी, तो पाया कि अधिकांश कविताएँ खराब होती थीं, यहाँ तक कि इनमें अनेक तो कविताएँ होती ही नहीं थीं। दुर्भाग्य से इस परिघटना में अभी तक कोई बुनियादी फर्क नहीं आया है सिवाय मात्रात्मक विस्तार के, जिसमें समय के साथ क्रमिक वृद्धि होती गयी है। मैं खराब कविताओं अथवा उन्हें जो कविताएँ हैं ही नहीं, उन्हें कोसने नहीं जा रहा हूं, वरन् अब तो मैं यह जान गया हूं कि यह फसल तो सदैव लहलहाती रहने वाली है। कोई कह सकता है कि साहित्य की अन्यान्य विधाओं के बारे में भी यही सच है तो मुझे उस पर भी ज्यादा आपत्ति नहीं होगी। बहरहाल, आरंभ में मुझे खराब कविताएँ पढकर बड़ी कोफ्त होती थी। कई बार तो कविता- मात्र से वितृष्णा हो जाती थी। कई दिनों कविताओं के पास नहीं फटकता था। फिर सहसा कोई अच्छी कविता सामने आ जाती थी और कविता का जादू फिर आकर्षित करने लगता था। धीरे- धीरे मैं ने जान लिया कि खराब कविताएँ अथवा कविता के नाम पर किया गया गडबडझाला हममें जो विराग पैदा करता है, आघात देता है, अच्छी कविता हमें पुनर्नवा ही नहीं करती, कविता के प्रति हमारे भरोसे को और बढा देती है। 
 
अच्छे कवियों की तलाश इसलिए मेरे लिए एक अनिवार्यता जैसी हो गयी है क्योंकि मुझे साहित्य की दुनिया सुकून देती है। शैलजा पाठक मुझे एक अच्छे कवि के रूप में मिली थीं। उनकी तीन बहनों पर लिखी कविता अभी भी मेरे जेहन में है जिसमें वे कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आपस में बात कर रही हैं। उसके बाद से उनकी कविताएँ उनकी फेसबुक वाल पर पढी हैं लेकिन वहाँ वैसे नहीं पढा जाता, जैसे हम पढते रहे हैं। पिछले दिनों मैं बोधि  प्रकाशन गया तो मैं ने मायामृग से शैलजा के संकलनों बावत पूछा। उनके पास दो कविता संकलन थे, मैं ने कहा कि अभी कोई एक दे दो। उन्होंने मुझे- जहां चुप्पी टूटती है- दे दिया, जिस पर मैं आगे बात करने वाला हूं। 
 
गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक के एक प्रसिद्ध लेख का शीर्षक है- कैन सबाल्टर्न स्पीक ? यानी क्या कोई निम्नवर्गीय स्त्री बोल सकती है। एक महिला अध्येता ने बंगाल की सतियों पर अनुसंधान किया, उनमें एक ऐसी स्त्री को भी सती कर दिया गया था जो गर्भवती थी। जबकि गर्भवती स्त्री को सती होने से छुट का प्रावधान था। गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक इसी सती के इर्द गिर्द अपना वृत्तांत रचते हुए कहती हैं कि वह स्त्री तो बोल नहीं सकी और न अब बोलेगी, हमें ही उसकी ओर से बोलना पड़ेगा। सबाल्टर्न चिंतन में इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि जो लोग मौन की संस्कृति में गुजर गये अथवा अभी भी उसी में जी रहे हैं, उनकी ओर से औरों को बोलना होगा, लेकिन उससे पहले उन्हें बोलने की अहर्ता हासिल करनी होगी। वंचितों से उनके गहरे सरोकार और उनसे भावात्मक अनुरक्ति इसकी बुनियादी आधार हैं, बेहतर अभिव्यक्ति क्षमता तो है ही। 
 
इस कविता संकलन में शैलजा पाठक ने मध्य और निम्न वर्गीय स्त्रियों की परिस्थितियों और मनोजगत को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। इसके लिए वे तो एक तरह की स्वाभाविक प्रतिनिधि है जिसे अंतोनियो ग्राम्शी के शब्दों में आर्गेनिक इंटैक्चुअल कहा जाता है, अर्थात एक ऐसा बौद्धिक जो उस समूह से शरीर के अंगों की भांति जुडाव रखता है। शैलजा स्वयं उन स्त्रियों के विराट समूह की एक सदस्य हैं जिनके लिए वे बोल रही हैं। संकलन की संक्षिप्त भूमिका में वे बड़ी विनम्रता से कहती हैं : … उनकी चुक गयी जिंदगी का कोई कतरा मैं वापस नहीं कर सकती। …और यह कि उनकी चुनौतियों और पीडाओं के बरक्स मदद के लिए बढे उनके हाथ बहुत छोटे हैं। 
 
शैलजा के इस सकलन में साठ से अधिक शीर्षकहीन कविताएँ हैं, लगता है जैसे सभी कविताएँ- जहां चुप्पी टूटती है- श्रृंखला की कडियां है। हर समय की कविता का एक प्रचलित मुहावरा और भंगिमा होती है। स्त्री- कविता में कई लोग काफी कोलाहल लक्षित करते हैं। यह कोलाहल स्वाभाविक और उचित है क्योंकि पहली बार उसे भाषा मिली है। किन्तु एक संजीदा कवि चालू मुहावरे के साथ नहीं बहता, वह अपनी निजी भाषा, शैली और मुहावरा अर्जित करता है। स्त्री कविता की रूढ छवि से इंकार नहीं किया जा सकता जिसमें प्रायः एक बनावटी आक्रामकता और कुछ खास शब्दावली पायी जाती है। शैलजा की कविताओं पर लिखते हुए मायामृग ठीक कहते हैं कि विमर्श भी सृजन को अपने सांचे में ढालते हैं। जैसे भारतीय स्त्रीवाद से अधिसंख्य स्त्रियाँ बाहर हैं, ठीक उसी तरह स्त्री- कविता के उच्च स्वर के बावजूद बहुसंख्य स्त्रियों का कथानक इसके दायरे से बाहर है। शैलजा की चिंता के केन्द्र में यही स्त्रियां हैं जो उनके अनुभव और स्मृतियों में समाहित हैं। 
 
इतिहास का सबसे बंजर समय है 
और तुम सबसे जंगली जानवर…।
हमारे पास पुरुष की नृशंषताओं के लिए जानवरों से तुलना के सिवाय कोई विकल्प नहीं, अन्यथा जानवर भी वैसे नहीं होते। एक बीमार स्त्री पर संकलन में दो कविताएँ हैं। बीमारी में स्त्री और उपेक्षित व अकेली हो जाती है तथा उसका घर ठहर ही नहीं जाता बल्कि बिखरने लगता है। लडकियों के साथ बचपन से ही रंग और कथित सुंदरता को लेकर भेद लागू हो जाते हैं।
एक लडकी थी ललिता शर्मा
उसके काले रंग ने बचपन से तैयारी कर ली थी
उसके हिस्से दुनिया की सारी अलाव- बलाय ही आएंगी
ऐसे विभेदों के बावज़ूद वे लडकियों को अपने पंखों की अनदेखी न करने की सलाह देती हैं। इन कविताओं में स्त्री के चयन के अधिकार की वंचना के प्रसंग बार- बार आते हैं।
ये अंधेरे कुएं में डोरियों- सी उतरीं
प्यास बुझाई और बुझ गईं
एक लडकी के जेंडर्ड अनुकूलन की प्रक्रियाओं को कविताओं में संवेदनशील तरीके से वर्णित किया गया है। स्त्री के साथ एक अनिवार्य विस्थापन जुड़ा है जो अक्सर उसके व्यक्तित्व को भी विघटित कर देता है- दोनों घर की जमीन हमारी नहीं। मां की स्मृतियों के बिम्ब असल में पिछली पीढी की स्त्री के जीवन का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। इन कविताओं में आप चुप रोती औरतों के विलाप के स्वर को अनवरत सुनते हैं, जो-
बक्से के अंधेरे में मुंडी गाढ के रोती रहती हैं, और जिनकी-
इच्छाएं कुतरी जाती हैं। 
 
वे कौन- से कारक हैं जो एक बालिका को अपने घर- परिवार- समुदाय के बारे में अतिशय समझदार बना देते हैं, लडकों के आक्रामक गैंग में कौन- सी अहमन्यता काम करती है, इसके दुर्लभ ब्यौरे शैलजा सूक्ष्मता से प्रस्तुत करती हैं।
पेड की डालियों पर अज्ञात रस्सी पर झूली हमारी सहेली
सामने खडी हमसे मदद मांग रही है।… और-
नैहर के आंगन में विलापती चाची
खूंटे से बंधी बछिया की आंख से बह रही हैं।
इन कविताओं में स्त्री- विद्वेष की जटिलता और विपन्न बालिकाओं के साथ दूसरी बालिकाओं द्वारा बुलिइंग और स्कूल शिक्षकों व प्रबंधन द्वारा उनकी घोर उपेक्षा के मर्मांतक प्रसंग हैं। चाइल्ड एब्यूज व रिश्तेदारों की कुचेष्टाएं व पीछे छूटी छोटी बहन को लेकर आशंकाएं हैं। प्रेम के भग्न स्वप्न व बचपन का परिवेश है। ऐसे वृत्तान्त इन कविताओं में बिखरे हुए हैं। लडकियों को पढाने के लिए भी सब्जेक्ट तय हैं। शैलजा को समाजशास्त्र व गृह- विज्ञान के साथ हिन्दी साहित्य दिला दिया गया। बस, साहित्य ने ही सब गडबड कर दी और उसे अभिव्यक्ति की भाषा मिल गयी-
मेरे घरवाले नहीं जानते थे
लडकी कविता लिखेगी एक दिन…
एक दिन जरूर आयेगा
जब कुछ पढकर शर्मिंदा हो जाओगे तुम…
तो शैलजा का यही पर्सनल आज इन कविताओं के जरिए पॉलिटिकल है- ये सफेद पड गयी औरतों की यशगाथा हैं!

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किताबें

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